आचार्य प्रशांत आपके बेहतर भविष्य की लड़ाई लड़ रहे हैं
लेख
छोटी बातों में उलझे रहोगे तो बड़ा काम कब करोगे? || आचार्य प्रशांत (2019)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
8 मिनट
251 बार पढ़ा गया

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, आपके वीडियो में एक बात सुनी थी, वो बात मन में ठहर गई। अब जो भी हरकत करता हूँ, जो भी गलती करता हूँ, तो उस वीडियो में सुनी उस बात को याद कर लेता हूँ, और उसी के संदर्भ में सीखने का प्रयास करता हूँ।

आपने कहा था कि एक लाख तेईस हज़ार चार सौ छप्पन (१,२३,४५६) में से 'एक (१)’ को मिटाना, 'एक (१)’ को हटाना ही असली कला है, साधना है। 'एक (१)’ को हटा दिया तो सीधे घटकर तेईस हज़ार चार सौ छप्पन (२३,४५६) बच जाएगा।

मैं 'छह (६)’ और 'पाँच (५)’ को तो हटा देता हूँ, 'एक (१)' का मुझे दूर-दूर तक कोई पता ही नहीं है। इतनी सूक्ष्म दृष्टि ही नहीं है कि उस 'एक (१)' को देख पाऊँ; 'छह (६)’ और 'पाँच (५)’ में अदल-बदल करता रहता हूँ और थक जाता हूँ।

कृपया मार्गदर्शन करें।

आचार्य प्रशांत: १ वही है जो तुम्हारा ध्यान ५ और ६ पर केंद्रित रखता है। मिल गया १? मैंने कहा था कि तुम्हारी समस्याएँ १,२३,४५६ हैं। १,२३,४५६ तुम्हारी समस्याएँ हैं, तुम १ पर आक्रमण करो, ज़्यादातर मामला सुलझ जाएगा। फिर जब १ पर कर लो, तो २ पर करो।

हम उलटा करते हैं। हम उलझे रह जाते हैं – ५ और ६ के साथ।

५ और ६ में तुमने अगर फ़तह पा भी ली, तो किस काम की?

तो अब पूछा है इन्होंने कि, "मैं तो बड़ी कोशिश करता हूँ, लेकिन ५ और ६ में ही उलझा रह जाता हूँ, १ का मुझे कुछ पता ही नहीं लग रहा है।" मैंने कहा, "१ सामने ही तो है; १ वही है जो तुमको ५ और ६ में उलझाए रखता है।"

देखो कि क्या है जो तुम्हें ५ और ६ से आगे देखने हीं नहीं देता, उसी का नाम १ है। वो अपनी सुरक्षा के लिए तुम्हारे सामने झूठी चुनौतियाँ खड़ी कर देता है—जैसे कि सेना का अधिपति (जनरल), जो चक्रव्यूह जैसा कुछ निर्मित करे। चक्रव्यूह समझते हो? उसमें बहुत सारे चक्र होते हैं। क़रीब-क़रीब 'कंसेट्रिक सरकल्स' (एक हीं केंद्र वाले वृत्त) जैसे। और उस चक्रव्यूह के केंद्र में कौन बैठ जाता है ख़ुद? जनरल। सबसे जो बाहर का चक्र है, जो सबसे बाहर का वृत्त है, घेरा है, उसमें वो किनको खड़ा कर देता है? जो बिलकुल सबसे अदने स्तर के सिपाही हैं। ठीक है? छह घेरे हैं: १, २, ३, ४, ५, ६; छठा घेरा सबसे बड़ा है, और उसमें सबसे ज़्यादा सिपाही हैं। क्योंकि सबसे बाहर का है इसीलिए सबसे बड़ा है वो घेरा, तो उसमें सबसे ज़्यादा वो सिपाही खड़ा कर देता है। सिपाही तो होते ही बहुत सारे हैं; जनरल एक होता है। सिपाही कितने होते हैं? बहुत सारे। तो वो छठे घेरे में बहुत सारे सिपाही खड़े कर देता है।

अब तुम जाते हो आक्रमण करने, तो तुम किससे उलझ जाओगे? वही बाहर वाले व्यूह में ही उलझ जाओगे न। बाहर के व्यूहों में ही उलझ जाओगे, और वहाँ अगर तुमने जीत भी लिया, तो किसको जीता? वही अदने सिपाहियों को। उनको जीत कर भी तो हार है तुम्हारी। वहाँ जीत भी गए तो हार है न तुम्हारी, और क्या है?

और उससे अगर आगे बढ़ोगे तो पाँचवा घेरा है, और पाँचवे घेरे में कौन खड़े हैं? वो जो थोड़े वरिष्ठ सिपाही हैं, वो भी हैं छठे नंबर जैसे ही। सबसे बाहर के घेरे में किनको खड़ा किया गया था? वो जो नए-नए रंगरूट हैं, एकदम ताज़े-ताज़े सिपाही आए हैं, जिनका अभी प्रशिक्षण भी पूरा नहीं हुआ है, उन सबको झुंड बनाकर – "चलो रे, खड़े हो जाओ!" पाँचवा घेरा भी सिपाहियों का है, वो थोड़ा प्रशिक्षित सिपाहियों का है। वहाँ भी तुम जीत गए तो क्या पाओगे? असली जनरल कहाँ खड़ा है? अंदर, भीतर; व्यूह के केंद्र में खड़ा है। लेकिन और कोई तरीक़ा ही नहीं है! और कोई तरीक़ा ही नहीं है, क्योंकि उस व्यूह की रचना ही ऐसी हुई है कि तुम उलझोगे बाहर वाले से, और भीतर वाला भीतर केंद्र पर सुरक्षित बैठा रहेगा।

ये सीमा, ये दिक़्क़त उनको आएगी जो इस व्यूह को व्यूह के तल पर ही रहते हुए तोड़ना चाहेंगे। नहीं समझे? व्यूह कहाँ पर बिछाया गया है? (अपनी मेज की तरफ़ इंगित करते हुए) मान लो ये मैदान है। इस मैदान पर व्यूह बिछा दिया गया है; छह घेरे हैं – १, २, ३, ४, ५, ६। इस मैदान में तुम किसी भी दिशा से आओ, वो पूरा एक वृत्त है। किसी भी दिशा से आओ, तुम्हें क्या मिलेगा? छठा और बाहरी घेरा ही मिलेगा। तुम घूमते रहो, दौड़ते रहो, खोजते रहो इस मैदान में कि कहाँ से अंदर घुस जाएँ, भेद जाएँ—भेद नहीं पाओगे! तुम जिधर को जाओगे, उधर तुम्हें बाहर छठा घेरा ही दिखाई देगा।

तो फिर तुम्हें क्या चाहिए? तुम्हें बेटा, वायु सेना चाहिए।

उस वायु सेना का नाम 'अध्यात्म' है।

वो कहता है, "अपना तल ऊपर उठा दो!” वो कहता है, "उस तल पर रहो ही मत, जिस तल पर ये समस्याएँ हैं। तल ऊपर उठा दो।" ऊपर से जाओ सीधे नीचे, वो खड़ा हुआ है जनरल, मारो वहाँ से लेज़र गाइडेड मिसाइल , और बाकियों को छोड़ो! एक बार तुमने उस 'जनरल' को मार दिया, तो जो बाकी खड़े हुए हैं, अर्दली, सैनिक, और नीचे के लोग, ये ख़ुद ही भग जाते हैं। वो खड़े ही इसीलिए है क्योंकि उनके केंद्र में उनको अनुशासित और प्रेरित और संगठित करने वाला 'जनरल' खड़ा है, 'सेनापति' खड़ा है। तुम सीधे ऊपर से जाओ और उस 'जनरल' को ख़त्म कर दो, उसकी सेना अपने आप ही भाग जाएगी।

और अगर तुम बहुत सूरमा बन रहे हो—कभी घोड़े पर, कभी टैंक पर, कभी किसी और चीज़ पर बैठकर, आ तुम ज़मीन से ही रहे हो ज़मीनी आक्रमण करने। तो भूलना नहीं कि थल के तल पर जिधर से भी आओगे, किसको पाओगे? छठे नंबर वालों को ही पाओगे। और छठे नंबर वालों को जीतने में कुछ रखा नहीं है।

भूलना नहीं, १,२३,४५६ में '६' का कुछ मूल्य नहीं होता। ये '६' जो है, ये बाहरी घेरा है। आम आदमी इसी में उलझ कर पूरी ज़िंदगी ख़राब कर देता है। और उसमें बहुत सारे लोग हैं, सर्वाधिक लोग इसी में है, सर्वाधिक चुनौतियाँ इसी में हैं, उलझने के सर्वाधिक मौके उसी में हैं—हम उसी में उलझे रह जाते हैं।

केंद्रीय समस्या पर हम कभी आक्रमण ही नहीं कर पाते; केंद्रीय समस्या छुपी रह जाती है, हमारे सामने झूठी और छोटी-छोटी समस्याएँ खड़ी करके। केंद्रीय समस्याओं को अगर बचे रहना है तो उसके बचने का सबसे अच्छा तरीक़ा ये है कि आदमी को दूसरी और छोटी समस्याओं में उलझा दो, पूरी ज़िंदगी ख़राब कर देगा छोटी चीज़ में। तुम ऊपर से आओ—इसी ऊपर उठने को, ऊर्ध्वगमन को 'अध्यात्म' कहते हैं। ऊपर से आओ!

बात आई समझ में कुछ?

ऊपर से आने का मतलब समझते हो क्या होता है?

प्र: अनासक्ति।

आचार्य: थोड़ा दूर हो जाओ न। छठे वाले से ही अगर उलझे रहोगे तो तुमको भीतर का कुछ दिखाई कैसे देगा? भीतर वाले को देख पाने की राह में कौन बाधा बनकर खड़ा है? ये सब बाहर वाले। बाहर का घेरा है, फिर घेरा है, फिर घेरा है, फिर घेरा है, और फिर भीतर वाला खड़ा है। भीतर वाला क्या दिखाई भी देगा अगर तुम बाहर खड़े हो बिलकुल? इन छोटी-छोटी समस्याओं के कारण जो भीतरी, और केंद्रीय और मूल समस्या है, वो कभी दिखाई ही नहीं देती। तो इसीलिए मैंने कहा कि अगर ५-६ में उलझे हुए हो तो १ वो है जो तुम्हें ५-६ में उलझाए हुए है। व्यूह रचना तो उस सेनापति ने ही करी है न? वही है जिसने तुम्हें ५ और ६ में उलझा दिया है।

हमारी ज़िंदगी की सारी उलझनें बिना मूल्य की हैं, तुम इनसे न भी उलझो तो कुछ बिगड़ नहीं जाएगा। लेकिन इनमें उलझकर के तुमने अपना कितना बिगाड़ लिया!

हमारी ज़िंदगी की ज़्यादातर समस्याएँ, जिनको हम कहते हैं कि आजकल मेरी ज़िंदगी में ये मुद्दा है, ये बात है, ये समस्या है, बहुत मूल्य की नहीं हैं। अगर इनकी उपेक्षा भी कर दो तो बहुत नहीं खो दोगे, पर इनमें उलझकर के तुम्हें पता भी नहीं तुमने क्या खो दिया!

इन मुद्दों की अवहेलना करना सीखो।

भूलना नहीं मैंने क्या कहा था, "सबसे छोटा आदमी वो, जिसकी ज़िंदगी में सब छोटे-छोटे मुद्दे हावी हैं।" इन छोटों के कारण बड़े को कभी नहीं देख पाओगे, बड़े तक कभी पहुँच ही नहीं पाओगे।

उपेक्षा करना सीखो।

आज की दुनिया में इतनी ज़्यादा चीजें हैं, और इतने मुद्दे हैं कि उपेक्षा बहुत-बहुत महत्वपूर्ण अनुशासन बन गया है अध्यात्म में। इतना कुछ है तुम्हें ललचाने को, अपनी ओर खींचने को, कि बिना उपेक्षा के तो तुम बच ही नहीं सकते।

क्या आपको आचार्य प्रशांत की शिक्षाओं से लाभ हुआ है?
आपके योगदान से ही यह मिशन आगे बढ़ेगा।
योगदान दें
सभी लेख देखें