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लेख
जो त्याग बोध से उठे || श्वेताश्वतर उपनिषद् पर (2021)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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सर्वेन्द्रियगुणाभासं सर्वेन्द्रियविवर्जितम्। सर्वस्य प्रभुमीशानं सर्वस्य शरणं बृहता्॥

वह परम पुरुष समस्त इंद्रियों से रहित होने पर भी उनके (इंद्रियों के) विषय-गुणों को जानने वाला है। सबका स्वामी-नियंता और सबका बृहद् आश्रय है।

~ श्वेताश्वतर उपनिषद् (अध्याय ३, श्लोक १७)

आचार्य प्रशांत: वह परम पुरुष, वह शुद्ध-मुक्त चेतना इंद्रियों द्वारा लाए गए विकारों से और सूचनाओं से मुक्त है यद्यपि वह उनको ग्रहण करता है।

विकार क्या हैं?

चेतना में दो तरह से विकार आते हैं। पहला, शरीर की तरफ़ से। चेतना कहती है 'मैं शरीर हूँ', और शरीर सम्बंधित जितने भी भाव होते हैं, दोष होते हैं, गुण होते हैं वो चेतना के भी गुण-दोष भाव बन जाते हैं। शरीर छोटा होता है, चेतना कहने लग जाती है 'मैं छोटी हूँ'। शरीर दुर्बल होने लग जाता है, चेतना कहने लग जाती है 'मैं दुर्बल हूँ'। तो एक तो शरीर की तरफ़ से चेतना में विकार आते हैं।

दूसरा, चेतना में विकार आते हैं संसार की ओर से, माने इंद्रियों की ओर से। इन्द्रियाँ संसार को देखती हैं और चेतना में पहुँचाती हैं और चेतना सोख लेती है संसार की ओर से उसे जो भी संदेश मिल रहे हैं, दृश्य मिल रहे हैं, अनुभव मिल रहे हैं, प्रभाव मिल रहे हैं; चेतना उनको सोख लेती है।

तो दोनों तरफ़ से मैली होती जाती है। वो मैली हो रही है शरीर से संपर्क के कारण और वो मैली हो रही है संसार से संसर्ग के कारण। एक तरफ़ तो किससे जुड़ी हुई है? शरीर से। दूसरी तरफ़ वो किससे जुड़ी हुई है? संसार से। और दोनों ही तरफ़ से उसमें मैल लग रहा है। ऐसे कह लो कि एक तरफ़ तो वो गंदी हो रही है तुम्हारे कारण और दूसरी तरफ़ वो गंदी हो रही है तुम्हारी दुनिया के कारण।

यही चेतना जब शुद्ध हो जाती है तब उसका लक्षण ये होता है कि दोनों सिरों पर जो कुछ भी है वो उसका अनुभव तो करती है पर उससे प्रभावित नहीं होती। शरीर है? चेतना कहेगी 'है'। संसार है? चेतना कहेगी 'है'। पर क्या शरीर चेतना के भीतर प्रवेश कर गया? नहीं। क्या संसार चेतना के भीतर प्रवेश कर गया? बिलकुल नहीं। ये शुद्ध चेतना होती है। इसी शुद्ध चेतना को प्रथम पुरुष, परमात्मा या आत्मा भी कहते हैं।

तो श्लोक कह रहा है कि, "वो प्रथमपुरुष समस्त इंद्रियों का ज्ञाता होकर भी उनसे मुक्त है।" अर्थ क्या हुआ? वह प्रथमपुरुष समस्त इंद्रियों से द्रव्य ग्रहण करते हुए भी उस द्रव्य का भोक्ता नहीं है। आँखें दृश्य ला रही हैं, कान शब्द ला रहे हैं। वो इन सब को ग्रहण तो कर रहा है पर किसी को भी भोग नहीं रहा। भोग नहीं रहा माने उसे इनमें से किसी से भी सुख की आकांक्षा नहीं है। चूँकि उसे इनसे सुख की आकांक्षा नहीं है इसलिए वो इनसे कोई संबंध नहीं बनाता। ये शुद्ध चेतना के लक्षण हैं − जानना, पर भोगना नहीं।

ना भोगने की स्थिति दो दशाओं में हो सकती है। एक जड़ता की दशा। कुछ नशे की चीज़ आपके सामने रखी है, मान लीजिए एक गिलास है उसमें शराब रखी है। क्या गिलास को नशा हो जाता है? नहीं। क्यों? आप जितना भी पी रहे हैं आप से पहले वो किसके पास था? गिलास के पास था। गिलास को नशा क्यों नहीं हुआ? क्योंकि जड़ है गिलास। जो जड़ है वो भोग नहीं सकता।

और ना भोगने का काम जिस दूसरी दशा में होता है वो होती है दशा परम्-चैतन्य की, शुद्ध-चेतना की, कि सामने है पर भोगना नहीं है क्योंकि बिना भोगे ही मस्त हैं, आनंद है। क्या करेंगे नशे का? चेतना की प्रभावित या मलिन या विकारयुक्त स्थिति वो होती है जिसमें वो भोगने के लिए आतुर होती है। तब आप आधे जड़ हो और आधे चेतन हो। आपकी चेतना में अशुद्धि है। आप बीच के हो।

ना तो पूर्ण चेतना भोगने में विश्वास रखती है और ना ही शून्य चेतना। शून्य चेतना, माने जड़ता, वहाँ भोग नहीं होगा। और पूर्ण चेतना में भी भोग नहीं होगा। तो फिर जड़ता और चैतन्यता में अंतर क्या हुआ? अंतर ये हुआ कि जड़ता में भोग तो नहीं है पर बोध भी नहीं है। गिलास शराब नहीं पीता पर गिलास को शराब का बोध भी नहीं है। ना पीना गिलास का कोई चैतन्य निर्णय नहीं है, मजबूरी है गिलास की। वो पी सकता ही नहीं है, उसकी भौतिक संरचना ऐसी नहीं कि वो शराब पी सके, तो वो नहीं पीता है। दूसरी ओर, पूर्ण चैतन्य में भी आप नहीं पीते पर आप बोध के कारण नहीं पीते, बोध के साथ नहीं पीते, यह अंतर है।

तो प्रथमपुरुष को कहा गया है कि वो सब जानता है पर जिसको जानता है उससे मुक्त है। वो शराब को जानता है पर उसे नशा नहीं चाहिए। वो संसार को जानता है पर उसे संसारी नहीं बनना, ये मुक्त पुरुष का समझ लो विवरण है। जानता वो सब-कुछ है, जड़ नहीं है, मूर्ख नहीं है, सब पता है उसको पर उसे चाहिए नहीं। चाहे तो वो अभी भोग सकता है, पर उसे चाहिए नहीं। वो स्वामी है इसलिए नहीं भोग रहा।

देखो, दो चीज़ें होती हैं। एक तो यह कि तुम सबसे बड़े दास हो इसलिए तुम्हें कुछ उपलब्ध ही नहीं हो रहा जीवन में। कतार में हमेशा तुम पीछे खड़े होते हो। तुम तक कभी कुछ पहुँचता ही नहीं तो तुम क्या भोगोगे? और दूसरा यह हो सकता है कि तुम सबसे आगे खड़े हो। तुम सबसे आगे खड़े हो इसलिए सब-कुछ तुम तक ही पहले आता है। तुम भरे हुए हो पूरे तरीके से तो इसलिए तुम कुछ भोगते नहीं, तुम आगे निकाल देते हो। कुछ है तुम्हारे भीतर जो पूर्णतया तृप्त है, वो और माँगता नहीं। और इस स्थिति में जब आत्मज्ञान होता है, जब अपनी तृप्त आत्मा के साथ होते हो तुम, तब करुणा उठती है। तब तुम कहते हो, "जो साथ नहीं हैं अगर वो भोगना चाहें तो वो ले लें। हमें नहीं चाहिए।" यह दो तरह के त्याग हैं।

एक त्याग वो जो विवशता के कारण हुआ। ज़्यादातर लोग जब पाते नहीं हैं तो त्यागी हो जाते हैं। और एक त्याग वो है जो संपूर्णता के कारण, अदम्यता के कारण, सशक्तता के कारण हुआ; 'इतना है कि हम नहीं लेंगे'। भले ही बाहरी तल पर इन्द्रियाँ इत्यादि ये संदेश भी देते रहें कि कुछ तुम भी ले लो न। पर हमने तो जान लिया है कि इंद्रियों से सूचना लेनी है, प्रभाव नहीं। इन्द्रियाँ जो भी कुछ कह रही हैं उसको सुन लेना है, उससे प्रभावित नहीं हो जाना है।

किसी योद्धा की कहानी है, शायद सिकंदर की। बड़ी सेना लेकर के जा रहा था, बीच में एक लंबा फ़ासला आया जब खाना-पानी ख़त्म हो गया सेना का, सब रसद, खाद्य-सामग्री ख़त्म। सब प्यासे हैं, सब भूखे हैं। तो सैनिक गए और बड़ी मुश्किल से अपने सेनापति, अपने स्वामी के लिए एक घड़ा भर कर या मश्क़ भर कर पानी ले आए कि 'आप पीजिए, आपको पानी मिले ज़रूरी है।'

तो कहते हैं कि उस योद्धा ने अपने हाथ में वो मश्क़ ली और धूप चिलचिला रही है ऊपर, नीचे बंजर ज़मीन है, शायद रेगिस्तान रहा होगा। उसने दूर तक देखा, पीछे तक उसके सैनिक खड़े थे। एकदम जो सबसे पीछे सैनिक था उसकी आँखों में देखा, ज़बरदस्त प्यास थी। प्यास भी थी और आशाहीनता भी थी। क्या थी आशाहीनता? कि 'मुझे तो मिलने से रहा। पानी है कुल इतना सा और मैं खड़ा हूँ सबसे पीछे'। तो ये जो सेनापति था इसने हाथ में जो मश्क़ थी वो पूरी पलट दी रेत में।

पीछे वाले को नहीं मिला क्योंकि उसे मिल ही नहीं सकता था और पहले वाले को नहीं मिला क्योंकि उसे चाहिए नहीं था। इन्द्रियाँ कह रही थी कि 'पानी चाहिए!' गला कह रहा था 'पानी चाहिए!' भीतर कुछ और था इंद्रियों से और गले से और प्यास से बड़ा जिसने कहा 'नहीं चाहिए!' या तो इतना होता पानी कि सब पी सकते। 'अपने ही सैनिकों के सामने खड़ा होकर के अकेले पानी पियूँ क्या?' समझ में आ रही है बात? इशारा समझना।

मुक्त चेतना ऐसी होती है, स्वामिनी। वो यहाँ कहा गया है न (श्लोक में) "वह परम-पुरुष समस्त इंद्रियों से रहित होने पर भी इंद्रियों के विषयों-गुणों को जानने वाला है। सबका स्वामी-नियंता और सबका बृहद आश्रय है वह।" इंद्रियों का स्वामी होने से क्या आशय हुआ? कि ग़ुलाम नहीं है इंद्रियों के कि गले ने कहा पियो तो पी गए।

और वो स्वामित्व आएगा कैसे? वो तभी आएगा जब तुम अपने और इंद्रियों के बीच अंतर करना सीखो। अगर इंद्रियों से तादात्म्य कर लिया है तो जो कुछ इन्द्रियाँ कह रही हैं उसको ठुकराना मुश्किल हो जाएगा। फिर तो इन्द्रियाँ कहेंगी 'पियो', तुम्हें पीना पड़ेगा। तुम कहोगे 'मेरी ही तो ये माँग है कि पीना है। अब ये माँग उठी है तो पीऊँगा।'

लेकिन जब ये स्पष्ट हो जाता है कि, "इन्द्रियाँ तो इन्द्रियाँ हैं, मैं इंद्रियों से अलग हूँ", तब इंद्रियों के कहे पर चलने की विवशता नहीं रह जाती। तब तुम इंद्रियों के स्वामी हो जाते हो। तुम इंद्रियों से अलग भी हो गए और इंद्रियों के स्वामी भी हो गए, यही बात श्लोक में कही गई है।

और तुम इंद्रियों के विषय-गुणों को जानने वाले भी हो गए। तुम अपने को जब जान रहे हो तो इंद्रियों को भी तो जान ही रहे हो न। जब नहीं जान रहे थे तो ना तो इन्द्रियों को जान रहे थे, ना स्वयं को जान रहे थे; अज्ञान दोनों तरफ़ का था। क्या सोच रहे थे? 'मैं वो हूँ जो इंद्रियों द्वारा परिभाषित होता है। अब जान लिया कि इन्द्रियों की प्रकृति अलग है और मेरा स्वभाव अलग है।' इन्द्रियों को जान भी गए, इन्द्रियों के स्वामी भी हो गए और इन्द्रियों से मुक्त भी हो गए।

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