आचार्य प्रशांत आपके बेहतर भविष्य की लड़ाई लड़ रहे हैं
लेख
धर्मग्रंथों की उपेक्षा धर्म को मिटाने की तैयारी है

प्रश्नकर्ता: आध्यात्मिक और धार्मिक ग्रंथों को लेकर वर्तमान समय में एक उपेक्षा का भाव है बल्कि कहीं-कहीं तो घृणा का। लोग कहने लग गए हैं, "ज्ञान तो हम अपने अनुभव से ही ले लेंगे। समझ तो हम अपने जीवन से यही सीख लेंगे। किसी ग्रंथ किसी शास्त्र की हमें कोई ज़रूरत नहीं है।" बल्कि कई लोगों ने तो ज़ोर देकर बोलना शुरू कर दिया है कि किसी भी तरह की आध्यात्मिक पुस्तक पढ़ना आंतरिक प्रगति में बाधा ही बन जाती है।

आचार्य प्रशांत: देखिए वजह साफ हम जैसे जी रहे हैं वैसे जी नहीं पाएँगे अगर हम चले गए उपनिषदों और गीताओं के पास। साथ-ही-साथ हम में इतना दम नहीं है कि हम कह सकें हम पाशविक हैं और हमें पशु जैसा ही भौतिक जीवन जीना है। इरादे भले ही हमारे यही हैं कि हमें पशु जैसा ही बस पार्थिव जीवन जीना है लेकिन यह बात हम खुलकर नहीं कह सकते। हमें यह भी खुद को और दुनिया को जताना है कि, "देखो साहब! हमारी ज़िंदगी में भी कुछ ज़रा ऊपरी तल का है, हम भी आध्यात्मिक हैं।" हमें यह भ्रम भी कायम रखना है साथ-ही-साथ हमें अपने ढर्रे भी कायम रखने हैं।

आज के समाज की आप स्थिति समझ रहे हैं? काल का कुछ ऐसा दुर्योग बैठा है, समय ने कुछ ऐसी करवट ली है, एक ऐसे मुकाम पर पहुँच गया है, जहाँ ऐसा प्रतीत होता है मानो कोई दंड नहीं मिलेगा, कोई प्रतिफल नहीं मिलेगा अगर आप पूरे तरीके से एक सत्यहीन, मुक्तिहीन, भोग केंद्रित और सुख केंद्रित जीवन बिता रहे होंगे। तो हर आदमी की प्रकट या अप्रकट कामना यही है कि वो भोगे। वही कामना जो जानवर की भी होती है बस जानवर से कई गुना ज़्यादा परिमाण में। जानवर थोड़ा ही भोगना चाहता है भोगने के अलावा उसके जीवन का कोई लक्ष्य आदि नहीं होता।

आदमी जानवर से हज़ारों-अरबों गुना ज़्यादा भोगना चाहता है लेकिन कर वही रहा है जो जानवर करता है, आयाम वही है। आज के आदमी की बात कर रहा हूँ। जानवर को भी सुख चाहिए और आज का भी जो पूरा जीवन है, जो हमारी पूरी व्यवस्था है, संस्कृति और सभ्यता है, वो सिर्फ और सिर्फ सुख और भोग केंद्रित है। सबकुछ इस तरीके से बनाओ चाहे वो कानून हो, चाहे शिक्षा हो, चाहे अर्थव्यवस्था हो, चाहे सामाजिक व्यवस्था हो कि आदमी के सुख में बढ़ौतरी हो और आदमी को ज़्यादा-से-ज़्यादा चीज़ें भोगने को मिलें। नए-नए अनुभव भोगने को मिलें। ये वर्तमान समय है। और साथ-ही-साथ हममें इतनी दिलेरी नहीं है कि हम कह सकें कि हाँ साहब हम जानवर के ही आयाम पर आ चुके हैं वैसा ही हमको जीना है तो जरा अपनी नैतिक छवि बनाए रखने के लिए, ज़रा अपनी ही आँखों में ऊँचा बने रहने के लिए हम ये भी कहते हैं कि "हम आध्यात्मिक हैं।"

लेकिन असली अध्यात्म हमारे लिए खतरनाक है क्योंकि असली अध्यात्म हमें वैसे जीने नहीं देगा जानवर की तरह जैसे हम जी रहे हैं और यह कह पाने की हम में हिम्मत नहीं है कि कह दें कि, "मुझे अध्यात्म चाहिए नहीं, मैं तो जानवर हूँ।" ये कह पाने की न हम में ईमानदारी है न दिलेरी। तो हम कहते हैं कि "हम आध्यात्मिक हैं और अध्यात्म चाहिए लेकिन साथ-ही-साथ मुझे अपने भौतिक भोगवादी और सुखवादी तौर-तरीके सब जारी रखने हैं।" तो आज का युग विशेष है बहुत ख़ासतौर से पिछले पचास सालों का और उसमें भी ख़ासतौर से पिछले बीस सालों का।

एक बिलकुल ही नया अध्यात्म खड़ा हो रहा है या कह लीजिए कि एक नए धर्म की ही स्थापना हो रही है, जो बड़ा चोर धर्म है। उस धर्म के पास यह हैसियत नहीं है बोल पाने की कि, "मैं एक अलग और नया धर्म हूँ!" तो वह दिखाता यही है कि, "मैं पुराना ही धर्म हूँ।"

अगर हम हिंदू धर्म या सनातन धर्म की बात करें तो कोई नहीं मिलेगा आज के समय में जो कह रहा हो, "मैं एक नए धर्म की, पंथ की स्थापना कर रहा हूँ।" उसके लिए बड़ी ईमानदारी चाहिए, उसके लिए एक अंदरूनी आश्वस्ति चाहिए और उसके लिए बड़ी श्रद्धा चाहिए न? जिन लोगों ने सनातन धर्म की नई शाखाएँ, नई धाराएँ निकाली वो बड़े वीर लोग थे। जिन्होंने भी धार्मिक सुधार कार्यक्रम चलाए वो भी बड़े निश्छल लोग थे। जिनकी नियत साफ़ थी। जो कह रहे थे धर्म में, गड़बड़ आ गई है, समय का कूड़ा-करकट भर गया है। जैसे किसी भी धारा में, समय बढ़ने पर गंदगी आ जाती है सफ़ाई ज़रूरी है। तो उन्होंने फिर नई धाराएँ चलाई थीं। वो लोग दूसरे थे, उन्होंने साफ़ बताया कि हम एक नई धारा चला रहे हैं क्योंकि उनकी नियत साफ़ थी। उन्हें कुछ छुपाने की ज़रूरत नहीं थी।

आजकल जो हमें देखने को मिल रहा है वह बिलकुल एक नया धर्म है, जिसका वास्तव में 'सनातन धर्म' से कोई संबंध ही नहीं है। बस इतना है कि जो इस धर्म के संस्थापक और प्रवर्तक हैं- ये चोरी-छुपे कर रहे हैं जो कर रहे हैं। ये नाम अपने धर्म को कोई अलग नहीं दे रहे, ये मूर्तियाँ भी और छवियाँ और भाषा भी पुराने धर्म से उधार ले रहे हैं लेकिन पुराने धर्म की 'आत्मा' से इनके नए धर्म का कोई लेना देना नहीं है। भाषा पुराने धर्म की ले ली है, छवियाँ पुराने धर्म की ले ली हैं, लेकिन पुराने धर्म की आत्मा बिलकुल छोड़ दी है। आत्मा की जगह जो अभी समाज में, धर्म का संस्करण प्रचलित हो रहा है उसमें एक खोखलापन है, आत्मा नहीं है, भीतर एक खोखलापन है बस! आत्मा के नाम पर कुछ नहीं है।

धर्म की आत्मा समझ लो 'धर्मग्रंथ' होता है। आत्मा अगर नहीं रखनी है तो धर्म ग्रंथों को अस्वीकार करना बहुत ज़रूरी है। इसीलिए खासतौर पर तुम हिंदुओं में, सनातन धर्म के मानने वालों में, आजकल ये प्रचलन ये वृत्ति, ये चलन बहुत देखोगे- "कि नहीं साहब! मैं कोई धार्मिक किताब वगैरह नहीं पढ़ता" और बहुत लोग तो यह बात बड़े गौरव के साथ बताते हैं। जैसे ये उनकी कोई खूबी हो कि उन्होंने कभी कोई किताब नहीं पढ़ी। उस किताब को न पढ़ना, खूबी नहीं मजबूरी है क्योंकि अगर आप वह किताब पढ़ेंगे तो आप ध्वस्त हो जाएँगे। वो किताब आप पढ़ेंगे नहीं कि आपको दिख जाएगा कि आप जैसे जी रहे हैं वो पूरा खेल ही पाखंड है! खोखला है! गलत है! वो किताब आपके लिए ज्वाला की तरह है आपको राख कर देगी। इसीलिए आपकी मजबूरी है कि आप उस किताब को छू नहीं सकते।

और ये तो आप कदापि न सोचें कि जो उस किताब में लिखा हुआ है वो आप स्वयं ही जान जाएँगे। जो लोग ये दावा भी करते हैं कि, "हमें किताब की क्या ज़रूरत है? हम खुद ही जान लेंगे!" साहब यही बात आप गणित या विज्ञान के बारे में क्यों नहीं बोलते? वैज्ञानिक ने भी तो कभी स्वयं ही जाना था और न्यूटन ने जो जाना था, उसको वो जाने हुए कई शताब्दियाँ बीत गई, वो बड़ा पुराना आदमी था, ज़रूर उसकी बात आज लागू नहीं होती होगी। कुल मिलाजुलाकर सेब ही तो गिरा था, आप अपने सर पर तरबूज गिरा लेना! ख़ुद ही जान लो न? ज़रूरत क्या है उसकी किताब पढ़ने की?

पर न्यूटन की जहाँ तक बात है आपको न्यूटन से कोई खतरा नहीं क्योंकि न्यूटन आपके 'अहंकार' पर चोट नहीं करता। तो न्यूटन को लेकर आप इस तरह की कोई छिछोरी बात नहीं करते कि, "मैं किताब क्यों पढ़ूँ? मैं खुद ही जान लूँगा!" भाई न्यूटन ने भी जो जाना, वो कोई आकाशवाणी तो हुई नहीं थी? उसने भी स्वयं ही विचार किया था, प्रयोग किया था, जाना था। आप भी स्वयं ही विचार करो, प्रयोग करो, जान लो न! उसकी किताब क्यों पढ़ने जाते हो?

पर जब धर्म ग्रंथ की बात आती है तो आप कहते हो, "नहीं! नहीं! नहीं! अष्टावक्र ने जो कहा था वह मैं कदापि नहीं पढ़ूँगा।" न्यूटन को पढ़ सकते हो, अष्टावक्र को क्यों नहीं पढ़ सकते? और न्यूटन तो बहुत सम्माननीय व्यक्तित्व हैं तुम तो न जाने क्या-क्या पढ़ते हो! तुम कोखशास्त्र पढ़ सकते हो, तुम कामशास्त्र पढ़ सकते हो, लेकिन तुम धर्मशास्त्र नहीं पढ़ सकते। तुम्हें मस्तराम पढ़ना गँवारा है पर 'राम' पढ़ना गँवारा नहीं है, तुम इरॉटिका पढ़ सकते हो गीता नहीं पढ़ सकते। ये बड़ी अजीब बात है! कहते हैं, "नहीं! नहीं! इरॉटिका रखी होगी तो पढ़ लेंगे गीता रखी होगी तो दूर भाग जाएँगे अरे! अरे! अरे! ये गंदी किताब है इसको नहीं पढ़ेंगे इसको पढ़ने से कुछ गड़बड़ हो जाती है 'भीतर'।"

नतीजा यह है कि वेदांत के ग्रंथों को तो छोड़ दो, जो इतिहास के ग्रंथ हैं उनसे भी ये जो पिछले बीस-तीस साल की पीढ़ी है इसका कोई परिचय ही नहीं। रामायण, महाभारत से भी आज की पीढ़ी का कोई परिचय नहीं है। इन से कह दो कि बोलो 'दृष्टयद्युम्न' ज़बान ऐंठ जाएगी! इनसे फ्रेंच बुलवा लो ये बोल लेंगे।

ये जान बूझकर की हुई साजिश है! ग्रंथ पुराने नहीं पड़ गए, ग्रंथ अनुपयोगी नहीं हो गए, ग्रंथ तिथिबाह्य, आउटडेटेड नहीं हो गए। हम जैसे जी रहे हैं, हम वैसा जी नहीं पाएँगे अगर हमने उन ग्रंथों को पढ़ लिया। निश्चितरूप से उनको पढ़ोगे तो तुम्हारे जीवन में सुधार आएगा, केंद्रीय सुधार आएगा लेकिन वो सुधार तुम्हें चाहिए नहीं क्योंकि वो सुधार आने का मतलब होगा तुम्हारे भोग में कमी आएगी और तुम भोग के दीवाने हो चुके हो। जैसे कुत्ते को हड्डी की लत लग गई हो, हम वैसे लोग हैं।

हमें कहीं-न-कहीं भीतर से पता है कि हम जैसा जी रहे हैं वो गलत है! प्रमाण ये है कि हम धर्मग्रंथों से दूर भागते हैं, हमें पता है कि उसके पास जाएँगे तो तुरंत धर्मग्रंथ हमें लताड़ देंगे कि, "कुत्ते हो क्या? यह क्या कर रहे हो?" बात आ रही है समझ में?

तो ले देकर एक नए तरह के अध्यात्म और एक नए तरीके के धर्म का निर्माण किया जा रहा है चोरी-छुपे। एक ऐसे अध्यात्म का निर्माण किया जा रहा है जिसमें धर्मग्रंथों के लिए कोई स्थान नहीं है। जिसकी कोई आत्मा ही नहीं है। उसमें किस चीज़ के लिए स्थान है? उसमें स्थान है 'लोकबुद्धि' के लिए, जिसको आप कहते हैं साधारण बुद्धि, कॉमनसेंस। उसमें वो बातें चलती हैं जो सब जनसामान्य को पता हैं। बस जो बातें जनसामान्य में पहले ही प्रचलन में है, उन्हीं बातों को थोड़ा और सुधार करके बोल दो तुम गुरु कहला जाओगे। जिस केंद्र से सब जनता पहले ही संचालित हो रही है तुम भी उसी केंद्र पर रहो, अगर तुम इस नए धर्म के गुरु हो या इस नए धर्म के प्रवक्ता हो तो तुम भी उसी केंद्र पर रहो जिस केंद्र पर जनता पहले ही बैठी हुई है बस बातें थोड़ी-सी साफ़-सुथरी भाषा में कर दो। ख़बरदार कोई ऐसी बात मत बोलना जो किसी और केंद्र से आती हो! जो बात ही दूर की हो! उदाहरण के लिए- अगर तुम किसी कंपनी के कर्मचारियों, एंप्लाइज़ के साथ बैठे हो तो उन्हें ये सिखाओ कि कैसे उन्हें अपनी उत्पादकता बढ़ानी है, प्रोडक्टिविटी!

'धर्म' का ये काम नहीं होता! न धर्मगुरु का ये काम हो सकता है कि वो इस बात पर सत्र ले, प्रवचन दे कि "कंपनी के कर्मचारियों की प्रोडक्टिविटी कैसे बढ़े?"

धर्म का काम है- 'मूलभूत सवाल उठाना'। मूलभूत सवाल ये होगा कि, "तुम यहाँ काम कर ही क्यों रहे हो? क्या तुम्हें इस कंपनी में होना भी चाहिए?" लेकिन ये जो नया धर्म प्रचलित हो रहा है यह भोग का धर्म है! यह गहरी ईमानदार खूंखार जिज्ञासा का धर्म नहीं है। इसमें शेर की दहाड़ नहीं है, इसमें तो सियार का अवसर-वाद है, ऑपरचुनिज़्म ! बात समझ में आ रही है?

इस समय पर ख़ासतौर पर सनातन धर्म के लिए बहुत आवश्यक है कि उसे इस नए धर्म से बचाया जाए, जो बोलता है कि, "हमें कोई ग्रंथ वगैरह स्वीकार नहीं।" किसी भूल में मत रहिएगा जो लोग बड़ा आक्रोश करते हैं और बड़ा प्रदर्शन करते हैं और बड़ी सक्रियता दिखाते हैं कि हिंदू धर्म खतरे में है। वो गलतफ़हमी में है, वो सोच रहे हैं हिंदू धर्म को खतरा अन्य धर्मों से है। नहीं साहब! सनातन धर्म को खतरा अन्य धर्मों से नहीं है, सनातन धर्म को इस वक्त सबसे बड़ा खतरा इन झूठे धर्मगुरुओं से है। जो भीतर-भीतर हैं और सनातन धर्म की नींव खोदे दे रहे हैं। हम गलत दुश्मन पर निशाना साध रहे हैं। जो हिंदू हित के पैरोकार हैं, वो सोचते हैं कि इस्लाम दुश्मन है सनातन धर्म का या उनको लगता है कि ईसाईयत दुश्मन बनी बैठी है। अरे इस्लाम-ईसाईयत तो दोनों खुद ही खतरे में है। जितने भी मूल, पुराने धर्म थे या मज़हब वो सब खतरे में हैं। वो एक दूसरे को तो बहुत ज़्यादा खतरा दे ही नहीं सकते। सनातन धर्म पर ये खतरा खासतौर से मंडरा रहा है। सबसे ज़्यादा भीषण खतरा सनातन धर्म पर है, क्यों? क्योंकि सनातन धर्म में सहिष्णुता की बड़ी परंपरा रही है, टॉलरेंस ! यहाँ आकर कोई भी अपनी बात कह सकता है, कुछ भी कहा जा सकता है, और कोई जाँच पड़ताल नहीं होती, कोई ऐसी संस्था, कोई व्यवस्था कोई इंस्टिट्यूशन नहीं है जो जाँचे कि, "अगर कोई गुरु बनने का दावा कर रहा है तो उसमें ज्ञान कितना है? उसने स्वाध्याय कितना करा है?" ऐसी कोई व्यवस्था ही नहीं है। तो कोई भी कुछ भी कह सकता है।

और बहुत सारे इस वक्त पर गुरु और प्रवचन कर्ता हैं जिनका काम ही ये बताना है कि किताबों को छोड़ो और हमारी सुनो और कई तो ऐसे हैं कि पुरानी किताबों का अर्थ ही उल्टा करके उनमें अद्भुत नए-नए तरह के अर्थ बता रहे हैं। इनसे असली खतरा है सनातन धर्म को। अगर आपको विरोध करना ही है तो दूसरे धर्मों का विरोध करना छोड़ो हिंदू धर्म को पहले इन भितर-घातियों से बचाओ। जो भी आपको व्यक्ति मिले जो कहे, "मैं फलाने धर्म का अनुयायी हूँ लेकिन अपने धर्म की मैंने कोई किताब वगैरह नहीं पढ़ी है।" समझ लेना ये व्यक्ति उस धर्म का अनुयायी ही नहीं है। ये वास्तव में किसी नए अन्य धर्म का मानने वाला है। उस नए धर्म को तुम सीधे-सीधे नाम दे सकते हो - कंज़्मप्शनिज़्म * । उस नए धर्म का क्या नाम है? भोग धर्म, * कंज़्मप्शनिज़्म या इगोइज़म , अहंकार धर्म या हैप्पीज़्म , सुख धर्म, *प्लेज़रिज़्म*। ये है नया धर्म जो दुनिया के सब धर्मों, पंथों, मज़हबों को खाये जा रहा है।

और इस धर्म के जो नए-नए गुरु निकल रहे हैं वो साफ़ बताते नहीं कि वो वास्तव में कंज़्मप्शनिज़्म के पुजारी हैं और कंज़्मप्शनिज़्म के प्रचारक हैं। वो कहते हैं, "नहीं हम तो सनातन धर्मी ही हैं" और वो, मैंने कहा तो, छवियाँ, मूर्तियाँ, प्रतीक, भाषा ये भी लेते सनातन धर्म से ही हैं। भाषा सनातन धर्म की होगी, मूर्तियाँ सनातन धर्म की होंगी लेकिन बात बिलकुल सनातन धर्म के विपरीत होगी और इसके लिए फ़िर उनकी मजबूरी बन जाती है कि वो सबसे कहें कि किताबें मत पढ़ लेना क्योंकि तुमने किताब पढ़ी नहीं कि तुम जान जाओगे कि तुम भी गलत ज़िन्दगी जी रहे हो और मैं तुम्हें गलत सीख दे रहा हूँ।

इस समय पर अगर संसार को बचाना है और संसार तमाम तरह की आपदाओं से जूझ रहा है। ठीक है इस वक्त पर जो तात्कालिक आपदा है वो कोविड बीमारी की है। लेकिन वो आपदा अगर टल भी जाए तो जो लंबा और गहन गंभीर संकट है 'क्लाइमेट चेंज' का वो तो सर पर लटकती तलवार है ही। अगर दुनिया को बचाना है तमाम तरह के संकटों से तो उसके लिए धर्म की पुनरसंस्थापना बहुत ज़रूरी है। धर्म को पुनर्जीवित करना बहुत ज़रूरी है और धर्म को अगर पुनर्जीवित करना है तो धार्मिक ग्रंथों को आम आदमी की ज़िंदगी में वापस लाना बहुत ज़रूरी है।

आपकी संस्था, अपने सीमित संसाधनों के साथ यही काम करने की कोशिश कर रही है। आम आदमी की ज़िंदगी में ग्रंथों को वापस लाना है। जो बात उपनिषदों में और गीताओं में कही गई है वो बात 'कालातीत' है उस बात को जन-जन तक पहुँचाना है क्योंकि अगर वो बात आपकी जिंदगी में नहीं है तो, आपकी जिंदगी जानवर समान है। यही काम संस्था कर रही है बस अभी हाथों की कमी है और संसाधनों की कमी है। हाथ मिल जाएँ, संसाधन मिल जाएँ तो देखिए कैसे एक-एक घर तक जितना भी अनुपम 'बोध साहित्य' है उसको हम पहुँचाएँगे। जनजागृति लाएँगे और लोगों को वो काबिलियत देंगे कि वो खुद समझ पाएँ कि कैसे जीना है और कैसे नहीं।

जहाँ 'शास्त्र' नहीं है वहाँ ज़बरदस्त अंधेरा है और जब मैं शास्त्र कहता हूँ, तो साफ किए दे रहा हूँ मेरा आशय तमाम तरह के उटपटाँग ग्रंथों से नहीं है, मैं वास्तु और ज्योतिष और इस तरह की किताबों की बात नहीं कर रहा हूँ जब मैं शास्त्र कहता हूँ तो।

जब मैं शास्त्र कह रहा हूँ, जब मैं आध्यात्मिक ग्रंथ कह रहा हूँ तो मेरा सीधा-सीधा आशय सिर्फ उन पुस्तकों से है जो आपको मन, जीवन और अहंकार के बारे में बताते हैं और आपको मन की मुक्ति की ओर लेकर जाते हैं। अध्यात्म का अर्थ ही यही है- 'आत्म' माने जो मैं हूँ 'अधि' माने ऊपर जैसे अधिक शब्द होता है न? अधिक माने ज़्यादा। तो अध्यात्म माने जो तुम हो उसको ऊपर की तरफ़ बढ़ाना।

तुम बँधे हुए हो तुम्हें मुक्ति की ओर बढ़ना है, तुम झूठ में हो तुम्हें सच की ओर बढ़ना है, तुम अंधेरे में हो तुम्हें उजाले की ओर बढ़ना है, तुम्हारी रोज़मर्रा की निजी जिंदगी में कदम-कदम पर झूठ है, फरेब है, धोखा है और दुःख है तुम्हें इन सब से आज़ाद होना है ये आध्यात्म है! जो किताबें इसकी बात करें वो आध्यात्मिक हैं बाकी सब इधर-उधर की फर्जी किताबों को मैं आध्यात्मिक किताब नहीं बोल रहा हूँ। जो दुनिया भर के असली आध्यात्मिक ग्रंथ हैं, उनको लोगों तक पहुँचाना है चाहे वो भारत से हो ग्रंथ, चाहे वो यूरोप से हों, चाहे वो एशिया के ही किसी और हिस्से से हों, चीन से भी हो सकते हैं, अरब से भी हो सकते हैं, ईरान से भी हो सकते हैं उनको जन-जन तक पहुँचाना है।

हममें से इस भ्रांति को, इस भ्रम को पूरी तरीके से निकालना पड़ेगा कि ग्रंथों की सहायता के बिना, किसी तरह की आध्यात्मिक प्रगति हो सकती है। लोग आते हैं कहते हैं, "अरे! कबीर साहब भी तो थे, कहते हैं उन्होंने तो कहा 'हमने कभी कागज़ पोथी छुई ही नहीं' लेकिन देखिए आचार्य जी आप भी कबीर साहब को कितना मानते हैं! उन्होंने तो कभी कोई ग्रंथ नहीं पढ़ा!"

तुम कभी कबीर साहब, कभी कृष्ण का उदाहरण देते हो। तुम अपने आपको भी तो देख लो!

कबीर साहब बोलें कि-

"माला फिरूँ न जप करूँ, मुख से कहूँ न राम।

सुमिरन मेरा हरि करें, मैं पाऊँ विश्राम।।"

उन्हें शोभा देता है, तुम्हें हक है यह बोलने का? तुम कौन हो? अपनी ज़िंदगी को देखो! तुम्हारी ज़िंदगी में कुछ भी उनके जैसा है क्या? तुम्हारी ज़िंदगी में कुछ भी उनके जैसा नहीं है लेकिन वचन तुम उनके जैसे बोलना चाहते हो। ये पाखंड है! यह खुद के खिलाफ़ धोखा है!

तो ये बात अपने मन से बिलकुल निकाल दो कि इतिहास में चंद लोग ऐसे हुए हैं जिन्होंने कभी कोई ग्रंथ नहीं पढ़ा। देखिए! फिर भी तो वह मुक्त हो गए तो हम भी तो हो सकते हैं। तुम उनमें से नहीं हो! बात खत्म! वो करोड़ों में एक थे। तुम करोड़ों में एक किस कोण से हो बताओ? तुम्हारी जिंदगी में ऐसा क्या है जो तुम्हें विलक्षण, अद्भुत, करोड़ों छोड़ दो, सैकड़ों में भी एक बनाता हो? तुम्हारी कक्षा में भी अगर पचास बच्चे पढ़ते थे तो उनमें भी तुम नम्बर एक नहीं थे, तुम तो पचास में भी एक नहीं हो तुम करोड़ों में एक कहाँ से हो जाओगे?

लेकिन जब धर्म ग्रंथों से मुँह चुराने की बात आती है, तो तुम तत्काल नाम किनका ले लेते हो? कभी कृष्णमूर्ति का, कभी संत कबीर का, कभी तुम इनका नाम लेना शुरू कर देते हो कि, "इन्होंने तो कभी किताब पढ़ी नहीं न?" और मैं साफ़ बताए देता हूँ कि कृष्णमूर्ति ने जितनी किताबें पढ़ी हैं, जितनी उन्हें पढ़ाई गईं उससे ज़्यादा दुनिया के इतिहास में शायद ही किसी ने पढ़ी हों। हाँ बाद में कृष्णमूर्ति ज़रूर बोलने लगे कि "नहीं! नहीं! किसी किताब की कोई ज़रूरत नहीं और मैंने भी कभी कोई किताब पढ़ी नहीं।" पर थियोसॉफ़िकल सोसाइटी ने उन्हें दशक भर तक दुनिया की हर क़िताब घोंट-घोंट कर पिलाई थी। वैसे ही तुम कैसे कह सकते हो कि कबीर साहब ने कभी कुछ पढ़ा नहीं? अगर वो गए थे गुरु से अनुयय करने, अगर सीढ़ियों पर लेट कर के उन्होंने गुरु का विश्वास हाँसिल किया तो उन्होंने किस लिए किया था? गुरु ने उन्हें क्या पढ़ाया होगा? अगर रामानंद ने उन्हें शिष्य स्वीकार किया तो क्या पढ़ा रहे होंगे गुरु उनको? वैदिक दीक्षा के अलावा और क्या दिया होगा? तुम कैसे कह रहे हो कि कबीर साहब ने कभी कुछ पढ़ा ही नहीं? अगर गुरु है तुम्हारे ऊपर तो पढ़ा ही तो रहा है तुमको? और क्या पढ़ायेगा?

बिलकुल ये बात मन से निकाल दीजिये कि, "मैं आध्यात्मिक तो हूँ पर न तो मुझे अष्टावक्र का कुछ पता है न याज्ञवल्क्य का, न नचिकेता का, न गार्गी का, न शौनक का, न भारद्वाज का। न मैं रमण को जानता हूँ न मैं रूमी को जानता हूँ, न कृष्ण से कोई परिचय है मेरा न क्राइस्ट से कोई परिचय है पर मैं आध्यात्मिक हूँ। मैं आध्यात्मिक क्यों हूँ? क्योंकि मैं बैठ कर फलानि क्रिया करा करता हूँ इसलिए मैं आध्यात्मिक हूँ।"

ऐसे आध्यात्मिक होते हैं? छी! और कैसे आध्यात्मिक हैं? "हम ध्यान करते हैं!" तुम्हें ध्यान का 'ध' पता है? 'आधा ध' पता है? तुम्हें जीवन का पता नहीं, तुम्हें जीवन के ध्येय का क्या पता हो जाएगा? और जहाँ ध्येय का पता नहीं वहाँ ध्यान तुम किसका लगा रहे हो? अगर अपनी भलाई चाहते हैं तो ग्रंथों की तरफ़ बढ़ें। सिर्फ़ वही चीज़ है जो आपको बचा सकती है और सिर्फ़ वही चीज़ है जो सनातन धर्म को बचा सकती है।

जो आज की बात और यथार्थ है वो मैंने आपसे कह दिया। इंसान भी आज बहुत ख़तरे में है और सनातन धर्म भी बहुत ख़तरे में है और दोनों ख़तरों की वजह एक है-आध्यात्मिक ग्रंथों की उपेक्षा और तिरस्कार।

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