क्या है जो कभी नहीं बदलता? || अष्टावक्र गीता पर

January 28, 2022 | आचार्य प्रशांत

न दूरं न च सङ्कोचाल्लब्धमेवात्मनः पदम्।
निर्विकल्पं निरायासं निर्विकारं निरञ्जनम्॥

आत्मा का स्वरुप न दूर है, न निकट। वह तो प्राप्त ही है, तुम स्वयं ही हो। उसमें न विकल्प है, न प्रयत्न है, न प्रकार है और न मल।

~ अष्टावक्र गीता, अध्याय १८, श्लोक ५

आचार्य प्रशांत: "आत्मा का स्वरुप न दूर है, न निकट। वह तो प्राप्त ही है, तुम स्वयं ही हो। उसमें न विकल्प है, न प्रयत्न है, न प्रकार है और न मल।"

कुछ नहीं कहेंगे कि क्या है, यही कहते रहेंगे कि क्या नहीं है। जो कुछ भी तुम्हें बुरा लगता है, वही नहीं है। और मैं तुम्हें बता दूँ, तुम्हें सब कुछ बुरा ही लगता है। कुछ बता दो जो अच्छा लगता हो।

जो कुछ भी तुम्हें अच्छा लगा है न, वो किसी और वस्तु की तुलना में लगा है जो ज़्यादा बुरी लगती है। हमें जो कुछ भी लगता है, या तो बुरा लगता है या बहुत बुरा लगता है। जो हमें बहुत बुरे की तुलना में कम बुरा लगता है, उसे हम कभी-कभार अच्छा बोल देते हैं।


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आचार्य प्रशांत एक लेखक, वेदांत मर्मज्ञ, एवं प्रशांतअद्वैत फाउंडेशन के संस्थापक हैं। बेलगाम उपभोगतावाद, बढ़ती व्यापारिकता और आध्यात्मिकता के निरन्तर पतन के बीच, आचार्य प्रशांत 10,000 से अधिक वीडिओज़ के ज़रिए एक नायाब आध्यात्मिक क्रांति कर रहे हैं।

आई.आई.टी. दिल्ली एवं आई.आई.एम अहमदाबाद के अलमनस आचार्य प्रशांत, एक पूर्व सिविल सेवा अधिकारी भी रह चुके हैं। अधिक जानें

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