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लेख
अभिनेताओं और खिलाड़ियों का हमारे जीवन में कितना महत्व हो? || (2020)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
16 मिनट
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प्रश्नकर्ता: हमारे जीवन और समाज में अभिनेताओं और खिलाड़ियों का कितना महत्व है? अखबारों में, पत्रिकाओं में, मीडिया में और इंटरनेट पर यही छाए रहते हैं।

आचार्य प्रशांत: अभिनेताओं और खिलाड़ियों का समाज में उतना ही महत्व होना चाहिए जितना मन में मनोरंजन का महत्व होना चाहिए। आप किसी व्यक्ति को उतना ही तो महत्व देते हो न जितना वो आपके काम का होता है। देखिए कि आप जिसको महत्व दे रहे हैं वो आपके जीवन में क्या लेकर के आ रहा है। देखिए कि आप कितना मूल्य देते हैं उस चीज़ को जो वो व्यक्ति आपके जीवन में लेकर के आ रहा है।

जब हम एक गलत जीवन जी रहे होते हैं जिसमें हमने तनाव का, दुख का चयन कर लिया होता है किसी लालच या किसी डर की वजह से तो हमारे लिए मनोरंजन बहुत ज़रूरी हो जाता है। मन लगातार परेशान है, दबाव में है, चिढ़ा हुआ है, डरा हुआ है, ऐंठा हुआ है तो फिर वो मनोरंजन माँगेगा न। जब वो मनोरंजन माँगेगा तो आपके लिए कौन बहुत आवश्यक हो जाएगा? वो जो आपका मनोरंजन करता है। मनोरंजन कौन करते हैं? अभिनेता करते हैं, खिलाड़ी करते हैं। तो अगर आप किसी व्यक्ति को ऐसा पाएँ, या पूरे एक समाज को ऐसा पाएँ कि उसमें सबसे प्रसिद्ध लोग उसके सेलिब्रिटी ही यही बन गए हैं अभिनेता और खिलाड़ी वगैरह, तो समझ लीजिए कि ये जो व्यक्ति है या ऐसे व्यक्तियों से बना जो समाज है वो बहुत ग़लत जी रहा है।

मनोरंजन की इतनी ज़रूरत ही नहीं होती अगर आप एक सही जीवन जी रहे होते। जो सही जी रहा है उसे अपने काम में तकलीफ थोड़े ही होगी, उसे अपने घर से तकलीफ थोड़े ही होगी, उसे अपने रिश्तो में तकलीफ थोड़े ही होगी।

हमारी हालत समझिए, नौकरी ऐसी ले रखी है जो बिलकुल मन को रौंदती रहती है। माहौल खराब है, सहकर्मी खराब है, बॉस खराब है। लगातार डर का, लालच का और तनाव का माहौल है तो लगातार आपको किस चीज़ की खुराक चाहिए होगी? मनोरंजन की, कि जल्दी से कोई छम-छम, छम-छम गाना सुन लो क्योंकि अभी-अभी क्या हुआ है? अभी-अभी बॉस ने छम-छम करी थी कमरे में बुलाकर। तो बाहर निकले नहीं कि फिर ज़रूरी हो जाएगा कि जल्दी से इयरफोन लगाओ और कुछ ऐसा सुन लो कि बॉस से जो अपनी दुर्गति करा कर आ रहे हो उसको भुलाया जा सके।

अब घर आ रहे हैं, वहाँ पर बीवी से या शौहर से तकरार है। एक-दूसरे का चेहरा नहीं देखना चाहते। बच्चे ऐसे पैदा कर दिए हैं कि वो खून पीते हैं, तो अब विकल्प क्या है? विकल्प यही है कि जल्दी से टीवी खोलो और उसमें मुँह डाल दो।

और टीवी में भी कोई ढंग की बात, कोई ज्ञान की, जानकारी की, चेतना को उठाने वाली बात आप सुन नहीं पाएँगे। सुन इसलिए भी नहीं पाएँगे क्योंकि टीवी में ऐसी चीज़ें ज़्यादा आती भी नहीं हैं। तो आप माँगते हैं तत्काल राहत।

अभी-अभी ज़बरदस्त तू-तू, मैं-मैं हुई है घर में, थप्पड़ चलने की नौबत आ गई थी। और बच्चे हैं एक लड़का, एक लड़की दोनों कूद-कूद कर तालियाँ मार रहे थे। तो अब क्या करोगे? अब कहोगे कि, "लगाओ रे जल्दी छैया-छैया या लगाओ कोई जल्दी से कहीं मैच आ रहा हो मैच देखें।"

कौन-सा मैच देख रहे हो? वो मैच देख रहे हो जिसको आठ बार पहले भी देख चुके हो। उम्मीद यही है कि इस बार परिणाम बदल जाएगा। ये सब क्यों करना पड़ रहा है? ये सब इसलिए करना पड़ रहा है क्योंकि ज़िंदगी ही खराब है।

जानते हो, बहुत सारी घटिया फिल्में क्यों बनती हैं? इसलिए बनती हैं क्योंकि घटिया फिल्में भी चल जाती हैं। ज़रा जाकर गूगल करना, आँकड़े तलाशना कि कितनी फिल्में बनती हैं और कितनी फिल्में औपचारिक रूप से हिट करार दी जाती हैं। तुम पाओगे कि जितनी फिल्में बनती हैं और जितनी हिट होती हैं, उनमें तो बीस और एक का अनुपात है। बीस में से उन्नीस फिल्में हिट नहीं हो रही हैं, तो फिर भी इतनी फिल्में बन कैसे जाती हैं? इसलिए बन जाती हैं क्योंकि जो फिल्म हिट नहीं भी हो रही है, उसमें भी जो उसका निर्माता है, और जो निवेशक है उसको पैसा वापस मिल गया। हिट हो गई होती तो फिर तो साठ करोड़ लागत की पिक्चर होती और उसने कमाए होते — चार सौ करोड़। हिट नहीं भी हुई है, तो भी जितनी लागत की पिक्चर थी उतना पैसा वो कुल मिलाकर के इधर से, उधर से, कुछ देश से, कुछ विदेश से, कुछ वीडियो से, कुछ म्यूजिक से, कुछ बाद में टीवी राइट्स से वो अपना पैसा वसूल लाती है।

कैसे वसूल लाती है एक घटिया पिक्चर भी अपना पैसा बताओ मुझको? ऐसे वसूल लाती है कि हम मनोरंजन के इतने भूखे हैं कि मनोरंजन के नाम पर हमको अगर मल भी परोस दिया जाता है तो चाट लेते हैं। बिलकुल मल जैसी है वो पिक्चर और आप उसको चाट रहे हैं, चाट रहे हैं, क्यों? क्योंकि जीवन में तनाव इतना है कि कुछ भी दिख जाए। आप बहुत ऐसे लोगों से मिलेंगे जो कहेंगे — कोई भी पिक्चर लगी है, चलो यार वीकेंड है, कोई भी लगी हो देख लेते हैं। घटिया-से-घटिया पिक्चर देख लेते हैं, क्यों? क्योंकि घटिया-से-घटिया पिक्चर भी आपकी ज़िंदगी से बेहतर है। घटिया-से-घटिया पिक्चर ही जब आप देखने जाते हो, तो कम-से-कम कुछ देर के लिए अपनी घटिया-से-घटिया ज़िंदगी को भुला पाते हो। बात समझ में आ रही है?

तो जितना ज़्यादा घटिया आपका जीवन होगा उतना ज़्यादा आप पाएँगे कि आपके लिए सेलिब्रिटीज़ भी यही सब है — व्यावसायिक फिल्मों के अभिनेता, अभिनेत्री, ये खिलाड़ी वो खिलाड़ी, ऐसा वैसा यही सब है। और ये सब आपकी ज़िंदगी पर छाए रहेंगे, ज़हन पर छाए रहेंगे और कौन नहीं मौजूद होगा आपके ज़हन में? वो लोग नहीं मौजूद होंगे जिन्हें वास्तव में होना चाहिए। आपसे पूछा जाएगा — रमण महर्षि को जानते हो? आप कंधे उचका देंगे। कहेंगे — रमन्ना हू ? आपसे पूछा जाएगा कि राजगुरु के बारे में कुछ बता देना, नहीं पता होगा आपको।

अभी कुछ दिन पहले हमारा वीडियो आया था — “कौन कमज़ोर कर रहा है देश की युवा ताकत को?” उसमें जो बात युवाओं के लिए बोली गई थी कि किन्ही भी जानने लायक शख़्सियतों को तो ये जानते नहीं हैं, वो बात वास्तव में सिर्फ युवाओं पर लागू नहीं होती, वो बात इस पूरे समाज पर लागू होती है।

आप चले जाइए यूट्यूब पर, वहाँ जिद्दू कृष्णमूर्ति का चैनल है; उनके तीन लाख सब्सक्राइबर नहीं हुए अभी तक, और दो लाख भी हो गए हो तो बहुत बड़ी बात है। अभी साल भर पहले तक इतने भी नहीं थे, और कब (बहुत पहले) के हैं जिद्दू कृष्णमूर्ति। ज़्यादातर लोगों ने उनका नाम ही नहीं सुना। जिन्होंने सुना भी है, उन्हें उनसे कोई मतलब नहीं है। जिन्होंने सब्सक्राइब भी कर रखा है, मुझे नहीं पता उनमें से कितने लोग उनको देखते भी हैं। और एक से एक ज़लील, फूहड़, लुच्चे चैनल हैं जिनके लाखों में, करोड़ों में सब्सक्राइबर है। इससे जिद्दू कृष्णमूर्ति के बारे में कुछ नहीं पता चलता, इससे हमारे बारे में पता चलता है कि हम कैसे हैं, और हम कैसी ख़ुराक माँगते हैं जीवन से।

जितना घटिया कोई चैनल होता है, उतने ज़्यादा उसके सब्सक्राइबर बढ़ जाते हैं। अभी एक वीडियो था उसका नाम मुझे याद था, भूल गया, उसके मैंने शायद नौ सौ पचास मिलियन व्यूज देखे थे। कौन-सा था वो? कुछ था, छोटू के गोलगप्पे या कुछ ऐसे करके। नौ सौ पचास मिलियन आप समझते हैं कितना हुआ? ये भारत की आबादी का भी एक अच्छा खासा प्रतिशत हो गया भाई। इतने लोग ये देख रहे हैं।

मैं आपसे कहूँ — निसर्गदत्त महाराज? कहेंगे — कौन? मैं कहूँ ये थे, शक्ल देखिए। आप वो शक्ल देखेंगे कहेंगे – ओ माय गोड ! ये तो कितने बिज़ार (अजीब) लगते हैं। क्यों लगते हैं? क्योंकि तुम्हारी आदत हो गई है चिकनी-चुपड़ी देखने की। क्या चाहिए? बिलकुल तराशे हुए बदन, शर्ट उतार दी है या देवी जी हैं तो बिकनी में है, और बिलकुल तराशा हुआ बदन, यही देख रहे हो, क्यों? क्योंकि तुम्हारी ज़िंदगी में भी गहराई बस खाल जितनी है। शरीर में खाल जितनी गहरी होती है न, तुम्हारी ज़िंदगी में उतनी ही गहराई है। तो इसलिए बस खाल-खाल-खाल देखे जाते हो।

कोई न्यूज़ वेबसाइट खोल लो, उसमें कौन छाया हुआ है? ऊपर की जो चार लिंक होंगे वो तो किन्ही सनसनीखेज खबरों के होंगे। मान लो राजनैतिक खबर, आर्थिक खबर, अंतर्राष्ट्रीय खबर कुछ। और चार के बाद से जो अगले चौबीस लिंक होंगे, वो यही यही होंगे कि कौन अभी ताजी-ताजी नंगी हुई है, कौन-सा जोड़ा अभी नया-नया स्पेन में घूमता पाया गया, किसके घर में क्या चल रहा है, कौन से सितारे और सितारी ने अभी-अभी ताजा किसी सितारू को जन्म दिया है या जन्म देने जा रहे हैं।

ये इतनी बड़ी घटना है? ये कितनी भी बड़ी घटना क्यों हो इस घटना का कोई महत्व ही नहीं है। शून्य महत्त्व की घटना है ये, और ये घटना छाई हुई है। या किसी का बच्चा उठा लिया कि ये बच्चा पैदा हुआ है। अब उस बच्चे को इतनी कवरेज दे रहे हैं, इतनी कवरेज दे रहे हैं—हिंदुस्तान में तो करोड़ों छोटे-छोटे बच्चे हैं, सब सुंदर हैं, मासूम हैं, उनके चित्र तो तुम कभी नहीं छापते, उनकी वीडियो तो तुम कभी नहीं बताते।

हाँ, सितारा और सितारी का जो सितारू है, उसको तुमने इतनी कवरेज दे रखी है कि जितनी भारत के प्रधानमंत्री को भी ना मिलती हो। प्रधानमंत्री को भी कई बार ईर्ष्या हो जाती होगी कि इसने किया क्या है, दो साल का। और क्या ख़बर आ रही है? कि वो प्ले डेट पर गया है। और क्या कर रहा है? आज वो हाथी वाले खिलौने के साथ खेल रहा था। और यही जो ख़बर यहाँ छप रही है, वही इन चैनल्स के फेसबुक पेज पर जाएगी और उस खबर पर तुम जाओगे, देखोगे तीन मिलियन लाइक है। उस छोटे बच्चे की कोई ग़लती नहीं है। छोटा है, मासूम है। उसको तो पता भी नहीं है कि उसके साथ क्या कर रही है मीडिया।

इससे हमारे बारे में पता चलता है, कि कितना बंजर, रिक्त, सुनसान है हमारा जीवन कि उसे हमें इस तरह के मसाले से भरना पड़ता है। ना हमारे पास करने के लिए सार्थक काम है, ना घरों में हमारे प्रेमपूर्ण रिश्ते हैं, ना मन में हमारे गहराई है, ना जीवन में हमारे कोई ऊँचा लक्ष्य है। तो हम ये सब कुछ करके अपने जीवन को किसी तरीके से बस ठेले रहते हैं, एक तरह का नशा है। समझ में आ रही बात?

जिस किसी को देखो कि उसके मन में यही छाए रहते हैं—मान लो तुम किसी से मिलने जाओ और चर्चा शुरू हो और तुम पाओ कि उसका पसंदीदा विषय ही यही है: अभी ताजी फिल्मी गॉसिप क्या है, इत्यादि-इत्यादि या कि फलानी लीग में कौन-सा नया खिलाड़ी शामिल हो रहा है। तुम पाओ कि उसकी ज़िंदगी में सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा ही यही है तो सावधान हो जाना। ये इंसान उथला भी है और ज़हरीला भी। इसके पास कुछ गहरा है ही नहीं बात करने के लिए। और जहाँ गहराई नहीं होती वहाँ, मैं कह रहा हूँ, ज़हर होता है। समझ में आ रही बात?

ऐसे लोगों से बचना या फिर ऐसे लोगों की अगर संगति करनी ही पड़े तो उन्हें सुधारने की कोशिश करना, पर उन्हीं के जैसे मत बन जाना। जब ज़िंदगी में ऊँचाई होगी तो तुम्हारे मन में जो लोग हैं, वो निसंदेह ऊँचे ही लोग होंगे। और इतिहास में बहुत ऊँचे-से-ऊँचे लोग हुए हैं जिनके तुमको नाम भी नहीं पता। वो नाम तुम्हें पता होने चाहिए। उनकी जीवनियाँ तुम्हें पता होनी चाहिए। उनके किस्से तुम्हें पता होना चाहिए। और वो किस्से तुम्हें पता चलेंगे, बिलकुल पुलक जाओगे, उत्साह से, ऊर्जा से भर जाओगे। पर उनका तुमको कुछ पता ही नहीं है। और ऐसा नहीं कि वैसे लोग सिर्फ इतिहास में हुए थे, वैसे लोग आज भी हैं। पर आज भी तुम्हें उनकी कोई जानकारी ही नहीं, तो उनसे क्या संबंध तुम बनाओगे? और जानकारी होगी कैसे तुमको?

तुम्हारे मन पर तो एक चाँद-सितारों वाली भीड़ का कब्जा है। उस भीड़ ने सारी जगह घेर ली है। उस भीड़ ने प्रतिबंधित कर लिया है कि कोई भी ढंग का इंसान अब तुम्हारे मन में प्रवेश कर ही नहीं सकता। या प्रवेश करेगा भी तो उसे बहुत कम जगह मिलेगी। समझ में आ रही बात?

तुम कहते हो कि फिल्मों के सितारों को कितनी जगह मिलनी चाहिए। फिल्मों के बारे में भी तुम जानते कितना हो? ज़्यादातर लोग जो बहुत फिल्मबाज़ होते हैं, उनसे अगर तुम उन फिल्मों की चर्चा करो जो वास्तव में देखने योग्य हैं, चाहे भारतीय फिल्में चाहे अंतर्राष्ट्रीय फिल्में, तो उन फिल्मों के बारे में उन्हें ज़्यादा कुछ नहीं पता होगा।

अभी मैं पूँछू उनसे, जो लोग बहुत घूमते रहते हैं, कि किसकी क्या रिलेशनशिप चल रही है, कौन किसके साथ हिच्ड-अप है, और ये सब पता करते रहते हैं न, फिल्मी गॉसिप यही सब तो होती है — हूँ इस सीईंग हूँम ? उनसे मैं पूछूँ — ‘अर्थ’ देखी है, अर्थ? स्त्री-पुरुष संबंधों पर बहुत ही अर्थपूर्ण पिक्चर थी अर्थ। देखी है क्या? तुम्हें स्त्री-पुरुष संबंधों में ही इतनी रूचि है तो बताओ न देखी है क्या? नहीं, वो नहीं देखी होगी इन्होंने।

और मैं किसी आदिकालीन पिक्चर की बात नहीं कर रहा हूँ, अभी उन्नीस सौ अस्सी के दशक की पिक्चर है ये। पिक्चर भी अच्छी है, उसके सब गाने, ग़ज़लें भी बेहतरीन पर आपने देखी ही नहीं होगी। कौन सी पिक्चरें हमें पता हैं? मसाला पिक्चरें। कौन सी पिक्चर हमें पता है? सुपरहिट पिक्चरें। सुपरहिट कैसे हुई? क्योंकि वो आपकी हस्ती का जो सबसे निचला और गंदा बिंदु है उसको आकर्षित करती थी तो उनकी आपको पूरी ख़बर है।

फिल्मों में भी जो ऐसी फिल्म है जो ऊँचाई की है और जो ऐसे अभिनेता और निर्देशक हैं जिन्होंने कोई ऊँची बात कहनी चाही है, कोई सुंदर बात करनी चाही है, उनको तो हम जीने नहीं देते। उन बेचारों को असफल होना पड़ता है। कई बार आत्महत्या करनी पड़ जाती है। न जाने कितने ऐसे फिल्म निर्माता थे जिन्हें फिल्म उद्योग से ही हटना पड़ गया क्योंकि वो जो बात कह रहे थे उसका कोई पारखी ही नहीं था, उसका कोई प्रशंसक ही नहीं निकला। लोग लगे हुए थे कतार बाँधकर के घटिया पिक्चरों के टिकट खरीदने में।

इसी तरीके से खेलों की जब बात आती है, आईपीएल में मैदान भरा होता है, टेस्ट मैच जब होते हैं, तो मैदान खाली। खेलों में भी जो उत्कृष्टतम हिस्सा है उसके हम कहाँ प्रशंसक हैं। खेल को भी हम बस भोगते हैं। खेल का भी इस्तेमाल हम इसलिए थोड़े ही करते हैं कि उसमें से कुछ सीखें ऐसा जो ज़िंदगी को ही बेहतर बना दे, कुछ सीखें ऐसा जिसकी याद से ही मन में ताजगी आ जाए और शक्ति आ जाए। वो सब हमें नहीं याद रहता।

हमें तो यही पता होता है कि अभी पिछली शाम को कौन सा आईपीएल मैच हुआ था और क्या बढ़िया स्लॉग (चौका या छक्का) मारा था। स्लॉग हमको पता है, क्लासिक कवर ड्राइव कहाँ पता है हमको? उसमें मज़ा भी नहीं आता। ख़ासतौर से तब जब बॉलर बेहतरीन गेंदबाज़ी कर रहा हो और पंद्रह गेंदें छोड़ने के बाद इंतज़ार, प्रतीक्षा के बाद बल्लेबाज ने पाँव आगे निकाल कर के बिलकुल सही टेक्नीक के साथ कवर ड्राइव मारा हो। वो हमें कहाँ भाएगा कि यार पंद्रह गेंदों तक तो इंतज़ार करता रहा, इंतज़ार करता रहा। हमें तो चाहिए कि बॉलर आए और बल्लेबाज ले दनादन, दे दनादन। भले ही उसमें बल्ले के ऊपर लगकर, निक लग कर छक्का लग रहा है, छक्का लगा तो आहाहा! आनंद आ गया बिलकुल, अद्भुत!

पिच वगैरह भी ये जो बीस ऑवर का क्रिकेट होता है इसमें ऐसी बनाई जाती हैं कि पिटाई हो सके गेंदबाज की। टेस्ट मैच की जो पिच होती है जानते हो न उस पर टी-ट्वेंटी खेलते ही नहीं। वो पिच ही ऐसी होती है कि पिटे बॉलर। ( टी-ट्वेंटी में) कम-से-कम एक सौ साठ-एक सौ अस्सी तो बनने ही चाहिए। और दो-सौ बने तो मज़ा आता है, ढाई-सौ बन जाए तो क्या बात है। किसको अच्छा लगेगा कि पिच ऐसी थी कि गेंदबाज़ को बराबरी का मौका मिला और उसने अस्सी पर ही समेट दिया सामने वाले को।

तो हम भोगते हैं। “आहा! छक्का लगा, क्या बढ़िया छक्का मारा।” थोड़ी देर के लिए भूल गए कि आज बॉस ने जूते से मारा था मुँह पर। दो-तीन छक्के देखे, दफ्तर में जो पिटाई हुई थी सब भूल गए। भूल गए कि कितना अपमान लग रहा था जब ग्राहक से झूठ बोलना पड़ रहा था। अपमान तो लगता ही है न? जानते हो ग्राहक को धोखा दे रहे हो, झूठ बोल रहे हो, ठग रहे हो उसको। कोई बात नहीं वापस आएँगे, दो पैग लगाएँगे उसके बाद एक हॉट मूवी देखेंगे, दिन भर जो ज़लील जीवन जिया वो भूल जाएगा। इसलिए इतने प्रचलित हैं मनोरंजन के ये सब साधन।

सही तरीका ये है कि जो भी कीमत चुकानी पड़े चुकाओ एक ऊँची ज़िंदगी जीने की और ऊँची ज़िंदगी तुम तब तक नहीं जी पाओगे जब तक तुम्हारे मन में, जीवन में ऊँचे आदर्शपुरुष ना हो। और पुरुष से मेरा मतलब मेल नहीं है, पुरुषों में मेरा मतलब व्यक्ति है (महिला-पुरुष दोनों)। जब तक तुम्हारे मन में ऊँचे आदर्श नहीं हों, तब तक तुम ख्याल नहीं करोगे किसी अच्छे लेखक का, वैज्ञानिक का, कवि का, क्रांतिकारी नेता का। इनका ख्याल नहीं करोगे तुम जब तक, तब तक तुम्हें कैसे प्रेरणा मिलेगी ज़िंदगी में कुछ भी सार्थक करने के लिए?

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