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लेख
ब्रह्म सच है - न देवता न ईश्वर न भगवान
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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आचार्य प्रशांत: देवता ज़रूर आदमी का ही एक परिवर्धित संस्करण है, ब्रह्म नहीं। उपनिषद और भारतीय दर्शन विशेष इसीलिए रहा है क्योंकि उपनिषदों ने विश्व को वो दिया जो कहीं और से नहीं आया। क्या? कुछ ऐसा जो आयामगत रूप से तुमसे भिन्न है, कुछ ऐसा नहीं जो तुम्हारा ही एक हज़ार गुना बड़ा विस्तार है। उसको आत्मा बोल लो, उसको ब्रह्म बोल लो।

तो क्या कहा उपनिषदों ने? उपनिषदों ने कहा कि सच्चाई जो है वो तुमसे आयामगत रूप से अलग है—ये पहली बात। दूसरी बात: वो सच्चाई तुम्हारे भीतर ही है, क्योंकि अह्म हो तुम और साफ़ हो गए तो वही सच्चाई बन जाओगे तुम। ये है विशिष्टता उपनिषदों की। इस विशिष्टता को बहुत ध्यान से समझो। पहली बात: जो सर्वोपरि है, जो सच्चा है, जो प्रथम है वो तुम्हारे जैसा बिल्कुल नहीं है। वो तुमसे आयामगत रूप से अलग है, डाइˈमे᠎̮न्श्नली डिफ़्रन्ट् है। दूसरी बात: वो तुमसे इतनी दूर का है, इतनी दूर का है कि तुमसे डाइमे᠎̮न्श्नली डिफ़्रन्ट् है लेकिन फिर भी बहुत-बहुत निकट है तुम्हारे। तुम्हें बस अपने भ्रम छोड़ने हैं। समझ में आ रही है बात?

अन्यथा तो एक बालकथा बनानी बहुत आसान है। वो बालकथा कैसी होगी? वो बालकथा ऐसी होगी कि आप अपने ईश्वर की कल्पना कर लें बिल्कुल उसी तरीके से जैसे आप गाँव के बड़े ज़मीदार की या राज्य के बड़े राजा की कल्पना करते हैं। क्या? कि वो किसी ऊँचे सिंहासन पर बैठा है, ईश्वर। ये देख रहे हो न ये कल्पना कहा से आ रही है? आप देख रहे हो कि आपका राजा कहा बैठता है? ऊँचे सिंहासन पर, तो आपने कहा ईश्वर तो भाई सब राजाओं से ऊपर है तो वो एकदम ही ऊँचें सिंहासन पर बैठता होगा, तो आपने कह दिया वो आसमान पर बैठता है।

ये बिल्कुल बचकानी बात है न? जैसे बच्चों ने परिकथा लिखी हो। फिर राजा का सब जगह शासन चलता है। राजा जिस पर प्रसन्न हो जाता है उसे माला फेंक देता है और राजा जिसपर कुपित हो जाता है उसका गला कटवा देता है। तो वैसे ही आपने अपनी ईश्वरी कल्पना कर ली कि अगर वो तुमपर मेहरबान हो गया तो तुमको तमाम तरह की नियामतें बक्श देगा, न जाने कैसे-कैसे दिव्य तुमको पुरस्कार मिल जाएंगे, वरदान मिल जाएंगे। और अगर वो तुमपर कुपित हो गया तो तुमपर तमाम आफ़तें आ जानी है। ये वही राजा वाला काम चल रहा है न कि नहीं चल रहा है? ऐसे काम वो राजा और ज़मींदार ही करते थे।

तो आमतौर पर हमने जो कल्पना करी है ईश्वर की वो और कुछ नहीं है। वो यही ज़मींदारी और राजे-रजवाड़ों की ही परम्परा का एक रूप है। उपनिषद जो कह रहे हैं वो चीज़ बिल्कुल अलग है। उपनिषद कह रहे हैं तुम, तुम्हारी कल्पनाएं, तुम्हारे राजा, तुम्हारा सबकुछ जो बड़े-से-बड़ा है, महत्-से-महत् है, तुम्हारा सबकुछ जो छोटे-से-छोटा है, आण्विक-से-आण्विक है, उन सबसे अलग है सच्चाई। तुम और वो जो तुम्हारी दृष्टि में बड़े-से-बड़ा है वो सब एक ही तल पर हैं। नहीं समझे? एक तरीका ये है कहने का कि इस तल पर (सामने के टेबल का उदाहरण बताते हुए) मैं यहाँ (एक सिरे) पर हूँ और इधर को (टेबल के एक छोर से दूसरे छोर) प्रगति होती है। ठीक है? जैसा हम मानते है कि हम इस तल पर हैं, उधर (एक छोर) को हम कह देते है कि वो उन्नति की दिशा है, इधर (दूसरे छोर) को कह देते हैं अवनति की दिशा है। तो हम कह देते हैं इधर को (टेबल के एक ओर से दूसरी ओर) प्रगति होती है। यहाँ पर ये (रिकार्डर) बैठा हुआ है, ये कौन है? मोटा है, देखो ये मोटा है। तो ये कौन होगा? ये राजा है। और ये (पेन) ऐसा ही है सिकड़ा सा, ये कौन है?

प्रश्नकर्ता: प्रजा।

आचार्य: ये प्रजा है। तो हमने कह दिया जी ये (पेन) प्रजा है, ये (रिकार्डर) राजा है। और ये (मोबाइल) देखो, ये कैसा है?

प्र: और बड़ा।

आचार्य: तो ये कौन हो गया फिर? ये ईश्वर हो गया।

ये ईश्वर की या गॉड की प्रचलित कल्पना रही है कि हम पीछे, राजा आगे, और राजा से आगे यहाँ कहीं देवी-देवता और उनसे भी आगे? ईश्वर। ठीक है?

उपनिषद जो बोल रहे हैं इसीलिए वो बात लोगों के गले उतरती नहीं। वहाँ बात दूसरी कही जा रही है। वहाँ क्या बात कही जा रही है? वहाँ कहा जा रहा है कि, “अरे बच्चे! ये सबकुछ जो यहाँ पर हो रहा है, ये सब प्रकृति का तल है। तुम, तुम्हारे राजे, तुम्हारे देवी-देवता, तुम्हारा ऊँचे-से-ऊँचा, तुम्हारा नीचे-से-नीचा, ये सब क्या हैं? सब यहीं हैं, सब प्रकृति के अंदर हैं। और सत्य क्या है? वो प्रकृति से परे है, वो प्रकृति का स्रोत है, वो प्रकृति का पितामहः है।” बात समझ में आ रही है?

इसीलिए ब्रह्म गॉड नहीं है। ब्रह्म के लिए दुनिया के किसी और भाषा में कोई शब्द ही नहीं है। ब्रह्म के समानांतर किसी दर्शन ने कभी कुछ पाया ही नहीं। ब्रह्म के लिए भी, आत्मा के लिए भी। इसीलिए तो मुझे बहुत निराशा होती है, बल्कि क्रोध भी उठता है जब लोग कहने लग जाते हैं कि “आत्मा तो रूह होती है न?” तुम पागल हो गए हो? तुमने आत्मा को रूह बना दिया। यहाँ ऋषियों ने कितनी कोशिश से क्या बात समझायी और तुमने आत्मा को रूह बना डाला! आत्मा यहाँ है (टेबल के तल से ऊपर) और तुम्हारी रूह और जो भी तुमने तमाशे कर रखे हैं, वो सब कहाँ हैं? वो सब यहाँ हैं (टेबल के तल पर)।

आत्मा का ही दूसरा नाम ब्रह्म है। उन्ही का नाम सत्य है, वही परम, वही मुक्ति, वो एक है। वो ऊपर है और ऊपर भी ऐसे नहीं कि यहाँ (जमीन से ऊपर) कहीं है, बस बियॉन्ड , ट्रांसिडेंटल (सामान्य मानव अनुभव, ज्ञान और समझ से बाहर)। समझ में आ रही है बात? तो गॉड नहीं है ब्रह्म। गॉड का अधिक-से-अधिक अनुवाद हो सकता है ईश्वर, और ईश्वर को तो हम जानते ही हैं कि वेदांत ने कहा है कि ये माया है। तो जिसको गॉड कहा जाता है आमतौर पर वो माया के अतिरिक्त कुछ नहीं है।

जीवन का उद्देश्य ईश्वर तक पहुँचना नहीं है, जीवन का उद्देश्य ब्रह्मलीन हो जाना है। तुमने कभी ईश्वरलीन नहीं सुना होगा। ईश्वर को तो कहते थे ईश्वरप्राप्ति लेकिन ब्रह्मप्राप्ति नहीं सुना होगा। जैसे ईश्वरलीन नहीं सुना वैसे ब्रह्मप्राप्ति नहीं सुना होगा। ब्रह्म में लीन होते हैं क्योंकि यहाँ (प्रकृति) से ऊपर उठ गए तो तुम वो रहे ही नहीं जो तुम यहाँ थे। अब तुम्हारा लय हो गया, लय माने? मिट गए। समझ में आ रही है बात? तो ब्रह्म में लीन होते हैं। ब्रह्म में लीन होने का मतलब है अहंकार मिट गया। और ईश्वर की प्राप्ति होती है उसमें क्या होता है? अह्म कहने लगे गया मुझे ईश्वर भी मिल गया। वो बहुत अलग बात है और बहुत छोटी बात है।

फिर बोल रहा हूँ बिल्कुल बच्चों वाली बात है कि किस ईश्वर की आराधना करते हो? कौनसा गॉड कैसा है? और गॉड क्या कह रहा है? और गॉड ने फिर ऐसा करा और फिर गॉड ने कहा। ब्रह्म कभी कुछ कहता है? ब्रह्म कभी कुछ करता है? लेकिन जिसको तुम गॉड कहते हो वो करता भी है, कहता भी है और सब चलता है उसका। ब्रह्म से कभी प्रार्थना करी है? ब्रह्म का कोई मंदिर होता है? गॉड का होता है। सब देवी-देवताओं के लिए मंदिर होते हैं। ब्रह्म का कोई मंदिर नहीं हो सकता और ब्रह्म को कोई प्रार्थना नहीं हो सकती। सभी देवी-देवताओं की मूर्तियाँ होती हैं, ब्रह्म की कोई मूर्ति भी नहीं हो सकती। गॉड रचनाकार होता है, वो दुनिया बनाता है, ब्रह्म ने दुनिया नहीं बनायी। वास्तव में अगर तुम पूछोगे कि दुनिया किसने बनायी तो दुनिया अह्म ने बनायी, ब्रह्म ने नहीं बनायी। अभी आज हम बात कर रहे थे न कि दुनिया तो भाई जिसको दिखे उसी के लिए है। तुम ब्रह्म से पूछोगे की दुनिया किसने बनायी, ब्रह्म कह रहा है “आय! मेरे लिए तो कोई दुनिया ही नहीं है। मेरे लिए तो सिर्फ़ मैं ही मैं हूँ, अखण्ड, अद्वैत।” ब्रह्म से पूछोगे दुनिया कहाँ से आयी? तो ब्रह्म क्या बोले “है कहाँ दुनिया? हम ही हम हैं। तो दुनिया उसी के लिए होगी बाबा जिसको दिख रही है।” किसको दिख रही है दुनिया?

प्र: हमको।

आचार्य: तो तुम्हीं ने बनायी दुनिया। बोले “दुनिया कहाँ से आयी?” “तन्ने ही तो बनायी”

कोई ईश्वर नहीं चाहिए दुनिया बनाने के लिए, तुम्हारा अहंकार काफी है, वही बना डालता है। आ रही है बात समझ में? तो ब्रह्म गॉड नहीं है। ब्रह्म को सूचित करने वाला कोई शब्द दुनिया के किसी भाषा में नहीं है। ब्रह्म को और आत्मा को भी। आत्मा के लिए तो फिर भी अंग्रेजी ने सेल्फ निकाल लिया। और सेल्फ ऐसे निकाल लिया कि अहंकार को सेल्फ नाम से सम्बोधित करते थे तो आत्मा के लिए सेल्फ में बड़ा एस लगा देते हैं। तो चलो किसी तरह से जुगाड़ करके काम चल गया कि आत्मा के लिए बना दिया: सेल्फ विद़् अ कैपिटल एस पर ब्रह्म के लिए तो कोई शब्द ही नहीं है, कहाँ से लाओगे। आ रही है बात समझ में?

उपनिषदों का उद्देश्य आपको किसी देवी-देवता तक या ईश्वर तक ले जाना नहीं है। उपनिषदों का उद्देश्य है: ब्रह्मविद्या, आप ब्रह्मविद हो जाएं और जो ब्रह्मविद हो गया वो ब्रह्म ही हो जाता है। समझ रहे हो?

“जो समस्त देवों का अधिपति है”: वो जो ऊपर बैठा है वो नीचे के सब देवताओं का अधिपति है ठीक वैसे जैसे तुम्हारा अधिपति है, क्योंकि वहाँ ऊपर से देखो तो ये नीचे के जितने देवी-देवता और ईश्वर हैं और जितने राक्षस और असुर हैं और जितने आदमी और जीव-जंतु हैं इनमें कोई अंतर नहीं है क्योंकि ये सब कहाँ हैं? प्रकृति के तल पर। ब्रह्म की दृष्टि से चाहे ईश्वर हो और चाहे असुर हो एक बराबर हैं क्योंकि सब प्रकृति के तल पर हैं। सब आदमी की कल्पना के भीतर के हैं। सब कुछ करते हैं, कुछ नहीं करते हैं। सब आते हैं और सब जाते हैं। इसीलिए तो फिर कबीर साहब ने बोला था न कि ऐसा नहीं है कि सिर्फ़ आदमी ही मरते हैं, सब चाँद-तारे भी मरते हैं और तुम्हारे जितने देवता हैं वो भी मरते हैं। क्या थी पंक्तियाँ ठीक-ठीक?

प्र:

“साधो ये मुर्दों का गाँव!

पीर मरे, पैगम्बर मरि हैं, मरि हैं जिंदा जोगी,

राजा मरि हैं, परजा मरि हैं, मरि हैं बैद और रोगी।

साधो ये मुर्दों का गाँव!

चंदा मरि हैं, सूरज मरि हैं, मरि हैं धरणी आकासा,

चौदह भुवन के चौधरी मरि हैं इंहूँ की का आसा।

साधो ये मुर्दों का गाँव!

नौहूँ मरि हैं, दसहूँ मरि हैं, मरि हैं सहज अठ्ठासी,

तैंतीस कोटि देवता मरि हैं, बड़ी काल की बाज़ी।”

आचार्य: “तैंतीस कोटि देवता मरिहैं” ये बात समझ में आ रही है? ये देवता भी मरेंगे। काहे को मरेंगे? ये सब प्रकृति के तल पर ही हैं, तुम्हारे जैसे ही हैं। ये सब नाशवान हैं। अविनाशी कौन है? मात्र वो जो काल के परे है क्योंकि काल के अंदर जो है काल उसको खाएगा। समझ में आ रही है बात? तो इसीलिए देवी-देवताओं का पूजन या ईश्वर का पूजन, ये कामचलाऊ चीजें हैं। वेदांत में इनका कोई विशेष महत्व नहीं, या इनका महत्व है भी तो बस एक माध्यम के तौर पर कि एक ज़रिया हैं, एक तरीका, एक विधि हैं कि इनके निकट आओगे तो उसके माध्यम से ऊपर जाने की सहूलियत हो सकती है, प्रेरणा मिल सकती है लेकिन ये अंत नही है अपने-आपमें। कोई भी देवता अपने-आपमें साधना का अंत नहीं हैं। साधना का अंत क्या है? देवता की प्राप्ति नहीं, अहंकार का अंत। साधना का अंत है: अह्म का अंत।

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