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आशा - बेचैनी का झूठा इलाज || आचार्य प्रशांत, अष्टावक्र पर (2014)
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
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अभ्यंतर में जिसकी समस्त आशाएं मलिन हो गयी हैं और जो निश्चय पूर्वक जानता है कि कुछ भी नहीं है,

ऐसा ममता रहित, अहंकार शून्य पुरुष कर्म करता हुआ भी उसमें लिप्त नहीं होता।

– अष्टावक्र गीता, अध्याय १७, श्लोक १९

वक्ता: तीन बातें हैं जिन पर अष्टावक्र का जोर है: पहला आशाएं मलिन हो जाना, दूसरा ममता रहित हो जाना, तीसरा अहंकार शून्य हो जाना और अष्टावक्र कह रहे हैं ऐसा पुरुष कर्म करता हुआ भी उसमें लिप्त नहीं होता।

कर्म में लिप्त होने को तीन तरफ़ से देख रहे हैं अष्टावक्र, जैसे एक ही चीज़ को तीन अलग-अलग जगहों से देखा जाए और फिर उसके बारे में कुछ कहा जाए। पहली बात आशाएं: आशाएं जिसको कह रहे हैं अष्टावक्र, ये आशाएं बहुत बड़ा कारण हैं कर्म में लिप्तता का। ये हम देख लेंगे कि अष्टावक्र कर्म में लिप्तता की बात कर रहे हैं, कर्म की बात नहीं कर रहे हैं। कर्म तो प्रकृति जन्य है वो तो होता ही रहता है, कर्म में लिप्तता प्रकृति जन्य नहीं है।

अष्टावक्र गीता ही है जो एक अन्य स्थान पर कहती है कि ‘आशा ही परमं दुखम’; आशा ही परम दुःख है। आशा है क्या? आशा का अर्थ क्या है?

श्रोता: इच्छाएं हमारी।

श्रोता: उम्मीदें, आशा।

वक्ता: पर क्या?

श्रोता: मुझे कुछ चाहिए।

वक्ता:

आशा का अर्थ है: समय को इतना महत्वपूर्ण जान लेना कि उससे अधिक महत्व का और कुछ है ही नहीं।

आशा जब भी होगी, वहाँ पर परम नास्तिकता होगी। नास्तिकता का मतलब ही यही है कि पत्तियों में, डालों में, फलों में कुछ ऐसा मौजूद है, जो जड़ में मौजूद नहीं है। नास्तिकता का अर्थ ही यही है कि “दूसरों से, समय से, दुनिया से मुझे कुछ ऐसा मिल सकता है जो इन सब के स्रोत से नहीं मिल सकता। समय मुझे कुछ दे देगा, दूसरे मुझे कुछ दे देंगे।”

एक प्रकार की बेवकूफ़ी है क्योंकि जिससे सब कुछ आया है, हम कह रहे हैं, ‘’वो असमर्थ है वो दे पाने में जो उसकी रचना दे देगी। स्रोत नहीं दे पाएगा, समय दे देगा। स्रोत नहीं दे पाएगा संसार दे देगा।” ये है आशा का, अपेक्षा का मूल वक्तव्य “स्रोत से नहीं मिलेगा, संसार से मिलेगा; स्रोत से नहीं मिलेगा, समय से मिलेगा।” इसी को नास्तिकता कह रहा हूँ।

समझ रहे हैं?

चाहने में क्या हरजा हो सकता है? कई स्थितियाँ हो सकती हैं, जिसमें मन में ये भाव उठे कि चाहिए, पर जो चाह रहा है अगर उसकी पाने की दिशा ही उल्टी-पुल्टी है, तो इससे इतना ज़रूर होगा कि उसकी चाहत कभी पूरी होगी नहीं। आशा अपने आप में बड़ी उल्टी चीज़ हुई, आशा जन्मती ही ये कह के है कि “मुझे पूरा होना है, मैं मिल जाऊं” पर आशा का होना ही इस बात की गारन्टी है कि जो चाहिए वो मिलेगा नहीं क्योंकि जिधर को वो मिल सकता है आपने बिल्कुल उससे विपरीत दिशा में मुँह कर लिया है। और इसी विपरीत दिशा में मुँह कर लेने का नाम ही आशा है “स्रोत से नहीं मिला है, समय से मिलेगा।’’

आंतरिक बेचैनी, खालीपन, ठीक है कि इसको भरना है, ठीक है कि वो इच्छा है, लेकिन उसको भरने की दिशा जब मूर्खतापूर्ण हो जाती है, तो उसका नाम आशा हो जाता है। अष्टावक्र कह रहे हैं “जहाँ आशा है, वहाँ कर्म में लिप्तता होगी ही होगी और घोर कर्म कराएगी आशा बस यही कह कर के कि, दौड़ते रहो, जो चाहते हो वो मिल जाएगा, समय तुम्हें दे देगा।” आशा ने समय को इलाज़ की तरह मन के सामने रखा, अब मन उसके पीछे जा रहा है। समय है असीमित, समय है अंतहीन तो आशा भी फिर होती है असीमित और अंतहीन।

जब तक समय है, तब तक आशा रहेगी ही रहेगी। तो जब तक फिर समय है, तब तक कर्म में लिप्तता भी रहेगी ही रहेगी। कभी कोई ऐसा बिंदु आएगा ही नहीं, जहाँ पर आप कहें कि अब उम्मीद करने के लिए कुछ है नहीं, हमेशा उम्मीद करने के लिए कुछ रहेगा क्योंकि समय हमेशा शेष रहेगा। “अभी और समय है न! जब और समय है तो कुछ बदल सकता है, मुझे कुछ मिल सकता है, बदलाव का नाम ही तो समय है।’’ समय हमेशा बचा रहेगा, आशा हमेशा बची रहेगी और कर्म में लिप्तता इस कारण लगातार बनी ही रहेगी, चक्र चलता रहेगा।

तो जो बात कही जाती है ‘उम्मीद पर दुनिया कायम है’ वो बात बिल्कुल ठीक है पर बड़े विद्रुप ढंग से ठीक है। समय का पहिया चल रहा है, बार-बार आकर्षित कर रहा है “मैं कुछ दे दूंगा, मैं कुछ दे दूंगा, मैं कुछ दे दूंगा, मुझसे कुछ पा लोगे, भविष्य सुन्दर है, जो तुम्हें चाहिए वो तुम्हें मुझसे मिलेगा” और इसी लालच में लगातार लगातार मन जीए जाता है।

मूल में जब हम देख रहे हैं, तो पा रहे हैं कि आशा, समय से अपेक्षा का नाम है। जो भी व्यक्ति समय में जीएगा उसे आशा में भी जीना पड़ेगा। आशा से मुक्ति यानी कि एक ही स्थिति में संभव है कि व्यक्ति समय में जीना ही छोड़ दे, और वो घटना बस ध्यान में घटती है। वो घटना बड़ी निर्विचार शान्ति में ही घटती है जब समय आपके लिए बंद ही हो जाता है, जब भीतर की घड़ी की टिक-टिक थम जाती है। जब तक भीतर घड़ी चल रही है, तब तक मन समय में ही जी रहा है और जो मन समय में जी रहा है, वो आशा करेगा।

आशा से मुक्ति तो स्रोत में डूब कर ही है।

जो स्रोत में डूबा नहीं, वो या तो प्रकट रूप से या छगम रूप से, उसे आशा में जीना ही पड़ेगा। समझ रहे हैं? हो सकता है आपको साफ़-साफ़ पता भी न चल रहा हो कि आपने कितनी आशाएं पाल रखी हैं पर अगर मन ऐसा है, जो समय को बहुत महत्व देता है, तो निश्चित बात है कि आशाएं ही आपका केंद्र हैं, ऐसा होगा ही होगा। तो आशा कहती है “समय आपको कुछ विशेष दे देगा।”

मैंने कहा था शुरू में कि अष्टावक्र एक ही चीज़ को तीन अलग-अलग जगहों से देख रहे हैं। जब आप कहते हैं कि “स्रोत नहीं दे सकता, समय देगा” तो आशा जन्मती है। दूसरी ओर जब आप कहते हैं कि “जो मुझे स्रोत नहीं दे सकता, वो कोई दूसरी वस्तु दे देगी, वो मुझे समाज से मिल जाएगा।” तब जन्म होता है मोह का, तब जन्म होता है ममता का।

श्रोता: मोह और ममता अलग-अलग हैं?

वक्ता: मोह सिर्फ़ आकर्षण है और ममता आकर्षण से और आगे चली गई है। ममता कह रही है, “चीज़ ही मेरी है” पर दोनों में ही एक बात कॉमन है, पक्की है कि दोनों कह रहे हैं कि ‘’आपको उस स्रोत के अलावा भी कहीं से शान्ति मिल सकती है।’’ आशा कहती है, “समय दे देगा शान्ति” और ममता कहती है कि “दूसरे व्यक्ति से शान्ति मिल जाएगी।’’ आशा कहती है “समय दे देगा शान्ति” और ममता कहती है कि “दूसरे व्यक्ति से या वस्तु से बेचैनी हट जाएगी।”

जैसे कहा था कि आशा नास्तिकों का काम है, वैसे ममता भी किसी नास्तिक का ही काम होगा। जिसमें श्रद्धा है, जो परम से संसर्ग में है, उसमे ममता हो ही नहीं सकती। आशा देखती है भविष्य की ओर और ममता देखती है, दूसरों की ओर। दोनों में से कोई भी नहीं है, जो अपनी ओर देखता हो, जो परम की ओर देखता हो, जो सत्य की ओर देखता हो। आशा ने और ममता ने दोनों ने ही बड़े सस्ते विकल्प ख़ोज लिए हैं। दोनों ने ही दो बड़े सस्ते झूठ ख़ोज लिए हैं। आशा कर्म कराएगी भविष्य के लिए और ममता कर्म कराएगी दूसरे के लिए और जब तक ममता की वस्तु मौजूद रहेगी तब तक सारे कर्म बस उसके लिए होंगे, और गहरे कर्म में लिप्त होना ही पड़ेगा।

आप देख पा रहे हैं साफ़ साफ़, आशा में और ममता में आपस में क्या सम्बन्ध है?

मैं दोहरा रहा हूँ, दोनों ही तब उठते हैं जब आप सत्य से दूर होते हैं। दोनों ही मन के बहाने हैं अहंकार को बचाए रखने के, दोनों ने ही फ़ाल्स गॉड ढूंढ लिए हैं। आशा का फ़ाल्स गॉड है भविष्य और ममता का फ़ाल्स गॉड है ‘कोई दूसरा।’ आशा और ममता कहने के बाद अष्टावक्र कहते हैं “अहंकार शून्य पुरुष।” आशा, ममता इन दोनों में ही जो वृति है, वो न डूबने की है। दोनों उठते अहंकार से ही हैं। आशा कहती है “मेरा भविष्य”; ममता कहती है “मेरा प्रिय” दोनों उठते वहीं से हैं।

अहंकार क्या है?

अहंकार है छोटे को, क्षुद्र को, महत्वहीन को, बड़े से ज़्यादा महत्व दे देना, सत्य से ज़्यादा महत्व दे देना।

अहंकार झूठ है और बड़ी मूर्खता है। अहंकार का अर्थ है सीमाएं खींच देना कि इतना ही है जो ठीक है उसके आगे जो है, वो ठीक नहीं है। अहंकार ऐसा है जो ख़ुद ही कोई अपने आप को क्षुद्र घोषित कर दे कि “मैं तो हूँ ही छोटा, मैं तो हूँ ही गरीब,” इसी को अहंकार कहते हैं। तो सबसे पहले तो ये भाव कि “मैं छोटा हूँ, मुझ में कुछ कमी है” सबसे पहले तो ये भाव है “मुझमें कुछ कमी है, उस कमी से जनित कोई बेचैनी है” और उस भाव के बाद उस बेचैनी का एक झूठा इलाज़ है।

पहले तो बेचैनी झूठी है और उसके बाद उसके जो इलाज़ किए जा रहे हैं, वो और झूठे हैं। आशा और ममता, इलाज़ ऐसे हैं कि वो बेचैनी को कम तो क्या करेंगें उसे और बढ़ा देंगे! अहंकार कुछ नहीं है, एक झूठी बेचैनी है और आशा एक छगम दवा है, जो उस बेचैनी को दूर करने का दावा करती है। और यही खेल चलता रहता है, इसी में कर्म में लिप्तता होती है “करूँ तो पाऊं, करूँ तो पाऊं।’’ आशा कहती है “करूँ तो मिलेगा” ममता कहती है “करूँ ताकि छूट न जाए” और खेल लगातार आगे को चलता रहता है।

दो तीन इसमें जो मुख्य बातें थी उनको फिर से समझिएगा।

जो स्रोत में नहीं डूबा, वही समय से अपेक्षा रखता है।

और वो बड़ी बेवकूफी का काम है। वो वैसा ही है जैसे, जो आपको परम सम्पदा उपलब्ध ही है, उसको छोड़ कर के आप किसी काल्पनिक दिशा की ओर आस लगाए बैठे हों। दूसरा यह कि

ममता और आशा एक ही वृति के दो नाम हैं, दो आयाम हैं।

जब स्रोत को छोड़ कर समय की ओर देखा जाता है तो होती है आशा, जब स्रोत को छोड़ कर के दूसरों को महत्व ज़्यादा दे दिया जाता है, तो वो होता है ममता। तीसरी बात ये कि आशा हो या ममता उठते दोनों अहंकार से ही हैं, उठते दोनों अहंकार से ही हैं। एक बेचैनी का भाव, “मैं छोटा हूँ।” बेचैनी का भाव जब आशा होती है, तो कहता है कि “कुछ मिल जाएगा” और जब ममता रूप में प्रकट होती है तो कहता है “कुछ छूट न जाए, कुछ छूट न जाए!” दोनों में ही क्षुद्र होना केन्द्रीय है कि, ‘’मैं छोटा हूँ” और दोनों ही कर्म में लिप्त कराएंगे। दोनों में ही जो कर्म होगा वो बड़ा सकाम होगा, कर्म किया ही इसलिए जाएगा क्योंकि उसके फल पर नज़र होगी।

शब्द-योग’ सत्र पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

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