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माया का नकार ही सत्य का स्वीकार है || श्वेताश्वतर उपनिषद् पर (2021)
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
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यदात्मतत्त्वेन तु ब्रह्मतत्त्वं दीपोपमेनेह युक्तः प्रपश्येत। अजं ध्रुवं सर्वतत्त्वैर्विशुद्धं ज्ञात्वा देवं मुच्यते सर्वपाशैः।।

जब योग साधना से युक्त साधक दीपक के सदृश आत्मतत्व के द्वारा ब्रह्मतत्व का साक्षात्कार करता है, तब वह अजन्मा, निश्चल, सम्पूर्ण तत्वों से पवित्र उस परमात्मा को जानकर सम्पूर्ण विकार रूप बंधनों से मुक्ति पा लेता है।

~ श्वेताश्वतर उपनिषद् (अध्याय २, श्लोक १५)

आचार्य प्रशांत: जितनी बातें पिछले श्लोक पर कहीं वो सब यहाँ भी लागू होती हैं। चाहे आत्मतत्व का साक्षात्कार हो, चाहे ब्रह्मतत्व का, बहुत सावधानी बरतो अर्थ करने में। तुम्हारे सामने, तुम्हारे साक्षात नहीं खड़ा होगा ब्रह्म। ब्रह्म अनंत है, और ये अहंकार का बचपना है, छोटे बच्चे की ज़िद्द जैसा है कि ब्रह्म सामने खड़ा है और हम उसका साक्षात्कार कर रहे हैं, और पड़ोस की पिंकी को बता भी रहे हैं कि, 'आहाहाहा! देखो, कितना बढ़िया है ब्रह्म, हम देखकर आए हैं।'

अरे चिड़ियाघर का गोरिल्ला है क्या ब्रह्म कि तुम देखकर आ गए और वो पिंजड़े के पीछे था? ब्रह्म को जो देख ले, ब्रह्म उसको खा जाता है। कोई ऐसा है नहीं जो ब्रह्म को देख करके बच गया हो। ब्रह्म ही सिर्फ़ ब्रह्म को देख सकता है तो बताओ तुम बचे कहाँ? तुम गए थे ब्रह्म को देखने, अगर तुमने सफलता पा ली ब्रह्म को देखने में तो तुम क्या हो गए? ब्रह्म। तो अब तो ब्रह्म ही बचा, तुम कहाँ गए? तुमको ब्रह्म खा गया।

तो चिड़ियाघर जैसा मामला नहीं है कि बब्बर शेर है और तुम देख रहे हो सलाखों के पीछे की सुरक्षा से। ये जंगल का मामला है, पोटेशियम साइनाइड जैसा खेल है, कि स्वाद तो चख लोगे पर बचोगे नहीं बताने के लिए कि 'आहाहा! क्या स्वाद है।' ब्रह्म माने 'के.सी.एन' (KCN) , सोडियम साइनाइड भी बराबर का ज़हरीला होता है, इसमें कोई दिक़्क़त नहीं है, 'एनए.सी.एन' (NaCN) कर लो।

ये बहुत दूर की, बड़ी गरीबी की उपमाएँ हैं, क्योंकि पोटेशियम साइनाइड को चख कर तुम साइनाइड ही नहीं हो जाते। लेकिन ब्रह्म दर्शी ब्रह्म ही हो जाता है। अहंकार की बड़ी-से-बड़ी कोशिश रहती है कि, "मैं बचा रहूँ ये दावा करने के लिए कि, 'मैंने देखा, मैंने देखा'।" अहंकार को जैसे वाइल्डलाइफ़ फोटोग्राफ़ी बहुत पसंद हो, कॉर्बेट गया है घूमने, "मैंने देखा, ये देखो तस्वीर, झाड़ी के पीछे से बस मुँह बाहर निकाल ही रहा था ब्रह्म कि मैंने तस्वीर खींच ली। मैं देख कर आया हूँ, मैं हूँ ब्रह्म दर्शी।"

ऐसे नहीं है, बिलकुल अपने भीतर से ये भावना निकाल दें कि आपको आत्मा का, ब्रह्म का, ईश्वर का, सत्य का, किसी का साक्षात्कार हुआ है या हो सकता है। मुझे मालूम है ये भावना निकालने में आप बड़ा आहत अनुभव करेंगे। लेकिन सत्य तक जाने की बहुत छोटी कीमत है थोड़ी सी चोट खाना। चोट लगती हो तो लगे। हटाइए ये बात कि देवी, देवता, ईश्वर, कुछ भी आपके सामने साक्षात है। जो कुछ आपके सामने खड़ा है, निवेदन कर रहा हूँ, वो बिलकुल आपके ही जैसा है, आपकी ही निर्मित्ति है। आपसे किसी और ऊँचे आयाम का नहीं हो सकता वो। आपसे ऊँचा होता वो तो आपके सामने कैसे आ जाता?

पर लोग कहते हैं पुरानी कथाओं में कि फलाने ने इतने-इतने साल तपस्या की तो आकाश में शिव जी प्रकट हुए और उन्होंने कहा, 'बता क्या चाहिए?', तो उसने कहा फलानी चीज़ चाहिए, उन्होंने ऊपर से चिज्जू दे दी। ये सब कहानियाँ उनको बताने के लिए हैं जो बहुत ही भोठरी, ब्लंट बुद्धि के हैं। जिनको सूक्ष्म बात समझ में ही नहीं आएगी उनको इस तरह से बता दी जाती है और फिर चित्रों में भी दिखा दी जाती है।

दिखा देते हैं कि वो भक्त ध्रुव नीचे खड़ा हुआ है, या फलाने ऋषि हैं वो नीचे खड़े हुए हैं, या फलाना असुर है तपस्वी वो नीचे खड़ा हुआ है, और बस कुछ पंद्रह-बीस फीट की ऊँचाई पर शंकर भगवान दिखा दिए जाते हैं। वो ऐसे (आशीर्वाद की मुद्रा में) खड़े हुए हैं कि, 'बता वत्स, क्या चाहिए'। वो कुछ बोल रहा है, बोल रहे हैं 'तथास्तु!' और आप सोचते हैं ऐसा ही कुछ होता होगा दर्शन, ऊपर से उतरते होंगे और हम नीचे से देख लेते होंगे। ये सब बातें, ये कहानियाँ बच्चों तक भागवत तत्व को पहुँचाने के लिए रची गई थीं। इस तरह की कहानियाँ या छवियाँ बड़ों के लिए नहीं हैं; सत्य के साधकों के लिए तो बिलकुल ही नहीं है।

शिव कोई व्यक्ति हैं, कोई छवि हैं कि साक्षात आ जाएँगे और आप उनका दर्शन कर लेंगे? बाकी आप अपने नशे में, बेहोशी में, कुछ भी कल्पना करते रहें, उस पर कोई पाबन्दी नहीं है। वो आप कर लीजिए कि, 'हाँ, मैंने शिव को देखा'। कर सकते हैं, दावा करने से कौन किसको रोक सकता है? अभिव्यक्ति की आज़ादी सबको है, कोई कुछ भी बोल सकता है, लेकिन इसका मतलब ये थोड़े ही है कि शिव कोई देह धारी हैं और प्रकट हो जाएँगे।

तमाम तरह के आध्यात्मिक अन्धविश्वास हैं जो बहुत प्रचलित हैं, बहुत ज़्यादा वो पढ़े-लिखे लोगों में प्रचलित हैं। बहुत पढ़े-लिखे लोग होंगे, एकदम वैज्ञानिक स्तर के भी होंगे, वो ऐसे बोल रहे होंगे, 'ईश्वर क्या है?' 'एनर्जी, एनर्जी '। और उनको ये बोलते हुए बड़ा फ़क्र सा अनुभव होता है, 'देखो हमने कितनी ऊपर की बात करी है, हम कह रहे हैं *गॉड इज़ एनर्जी*।'

पगले हो क्या? जिसको तुम ऊर्जा कह रहे हो वो पदार्थ ही तो है, और ये जानने के लिए विज्ञान की ज़रूरत भी नहीं है, यूँ ही पता है हमें। E = mc^2 तुम्हें नहीं भी बताया जाता तो भी सामान्य बुद्धि से तुम जान जाते कि पदार्थ और ऊर्जा एक ही तल की बातें हैं। तो अगर तुमने कह दिया कि ईश्वर ऊर्जा है, तो तुमने क्या कह दिया? ईश्वर पदार्थ है। लो, कर दी न तुमने बिलकुल वही 'अह्म देहास्मि' वाली बात, 'मैं पदार्थ हूँ, मेरा ईश्वर भी पदार्थ है।' इसमें अध्यात्म कहाँ है? अध्यात्म का मतलब तो सूक्ष्मता होता है न और तुमने तो ईश्वर को ही पदार्थ बना दिया।

फिर आगे कहा है, “तब वह अजन्मा, निश्चल।”

देखो, अजन्मा और निश्चल इन दोनों शब्दों में साझा क्या है? बहुत पैनी दृष्टि से पढ़ा करो। अजन्मा कहो कि निश्चल कहो, साझा क्या है इन दोनों शब्दों में? दोनों ही ये शब्द नकार की भाषा में हैं। किसको नकारा जा रहा है? माया को। और कौन जन्मता है? और कौन जन्म देता है? और जो सब कुछ चलायमान है वो क्या है? वही तो है।

माया को लेकर कोई ख़तरनाक सा चित्र मत बनाया करो दिमाग में, कि राक्षसी जैसी कुछ होगी कोई माया। माया माने यही सब कुछ, ये पूरी दुनिया। तुम्हारा जन्म लेना क्या है? माया। तुम्हारी मौत क्या है? माया। तुम्हारा जीवन क्या है? माया। जिनसे आ रहे हो वो कौन है? माया। तुम जिनको पैदा कर रहे हो वो सब क्या हैं? माया। सब माया-ही-माया है।

माया माने क्या?

जो सदा न रहे वो माया। जो कल नहीं था, आज अचानक खड़ा हो गया, सो माया। जो अभी जैसा दिख रहा है, छानबीन करो तो पता चले अभी ऐसा नहीं है; और अभी जैसा दिख रहा है अगले पल तो बिलकुल वैसा नहीं रहेगा, सो माया। जिसका कभी तुम पूरा भरोसा न कर पाओ वो? माया। तो ये है माया। तो ये जो सब कुछ गतिमान है, माया ही तो है। गतिमान होने का मतलब ही है कि अभी है, फिर गति करेगा तो नहीं रहेगा, कुछ और हो जाएगा।

“सम्पूर्ण तत्वों से पवित्र उस परमात्मा को जानकर।”

अब जहाँ कहा जा रहा है सम्पूर्ण तत्वों से पवित्र, वास्तव में ये भाषा भी है नकार की ही। क्यों? हम किसको जानते हैं? पवित्रता को जानते हो कभी? पवित्रता माने तो विशुद्ध निर्दोषता हो गया न। जब तुम कहो कुछ पवित्र है माने अब उसमें अपवित्रता कितनी है? एकदम शून्य। तुम्हारी ज़िन्दगी में, तुम्हारे अनुभव में, कभी कुछ भी ऐसा रहा है जो शत प्रतिशत शुद्ध हो, बताना?

ये पानी है (हाथ में पानी से भरा गिलास उठाते हैं), शत प्रतिशत शुद्ध है? ये काँच है, शत प्रतिशत शुद्ध है? बोलो? ये शरीर शत प्रतिशत शुद्ध है? एकदम अभी नहा कर आओ तो भी शुद्ध हो जाता है पूरा-पूरा? विचार कभी पूरे शुद्ध होते हैं? वस्त्र होते हैं कभी पूरे शुद्ध? मन होता है कभी पूरा शुद्ध? कुछ भी कभी पूरा शुद्ध होता है? तो ले-दे करके हमारा कुल परिचय किससे है? अपवित्रता से। चूँकि हमारा परिचय अपवित्रता से है इसलिए नकार की भाषा में परमात्मा को कह देते हैं पवित्र।

उसको चाहे पवित्र कहें, चाहे अजन्मा कहें, चाहे अचल कहें, उद्देश्य तुमको ये जताना है कि भाई वो तुम्हारे जैसा बिलकुल नहीं है। तुम ज़रा अपनी हद में रहो, तुम इस तरह के मंसूबे मत बाँधने लग जाओ कि 'मैं उसके सामने खड़ा हो जाऊँगा'। वो तुम्हारे जैसा है ही नहीं, वो तुम्हारे तल पर है ही नहीं, तुम उसके सामने कैसे खड़े हो जाओगे? दो लोग एक दूसरे के सामने कब खड़े हो सकते हैं? जब दोनों के पाँव तले की ज़मीन एक हो। तुम्हारे पाँव के नीचे जो ज़मीन है वो उसकी (परमात्मा की) ज़मीन से बिलकुल अलग है। वो बिना ज़मीन के खड़ा है, तुम ज़मीन पर खड़े हो। तुम उसके सामने कैसे खड़े हो जाओगे?

और ये भी क्यों कहा जा रहा है कि वो बिना ज़मीन के खड़ा है? अभी हम थोड़ी देर पहले कह रहे थे आत्मा है ही नहीं, और अब हम कह रहे हैं, वो ज़मीन पर खड़ा है। और इस तरह की बातें जैसे हम किसी विधायक इकाई की बात कर रहे हों। ये हम क्यों कह रहे हैं? ये भी तुमको सिर्फ़ ये बताने के लिए है कि वो तुमसे बहुत दूर का है, बहुत अलग है।

क्यों बताना पड़ता है?

देखो, अध्यात्म का मतलब सत्य की खोज बाद में होता है, झूठ का नकार पहले होता है। ये पूरा जो ग्रन्थ है उपनिषद्, इसमें सम्बोधित किसको किया जा रहा है? मैं बार-बार याद दिलाता हूँ, किसको? अहंकार को, ये पूरी बात अहंकार के लिए रची गई है। और अहंकार वो है जो भीतर से खोखला होते हुए भी अपने आत्मविश्वास में जीता है। उसको बड़ा भरोसा होता है अपने-आप पर – 'मैं जो कर रहा हूँ ठीक ही कर रहा हूँ, मैं जानता हूँ मैं क्या कर रहा हूँ।'

तो एक-एक श्लोक इसलिए है कि तुम्हें जताया जा सके कि तुम्हें कुछ नहीं पता तुम क्या कर रहे हो। तुम सोच रहे हो कि तुम ऊँचे हो; नहीं, तुम ऊँचे नहीं हो। कोई तुमसे इतना ऊँचा है कि तुम उससे हाथ भी नहीं मिला सकते हो। वो तुम्हारी नज़र में भी नहीं आता। अब वो कितना ऊँचा है ये बात महत्वहीन है, महत्वपूर्ण ये बात है कि तुम अपने-आपको नीचा मानो।

तो ये पूरा जो आयोजन है, ये कुल मिला करके तुमको ये जताने के लिए है कि बेटा तुम नीचे रहो। और नीचे रहना अहंकार को पसंद ही नहीं, वो अपनी दृष्टि में अपना सत्य ख़ुद है। वो तो वो है जो अपने मन मुताबिक देवी-देवता का भी चुनाव कर लेता है। वो तो वो है जो उपनिषद् भी स्वेच्छा से पढ़ेगा, गुरु भी स्वेच्छा से चुनेगा। वो अपने-आपको सबसे ऊपर मानता है। ग्रंथों की भी कौनसी बात पढ़नी है या नहीं पढ़नी है ये वो ख़ुद तय करता है। वो अपने-आपको ग्रन्थ से भी ऊपर रखता है, भले ही वो ये बोले 'मैं ग्रन्थ पढ़ने जा रहा हूँ'; पढ़ना है या नहीं पढ़ना, हम देखेंगे।

कोई हो दिशा निर्देशक, वो भी तुम्हें कोई सलाह दे या आज्ञा दे तो उसकी कौन सी आज्ञा माननी है कौन सी नहीं, और माननी भी है तो कितनी माननी है, ये अहंकार ख़ुद तय करता है। तो बोलेगा यही कि 'मैं फलाने की आज्ञा पर काम कर रहा हूँ', पर पूरी बात पूछो; पूछो क्या सारी आज्ञाओं का पालन करते हो? 'नहीं'। अच्छा तो तुम चुनते हो तुम्हें किस आज्ञा का पालन करना है किसका नहीं? 'हाँ'। अच्छा तो फिर बड़ा कौन हुआ, आज्ञा देने वाला या तुम? बड़ा कौन हुआ?

अहंकार भले ही भीतर से आक्रांत रहता हो, शोकाकुल रहता हो, खोखला रहता हो, लेकिन फिर भी उसकी ठसक पूरी है। 'चलूँगा तो मैं अपने ही हिसाब से, हाँ, बीच-बीच में कुछ दो-चार बातें इधर-उधर पूछता चलूँगा। पर किससे पूछना है वो भी मैं तय करूँगा और जो सुनाई पड़ा पूछ करके वो मानना है या नहीं मानना है, ये भी मैं तय करूँगा।' ऐसा होता है अहंकार, बहुत ज़बरदस्त अड़ियल टट्टू। इसीलिए तो इतने उपनिषद् रचने पड़े। तब भी ख़ैर, अहंकार तो अहंकार है।

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