आचार्य प्रशांत आपके बेहतर भविष्य की लड़ाई लड़ रहे हैं
लेख
आओ भूत दिखाएँ || (2020)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
29 मिनट
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प्रश्नकर्ता: मेरा एक दोस्त है वो ये भूत-प्रेत वगैरह सब में बहुत ज़्यादा विश्वास करता है। हालाँकि पढ़ा-लिखा है वेल एजुकेटेड है लेकिन पता नहीं क्यों ऐसा है। तो बहुत उससे डिस्कशन (चर्चा) हुआ, काफ़ी सारे लॉजिक (तर्क) उसने भी दिए। मैंने कहा — भई मैंने तो कभी नहीं देखे, अगर होते तो मुझे भी दिखते। तो फिर वह बोलता है कि तुमने नहीं देखे तो इसका मतलब ये थोड़े ही है कि नहीं होते हैं, क्या पता तुमको बाद में दिख जाए। तो मतलब इसका मुझे लग रहा था कि बात तो ग़लत है लेकिन मैं कोई शब्दों में उसको सिद्ध नहीं कर पाया कि ग़लत है।

आचार्य प्रशांत: हाँ ये बहुत प्रचलित तर्क है कि भूत-प्रेत का आपको अनुभव नहीं है इसका मतलब ये थोड़े ही है कि वो होते ही नहीं। इसका मतलब बस यही है कि आपको अनुभव नहीं हुआ। तो अनुभव हो सकता है आपको बाद में हो जाए; या क्या पता आपमें ही कोई कमी हो कि आपको इस तरह की दिव्य अनुभूतियाँ नहीं हुआ करती हैं। नहीं ये जो आर्ग्यूमेंट (तर्क) है ये बिलकुल बेकार है।

देखिए, अगर कोई कहे कि, "बताओ काकाटुआ होता है या नहीं होता?" तो हम ज़रुर कह देंगे कि हमें नहीं पता होता है या नहीं होता, क्योंकि हम कुछ भी नहीं जानते काकाटुआ के बारे में न। हमें उसकी परिभाषा ही नहीं बताई गई है। हमें उसके विषय में कोई ज्ञान नहीं है, तो हम तुरंत क्या कह देंगे कि, "भई काकाटुआ हो भी सकता है नहीं भी हो सकता है, हम कुछ नहीं जानते।" हम हाथ जोड़ लेंगे। लेकिन आपसे कोई कहे कि, "बताओ स्क्वेअर-सर्किल (चौकोर-वृत्त) होता है या नहीं होता है?" तो आप ये नहीं कहोगे न कि, "मैं नहीं जानता कि स्क्वेअर-सर्किल होता है या नहीं होता।"

प्र: हाँ।

आचार्य: क्यों नहीं कहोगे? क्योंकि काकाटुआ के बारे में आप कुछ भी नहीं जानते थे। लेकिन स्क्वेअर-सर्किल की जहाँ तक बात है वहाँ आप स्क्वेअर (चौकोर) को भी जानते हो सर्किल (वृत्त) को भी जानते हो। और आप जानते हो कि स्क्वेअर और सर्किल एक साथ नहीं हो सकते। ऐसा कोई भी जीओमैट्रिकल फ़िगर नहीं हो सकता जो स्क्वेअर भी हो और सर्किल भी हो, ठीक है? तो यहाँ पर आप ये नहीं कहोगे कि, "देखो स्क्वेअर-सर्किल मेरे अनुभव में नहीं है लेकिन क्या पता होता हो, और हो सकता है कि कोई बहुत दिव्य अनुभूतियों वाले गुरूजी हों उन्हें स्क्वेअर-सर्किल का अनुभव हो, पर भई हम तो साधारण मनुष्य हैं तो हमें तो कोई स्क्वेअर-सर्किल का अनुभव नहीं है।"

आप ऐसी कोई बात नहीं कहोगे। आप सीधे कह दोगे कि स्क्वेअर-सर्किल मूर्खता की बात है, ये हो ही नहीं सकता। ना मेरे अनुभव में है और ना ये मेरे अनुभव में कभी आएगा। मेरे अनुभव में है भी नहीं, ना मेरे अनुभव में कभी आएगा, और ये स्क्वेअर-सर्किल तुम्हारे अनुभव में भी नहीं हो सकता क्योंकि ये एक इम्पॉसिबिलिटी (असंभावना) है। ये परिभाषा के हिसाब से ही एक कॉन्ट्रडिक्शन (विरोधाभास) है, एक पैराडॉक्स है।

आप बात समझ रहे हो?

प्र: हाँ।

आचार्य: तो ये जिनको भूत-प्रेत कहा जाता है अगर हम इनके बारे में बिलकुल कुछ भी नहीं जानते होते तो मैं हाथ जोड़ कर कह देता कि, "माफ़ करिए मैं नहीं जानता हूँ भूत-प्रेत होते हैं कि नहीं होते हैं।" लेकिन भूत-प्रेत आपने परिभाषित कर रखे हैं और मैं उस परिभाषा को लेकर के कह रहा हूँ कि भूत-प्रेत नहीं हो सकते। ठीक वैसे जैसे मैं स्क्वेअर और सर्किल की परिभाषा को लेकर के कह रहा हूँ कि स्क्वेअर-सर्किल नहीं हो सकता। वैसे ही मैं, आपने जो परिभाषा दी है भूत-प्रेत की, उसको लेकर कह रहा हूँ कि भूत-प्रेत नहीं हो सकते।

आप कहते हो कि शरीर के मरने के बाद शरीर से कोई चीज़ निकल जाती और भूत बन जाती है और वो हवा में इधर-उधर डोलती है। आपने दो विषयों के बारे में कोई दावा कर दिया — आपने शरीर के बारे में कोई दावा कर दिया और आपने स्पेस के बारे में, एटमॉस्फियर (वातावरण) के बारे में कोई दावा कर दिया। पहली बात तो आपने कहा कि शरीर से कोई चीज़ निकल जाती है। मैं शरीर को तो जानता हूँ न, शरीर की तो परिभाषा पता है न।

प्र: हाँ।

आचार्य: तो मैं जानता हूँ कि शरीर से कोई भी चैतन्य तत्व निकल नहीं सकता।

प्र: मटिरिअल (पदार्थ) होता है पूरा।

आचार्य: शरीर मटिरिअल होता है और शरीर से जो कुछ निकलता है वो मटिरिअल ही होता है। दूसरी बात मैं स्पेस को भी जानता हूँ। मैं ये भी जानता हूँ कि स्पेस में जो कुछ है वो भी मटिरिअल होता है। तो अगर स्पेस में कुछ मौजूद है तो वो एक साधारण मटिरिअल वस्तु ही होगी, वो कोई परालौकिक भूत-प्रेत, प्रेतात्मा या सोल (आत्मा) नहीं हो सकती। तो इसलिए ये जो तर्क है कि जिस चीज़ का आपको अनुभव नहीं है आप उसका खण्डन क्यों कर रहे हैं, ये बहुत ही बेहूदा और मूर्खतापूर्ण तर्क है। ये ऐसा ही तर्क है कि आपको कहा जाए कि एक इंसान है और उसके शरीर का तापमान एक हज़ार डिग्री सेंटीग्रेट है।

प्र: ये तो फिर भी फिजिकल (भौतिक) बात है। मैं भी कर सकता हूँ।

आचार्य: हाँ, लेकिन जब आप कहें कि, "नहीं, एक हज़ार डिग्री सेंटीग्रेट नहीं है तापमान किसी के शरीर का", तो आपको तर्क क्या दिया जाए? आपको कहा जाए तुम्हें अनुभव नहीं हुआ तो इसका मतलब क्या हो ही नहीं सकता? तो ये जितने भी भूत-प्रेतवादी होते हैं और ये जो अंधविश्वास फैलाने वाला पूरा एक अभियान है इनका सबसे जो पसंदीदा तर्क है वो यही है, क्या? कि, "तुम्हें अनुभव नहीं हुआ तो इसका मतलब क्या हो नहीं सकता?" ये वैसी-सी बात है कि तुम्हें अगर अपने शरीर में कभी एक-हज़ार डिग्री सेंटीग्रेट के तापमान का अनुभव नहीं हुआ तो क्या इतना तापमान हो नहीं सकता? नहीं, बिलकुल नहीं हो सकता। ना मेरे शरीर का हो सकता, ना तुम्हारे शरीर का हो सकता और ना तुम्हारे गुरु के शरीर का हो सकता। क्यों नहीं हो सकता? अरे भई! मैं अनुभव नहीं करा हूँ कभी कि एक-हज़ार डिग्री सेंटीग्रेट तापमान होने पर शरीर कैसा होता है, लेकिन मैं शरीर को तो जानता हूँ न, मैं इस खाल को तो जानता हूँ न, मैं हड्डी को तो जानता हूँ न।

प्र: पानी से बना है शरीर।

आचार्य: और मैं पानी को तो जानता हूँ न। मुझे मालूम है कि शरीर में सत्तर प्रतिशत तो पानी है, एक-हज़ार डिग्री तुम तापमान कर दोगे तो पानी कहाँ बचेगा? मैं इस खाल को तो जानता हूँ न, मैं प्रोटीन को तो जानता हूँ न और मैं जानता हूँ कि ये कितने तापमान पर ख़त्म हो जाते हैं, डिसइंटिग्रेट (नष्ट) हो जातें हैं केमिकलि (रसायनिक तरह से)। तो मैं इस शरीर को जानता हूँ इसलिए मैं कह सकता हूँ कि एक-हज़ार डिग्री तापमान नहीं हो सकता। ये बेहूदा तर्क है कि आपका कभी एक-हज़ार डिग्री नहीं हुआ तो क्या किसी का भी नहीं हो सकता, नहीं किसी का भी नहीं हो सकता, किसी का भी नहीं हो सकता।

अब वैसे ही कोई कहे माइनस टू केल्विन , कि माइनस टू केल्विन टेम्प्रचर है और हमारे गुरु जी ने अनुभव करा है। भईया! कोई भी हो माइनस टू केल्विन टेम्प्रचर नहीं हो सकता। क्योंकि ज़ीरो केल्विन परिभाषा ही है पदार्थ की उस स्थिति की जिसमें सारा मॉलिक्यूलर-एटॉमिक मूवमेंट (आणविक-परमाणु गति) बिलकुल शट-डाउन (बंद) हो जाता है। अब कुछ बचा ही नहीं जिसमें ज़रा भी गति हो रही हो और जब गति नहीं हो रही तो टेम्प्रचर (तापमान) कहाँ से आएगा?

इसी तरीके से पचासों उदाहरण दे सकते हो आप। कोई आपसे आकर कहे कि "मैंने क्वॉडरेटिक-इक्वेशन (वर्ग समीकरण) की पाँचवी रुट (मूल) निकाल ली है।" और आप कहें कि, " क्वॉडरेटिक-इक्वेशन की पाँचवी रुट ? मैंने तो आज तक देखी नहीं।" तो वो बोले, "ये देखो तुम रह गए न पूरी तरह मटिरिअल * । अरे अगर तुम * स्पिरिचुअल (आध्यात्मिक) होते तो क्वॉडरेटिक-इक्वेशन की पाँचवी रुट भी निकलती।"

"और तुम्हारे अनुभव में नहीं है क्वॉडरेटिक-इक्वेशन की पाँचवी रुट इसका मतलब ये हुआ क्या कि क्वॉडरेटिक-इक्वेशन की पाँचवी रुट हो ही नहीं सकती?" ये बड़ा तर्क चलता है कि तुम्हारे अनुभव में नहीं है न भाई। अरे अनुभव की बात नहीं है आप जो बात बोल रहे हो वो चीज़ परिभाषा के ही विरूद्ध है। पाँच रुट हो सकती हैं, पर फिर वो फ़िफ्थ-डिग्री पॉलिनॉमिअल होना चाहिए न, फिर उसकी पाँच हो जाएँगी। मैं नहीं कह रहा कि पाँच रूट नहीं हो सकती। पर आपने जो इक्वेशन रची है या आपके सामने जो इक्वेशन समीकरण रखा हुआ है, वो है ही एक्स-स्क्वेअर के टर्मस में। ax^2+bx+c=0 ये आपके हाथ में है, इसकी आप पाँचवी रूट कहाँ से निकाल लाओगे? यही बात भूत-प्रेतों पर लागू होती है।

तुम भूत-प्रेतों के विषय में जो भी कुछ कह रहे हो उसका सम्बन्ध मटिरिअल से है, इस शरीर से है। तुम भूत-प्रेतों के विषय में जो कुछ कह रहे हो उसका सम्बन्ध टाइम (समय) और स्पेस से है। मैं मटिरिअल को जानता हूँ, मैं टाइम और स्पेस को जानता हूँ। और मैं जानता हूँ कि टाइम और स्पेस में जो कुछ भी होगा उसे मापा जा सकता है। उसे इंद्रियों से देखा जा सकता है, और इंद्रियों से अगर कुछ भी देखा जा रहा है तो वो मटिरिअल ही है।

तो अगर कोई कहे कि, "मैंने भूत देखे हैं", तो साहब आपने कुछ मटिरिअल ही देखा होगा क्योंकि ये जो मटिरिअल आँख है ये डिजाइन्ड ही है सिर्फ मटिरिअल चीज़ों को देखने के लिए। क्योंकि इसमें जो सारा एक्सपीरिअन्स होता है वो किसके माध्यम से होता है? लाइट (रौशनी) के माध्यम से होता है। भई थोड़ा भी अगर आप आँख की संरचना को पढ़ेंगे तो आप समझ जाएँगे कि आँख सिर्फ़ मटिरिअल को देख सकती है। उदाहरण के लिए, मैं ये पेड़ कैसे देख पा रहा हूँ? पीछे सूरज है, सूरज की रोशनी इस पेड़ पर पड़ती है तो इस पेड़ से सूरज की रोशनी रिफ्लेक्ट होकर मेरी आँख में आती है। रोशनी रिफ्लेक्ट हो सके इसके लिए क्या ज़रूरी है, रोशनी के रास्ते में क्या आए?

प्र: कोई अवरोध आए।

आचार्य: कोई अवरोध आए, कैसा मटिरिअल बेरियर ?

प्र: कोई भी *सॉलिड मटिरियल*।

आचार्य: कोई ऐसी चीज़ आनी चाहिए जो रौशनी को आगे नहीं जाने देगी, वो मटिरिअल होनी चाहिए जो रौशनी को रोक देगी और रौशनी उससे टकराकर के उससे वापस आ जाएगी। तो अगर आप कह रहे हो कि आपने भूत-प्रेत देखे हैं, तो इसका मतलब ये है कि रौशनी जो है भूत-प्रेत के शरीर से टकराकर के आपकी आँख तक आ रही है। और अगर रौशनी किसी चीज़ से टकराकर आपकी आँख तक आ रही है इसका मतलब वो चीज़ मटिरिअल है।

और अगर वो मटिरिअल है तो फिर वो तो ऐसी ही हुई न जैसे धूल, पत्थर, पानी। उसको आप क्यों कोई ख़ास परालौकिक चीज़ बोल रहे हो? फिर उसमें आप क्यों फ़ालतू का मिस्टिसिज़म (रह्स्य्वाद) घुसेड़ रहे हो? फिर तो वो मटिरिअलिज़म (भौतिकवाद) है। भूत-प्रेत अगर आप देख सकते हो तो वो भी मटिरिअल एन्टिटीज़ हैं। फिर तो वो भी शरीर रखते हैं जैसे इंसान शरीर रखता है। और जो चीज़ शरीर रखती है वो तो इसी जगत की ही हुई न, उसको आप क्यों कह रहे हो कि वो अदर वल्डलि (किसी और जगत की) है?

और फिर जो चीज़ फिर इस जगत की हुई उस पर इस जगत के सारे नियम भी लागू होंगे। उदाहरण के लिए, उसका जन्म भी होगा, उसकी मृत्यु भी होगी, उसका वज़न भी होगा। उसको किसी भी अन्य पदार्थ की तरह नापा-तौला भी जा सकता है फिर, उसको किसी भी अन्य पदार्थ की तरह फिर एक बोतल में बंद करके भी रखा जा सकता है।

प्र: इक्विपमेंट (उपकरण) से डिटेक्ट (पहचान) किया जा सकता है।

आचार्य: इक्विपमेंट से डिटेक्ट किया जा सकता है। कोई भी ऐसा पदार्थ नहीं होता जिसको डिटेक्ट नहीं किया जा सकता। एक-से-एक मूर्खतापूर्ण तर्क चलते हैं कि "देखो आपको हवा का अनुभव होता है पर हवा आपने कभी देखी है?" पागल! हवा बिलकुल देखी जा सकती है, हवा ले लो उसको फ्रीज़ कर दो, तुम्हारे सामने तुम देख रहे होओगे। एक कंटेनर में बिलकुल तुम्हारे सामने लिक्विड ऑक्सीजन होगी, लिक्विड नाइट्रोजन होगी और तुम उसको देख सकते हो। कौन कहता है हवा को नहीं देखा जा सकता? क्यों देखा जा सकता है? क्योंकि वो मटिरिअल है।

ठीक है? तो या तो ये मानो कि जिसको तुम भूत-प्रेत कहते हो वो कोई मटिरिअल चीज़ ही है जैसे खम्भा। तो फिर ठीक है अगर मटिरिअल है तो उस पर हम मटिरिअल प्रोसेसेस भी लगा देंगे, तुम डर क्यों रहे हो? और अगर भूत-प्रेत आप कह रहे हैं कि आपको दिखाई देते हैं, तो इसका मतलब है कि भूत-प्रेत भी मटिरिअल चीज़ हैं तभी तो उनसे लाइट रिफ्लेक्ट होती है न और आपको दिखाई देती है फिर वो लाइट * । दिखाई तो ऐसे ही दे सकती है कोई चीज़ कि वो * मटिरिअल हो। और अगर कोई चीज़ मटिरिअल है तो फिर उस पर दूसरे मटिरिअल का असर भी पड़ेगा। अगर आपको भूत-प्रेत फिर दिखाई दे रहा है तो उस पर दूसरे मटिरिअल का असर भी पड़ेगा।

उदाहरण के लिए अगर वो जो मटिरिअल है भूत-प्रेत का वो सॉलिड है तो उसे गोली से उड़ाया जा सकता है। पर आप तो बोल देते हो कि, "नहीं, भूत-प्रेत को गोली लगती नहीं, गोली मारो तो गोली उनके आर-पार चली जाती है।" अब ये सम्भव नहीं है न उसको गोली मारो तो गोली उसके आर-पार निकल जाएगी और उसको कुल्हाड़ी मारो तो कुल्हाड़ी भी उसके आर-पार निकल जाएगी पर वो कटेगा नहीं। ये नहीं हो सकता न क्योंकि अगर वो दिखाई दे रहा है तो वो क्या है? मटिरिअल * । और अगर * मटिरिअल है तो उसे गोली लगेगी।

आप कह सकते हैं साहब मटिरिअल है, हो सकता है सॉलिड (ठोस) ना हो लिक्विड (तरल) हो, चलिए लिक्विड होगा। लिक्विड होगा तो फिर उसको खौलाया जा सकता है। पर आप तो कहते हो, "नहीं उस पर किसी चीज़ का कोई असर नहीं पड़ता।" अगर वो लिक्विड होगा तो उसको किसी और तरीक़े से पकड़ा जा सकता है। भई मटिरिअल है अगर तो उस पर कोई-न-कोई फिर साइंटिफ़िक टेक्नीक लग जाएगी न? पर आप कहते हैं, "नहीं भूत-प्रेत तो पकड़ में नहीं आता।"

अगर वो गैसिअस (गैसीय) होगा तो भी उस पर कुछ-न-कुछ लगाया जा सकता है। आप ये कह रहे हो कि, "नहीं भूत-प्रेत गैस है और गैस से लाइट रिफ्लेक्ट होकर के आ रही है आपकी आँख पर", तो गैस पर भी बहुत टेक्नीक्स लग सकती हैं। कोई केमिकल (रसायन) डाला जा सकता है गैस पर, जिससे कि रिऐक्ट कर जाए केमिकल उस गैस से। बात समझ रहे हैं? टेम्प्रचर (तापमान) बदला जा सकता है, गैस को लिक्विफाई किया जा सकता है, फिर सॉलिडिफाई किया जा सकता है, है न?

तो जाने जगत के बारे में कुछ मूलभूत बातें नहीं पता हैं, जाने विज्ञान का, साइंस का मूलभूत नॉलेज भी नहीं है हम कैसे ये सब कह देते हैं? आगे से जब भी कभी आप कहो कि वो वहाँ पर प्रेत की छवि तैर रही है, तो अपने-आपको अच्छे से याद दिलाना कि अगर आपको कुछ दिख रहा है तो वो कोई भौतिक चीज़ है, मटिरिअल है, मॉलिक्यूलर है। क्योंकि ये जो आपकी आँखें हैं ये सिर्फ़ मटिरिअल को देख सकती हैं।

मूल सिद्धांत समझो — आँखें सिर्फ़-और-सिर्फ़ मटिरिअल चीज़ों को देख सकती हैं। तो अगर भूत दिख गया तो मटिरिअल है, और मटिरिअल है तो उसपर गोली लगेगी। अगर मटिरिअल है तो उस पर केमिकल का प्रभाव होगा। अगर मटिरिअल है तो उसे किसी दूसरे मटिरिअल के द्वारा बदला जा सकता है, पकड़ा जा सकता है, प्रभावित किया जा सकता है।

समझ में आ रही है बात?

तो इन सब बातों पर जब आप थोड़ा ख़्याल करोगे तो आपको पता चलेगा कि आपको भूत-प्रेत को जानने की ज़रूरत नहीं है, आपको मटिरिअल को जानने की ज़रूरत है। एक बार आप मटिरिअल को जान गए, एक बार आप लाइट के फिनॉमिना को जान गए, एक बार आपकी आँखें कैसे काम करती हैं ये जान गए, उसके बाद आपकी बुद्धि अगर ज़रा भी होगी तो आप इन बातों पर हँसोगे, आप इन बातों पर यक़ीन नहीं कर सकते।

ये सारा खेल एक अजीब से डर का है जो हमारे मन में बैठा दिया गया है। देखिए जिस आदमी के पास कोई और तरीक़ा नहीं होता न अपनी वर्थ (क़ीमत) साबित करने का, अपनी हैसियत साबित करने का वो अपनी हैसियत बनाता है दूसरों को डरा-डरा कर। और दूसरों को डराने का एक बहुत अच्छा तरीक़ा है कि उनसे ऐसी बात कह दो जिसको ग़लत साबित करना बड़ा मुश्किल हो। जिसको ना सही साबित कर सकते हैं ना ग़लत साबित कर सकते। कह दो कि, "ये चीज़ तो साहब अनुभव की है और मेरे अनुभव में है, और अगर तुम्हारे अनुभव में नहीं आ रही तो तुम बेवकूफ़ हो।" ऐसा-ऐसा फैला दो, "और मैं ज्यादा बड़ा आदमी हूँ क्योंकि ये फ़लानी चीज़ मेरे अनुभव में है।" ये एक बहुत पुराना तरीका है दूसरे पर अपनी डॉमिनेंस (प्रभाव) चलाने का और दूसरे के मन में डर बैठाने का।

प्र: इसमें एक चीज़ बहुत चलती है कि मैं योगिक बनकर, योगी बनकर अपने आप को ऐसे डेवलप (विकसित) कर लूगाँ कि मैं उसको भी सेंस (भाँप) कर सकता हूँ।

आचार्य: परसेप्शन वर्ड इस्तेमाल करते हैं।

प्र: हाँ *परसेप्शन*।

आचार्य: कि मेरा परसेप्शन इतना डेवलप हो जाएगा कि मैं ये सेंस कर लूँगा।

प्र: एक बात थोड़ी-सी लॉजिकल भी लगी जैसे कुत्ते होते हैं वो अलग फ्रीक्वेंसी को सुन सकते हैं, तो क्या ऐसा संभव है करना?

आचार्य: अरे भई कोई भी फ्रीक्वेंसी है वो मटिरिअल से ही तो आती है। आदमियों में भी सब लोग पूरा स्पेक्ट्रम नहीं देख पाते।

प्र: हाँ।

आचार्य: ठीक है? इसी तरीके से हम कह तो देते हैं कि इंसान बीस हर्ट्स से बीस-हज़ार हर्ट्स तक की फ्रीक्वेंसी सुन पाता है, लेकिन सब लोग पूरा स्पेक्ट्रम नहीं सुन पाते। और ऐसा भी कोई हो सकता है जो बीस-हज़ार की जगह इक्कीस-हज़ार तक भी सुन लेता हो।

प्र: जैसे एज (उम्र) के साथ भी वो चेंज (बदलता) होता है।

आचार्य: एज के साथ भी चेंज होता है, कंडीशन (परिस्थिति) के साथ चेंज होता है, बहुत सारी चीज़ों से चेंज होता है। तो वो थोड़ा बहुत फ़र्क हो सकता है। लेकिन आप जो कुछ भी सुन रहे हो वो एक मटिरिअल वेव़ है भई, वो फ्रीक्वेंसी बदल सकती है। वेव़ की फंडामेंटल डेफ़ीनेशन थोड़े ही बदल सकती है।

उसमें कुछ भी ऐसा नहीं है जो इम्मटिरिअल है या कि आपके मन के पार का है। स्पिरिचुअलिटी बात करती है मन को शांत कर देने की, मन में और इधर-उधर के जादूई, तिलिस्मी, मिस्टिकल ख़्याल भरना स्पिरिचुअलिटी नहीं होता। विचार ही तो मन का रोग है। आप भूत-प्रेतों का विचार कर रहे हो और इधर-उधर की और फ़ालतू तिलिस्मी, जादुई बातों का विचार कर रहे हो, एकदम ही बेमतलब की बातें, ये स्पिरिचुअलिटी थोड़े ही हो गई।

प्र: तो जो मन होता है वो तो पूरा मटिरिअल को ही ऑब्जर्व करता है।

आचार्य: मन मटिरिअल को ही ऑब्जर्व करता है, मटिरिअल में ही घूमता रहता है और उसकी तकलीफ़ ये है कि वो जिस बंधन में फँसा झटपटाता है, उससे मुक्ति के लिए भी वो मटिरिअल का ही सहारा लेना चाहता है।

प्र: पर जैसे जो संत हुए हैं जैसे कबीर साहब तो वो बियॉन्ड मटिरिअल (पदार्थ से परे) की बात करते हैं।

आचार्य: वो बियॉन्ड मटेरियल की बात आपको सिर्फ़ ये प्रेरणा देने के लिए की जा सकती है कि तुम जहाँ फँसे हो वहाँ फँसे रहना ज़रूरी नहीं है, तुम समझौता मत करना जल्दी से, तुम विद्रोह करो, तुम अपने बंधन तोड़ सकते हो। और बंधनों को तोड़ने का ही नाम मुक्ति है। मुक्ति कोई अलग अवस्था नहीं होती। मुक्ति कोई अलग अवस्था क्यों नहीं होती? क्योंकि मुक्ति में अवस्था का अनुभव करने वाला ही बचा नहीं है तो किसकी अवस्था?

भई एक बात बताइए, आप मैटर की स्टेट्स की बात कर सकते हैं, ठीक है? आप कह सकते हैं सॉलिड , लिक्विड , गैसिअस , प्लाज्मा * । आप एक पाँचवी * स्टेट की भी बात कर सकते हैं जो अभी-अभी साइंटिस्ट्स ने पहली बार क्रिएट करी है थोड़े लम्बे समय के लिए; छः मिनट के लिए। तो आप मैटर की स्टेट्स की बात कर सकते हैं, पर कोई भी स्टेट हो उसके मूल में तो मैटर ही है न, है तो मैटर ही न?

मुक्ति का मतलब होता है कि आप सारी अवस्थाओं से आइडेंटिफ़ाइ होने की बेमतलब की ज़रुरत से आज़ाद हो गए। अब मैटर की स्टेट्स चलती रहेंगी, आपको समझ में आ गया कि मुझे इनसे तादात्म्य नहीं रखना, आइडेंटिफ़िकेशन (पहचान) नहीं रखना, ये मुक्ति है।

इसका मतलब ये नहीं है कि मुक्ति भी अपने-आपमें एक और स्टेट हो गई। कि चार स्टेट तो पहले ही होती थीं, मैटर की चार स्टेट होती हैं, चेतना की भी तीन स्टेट्स होती हैं, तो आप कहने लग जाएँ कि मुक्ति एक चौथी या पाँचवी स्टेट होती है।

प्र: कि हवा में उड़ने लग गए तो मुक्त हो गए।

आचार्य: कि जो हवा में उड़ रहा है वो मुक्त है, नहीं! हवा में उड़ना कहाँ से मुक्ति हो गई? हवा में भी तो शरीर ही तो उड़ रहा है, अभी भी आप शरीर से बँधे ही हुए हो तो मुक्त कहाँ से हो गए?

प्र: और जो शरीर से बाहर निकल गया तो जो निकल गया वो?

आचार्य: जो बाहर निकल गया शरीर से वो भी मुक्त कहाँ हो गया? क्योंकि वो अभी भी इधर-उधर की चीज़ों का अनुभव तो कर ही रहा है। अनुभोक्ता ही तो बंधन है। जो अनुभव कर रहा है वही तो बंधन है अपना, तो वो मुक्त कहाँ से हो गया?

याद रखिए जगत सम्बंधित आपको जितने भी अनुभव होते हैं वो अनुभव मटिरिअल के, पदार्थ के ही होते हैं। आप किसी चीज़ को देख पा रहे हैं वो मटिरिअल होगा, पदार्थ, आप किसी चीज़ को सुन पा रहे हैं वो मटिरिअल होगा, पदार्थ। आपको किसी चीज़ का अनुभव हो रहा है जैसे हवा चल रही है आपको अनुभव हो रहा है तो वो भी मटिरिअल है, पदार्थ है।

तो आप भले ही ये कहें कि, "नहीं मैंने भूत देखा नहीं पर उसका अनुभव करा है।" बाहर के जितने भी अनुभव होते हैं वो सारे-के-सारे अनुभव पदार्थ के ही होते हैं। कोई ये भी कह सकता है कि, "नहीं वो बाहर का अनुभव नहीं है मुझे तो भीतर से अनुभव उठता है।" भीतर से जो आपका अनुभव उठ रहा है वो बस एक मानसिक चीज़ होती है; जैसे सपने में आपको बहुत अनुभव हो जाते हैं इसका मतलब ये थोड़े ही है कि सपनों की कोई यथार्थ सत्ता है। और जिस आदमी को बहुत ज़्यादा ऐसे अनुभव हो रहे होते हैं अंदर-ही-अंदर जो किसी और को नहीं हो रहे होते, जानते हो ऐसे आदमी को क्या बोलते हैं? पागल।

एक पागल घूम रहा हो सड़क पर, तुम देखो वो ऐसे ही हवा में इधर-उधर बात कर रहा होता है, उसको पचास ऐसे अनुभव हो रहे होते हैं अपने अंदर जो आपको नहीं हो रहे। तो वो कोई विज़डम की या अध्यात्म की स्थिति नहीं है, वो इनसेनिटि (पागलपन) है, वो पागलपन है। अगर कोई कहे, "मुझे ऐसा अनुभव होता है, वैसा अनुभव होता है जो आम लोगों को नहीं होता", तो उसको इनसेन मानो, पागल मानो। उसे आध्यात्मिक नहीं मानते हैं।

और बाहर की दुनिया का एक-एक अनुभव मटिरिअल रिलेटेड ही होता है। चाहे आँखों से देखा गया हो, चाहे गंध सूँघी गई हो, चाहे कानों से सुना गया हो, चाहे लगा हो कि आपको कोई धौले से स्पर्श कर गया, उसके लिए मटिरिअल चाहिए, उसके बिना आपको कोई अनुभव नहीं हो सकता।

ये कुछ मूल बाते हैं जो हमें याद रखनी होंगी। और याद रखो ये ज्ञान मैं भूत-प्रेत के बारे में नहीं दे रहा हूँ, मैं तुम्हें ये नहीं समझा रहा हूँ कि भूत-प्रेत क्या होते हैं। ये ज्ञान शरीर के बारे में है, ये ज्ञान आँखों, इंद्रियों के बारे में है, ये ज्ञान जगत के बारे में है, पदार्थ के बारे में है। ठीक है? इनके बारे में जानो, ये चीज़ असली है। इनके बारे में जान गए तो वैसे ही कोई फ़िजूल बात फिर करोगे नहीं। तो ये सब फ़िजूल बाते हैं जो उड़ाई जा रही हैं और इनके पक्ष में बड़े फ़िजूल तर्क दिए जाते हैं। इनमें नहीं पड़ना चाहिए।

प्र: मुझे एक चीज़ समझ में नहीं आती कि इसमें पढ़े-लिखे लोग कैसे विश्वास कर लेते हैं?

आचार्य: देखिए आदमी पढ़ा-लिखा हो या अनपढ़ हो, अंधविश्वास उसमें रहता ही है क्योंकि सच नहीं जानते न लोग। जब सच नहीं जानते तो मन में हमेशा एक डर, एक संदेह बना रहता है, कि, "क्या पता क्या चीज़ होती है हमें तो पता नहीं!" तो इंसान के सामने जब कोई खौफ़नाक डरावनी बात लाई जाती है उसको डॉमिनेट (शासित) करने के लिए, तो वो सोचता है कौन रिस्क ले ये कहने का कि ये चीज़ नहीं होती। "भई हमने कह दिया भूत नहीं होते और इस चक्कर में भूत-राजा नाराज़ हो गए और भूत-राजा ने हमारा कुछ अनिष्ट कर दिया तो? तो कौन रिस्क (जोखिम) ले, इससे अच्छा बोल दो हाँ साहब भूत होते हैं। बोलो क्या करना है? भूत को चढ़ावा चढ़ाना है? हम चढ़ा देंगे।" गुरुजी वहाँ बैठ कर ज्ञान दे रहे हैं कि, "भूत होते हैं और मैंने पचास तरीके के भूत पाल रखे है, और मैंने कई तरीके के भूतो को शांत करा है", तो गुरूजी को प्रणाम कर दो आगे बढ़ो, कौन पंगे ले।

प्र: अंदर से बहुत डरे हुए हैं।

आचार्य: क्योंकि हम अंदर से डरे हुए लोग हैं। हम अंदर से डरे हुए लोग हैं इसीलिए किसी की फ़ालतू बात पर, कोई भी इधर-उधर के वहम पर यक़ीन करने को हम तैयार हो जाते हैं। वही बात है न, रिस्क कौन ले।

प्र: हाँ, ऐसे कुछ गुरु हैं।

आचार्य: हमेशा से रहा है। ये लोगों को डराने-धमकाने की एक बहुत पुरानी परम्परा है। आज भी उसी परम्परा को कुछ लोग आगे बढ़ा रहे हैं। और दूसरी तरफ़ सच्चे संत और ज्ञानी भी हुए हैं जिनका उद्देश्य रहा है आदमी को डर से आज़ाद करना। तो गुरूओ में भी ये दो तरह की परम्परा हमेशा रही है। एक तो ये सब रहे हैं ढोंगी-पाखंडी इस तरह के, जिनका काम ही ये है कि तुमको डरा दें और वो डराने का उद्देश्य बस यही होता है कि तुमको डॉमिनेट करके अपना उल्लू सीधा कर लें, तुम्हारी जेब साफ़ कर दें। यही उनका उद्देश्य रहता है।

प्र: लेकिन बहुत अजीब-सी चीज़ चल रही है, जैसे बड़े-बड़े विज्ञानी, साइंटिस्ट और इकॉनमिस्ट ये सब लोग आकर के इंटरव्यूज़ लेते हैं। और फिर वो लोग ये लॉजिक देते हैं। तो क्या ये सभी लोग भी ग़लत हैं?

आचार्य: हाँ ये सब वही तरीका है न, आप जैसे डरे हुए जीव हो तो आप लोगों के पद-प्रतिष्ठा से भी डरते हो। तो कोई चीज़ आप अभी जानते नहीं हो कि सही है या ग़लत है, तो उसको आपकी नज़र में सही साबित करने के लिए किसी को ले आओ। अब कोई टॉप ऐथलीट (शीर्ष खिलाड़ी) है, उसको ले आए और उसकी किसी तांत्रिक से बात कराई जा रही है। तो लोग बहुत उससे इम्प्रेस हो जाएँगे, प्रभावित हो जाएँगे, लोग कहेंगे, "देखो इतना बड़ा ऐथलीट है।" और ये...

प्र: ये तो रैशनल (तर्कसंगत) होगा।

आचार्य: नहीं रैशनल वो नहीं सोचते, रैशनल भी नहीं सोचते। वो कहते हैं, "इतना बड़ा ऐथलीट है, बड़ा आदमी है ये जो टीवी पर आता है, तो ये जो बोल रहा होगा सही ही होगा।" अरे भईया बड़ा ऐथलीट है तो क्या हो गया। इससे ये थोड़े ही हो जाता है कि उसका मन साफ़ है या मन सुलझा हुआ है। लेकिन उस ऐथलीट के साथ इंटरव्यू अरेंज करा कर के अब ये तांत्रिक बाबा चारों तरफ ये सबको साबित कर देंगे और इम्प्रेस कर देंगे कि "देखो मुझे तो बड़े-बड़े लोग सुनते हैं, तो मैं ग़लत कैसे हो सकता हूँ? और क्या वो जो इतने बड़े-बड़े लोग मुझसे सुन रहे हैं, बात कर रहे हैं क्या वो सब ग़लत ही हैं?" आम आदमी ऐसे ही चलता है।

आपको कोई चीज़ जब कोई कम्पनी चाहती है कि आप खरीद लो तो वो क्या करती है? वो कोई बड़ा आदमी ले आती है और वो बड़ा आदमी विज्ञापन दे रहा होता है। आप गंजे हो बिलकुल, ठीक है? और एक क्रिकेटर आ रहा है और वो कंघी का विज्ञापन दे रहा है टीवी पर, और आप बिलकुल इम्प्रेस हो जाओगे, "वाह!वाह! क्रिकेटर कंघी का विज्ञापन दे रहा है।" आप कंघी खरीद लोगे, बिना ये देखे कि वो जो चीज़ है वो आपके लिए उपयोगी भी है या नहीं है। आप डॉमिनेट हो जाते हो न पर्सनैलिटीज़ (व्यक्तित्व) को देख कर, तो वो ये सब काम किया जाता है।

प्र: तो इसका तरीका क्या है कि लोगों में जागरूकता आए कि प्रश्न करें?

आचार्य: देखिए तरीका क्या है, जो आदमी जानते-बूझते इग्नॉरेंस (अज्ञान) को और फिअर को, भय को गले लगा रहा हो उसकी मुक्ति का वास्तव में कोई तरीका होता नहीं है, कोई तरीका नहीं होता। मैं झूठ बोल रहा होऊँगा अगर मैं यूँ ही दिलासा देने लग जाऊँ कि ये तरीक़ा है वो तरीक़ा है। पढ़े-लिखे लोग हैं और उसके बाद भी वो जल्दी से इम्प्रेस हो जा रहे हैं, और फ़िजूल बातों और प्रॉपगैंडा (प्रचार) पर यक़ीन करने लग जा रहे हैं, पर्सनैलिटी कल्ट में बह जा रहे हैं, तो कोई तरीका नहीं है उनकी मुक्ति का। फिर तो यही है कि ज़िंदगी जब डंडे मारेगी, कष्ट बहुत बढ़ेगा तो उनको बात समझ में आएगी।

लेकिन हाँ जो लोग स्वेच्छा से सच की तरफ बढ़ना चाहते हों, सच्ची ज़िंदगी जीना चाहते हों, बेकार के डर से दबना नहीं चाहते हों, उनके लिए तरीक़े हैं। उनके लिए बहुत तरीक़े हैं। एक तरीक़ा तो वही है जो अभी हम कर रहे हैं। हम लोग बात कर रहे हैं ये लोग रिकॉर्ड कर रहे हैं। लो इसी बात को सुनो और अपने पूरे विवेक से, पूरी चेतना से इसको समझने की कोशिश करो। एक तरीका यही है और भी बहुत तरीके हो सकते हैं।

प्र: मेरे यहाँ एक पंडित जी आते थे वो भूत-प्रेत की बहुत सारी कहानियाँ सुनाते थे, तो बहस होती थी। तो फिर वो बोलते थे कि, "भई तुम पूरे मटिरिअल आदमी हो। तुम आध्यात्मिक आदमी नहीं हो।"

आचार्य: आपको उनसे कहना था — पंडित जी अध्यात्म तो बोलता है कि 'जगत मिथ्या और ब्रह्म सत्य।' पंडित जी बोल रहे हैं कि तुम भूत-प्रेत नहीं मानते तो तुम आध्यात्मिक नहीं हो। अध्यात्म तो बोलता है कि जगत मिथ्या है और ब्रह्म सत्य है या अध्यात्म ये बोलता है कि जगत तो मिथ्या है लेकिन भूत सत्य है? ये कौन सा अध्यात्म है जिसमें जगत तो मिथ्या है लेकिन प्रेतम् सत्य है, प्रेत सत्य है, भूत सत्य है, चुड़ैल सत्य है, डायन सत्य है, ये कौन-सा अध्यात्म है? जब जगत ही मिथ्या है, ब्रह्म एकमात्र सत्य है, तो ये भूत-प्रेत कहाँ से आ गए भई!

ये सब बहुत पुरानी चालें हैं, इनका एकमात्र उद्देश्य आदमी को डराना और उसको किसी तरीक़े से मेन्टलि सबजुगेट (मानसिक रूप से परतंत्र) करना है। सच्चा अध्यात्म डर से मुक्ति देता है, सच्चा अध्यात्म आपको भूत-प्रेत की तरफ़ नहीं ले जाता। अध्यात्म में भूत-प्रेत के लिए कोई स्थान नहीं है, बिलकुल कोई स्थान नहीं है, एकदम नहीं।

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