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लेख
हिंदी को नहीं अपनी हस्ती को अपमानित कर रहे हो
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
27 मिनट
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हिंदी की क्या औकात? अपमानित भाषा! तो भौतिक कारण समझ में आ रहा है? नल की टोटी ठीक करने की शिक्षा भी अंग्रेजी में हीं मिलेगी। डॉक्टर तो डॉक्टर तुम कंपाउंडर भी अंग्रेजी में ही बन सकते हो और यदि बहुत हठ दिखाओगे तो 'भाषायी-आतंकी' कहलाओगे। "देखो इनको! ये भाषा से ऊपर ही नहीं उठ पा रहे हैं, हिंदी पकड़ कर बैठे हुए हैं; इनके दिमाग पर पुरानी चीज़ों ने कब्ज़ा कर रखा है, पुराने संस्कार, पुरानी भाषाएँ, भाषा से ऊपर उठो।"

अगर दस रुपया भी कमाना है तो हिंदी को छोड़ो, नहीं तो हिंदी बोल कर के फिर तुम एक ही धंधा है जो कर सकते हो कबाड़ी... वो हिंदी में बोलता है, वहाँ हिंदी में भी काम चल जाता है या "चाय गरम चाय" वहाँ अभी हॉट टी, हॉट टी नहीं है, वहाँ अभी बचा हुआ है। हालांकि मुझे लग रहा है कि अगर प्लेन वगैरह में चाय बिकेगी और वहाँ 'चाय गरम' बोल दिया तो कोई न खरीदे। वो जो देवी जी आती है वो बोलती हीं नहीं चाय, "टी ऑर कॉफी?" बोल दो चाय तो वो उनको समझ में ही न आय कि ये कौन सी चीज़ बता दी? चाय। आ रही है बात समझ में? 'आई मीन आर यू गेटिंग इट'?

(सभी श्रोता हँसते हुए)

तरक्की पसंद मुल्क है भाई ये, क्या कर सकते हैं? क्या करोगे ऐसे देश का जो अपने ही ऊपर ये बंधन, ये बाध्यता लगा ले, अपनी ही व्यवस्था ऐसी बना ले कि सरकारी नौकरी पानी हो, प्राइवेट नौकरी पानी हो, अंग्रेजी आनी चाहिए। अब सही-सही बताना उस प्राइवेट नौकरी में अंग्रेजी का काम क्या है बताओ?

मजेदार था! बीच में कॉल-सेंटर का बड़ा ज़ोर चला था, करीब दस साल तक। तो एक मिला यूँ ही रोता हुआ मैंने कहा क्या हुआ? बोलता है, इंटरव्यू में रिजेक्ट हो गया। मैंने कहा पोजीशन क्या थी? बोला, हिंदी टेलीकॉलर की। उसका इंटरव्यू पूरा अंग्रेजी में हुआ था। अंग्रेजी उस बेचारे की ज़रा हल्की, काम था हिंदी में कॉलिंग का और इंटरव्यू हो रहा था उसका अंग्रेजी में। वो तो होगा ही न कोई भी दो अनजान लोग भी मिलते हैं सड़क पर तो बातचीत काहे में कर रहे होते हैं? अंग्रेजी में कर रहे होते हैं। कैसे दिखा दें कि हम गवार हैं? अगर बोल दिया हमने "कहिये क्या मिजाज़ हैं?" या "तबीयत कैसी है आपकी?" तो तुरंत सिद्ध हो जाएगा कि ये गवाँर आदमी, ज़रूर उत्तर प्रदेश की मिट्टी से उठा है, ज़लील!

तो जैसे ही कोई अपरिचित दिखाई देता है, तुरंत झरझर अंग्रेज़ी भाषा हमारे मुँह से बहने लगती है। भले बोलनी न आती हो, लिखनी न आती हो। "हाउ डू डू? आई डू गुड।" ये ठीक है पर "श्रीमान आप कैसे हैं?" ये बोलना बड़े अपमान की बात है और मैं दोष नहीं दे रहा इनको, मैं इनका मज़ाक नहीं उड़ा रहा। मैं उस व्यवस्था का मज़ाक उड़ा रहा हूँ, मैं उस व्यवस्था से पीड़ित हूँ जिस व्यवस्था ने आम हिंदुस्तानी को मजबूर कर दिया अपनी भाषा की ओर पीठ फ़ेरने को और यह व्यवस्था मैं फिर कह रहा हूँ, अंग्रेजों का षड्यंत्र नहीं थी और न ही यह व्यवस्था ऊपर आसमान से उतरी थी, यह हमारे नीति-निर्धारकों का काम था। कुछ आ रही है बात समझ में?

और वो चीज़ हमारे दिमाग में इतनी गहरी उतर गई है, आप दिल्ली, जयपुर, लखनऊ, कानपुर, भोपाल के किसी रेस्ट्रॉ में जाते हैं वहाँ मेनु किस भाषा में होता है? ROTI, TANDOORI ROTI… लंदन से लाएगा क्या बे? यहीं बना रहा है, देसी गेहूँ से और शिव प्रसाद चौरसिया बेल रहा है रोटी और लिख रहा है ROTI

खाने वाला मैं गंगाधर छत्रपति, बेलने वाला शिव प्रसाद चौरसिया और यह माता जी की गली और ROTI और नतीजा होता है, बड़े हास्यास्पद तरीके के मेनु होते हैं।

मैं पूरा एक सत्र ले सकता हूँ, हिंदुस्तान के जो ये मेनु होते हैं, उनकी गुणवत्ता पर।

और मैं एकदम जो बेचारे गरीब तबके के रेस्ट्रॉ, होटल होते हैं उनकी बात नहीं कर रहा। ये जो अच्छे-अच्छे होते हैं, मैंने उनका भी देखा है। ये भौतिक कारण है, हिंदी के पतन का।

अब आओ मानसिक कारण पर। किसी भी जाति की भाषा और जाति से मेरा अर्थ जात-पात से नहीं है। जाति अर्थात लोग, पीपल, एक समुदाय, किसी भी तरीके से ले लो। ये सब अलग-अलग हैं पर इशारा वो एक हीं तरफ़ कर रहे हैं।

एक राष्ट्र, एक नेशन उसको मैं एक जाति कह रहा हूँ। किसी भी जाति की भाषा का संबंध उसके अपने आत्मविश्वास से होता है, उसके भीतर अपने प्रति कितनी ठसक है, वो अपनी ताकत में कितनी निष्ठा रख पा रहा है इससे होता है।

हिंदी और भारतीय अन्य भाषाएँ, जिन वर्गों की भाषाएँ हैं उनकी ख़ासियत कभी भी न तो सामरिक बल रहा है न भौतिक बल, मैटेरियल प्रोस्पेरिटी। उनकी ताकत हमेशा से 'आध्यात्मिक बल' रहा है बात को समझना! हिंदी हो कि मराठी हो कि बंगाली हो कि पंजाबी हो इनको बोलने वाले की ताकत कभी इसमें नहीं रही कि वो दुनिया को फ़तह करने वाले योद्धा थे। भारतीय कभी किसी को फ़तह करने गए ही नहीं और न उनकी ताकत, उनका आत्मविश्वास, उनका स्वाभिमान इसमें रहा कि वो दुनिया के सबसे समृद्ध लोग थे। आप कह लो कि भारत कभी 'सोने की चिड़िया' था। लेकिन भारत की आबादी भी हमेशा बहुत ज्यादा थी, तो प्रति व्यक्ति औसत आय ऐसा नहीं है कि भारत में ही, दुनिया में सबसे ज्यादा हुआ करती थी। जिन दिनों आप कहते हो कि भारत सोने की चिड़िया था, उन दिनों भी भारत का जो आम किसान था वह अधिक से अधिक उन दिनों के हिसाब से एक मध्यमवर्गीय जीवन ही जी रहा था। हाँ, उसके पास खाने को रोटी थी, सामान्य जीवन जीने के लिए जो न्यूनतम सुख सुविधाएँ चाहिए होती हैं वो सब थीं, लेकिन आप उसको समृद्ध नहीं कह सकते। भारत रहा होगा सोने की चिड़िया, भारत का आम किसान सोने-चाँदी में नहीं खेल रहा था। तो आप यह भी नहीं कह सकते कि भारतीयों की ताकत कभी भौतिक बल थी, धन बल थी। न सामरिक बल न धनबल तो फिर भारतीयों की ताकत, भारतीयों की पहचान सदा किससे रही है? आध्यात्मिक बल से। वही जिसको आप सामान्य भाषा में कहते हो कि "भारत विश्व गुरु था।"

भारत की पहचान रहा है धर्म, भारत की पहचान रही है भारतीयों की जीवन के प्रति समझ और गहराई। ज़िंदगी को जितना हिंदुस्तान में जाना करीब से और गहराई से उतना अन्य लोगों ने जानने में रुचि नहीं दिखाई न उतनी साधना करी। भारत में घनघोर साधना करी है। विदेशी भी यहाँ आए तो बोले कि "यहाँ की मिट्टी में अध्यात्म है, यहाँ का आम किसान अनपढ़ भले हीं हो, आध्यात्मिक ज़रूर है, वो बिना पढ़े-लिखे हीं आध्यात्मिक है। कुछ बातें ऐसी हैं जो यहाँ के आम किसान को भी पता हैं और बाहर के पढ़े-लिखे, दार्शनिकों को भी आसानी से समझ नहीं आती। तो भारत की पहचान रही है - धर्म।

मैंने इस दूसरे बिंदु की चर्चा शुरु करी है यह कह कर के "कि भाषा संस्कृति का एक महत्वपूर्ण स्तंभ होता है।" और किसी भी जाति की, वर्ग की, राष्ट्र की, समुदाय की अपनी भाषा में उतनी ही निष्ठा होगी, अपनी भाषा के प्रति वो उतना ही संवेदनशील होगा, अपनी भाषा के प्रति उतना ही आग्रही होगा, जितना उसके भीतर अपनी हस्ती के प्रति आत्मविश्वास होगा।

हम हिंदी के पतन के मानसिक कारणों की चर्चा कर रहे हैं। मैं कह रहा हूँ, एक भारतीय के मन में अपने प्रति जितना आत्मविश्वास होगा उतना ही आत्मविश्वास उसके मन में अपनी भाषा के प्रति होगा। ये संबंध आप समझ पा रहे हैं? और अपने प्रति आत्मविश्वास होने से, अपने प्रति सम्मान होने से क्या अर्थ है? जब भारत की मूल पहचान हीं धर्म रहा है, तो अपने प्रति विश्वास होने का अर्थ है- अपने धर्म में विश्वास होना।

जितना एक भारतीय में धर्म के प्रति विश्वास होगा, उतने हीं विश्वास से वह अपनी भाषा के साथ खड़ा हो पाएगा। आप में से कई लोग मेरी इस बात के खिलाफ़ तर्क करना चाहेंगे उनका स्वागत है। पर तर्क करियेगा! बिना सोचे, बिना समझे, बिना गहराई में उतरे, मेरी बात को खंडित करके यूँ ही अस्वीकार मत कर दीजियेगा, बात को समझियेगा।

हिंदुस्तान की मूल पहचान धर्म रहा है और मूल पहचान के साथ संस्कृति का बड़ा अटूट रिश्ता होता है और संस्कृति का एक महत्वपूर्ण स्तंभ होता है - भाषा। धर्म के प्रति यदि अपमान भाव पैदा होगा तो भाषा नहीं टिकेगी। अगर आप हिंदुस्तानियों में उनके धर्म के प्रति अनादर भर देंगे, हीनभावना भर देंगे, तो उनमें अपनी भाषा, अपनी संस्कृति के प्रति भी अनादर और हीनभावना आएगी, आ आ चुकी है, बहुत गहरी बैठ चुकी है।

अंग्रेजी व्यापार की भाषा है, व्यापारियों की भाषा रही है, साहित्य की भाषा बाद में हुई है पहले व्यापार की थी। और आप भारतीय भाषाओं में जाएँ तो कई भाषाएँ तो ऐसी हैं जैसी पंजाबी जिनमें साहित्य की शुरुआत ही संत कवियों ने करी थी। आप अगर पंजाबी को उठाएँगे या सिंधी को उठाएँगे या ब्रज भाषा को उठाएँगे तो आप पाएँगे कि उनके विकास में तो योगदान ही संतों का रहा है, धर्म का रहा है, संतों ने ही उनमें गीत गाए और वो भाषाएँ आगे बढी। तो भारत में भाषा और धर्म बिल्कुल साथ-साथ चले हैं।

'धर्म' भारत का केंद्र कहाँ है।

आज़ादी के बाद से, बहुत कारणों से, भारतीयों में उनके धर्म के प्रति हीनभावना भर दी गई और जिसके मन में तुम धर्म के प्रति हीनभावना भर दोगे, वो भाषा को भी छोड़ ही देगा। ये मैं कोई बहुत दूर का रिश्ता नहीं बैठा रहा हूँ। ये मैं एक ज़बरदस्ती का संबंध नहीं स्थापित कर रहा हूँ। कृपा करके विचारें और प्रयोग करें, देखें कि ऐसी बात है कि नहीं है। वो सब कुछ जो आपकी 'मूल पहचान' का परिचायक है, आप उसके प्रति अवमानना से भर चुके हैं। आप उसके प्रति हीनभाव से भर चुके हैं। हमें ये बता दिया गया है कि हमारा सबकुछ ही निकृष्ट है, घटिया है, हमें बता दिया गया है कि भारत का अतीत एक लंबी काली अंधेरी रात जैसा है बस, जिसमें रोशनी आई हीं पाश्चात्य सूरज के उदय के बाद है।

अभी मैं दो घंटे पहले ही यहाँ देवेश जी बैठे हैं, आईआईटी खड़गपुर से हैं, उनसे कह रहा था कि हम आठवीं क्लास में थे तब से हम प्रोग्राम लिखते थे 'फिबोनैकी सीरीज़' का और हमें कभी ये बताया ही नहीं गया कि फिबोनैकी सीरीज़ फिबोनैकी की थी ही नहीं कभी। फिबोनैकी सीरीज़ एक भारतीय की थी, ये बात आधिकारिक रूप से भी मानी जा चुकी है लेकिन वाह रे! भारतीय पुस्तक निर्धारकों, वाह रे! भारतीय शिक्षकों भारतीय छात्रों को नहीं बताओगे कि फिबोनैकी सीरीज़ फिबोनैकी की नहीं। भाई इसी मिट्टी के एक गणितज्ञ की है। और ये मैं कोई कयास नहीं निकाल रहा, ये मैं कोई दूर की नहीं फेंक रहा। मेरी बातों को उसी श्रेणी में मत रख दीजियेगा जिसमें कहा जाता है कि- भारत में आज से दो हज़ार साल पहले भी इंटरनेट था। नहीं मैं नहीं कह रहा हूँ कि पुष्पक विमान में जेट इंजन लगा था और आज से दो हज़ार साल पहले यहाँ इंटरनेट चलता था। लेकिन जो बात सही है वह तो कहनी पड़ेगी न? मैं उन सब लोगों से जवाब माँग रहा हूँ, जिन्होंने मेरी गणित की और कंप्यूटर साइंस की किताबें लिखी थीं। जिन्होंने मुझे लगातार कहा फिबोनैकी सीरीज़- फिबोनैकी सीरीज़। क्यों नहीं बता रहे हो तुम मेरे भारतीय भाइयों को, मेरे साथ के छात्रों को कि ये 'फिबोनैकी सीरीज़' वाला काम हिंदुस्तानी का है।

पाइथागोरस थ्योरम-पाइथागोरस थ्योरम बोलते रहते हो, उसके साथ जो भारतीय रिश्ता जुड़ा हुआ है उसको क्यों नहीं बताते भारतीय छात्रों को? भारतीयों को तो यही लगता है की पाइथागोरस माने अंग्रेज क्योंकि PYTHAGORAS है न? भारतीयों की नज़र में ग्रीक वगैरह सब अंग्रेज ही हैं। यूरोपियन है माने अंग्रेज है। वो भूल ही जाते हैं की पाइथागोरस के ज़माने में तो अंग्रेजी तो थी भी नहीं। जो पूछो एरिस्टोटल किस भाषा में लिखता था?

बहुत भाई लोगों को ताज्जुब हो जाता है जब मैं उनसे बोलता हूँ कि ईसा मसीह अंग्रेजी नहीं बोलते थे। वह बोलते हैं "अरे! पर वह तो अंग्रेजों के भगवान जी हैं न? तो अंग्रेजों के भगवान अंग्रेजी नहीं बोलते थे तो क्या बोलते थे?" तो नहीं मेरी जान, ईसा मसीह अंग्रेजी नहीं बोलते थे। उनको बड़ा धक्का लगता है क्योंकि उनकी नज़र में दुनिया में दो ही भाषा है या तो अंग्रेजी या देसी।

वो कहते हैं अंग्रेजी नहीं बोलते थे तो फिर क्या हमारी ही तरह थे बिल्कुल, यह तो इन्होंने बड़ा हमें निराश किया। इनकी तो शक्ल देख कर के गोरे-गोरे हैं, सुनहरे लंबे बाल हैं, हैंडसम 'दिखत बा' और हैंडसम है तो भारतीय हो नहीं सकता। हैंडसम है तो उसे तो 'अर्नाल्ड श्वाजनेगर' होना होगा न?

(सभी श्रोता हँसते हुए)

(तंज करते हुए)

अब तुमसे कोई बोले मोहन गुप्ता हैंडसम है तो कैसा लगेगा? और ब्रैड पिट बोलो तो बिल्कुल हाँ! यह कोई बात है कि मोहन गुप्ता को हैंडसम बता रहे हैं? इतनी कुछ हम में अपने आपको लेकर के समस्या हो गई है।

अभी हद बात सुनिए! कोई उस दिन बोले कि मयंक अग्रवाल शतक पर शतक मार गया दो-तीन। मैंने कहा हाँ। वो बोले कुछ जच नहीं रही बात। मैंने पूछा काहे नहीं जच रही? बोले, मुझे तो तभी नहीं जच रही थी जब से ये इशांत शर्मा, रोहित शर्मा जमने लग गए थे। अब क्या अग्रवाल भी क्रिकेट खेलेंगे? जच ही नहीं रहा ये। अग्रवाल तो वही ठीक लगता है- 'अग्रवाल स्वीट कॉर्नर', हलवाई है, बढ़िया तोंद निकली हुई है और जलेबी छान-छान निकाल रहे हैं। एक तो अग्रवाल और ऊपर से हिमाकत ये कि 'डेलस्टीन' पर छक्का मार दिया? तुम्हारी इतनी हिम्मत?

कुछ आ रही है बात समझ में?

हमें बता दिया गया है कि हम कुछ नहीं है, हमें बता दिया गया है कि हमारे इतिहास में बस एक चीज़ है महत्वपूर्ण और वो ये कि भारत में 'जाति-प्रथा' बहुत चलती थी और भारत ने जितना शोषण करा है लोगों का, उतना किसी ने नहीं करा है। हमें अपने ही प्रति शर्मसार कर दिया गया है।

और यह बहुत ही सोची-समझी साजिश है। हमें नहीं बताया जा रहा है कि विज्ञान में, हमारी गहरी से गहरी उपलब्धियाँ क्या थी? हमसे छुपाया जाता है कि हम गणित में कितने आगे थे। और दुर्भाग्य कुछ ऐसा रहा है हिंदी वालों का, हिंदुस्तानियों का, जब मैं हिंदी वाला कहूँ तो उसको व्यापक करके समझ लिया करो कि पूरे भारत की बात कर रहा हूँ। उससे मेरा आशय यह नहीं है कि पूरा भारत हिंदी ही बोलता है। पर हिंद से मैं हिंदी को जोड़ रहा हूँ। 'हिंद' शब्द भी जानते हो न कहाँ से आया है? सिंधु के पूरब में जितने लोग रहते थे, सबको कह दिया गया हिंदू। जैसे सिंधु है वैसे हिंदू। अरब लोग 'स' का उच्चारण ठीक से नहीं कर पाते थे। अरब थे कि जाने फारसी?

हमसे बिल्कुल छुपा दिया गया कि १७वीं शताब्दी तक भी भारत का जीडीपी, वही जीडीपी जिसके लिए आज हम इतने आकुल रहते हैं कि जीडीपी उठ गया, गिर गया इस बात से भारत की नब्ज़ ऊपर नीचे होनी शुरू हो जाती है। १७वीं शताब्दी तक भी भारत का जीडीपी दुनिया के किसी भी देश से ज़्यादा था। भारत की टक्कर में सिर्फ चीन का जीडीपी था। हम करीब-करीब आधुनिक युग की बात कर रहे हैं। करीब-करीब, वहाँ तक आने तक भी। एक बात बताओ इतना निकम्मा देश था तो इतना जीडीपी कहाँ से आया? अगर हम उतने ही गए-गुजरे गंवार और जाहिल लोग थे, तो बोलो न इतना धन, इतना उत्पाद कहाँ से आ रहा था कहो? हाँ, सामरिक सामर्थ्य नहीं थी। यह ध्यान नहीं दिया था भारत ने कि सेना भी अपनी वित्तीय ताकत के अनुपात में होनी चाहिए। आज अमेरिका को देखो, तो जितना उसका जीडीपी है उसी हिसाब से उसकी सेना भी है, ये उसने संतुलन बना कर रखा है। भारत ने यह संतुलन बनाकर नहीं रखा था और वजह यह थी कि भारत में कोई केंद्रीय सत्ता नहीं थी, बंटा हुआ था। तो सब राजों-रजवाड़ों की अपनी छोटी-छोटी सेनाएँ थी, तो कई दफ़े तो आपस में ही भिड़ रही होती थी।

और अभी मैं बात कर रहा हूँ विज्ञान की, गणित की, वित्त की, उत्पाद की, अर्थव्यवस्था की और उद्योग की, कला की, काव्य की, साहित्य की तो अभी मैंने बात करनी शुरू भी नहीं करी। उन क्षेत्रों में भारत विश्व के सामने कहाँ खड़ा हुआ था इसकी तो अभी मैंने चर्चा करनी शुरू ही नहीं करी। सैन्य ताकत को छोड़कर कि सब कुछ था यहाँ पर और जो वो सब कुछ था वो जंगली, दिम, अनपढ़, जाहिल शोषकों के पास नहीं होता।

हमको तो बताया जा रहा है कि भारत का इतिहास बस एक मूर्खतापूर्ण, क्रूरतापूर्ण, शोषण भर का इतिहास है। ऐसा नहीं हो सकता। ऐसा नहीं था। तमाम साक्ष्य मौजूद है उन साक्ष्यों को छुपाया जाता है, दबाया जाता है, हमारे सामने नहीं लाया जाता है। हमारे सामने बस वो चीज़ें लाई जाती हैं जो हमें अपने ही प्रति और अपमानित कर दे और उन बातों को हमारे सामने बढ़ा-चढ़ा कर पेश कर दिया जाता है और फिर कह रहा हूँ यह काम करने वाले विदेशी नहीं हैं। यह काम करने वाले इसी मुल्क के ज़्यादा पढ़े-लिखे लोग हैं, जो अपने आपको बुद्धिजीवी बोलते हैं।

एक चीज़ थी जो भारत में नहीं हुई। स्टीम-इंजन का आविष्कार और वो भी हम कह नहीं सकते कि नहीं ही होता। यूरोप का सारा औद्योगिकरण उसी इंजन की उर्जा से हुआ और फिर तो कहानी आगे बढ़ती ही गई। पहले कोयला जलाकर भाँप पैदा की जाती थी, जिससे ऊर्जा मिलती थी और मशीनें चलती थीं। फिर कोयले की जगह आ गया तेल और फिर तेल की भी छनाई होने लगी तो क्रूड से डिस्टल होकर रिफाइंड होकर और ज्यादा वो शुद्ध रूपों में उपलब्ध होने लग गया। लेकिन जो कुल शुरुआत थी वो तो इतने से ही थी कि दिख जाए कि जब पानी उबलता है तो भगौने के ऊपर का ढक्कन हिल जाता है। भाँप में ताकत होती है। इसी में पीछे रह गए और पीछे रहने का कारण भी था।

ऊर्जा की ज़्यादा ज़रूरत उन लोगों को पड़ती है, जहाँ लोग कम हो काम ज़्यादा हो। लोग कम हैं और काम ज़्यादा है तो आपको ऊर्जा चाहिए न? क्योंकि अब बाहुबल से काम नहीं चलेगा। बाहुबल के अतिरिक्त ऊर्जा का आपको एक अतिरिक्त स्रोत चाहिए। भारत में लोग इतने थे, कि उर्जा वहीं से आ जाती थी। कोई काम है, बीस लोग लगा दो। तुम उसमें करोगे क्या स्टीम-इंजन का? क्या करना है? गाड़ी खींचनी है? आओ रे! पूरा गांव है।

भाई आवश्यकता ही तो आविष्कार की जननी होती है यही बताया गया है न? भारत को आवश्यकता थोड़ी कम लग रही थी। पर आविष्कार हो जाता। आवश्यकता भर से ही आविष्कार नहीं होते हैं। उत्सुकता से भी होते हैं और भारत में उत्सुकता की कभी कमी नहीं रही है। भारत महाजिज्ञासु रहा है। भारत ने ऐसी-ऐसी चीज़ों में जिज्ञासा कर ली, ऐसे-ऐसे सवाल पूछ लिए जिनकी ओर कभी किसी का ध्यान ही नहीं जाता था। कौन था पश्चिम में जिसने ये पूछा हो कि "मन के आगे भी कुछ है क्या?" पश्चिम तो आज तक इस सवाल का उत्तर पाना छोड़ो, यह सवाल भी ढंग से नहीं पूछ पाता। वे यह प्रश्न ही नहीं उच्चारित कर पाते की मन के आगे क्या है? वो कहते हैं कुछ नहीं है। वो डर जाते हैं सवाल ही सुनकर। भारत के बुद्धिजीवी भी यह सवाल ही सुन के डर जाते हैं कि मन की भी सीमा है, बुद्धि एक बिंदु से आगे नहीं जा सकती। भारत ने आगे का भी देखा, अंदर का भी देखा। भारत ने तो यह भी जिज्ञासा कर ली की बुद्धि शुरु कहाँ से होती है? क्या बुद्धि पर बुद्धि लगाई जा सकती है? क्या मन स्वयं अपना द्रष्टा बन सकता है? भारत में यह प्रश्न तक पूछ डाला। पश्चिम अभी भी यह प्रश्न नहीं पूछ पा रहा। तो जब इतना कौतूहल से भरा और इतना जिज्ञासु था भारत, तो ऐसा नहीं होता की विज्ञान से संबंधित, भौतिकी से संबंधित, रसायनों से संबंधित कुछ मूलभूत प्रश्न भारत नहीं पूछता। बहुत बड़ा भारत था, बहुत आबादी थी, कोई न कोई उठता जो इन सवालों को पूछता, खोज करता। कर ही रहे होंगे खोज, हमें क्या पता? हम कैसे कह सकते हैं भारत में कोई नहीं था जो भाँप की ताकत को समझ गया हो, कि भारत में कोई नहीं था जिसको यह समझ में आया हो की पदार्थ से मिलने वाली ऊर्जा का उपयोग करके बड़े-बड़े कल-कारखाने चलाए जा सकते हैं। अब वह सब बातें पता नहीं चलेगी। उन तथ्यों को कभी लिखा नहीं गया, कभी संग्रहित नहीं किया गया, वह इतिहास विलुप्त हो चुका है। विलुप्त भी हो चुका है और बहुत लोगों का स्वार्थ है इसमें कि वो इतिहास खोया ही रहे।

आज का आम हिंदुस्तानी अपनी अस्मिता के प्रति बड़ी शर्म से भरा हुआ है। उस दिन कह रहा था न मैं, 'अनंदिता' हो कोई उसको बड़ा भला लगता है, उसे 'एंडी' बना दो तो। ये एक तरह का कन्वर्जन है, समझना! एक तरह का पहचान परिवर्तन है। अगर धर्म परिवर्तन न कहें तो। धर्म परिवर्तन वगैरह करो तो, हो-हुल्ला होता है, शोर मचता है, विरोध प्रदर्शन हो सकते हैं, तो चुपके चुपके अपनी पहचान बदल दो। आनंदिता से 'एंडी' बन जाओ। चुपके चुपके कुछ और हो जाओ। क्यों? क्योंकि बड़ी शर्म आती है- ये कोई नाम है आनंदिता? इस नाम से तो गरीबी की, और अशिक्षा की, और पिछड़ेपन की दुर्गंध आती है। छीह! "आई एम 'एंडी'। मैं कौन हूँ?एंडी।

हम अपनी पहचान दफ़न कर देना चाहते हैं क्योंकि हमें हमारी पहचान के बारे में बड़े दुराग्रहों से भरा गया है। बहुत कम लोग होंगे जिन्हें उनके शुद्ध, भारतीय, सांस्कृतिक नामों से पुकारा जाता हो। यह विशाल बैठा है यह विशि है। और खास तौर पर आपके जो करीबी लोग हों, कोई इनकी प्रेयसी हों, गर्लफ्रेंड तो वो तो इनको विशाल बोलने से रहीं। वो विशि भी नहीं विशु बोलेगी। कोई भी अपना नाम बताना ज़रा मैं अभी बता दूँगा कि तुम्हारा कन्वर्टेड नाम क्या होगा? यह कन्वर्जन ही चल रहा है। बताओ! बताओ! पुनीत, पुन्नी या पोनी या पोन्स? एक बार तुमने पुनीत को पोन्स बना दिया, तुम्हें लग रहा है अब हिंदी बोलेगा वो? अब वह गुजिया में नहीं केक में गर्व महसूस करेगा। अब वह भजन नहीं कैरेल गाएगा और इसलिए नहीं कि उसे ईसा मसीह से प्यार है।

ईसा मसीह से प्यार मुझे है पर मैं भजन भी गाता हूँ। मैं भजन ही गाता हूँ मैं कैरेल नहीं गाता जबकि जीज़स से प्रेम है मुझको। लेकिन तुमको ईसा से कोई लेना-देना नहीं। लेकिन तुम गुजिया से दूर हो जाओगे और तुम केक की तरफ भागोगे। आकलन है कि भारत में क्रिसमस, राखी से ज्यादा बड़ा त्यौहार बन चुका है। और जब मैं यह कह रहा हूँ तो सुनो! मूर्खतापूर्ण निष्कर्ष मत निकाल लेना। मुझे न क्राइस्ट से कोई आपत्ति है, न क्रिस्चियन से, न क्रिसमस से। बाइबल को गुनता हूँ और जीज़स से प्रेम करता हूँ। लेकिन तुम क्रिसमस की ओर इसलिए नहीं जाते हो क्योंकि तुम्हें क्राइस्ट से प्यार है तुम क्रिसमस की ओर इसलिए जाते हो क्योंकि वो तुमको बड़े लोगों का त्यौहार लगता है।

जानते हो यह जो 'बड़ा लोग' है, इससे मुझे क्या याद आया? अंग्रेजों के जमाने में, गंवार हिंदुस्तानियों को कहा जाता था कि २५दिसंबर को मनाओ, यह बड़ा दिन है। उस त्योहार का नाम ही रखा गया था, 'बड़ा दिन' और उसके आसपास छुट्टियाँ कर दी जाती थी क्योंकि उन्हीं दिनों यूरोप में छुट्टियाँ की जाती थी। तो स्कूली बच्चे बोलते थे "बड़े दिन की छुट्टियों पर नानी के घर जाएँगे।" बड़े दिन की छुट्टी भाई! बड़े लोगों का त्यौहार बड़ा दिन ही तो कहलाएगा और हम लोग कौन हैं? हम छोटे लोग हैं! हम छोटे लोग हैं!

हम छोटे है नहीं हमें उनके खिलाफ विद्रोह करना नहीं आता जो हमारे सर पर पाँव रखकर हमको छोटा महसूस करने पर मजबूर कर रहे हैं और मैं फिर कह रहा हूँ वो काम आज अंग्रेज नहीं कर रहे, वो काम आज के बुद्धिजीवी कर रहे हैं। इनसे बचो, जो अंग्रेजी का आसरा लेकर के तुम्हारे सर पर चढ़ते हैं। जिनके पास न बुद्धि है, न बोध, पर उनके पास बहुत सारी अंग्रेजी है। और वह चढ़े हुए हैं तुम्हारे ऊपर अंग्रेजी बोल-बोल कर और अंग्रेजी लिख-लिख कर। और तुम दबे हुए हो उनके सामने क्योंकि तुम तुम्हें लगता है जहाँ अंग्रेजी है उधर ही ताकत है, भीतर एक अजीब-सी हीनभावना बैठ गई है।

मैंने देखा, एयरपोर्ट पर एक महिला एक वेटर के साथ बहस कर रही थी और मूर्खतापूर्ण तर्क था महिला का। बहस चलती रही, वेटर कुछ बोल रहा है, महिला कुछ बोल रही है। वेटर सम्मान के साथ ही बोल रहा था जैसा उसको प्रशिक्षण मिला होगा। जब महिला ने देखा कि दो-तीन मिनट हो चुके हैं और वेटर की बात काटी नहीं जा रही तो महिला ने मार दिया ब्रह्मास्त्र, धड़-धड़ा के अंग्रेजी में कुछ बोला, वो भी वो वाली अंग्रेजी(जिसमें एक भी शब्द समझ नहीं आता) अब वेटर बेचारा नेस्तो-नाबूत हो गया। अब उसके पास कुछ नहीं बचा। ये हाल हर हिंदुस्तानी के साथ किया गया है। तुम्हें अंग्रेजी के सामने नतमस्तक होने के लिए मजबूर किया गया है। तुम उनसे कभी ठसक के साथ कही नहीं पाते कि "जो भी बोल रहे हो, ज़रा देसी में बोलो। बात का पूरा जवाब मिलेगा; पर ज़रा देसी में बोलो।" तुम्हें पता है, वो नहीं बोलेंगे क्यों? उन्हें आती नहीं। उन्हें शर्म आनी चाहिए कि वो न हिंदी बोल सकते हैं न लिख सकते हैं उल्टे तुम्हें शर्म आने लग गई है हिंदी को लेकर के।

और जो हमने पहली बात की चर्चा करी थी कि भौतिक सफलता को हिंदी से काट दिया गया है, डिस्कनेक्ट कर दिया गया है। वह पहला बिंदु वास्तव में इस दूसरे बिंदु के कारण ही है। पहले हमें मानसिक रूप से हिंदी को त्यागना सिखाया गया, फिर हमने भौतिक जगत में सफलता से भी हिंदी को काट दिया। हिंदी उठेगी भी तभी जब हिंदुस्तानी उठेगा और हिंदुस्तानी के उठने से मेरा मतलब यह नहीं है कि हिंदुस्तानी के पास रुपया-पैसा आ जाए। दमन आंतरिक है, दमन मानसिक है तो फिर विद्रोह भी मानसिक होना चाहिए। दमन में जो मूल अस्त्र है, दमन का जो मूल तर्क है वो ये है कि तुम नालायक हो, तुम ना-काबिल हो, तुम कुछ नहीं हो। तुम्हारी जात ही खराब है। हमसे कहा जाता है, हिंदुस्तान ने विश्व को दिया ही क्या है?

एक बड़े विद्वान हैं, एक बड़ी भारतीय यूनिवर्सिटी के। वह कह रहे हैं, "भारत से विश्व को जो कुल एक चीज़ मिली है तो वह है बौद्ध धर्म, उसके अलावा दुनिया को देने के लिए भारत के पास कुछ रहा नहीं है। बड़ी ही भद्दी और बेकार जगह रही है, भारत। यहाँ से दुनिया को कुछ नहीं मिला। ये आदमी बेवकूफ़ नहीं है, ये आदमी मक्कार है। इसको मानसिक सुधारगृह में भेजा जाना चाहिए। यह झूठा आदमी है और यह बहुत बड़ा अपराध कर रहा है यह १.४ अरब लोगों को हीनभावना से भर रहा है। देखो मैं झूठे आत्मविश्वास की बात नहीं कर रहा हूँ। मैं 'जिंगोइज़्म' की बात नहीं कर रहा हूँ। मैं 'उग्रवादी राष्ट्रीयता' की बात नहीं कर रहा हूँ। मैं तथ्य को तथ्य की तरह जानने की बात कर रहा हूँ। मैं झूठ को नकारने और सच को स्वीकारने की बात कर रहा हूँ।

किसी आदमी को उसी की मिट्टी के प्रति, उसी की खाल के प्रति, उसी के खून के प्रति, उसी के पुरखों के प्रति, उसी की पहचान के प्रति, हीनभावना से भर देना बहुत बड़ा अपराध है। इस अपराध की सजा मिलनी चाहिए और खासतौर पर जब वो अपराध नासमझी में न हुआ हो एक सोची-समझी साज़िश के तहत हुआ हो। जानते हो हिंदी वालों को, मैं एक बार फिर से स्पष्टीकरण दूँगा- जब मैं कहूँ हिंदी वाला तो उसमें शामिल है पंजाबी वाला भी, कश्मीरी वाला भी, बंगाली वाला भी, असमिया वाला भी, उड़िया वाला भी, मलयालम वाला भी, सब शामिल हैं।

भारत का अपराध ये रहा है कि भारत ने जीवन की कुछ सच्चाइयाँ जानी हैं, जो उन सच्चाइयों को जान ले वो खतरनाक हो जाता है, उसको दबाना बहुत जरूरी हो जाता है। जानते हो भारत में कौन सी सच्चाई जानी है? भारत ने जान लिया है कि यह जो पूरा विश्व ही है न, यह जो पूरा भौतिक संसार का जो पूरा प्रसार है, यही कितना सार और कितना निःसार है। ये भारत ने जाना है और जो ये बात जान ले, वो उन लोगों के लिए बड़ा खतरा हो जाता है जो संसार को ही भोगने और चाटने के लिए लालायित होते हैं। बात समझ में आ रही है कुछ?

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