प्रश्नकर्ता (प्र): आचार्य जी, जैसे हमारी संस्कृति है, सनातन धर्म है वो कहता है कि सबसे पहले जीवन में धर्म होना चाहिए और जब धर्म होगा तो उसी से फिर अर्थ, काम और मोक्ष भी होगा। जैसे मेरे व्यक्तिगत जीवन में सत्य बोलना धर्म है, तो सामान्य और व्यापक रूप से यह धर्म क्या है, जिसे जीवन में लाना ज़रूरी है?
आचार्य प्रशांत (आचार्य): देखिए, ध्यान ही धर्म है। ये जो आपने चार पुरुषार्थों की बात करी: धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष; ये बात बहुत गहरी नहीं है। आपने संस्कृति की बात करी, संस्कृति भी कोई बहुत महत्वपूर्ण चीज़ नहीं है धर्म के सामने। हमें चूँकि इनके मायने स्पष्ट नहीं है तो इसीलिए हम धर्म और संस्कृति की बात एक ही साँस में कर जाते हैं। धर्म और संस्कृति नहीं होता और न जैसा आपने कहा कि हमारी संस्कृति हमें धर्म के बारे में सिखाती है, न संस्कृति धर्म से पहले आती है। धर्म ही प्राथमिक है। और क्यों प्राथमिक है, उसकी वज़ह कोई परम्परागत नहीं है। उसकी वज़ह बहुत तथ्यगत है। तथ्यगत बात ये है कि पहला और निर्विवाद तथ्य आप हैं।
एकदम सीधी-सी चीज समझिएगा: आपके लिए पहला तथ्य क्या है इस संसार का? आप हैं। आप कहें कि ये (रुमाल) तथ्य है, तो भी उससे पहले क्या चीज़ तथ्य हुई? आपकी आँखें जो उसको देख रही हैं। कुछ भी जो आप देख रहे हैं वो झूठ हो सकता है, पर आप झूठ भी देख रहे हैं तो भी आप तो होंगे। कम-से-कम अपनी नज़र में तो आप हैं। हैं न? तो आप हैं तो कौन है? ये शरीर तो तब भी होता है जब आप सो रहे होते हैं। पर उस समय न तो आप सवाल पूछ रहे होते, न संसार की बात कर रहे होते, न कुछ। तो आप हैं का अर्थ होता है चेतना है। तो पहला तथ्य हमारा क्या है? चेतना।
साथ चल रहे हैं सब लोग? हमारा पहला तथ्य है चेतना। हमें देखिए विश्वासों और मान्यताओं से शुरूआत नहीं करनी है। हमें उस चीज़ से शुरुआत करनी है जो निर्विवाद है, इन्डिस्प्यूटब्ल् , अकाट्य, जिस पर कोई बहस हो ही नहीं सकती।
दो लोग बहुत मुद्दों पर बहस कर सकते हैं। हो सकता है उनमें किसी भी मुद्दे पर सहमति न हो। पर दोनों एक बात पर जरूर सहमत होंगे कि दोनों हैं: मैं हूँ और तुम हो, *आई एक्सिस्ट एंड यु डू*। ठीक है? इस मुद्दे पर तो दोनों मानेंगे न? बाकी हो सकता है हर चीज़ में उनकी आपस में लड़ाई हो जाए, इस मुद्दे पर तो कोई बहस नहीं कर सकते। तो यही एकमात्र तथ्य है जिससे अध्यात्म में शुरुआत होती है कि मैं तो हूँ। अब बाकी कुछ क्या है, क्या नहीं है, कैसा है इसकी जाँच-पड़ताल करेंगे। पर साहब हम तो हैं। हम हैं माने क्या? हमने कहा सोते हुए हम को ‘हम’ नहीं बोलते। मुर्दा भी हम को ‘हम’ नहीं बोलते। मैं किसको बोलते हो आप? यही जो जाग्रत अवस्था में है; अभी जैसे बैठे हो।
आपमें से कितनों ने सोते हुए निर्णय लिया था यहाँ आने का? आपमें से कितने यहाँ सोते हुए बैठे हो? आपकी पूरी ज़िंदगी, पूरी पहचान, आपकी पूरी गतिविधियाँ सबकुछ कब है? जब आप जगे हुए हो न, जागृति के समय। तो मैं हूँ माने चेतना है और चेतना से मेरा आशय जाग्रत चेतना है। ठीक है न?
तो पहली चीज क्या? मैं हूँ। मैं हूँ माने चेतना है। और ये जो चेतना है हमारी, ये फँसी हुई है। ये फड़फड़ाती है। जो हमारी चेतना है वो कैसी है? ये फड़फड़ाती है। तभी तो सोना पसंद आता है। किसी को सोने में तक़लीफ़ होती है? कोई ऐसा है जिसे सोते समय तक़लीफ़ें रह जाती हैं? और कोई ऐसा है जो जब जग जाता हो तो उसके दिमाग़ में समस्याएँ न घूमने लगती हों? सुबह उठते ही तुरंत हाथ जाता है मोबाइल फ़ोन पर। इसलिए तो नहीं जाता कि अभी ख़ुशखबरी छपी होगी, हमें प्रधानमंत्री बना दिया। मन में अधिकांशतः क्या घूमती हैं? आशंकाएँ, डर। वही हमारा ईंधन है, इंजन है, वही हमें चलाती हैं। ये बिगड़ न जाए, कुछ ऐसा न हो जाए।
बेटा-बेटी चार घंटे से घर नहीं आए, फ़ोन पहुँच से बाहर है तो ऐसा लगता है क्या कि पुराना फ़ोन छोड़कर के एक लाख वाला नया फ़ोन ले रहे होंगे इसीलिए पुराना अभी बन्द पड़ा है? ये ख्याल किसको आता है? कोई अनरीचेबल (पहुँच से बाहर) हो जाए तो तुरंत मन में क्या उठती है, आशा या आशंका?
प्र: आशंका।
आचार्य: आशंका ही उठती है न? तो हमारी जो जाग्रत अवस्था की चेतना है वो तक़लीफ़ में है, वो डरी हुई है। हम ऊपर-ऊपर से सामान्य हैं, सुव्यवस्थित हैं, भीतर-ही-भीतर हम सब डरे रहते हैं।
तुमने कहा पहला तथ्य मैं हूँ, मैं माने चेतना और ये चेतना परेशान है। चेतना की परेशनी को हटाने को धर्म कहते हैं। तो धर्म पहली चीज़ है, संस्कृति वगैरह हटाइए। चेतना की परेशानी को हटाने को ही धर्म कहा जाता है, और कुछ नहीं है धर्म। बाकी सब जिसको आप धर्म का नाम देते हैं वो सब धर्म के बहुत बाहरी अंग है। गंगा में डुबकी मार ली, पीपल के फेरे लगा लिए, व्रत-त्यौहार इनका सम्बन्ध हम धर्म से जोड़ते हैं। हैं भी ये धर्म, पर ये सब धर्म के क्या हैं? बहुत बाह्य अंग है, बाहरी बातें है। धर्म का केंद्रीय, मूल, प्रथम मतलब क्या है? क्या है अच्छे से समझिए ताकि आप व्यर्थ की बातों को धर्म न मान लिया करें। क्या है?
प्र: जो चेतना की परेशानी को हटाए।
आचार्य: ये चेतना हमारी परेशान है। फड़फड़ाती है, डरी है, इसको शांति देना है। क्यों शांति देना है? क्योंकि पहला तथ्य कौन है? मैं हूँ। तो धर्म भी किसके लिए है?
प्र: मेरे लिए है।
आचार्य: हाँ, ये बात ज्यादातर लोगों को ताज्जुब की लगेगी। “धर्म मतलब तो होता है निःस्वार्थ भाव से कर्म करना।” नहीं साहब, वो जो निःस्वार्थता होती है उसमें परमार्थ बैठा है, उसमें परम स्वार्थ बैठा है क्योंकि वो सबकुछ आपके लिए है। आपके अलावा आपके लिए कोई और कैसे महत्वपूर्ण हो सकता है? जो कुछ भी महत्वपूर्ण है आपके लिए, वो आपके लिए महत्वपूर्ण है न, आप ही नहीं तो कुछ महत्वपूर्ण कैसे बचेगा, बताइए? तो पहली भलाई किसकी चाहिए? अपनी। तो धर्म इसलिए है; अपनी पहली भलाई करने के लिए।
और धर्म अनुसंधान करता है, छानबीन करता है कि व्यक्ति की, जीव की असली भलाई किस चीज़ में है। धर्म इसी चीज़ की छानबीन करता है कि भई भलाई तो हम सबको चाहिए क्योंकि परेशान हम सब हैं। अगर हम एकदम ही ठीक होते तो कोई बात नहीं, फिर धर्म की ज़रूरत भी नहीं है। जो समस्याओं से मुक्त है उसे किसी धर्म की आवश्यकता नहीं क्योंकि धर्म का तो उद्देश्य ही मुक्ति है। तुम मुक्त ही हो अगर तो धर्म का क्या करोगे? छोड़ो धर्म को!
धर्म धारण किया जाता है। धर्म क्या है? एक धारण करने वाली चीज़, एक अपनाने वाली चीज़। क्यों अपनायी जाती है? ताकि आप उन धारणाओं से मुक्त हो सकें जो आपने व्यर्थ पहन रखी है। जो व्यर्थ पहन रखी धारणाएँ हैं, जो आपको मुक्त नहीं होने दे रहीं, उनको तो हम एक ही नाम बोल सकते हैं, क्या? बेड़ियाँ। कोई ऐसी चीज़ आपने पहन रखी है जो आपकी मुक्ति में बाधा है, उसको और क्या नाम दें? बेड़ी है वो। कुछ पहन रखा है जो आपको मुक्ति नहीं लेने दे रहा, उसको क्या नाम दूँ? बेड़ियाँ। तो बेड़ियाँ हम क्या करते हैं? धारण। बेड़ियाँ हमने क्या कर रखी है? धारण।
हमने माने किसने? चेतना ने। उसी चेतना को आप मन का भी नाम दे सकते हो मोटे तौर पर। हमने क्या धारण कर रखी है? बेड़ियाँ। बेड़ियाँ हमने धारण कर रखी है बेहोशी में। हमें पता भी नहीं हम क्या-क्या पकड़े बैठे हैं। कहाँ पकड़े बैठे हैं? हाथ से पकड़े बैठे हैं? कहाँ पकड़ रखा है?
प्र: मन में।
आचार्य: तो हम ये फ़िजूल की चीज़ें सब मन में पकड़े बैठे हैं। पकड़ने को ही कहते हैं धारण करना। तो धर्म भी धारण करने का ही नाम है, कोई ऐसी चीज़ जो उन धरणाओं को काट दे जो तुमने पहले से पकड़ रखी है। तो धर्म अपने मूल में नकारात्मक है क्योंकि धर्म का काम उन चीजों से आपको मुक्त करना है, छुटकारा दिलवाना है जो आपने पकड़ रखी है या जिन्होंने आपको पकड़ रखा है, जैसे भी बोल लो। समझ में आ रही है बात? ये धर्म है।
अभी तक संस्कृति पर हम आए नहीं हैं। संस्कृति क्या है? हम जिन धारणाओं की बात कर रहे हैं उन्हीं के लिए दूसरा नाम है संस्कार। कुछ संस्कार प्रकट होते हैं, कुछ संस्कार प्रच्छन्न। संस्कार माने? जिसको आधुनिक भाषा में कंडीशनिंग कहते हैं। कुछ प्रकट होते हैं और कुछ अप्रकट, प्रच्छन्न। जो प्रकट होते हैं उनको हम कह देते हैं सामाजिक संस्कार हैं। जो छुपे हुए संस्कार हैं, जो हमे पता भी नहीं कहाँ से मिल गए वो जैविक संस्कार हैं, वो शारीरिक संस्कार हैं। यही धारणाएँ हैं, इन्हीं की बात हो रही है।
इन संस्कारों के साथ हम पहले ही लैस बैठे हैं, बंधे बैठे हैं, दबे बैठे हैं। ठीक है न? ये तो मौजूद हैं ही। ये सब संस्कार हैं जो हममें मौजूद हैं। उन संस्कारों को काटने के लिए भी हमें अब क्या चाहिए?—पुरानी धारणाओं को काटने के लिए हमने क्या कहा? धर्म क्या है? नई धारणाएँ, ऐसी धारणाएँ जो पुरानी धारणाओं को काट दे। तो इसी तरह से पुराने संस्कारों को काटने के लिए हमें क्या चाहिए होते हैं? नए और सही संस्कार। नए और सही संस्कार देने को कहा जाता है संस्कृति।
तो संस्कृति का मतलब ये नहीं है कि पहले से जो चल रहा है हम भी वहीं करेंगे। “हमारी तो जी ऐसी संस्कृति रही है।” पागलपन की बात। संस्कार का मतलब है पहले से ही संस्कारित व्यक्ति को कुछ ऐसा देना जिससे उसके व्यर्थ के संस्कारों को काटा जा सके। अब आपको समझ में आया होगा कि अब यहाँ धर्म और संस्कृति का सम्बंध हो गया।
लेकिन धर्म और संस्कृति का सम्बंध अनिवार्य नहीं है क्योंकि संस्कार आपको ऐसे भी मिल सकते हैं जो पुराने संस्कारों को काट दें। अगर आपको ऐसे संस्कार मिल रहे हैं जो पुराने संस्कारों को काट रहे हैं तो ये धार्मिक संस्कार कहलाएँगे। ये कौन से संस्कार हुए? ये धार्मिक संस्कार हुए।
बहुत जरूरी है धार्मिक संस्कार देना क्योकि वो जो गंदे वाले, काले वाले, ख़तरनाक वाले संस्कार हैं वो तो पहले से ही मौजूद हैं। उसके लिए आपको कुछ करना नहीं पड़ता, कोई आवेदन नहीं देना पड़ता। वो तो बच्चा अपने साथ लेकर के पैदा होता है गड़बड़ संस्कार बहुत सारे। वो पैदा होते ही रोएगा, टट्टी करेगा, ये झपटेगा, ये करेगा। जानवर जैसा होता है। तो वो तो वो लेकर पैदा होता है। उनको काटने के लिए अच्छे संस्कार देने पड़ते हैं।
अगर संस्कार ऐसा है जो आपको सामाजिक-शारीरिक संस्कारों से मुक्ति दिलाता है तो वो संस्कार कहलाएगा धार्मिक। समझ में आ रही है बात? स्पष्ट है सबको यहाँ तक? लेकिन संस्कार बहुत गड़बड़ वाले भी हो सकते हैं। क्योंकि हम तो संस्कारित होने के लिए एकदम तैयार बैठे रहते हैं। कोई भी कुछ भी आए, हमारे खोपड़े में डाल दे, सिखा दे, पढ़ा दे, इसीलिए तो कहते हैं संस्कारित होना। संस्कारित होने को ही अनुकूलित होना भी कहते हैं। ये एसी चल रहा है न, इसे क्या कहते है?
प्र: वातानुकूलन।
आचार्य: हाँ। ये क्या कर रहा है? ये जो हवा है इसके पास कोई दम नहीं है। वात, यहाँ का जो ये पूरा माहौल है, ये जो हवा है, इसके पास कोई अपनी चेतना नहीं है। तो एसी ने क्या कर दिया? उसको अनुकूलित कर दिया। तो फिर हम ये कहते हैं कक्ष अब वातानुकूलित हो गया। समझ रहे हो बात को? एक बेहोश आदमी, एक अचेतन आदमी का खोपड़ा इस कमरे की हवा जैसा होता है। और समाज क्या है? एसी जैसा। आप क्या हैं? इस कमरे की हवा जैसे। अभी थोड़ी देर पहले गरम थी। मैं यहाँ आया मैंने दो-चार बार इस रुमाल से अपना मुँह पोंछा। जैसे हवा के पास अपनी कोई क्षमता ही न हो चुनाव करने की। सूरज था बाहर अभी तो हवा कैसी हो गयी थी?
प्र: गर्म।
आचार्य: अब सूरज का हवा से कोई प्रेम का तो रिश्ता है नहीं। सूरज ने कुछ करना था उसने कर दिया। हवा के पास कोई सामर्थ्य ही नहीं स्वीकार या अस्वीकार करने की। वो बेचारी गर्म हो गयी। फिर किसी ने एसी चला दिया। अब हवा ने खुद तो एसी चलाया नहीं, कोई बाहरी आदमी आया, एसी चला कर चला गया, हवा बेचारी ठंडी हो गयी।
हमारा खोपड़ा कैसा? हवा जैसा। क्योंकि उसके पास क्या नहीं है अपनी? चेतना। ज्यादातर लोग बेहोशी में जीते हैं, चेतना नहीं है, जो होता है उसी में ढल जाते हैं। तो घटिया संस्कार भी आ सकते हैं। कोई भी आकर आपका खोपड़ा खराब कर सकता है, इसी को कहते हैं घटिया संस्कार और ये सबसे ज्यादा बच्चों में डाले जाते हैं। सबसे ज्यादा कौन डालता है इनको? माँ-बाप। क्योंकि उनका अपना खोपड़ा खराब है। उनको खुद नहीं पता जिंदगी कैसे जीनी है पर वो बच्चा बेचारा निर्भर है माँ-बाप पर। माँ-बाप की दुनिया में किसी पर न चलती हो लेकिन एक पर तो चलती है, कौन? वो जो छोटू है। तो छोटू को पकड़कर पूरा उसको रगड़ देते हैं। और एकदम ज्ञान दे-देते हैं ऐसे करना चाहिए, वैसे करना चाहिए। वो फलाने अंकल आएँ तो नमस्ते करो, वो फलाने ताऊ गरीब हैं उनको ऐसे ही जाने दो। वो पूरा अपना एकदम पाँच-सात साल की उम्र तक होते-होते छोटू एकदम संट हो जाता है।
घटिया संस्कार भी दिए जा सकते हैं। घटिया संस्कारों की परिभाषा क्या? जो संस्कार आपके पुराने ही संस्कारों को और ज़्यादा सघन कर दें वो संस्कार घटिया हैं। और हम बहुत सारे संस्कार गर्भ से लेकर पैदा होते हैं। गर्भ से आप जो संस्कार लेकर आ रहे हो, अगर समाज और शिक्षा और परिवार भी उन्हीं संस्कारों को आगे बढ़ा रहा है तो वो अधार्मिक संस्कार हैं।
इस दुनिया में कोई नहीं है जो असंस्कारित हो या कोई समाज ऐसा नहीं है जो संस्कृतिहीन हो। संस्कृतियाँ सबके पास है, अंतर बस ये है कि कुछ संस्कृतियाँ धार्मिक हैं और कुछ अधार्मिक। तो जल्दी से कह मत दिया करिए, "हमारी संस्कृति-हमारी संस्कृति।" पहले पूछिए तो कि आपकी संस्कृति है कैसी, धार्मिक है कि अधार्मिक है।
संस्कृति का सम्बंध परम्परा से नहीं होना चाहिए, संस्कृति का सम्बंध धर्म से होना चाहिए। पर हमारे लिए परम्परा सबकुछ है, धर्म कुछ नहीं है। जो लोग धार्मिक भी बनते हैं वो वास्तव में वो लोग हैं जो कहते हैं कि “साहब हम तो परंपरावादी हैं। तो हम धार्मिक हो गए। हम वैसे कपड़े पहनते हैं जैसे आठ सौ साल पहले पहने जाते थे। तो हम धार्मिक हैं।” इसीलिए तो धार्मिक आदमी को दूर से ही बता देते हो देखकर के, “वो धार्मिक आ रहा है।” उसकी भाषा ऐसी होगी जैसी आठ सौ साल पहले बोली जाती थी। कपड़े होंगे वैसे। सबकुछ उसका वैसा ही होगा। उसका बस चले तो सड़क पर रथ पर चले, फास्टैग लगवाकर। और हम प्रसन्न भी बहुत हो जाते हैं ऐसा कोई मिल जाए तो, “जय गुरुदेव।” और गुरुदेव की कुल खासियत क्या है? वो रथ पर चलते हैं।
परंपरा से नहीं, इतिहास से नहीं, अतीत से नहीं, संस्कृति कहाँ से आनी चाहिए?
प्र: धर्म से।
आचार्य: इसीलिए संस्कृति को बहुत ज्यादा नया होना चाहिए हमेशा। हमने ऐसी भद्दी हरकत करी है: हमने धर्म को अतीत की चीज बना दिया है।
चलो वापस रिवीजन (संशोधन): पहला तथ्य क्या है? मैं। मैं माने मेरी चेतना। ठीक है? चेतना हमारी कैसी है? परेशान। वो परेशानी छह सौ साल पहले की है कि आज की है?
प्र: आज की है।
आचार्य: और धर्म अगर उन परेशानियों का उत्तर है तो धर्म छह-सौ साल पहले का होगा कि आज का होगा?
प्र: आज का होगा।
आचार्य: धर्म अगर आज का होगा तो संस्कृति भी हमें आज की रखनी है या छह-सौ साल पहले की?
प्र: आज की।
आचार्य: और आज की संस्कृति से क्या ये मतलब है कि अब जो फूहड़पना चारों तरफ चल रहा है? नहीं। आज की संस्कृति से मतलब है कि आज की समस्याओं के लिए हमारे पास एक ताजा धार्मिक उत्तर होना चाहिए, नवीन। बात समझ में आ रही है?
हम क्या करते हैं? देखिए अपने मन को। हम सोचते हैं जो पुराना है वो धार्मिक है। तो कुछ लोग ऐसे होते हैं जो धार्मिक कहते हैं अपने-आपको तो वो पुरातनवादी हो जाते हैं। वो म्यूजियम के अंदर घर बना लेते हैं अपना। बढ़िया है। और जो अपने-आपको कहते हैं नहीं-नहीं हम मॉडर्न हैं वो बद्तमीज हो जाते हैं। वो क्या करते हैं? वो कहते हैं देखो हम तो समय के साथ चलते हैं। ये कौन-सा समय है जिसमें तुम्हारा नाम ही एक गाली है?
नहीं, ये दोनों ही बातें बचकानी हैं। न तो धर्म का सम्बंध अतीत से है, न आधुनिकता का सम्बंध होना चाहिए ये जो बेवकूफियाँ चारों ओर फैली हुई है आधुनिकता के नाम पर।
अधुना माने जानते हो क्या होता है? अभी। और अभी शब्द तो सत्य के लिए, परमात्मा के लिए इस्तेमाल होता है। आधुनिक तो सिर्फ परमात्मा है। सच के अलावा कुछ आधुनिक नहीं होता। मॉडर्न बहुत हल्का शब्द है। आधुनिक शब्द में गहराई है। सत्य के अलावा कुछ आधुनिक नहीं होता। तो जो असली धार्मिक आदमी होगा वो अतिआधुनिक होगा। उसमें कुछ पुराने जैसा मिलेगा भी और कुछ ऐसा मिलेगा जो बिलकुल पुराना नहीं है।
“लो अतीत से उतना ही जितना पोषक है, जीर्ण-शीर्ण का मोह मृत्यु का द्योतक है।”
वो अतीत से वो ले लेगा जो आज भी प्रासंगिक है। और जिसकी आज कोई आवश्यकता नहीं, जो बात सिर्फ उस समय की थी, आज जिसकी कोई उपयोगियता नहीं, उस बात को वो पीछे छोड़ देगा। सत्य तो नया होता है न, नया, नया, लगातार नूतन कहते है न? अभिनव। तो संस्कृति भी फिर नई होनी चाहिए। और नई का मतलब फिर कह रहा हूँ ये नहीं है कि साहब हम मॉडर्न हैं। आधुनिकता का मॉडर्निटी से कोई सम्बन्ध नहीं है। मॉडर्निटी एक विचारधारा है। ठीक है? और वो बीत भी गई। अब क्या चल रहा है? *पोस्ट-मॉडर्निटी*।
आधुनिकता कभी पुरानी नहीं हो सकती। क्योंकि अधुना क्या है? अभी। अभी कैसे पुराना होगा? ये जो अभी है, ये कभी पुराना कैसे हो सकता है? पर विचारधाराएँ तो आती-जाती रहेंगी। तो आधुनिक रहिए और अतिआधुनिक।
वास्तव में आधुनिक सिर्फ कौन है? धर्म। क्यों है? क्योंकि साहब हम आधुनिक हैं न। हम कब हैं? हम अभी हैं तो हमारी समस्याएँ कब हैं?
प्र: अभी है।
आचार्य: तो हमें उन समस्याओं का समाधान भी कब चाहिए?
प्र: अभी चाहिए।
आचार्य: यही तो धर्म है। तो धर्म कब है? अभी। जो अभी है वही धर्म है। जो अभी है वो या तो धर्म है या माया क्योंकि माया भी अभी है समस्या बनकर। और सत्य भी अभी है समाधान बनकर, धर्म बनकर।
माया भी अभी है क्या बनकर? समस्या बनकर। जीवन भी अभी है। जीवन में माया भी अभी है समस्या बनकर और सत्य भी अभी है समाधान बनकर। समझ में आयी बात? तो संस्कृति ज़रा पेंचीदा बात है। संस्कृति चाहिए हमें लेकिन संस्कृति के नाम पर कुछ भी पुराना नहीं उठा लेना है। लगातार देखते रहना है कि क्या है जो हमें हमारी समस्याओं से मुक्त कराएगा, जो हमें मुक्ति की ओर ले जाएगा। जो कुछ भी मुक्ति की ओर ले जा रहा हो, वही अपने बच्चों को पढ़ाइये, वही संस्कृति है। वैसी ही संस्कृति हमें चाहिए, एकदम नई-ताजी-*डायनमिक*। समझ में आ रही है बात?
प्र: आचार्य जी, जैसे इतनी सारी परिभाषाएँ हैं, मुझे इनसे कोई प्रयोजन नहीं है मुझे तो बस अपना समाधान चाहिए।
आचार्य: नहीं, समस्या है ही नहीं तो समाधान कैसे? समस्या हमारी धरणाओं ने बना रखी है न, अन्यथा समस्या है कहाँ? तो ये जो सारी परिभाषाएँ है ये आपकी गलत परिभाषाओं को काटने के लिए हैं महोदय। आप ये नहीं कह सकते कि इन परिभाषाओं से कोई लेना-देना नहीं है, मुझे तो बस गोली में समाधान दे दो। आपके पास कुछ बहुत गलत परिभाषाएँ हैं और उनको जबतक खण्डित नहीं किया जाएगा कोई समाधान होगा नहीं।
हम इतनी देर से क्या कह रहे हैं: धर्म माने धारणा, धार्मिक धारणा की ज़रूरत है ही क्यों? क्योंकि गलत धारणा पकड़कर बैठे हो साहब। धार्मिक संस्कारों की ज़रूरत है ही क्यों? क्योंकि अधार्मिक संस्कार पकड़कर बैठे हो।
अब आप कह रहे हो मुझे सही संस्कार क्या है, धर्म क्या है, ये मुझे बताओ ही मत, मुझे समाधान दे दो। हो नहीं सकता, कैसे करूँ? क्योंकि और कोई समस्या है ही नहीं जिसका आपको समाधान दिया जाए। समस्या सिर्फ एक है: वो जो अंजड़-पंजड़ चीज़े हमने खोपड़े में पकड़ ली हैं ये सोचकर कि यही तो सच है, ऐसा ही तो होता है, ऐसा ही तो होना चाहिए। और इससे ज़्यादा दयनीय बात भी नहीं होती, हास्यास्पद बात भी नहीं होती जब हम कुछ पकड़ लेते हैं और बोलते हैं “पर ऐसे ही तो होता है, ऐसे ही तो होना चाहिए। नहीं, ऐसा नहीं करेगा तो क्या करेगा?” भाई, भाई थम जाओ न। आप इतने विकल्पहीन हो क्या? आप कुछ और करने लगोगे तो कल सूरज नहीं उगेगा? किसने आपको बता दिया कि ऐसी चाल चलना है? ऐसे नहीं चलोगे तो हो क्या जाएगा, बताओ तो? क्या हो जाएगा? अभी भी आप जो कह रहे हैं उसका थोड़ा-सा अगर मनोविश्लेषण करें तो यही होगा कि कुछ ऐसा है जिसको आप किसी कीमत पर छोड़ना नहीं चाहते।
तो आप कह रहे हैं “मैंने जो पकड़ रखा है वो तो पकड़े रखूँगा। उसको पकड़े-पकड़े मेरा कुछ कर दीजिए आचार्य जी। समाधान बता दीजिए।” मैं नहीं बता सकता। कैसे बता दूँ? कोई पानी में डूब रहा है आदमी और इतना (बहुत) मोटा पत्थर पकड़े है। एकदम बाँध रखा है उसने उसको छाती से। और कह रहा है ये तो पकड़े रहूँगा पर मुझे उबार लीजिए। मैं भी डूब जाऊँगा बाबा! उस पत्थर में इतनी ताकत है। छोड़ना ही पड़ेगा, काम सारा नकारने का है।
देखो, आप पैदा नहीं होते हो बहुत कुछ करने के लिए, आप पैदा होते हो नकारने के लिए। इस बात को समझिएगा। चूँकि हम नकारते नहीं हैं न इसीलिए हमें जीवन भर जरूरत पड़ती रहती है बहुत कुछ करने की।
उसी आदमी को ले लो, जो आदमी छाती से पत्थर बाँधे है। उसे कितनी सारी स्विमिंग सीखनी पड़ेगी न। ऐसे ही हम हैं, हम जीवन भर सीखते ही रहते हैं। “ये कोर्स करो, यहाँ पर जाओ, ये है, ये डिग्री हाँसिल करो।” वो सब तुम सिर्फ इसलिए कर रहे हो क्योंकि छाती पर पत्थर बाँध रखा है। “इतना सारा कमाना बहुत जरूरी है।” उतना कमाना सिर्फ इसलिए जरूरी है क्योंकि बहुत बड़ा खर्चा बाँध रखा है। खर्चा काटना जरूरी है, कमाने की जरूरत नहीं पड़ेगी भाई! जो चीजें अपरिहार्य है जीवन के लिए वो बहुत कम हैं, गिनती की हैं। लेकिन हम बेकार ही जीवन भर बहुत-बहुत ज़्यादा मेहनत करते हैं। और वो मेहनत हमें कहीं पहुँचाती नहीं, ठीक वैसे जैसे उस आदमी की मेहनत उसे कहीं नहीं पहुँचाएगी जिसकी छाती पर पत्थर बँधा हुआ है। पत्थर बाँध करके आप बहुत मेहनत से तैर रहे हो, कौन बचा सकता है आपको!
इसी तरीके से गलत धारणाएँ बाँध करके आप ज्ञान लोगे, अध्यात्म में आओगे, कोई लाभ नहीं होगा। असली चीज है रिहाई, रिहाई। अपने-आपको रिहा करिए। और जिन बातों ने हमें पकड़ रखा है, देखिए अब वो इतनी घुस गयीं है हमारे जीवन में कि खून बन गयीं हैं हमारा। हमें पता भी नहीं कि हम पकड़े हुए हैं। अब कोई आदमी बीस साल से जेल में है, उसको बूरा लगता है क्या अब? लगता होगा?
फ्रेंच क्रांति के दिनों का पता है न क्या हुआ था? क्रांतिकारी सब थे, उन्होंने जेलें-वेलें भी तोड़ दीं कि “यहाँ सब भाई है हमारे, ये भी बाहर निकलेंगे। इक्वालिटी, फ्रेटर्निटी, लिबर्टी (समानता, बन्धुत्व, स्वतंत्रता)।” वो बाहर निकले और फिर अंदर जाकर बैठ गए, बोले, "यही ठीक है।" जो बहुत लंबे समय से अंदर थे वो बोले “यहीं बढ़िया है। तक़लीफ़ क्या है? बाहर निकाल क्यों रहे हो हमको?” हम ऐसे हो चुके हैं।
तो मैं जो कुछ बोलूँगा आप उसपर ऐसे-ऐसे हाँ में सर हिला देना। और अभी सत्र खत्म होगा उसके बाद आप बाहर जाएँगे अपना मोबाइल फ़ोन उठाएँगे और फिर पुराने ढर्रों पर चालू हो जाएँगे। मोबाइल फोन ढर्रा नहीं है पर मोबाइल फ़ोन बहुत सशक्त प्रतीक है उन ढर्रों का जो हमारी ज़िंदगी में हैं। वही उसी तरीके के मैसेज होंगे, आपके उसी तरीके के रिप्लाई होंगे। वही हड़बड़ाहट, वही आशंकाएँ, वही डर भी, वही क्रोध भी। कुछ आपकी उम्मीद होगी, आप फोन उठाओगे, वैसा मैसेज नहीं आया होगा। आप क्रोध में रिप्लाई करोगे, “मैं चाहता था कि ये काम हो जाए साढ़े आठ बजे रात में, हुआ क्यों नहीं अभी तक? अभी नौ बज रहे हैं! मैंने कहा था न काम करके मुझे कंफर्मेशन (पुष्टीकरण) भेजना, आया क्यों नहीं अभी तक मैसेज ?” वही क्रोध।
सोचों उनका क्या हो रहा होगा जो बिना बताए चोरी-छीपे यहाँ आ गए हैं? ये काम ही थोड़ा असमाजिक तरीके का है। वो जाएँगे वो घबराहट में अपना फ़ोन देखेंगे। “किसी को पता तो नहीं चल गया?” और हमें उस क्षण ख्याल भी नहीं आएगा कि हम जो अभी कर रहे हैं वो उस बात के बिलकुल विपरीत है, जो सत्र में हुई है। हमको वो सब सामान्य लगता है क्योंकि हमें आदत पड़ गयी है बहुत गहरी। उसी आदत से रिहाई चाहिए। यही धर्म है।