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घट-घट में बसा है वो || श्वेताश्वतर उपनिषद् पर (2021)
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
23 min
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ततः परं ब्रह्म परं बृहन्तं यथा निकायं सर्वभूतेषु गूढम्‌। विश्वस्यैकं परिवेष्टितारमीशं तं ज्ञात्वाऽमृता भवन्ति॥

जो उस जीवजगत से परे हिरण्यगर्भरूप ब्रह्मा से भी अत्यंत श्रेष्ठ है, जो अत्यंत व्यापक है, किन्तु प्राणियों के शरीरों के अनुरूप उन सब प्राणियों में समाया हुआ है, सम्पूर्ण जगत को अपनी सत्ता से घेरे हुए उस महान परमात्मा को जानकर विद्वान पुरुष अमर हो जाते हैं।

~ श्वेताश्वतर उपनिषद् (अध्याय ३, श्लोक ७)

आचार्य प्रशांत: क्या कहा गया है? "वो जो हिरण्यगर्भरूप ब्रह्मा से भी अत्यंत श्रेष्ठ है।" हिरण्यगर्भ या ब्रह्मा क्या हैं? वो आदमी के मन की उच्चतम अभिकृति हैं। जो तुम ऊँचे-से-ऊँचा सोच सकते थे वो हैं ब्रह्मा या हिरण्यगर्भ। हिरण्यगर्भ मतलब प्रथम पुरुष, जिनके होने के बाद समस्त अस्तित्व का जन्म हुआ उनसे।

तो पूरे अस्तित्व की जहाँ से शुरुआत होती है, इस दुनिया में ही जो बिलकुल प्रथम बिंदु है, उसका नाम है 'हिरण्यगर्भ'। ऋषि कह रहे हैं, हमें ये याद रखना है कि उनसे भी श्रेष्ठ कोई है। तो पहले तो मन को ऊँचा, ऊँचा, ऊँचा, और ऊँचा, और ऊँचा उठाओ, अधिकतम और उच्चतम जहाँ तक मन को ले जा सकते हो, ले जाओ और फिर अपने-आपको याद दिलाओ कि 'अब जब मैं यहाँ आकर के ठहर गया, इसके पार जो है वो सत्य है।'

सत्य मन की उड़ान या मन की ऊँची कल्पना में नहीं है। उच्चतम कल्पना, उच्चतम सिद्धांत, उच्चतम शब्द जहाँ पर जाकर के रुक सा जाता है, उसके पार जो है वो सत्य है।

और इसीलिए सत्य उनको नहीं मिल सकता जो इस संसार में उच्चतम के अभिलाषी ना हों। कारण मनोवैज्ञानिक है। अगर आप संसार में ही कुछ ऊँचा प्राप्त नहीं कर पा रहे हैं तो आपकी आशा ये बँधी रहती है कि अभी थोड़ा कुछ और ऊँचा मिल जाएगा और उसमें तृप्ति हो जानी है। 'अभी तो यहाँ ही जो मिलना है, मैं वही नहीं हासिल कर पाया। तो यहाँ जो मिलना है उसको हासिल करता हूँ और उसकी उपलब्धि से ऐसा लगता है कि मैं तृप्त हो जाऊँगा।'

सत्य उनके लिए है, मुक्ति उनके लिए है जो बड़ी ऊँचाइयाँ हासिल करें दुनिया में और उन ऊँचाइयों के बाद उनको दिखाई दे कि यहाँ नहीं है। इसका अर्थ ये नहीं है कि जीवन के हर क्षेत्र में आपको अग्रणी या प्रथम स्थान पर होना चाहिए। इसका अर्थ ये है कि जीवन में कहीं पर तो आपने उत्कृष्टता हासिल करी हो, कहीं पर तो आपकी उपलब्धि बेजोड़ हो। और तब आपको पता चलता है कि आपकी उच्चतम उत्कृष्टता और ऊँची उपलब्धि के क्षण में भी भीतर कुछ खाली रह गया है। तब आप समझते हो कि वो जो चीज़ है जो मुझे चाहिए, वो इसके पार की है; ये वो नहीं।

ब्रह्मा या हिरण्यगर्भ का संबंध पार से नहीं है, वो इसी संसार के हिस्से हैं। इस संसार के कौनसे हिस्से हैं वो? उच्चतम। जो इस संसार का उच्चतम बिंदु है, जहाँ से समझ लो, ये पूरा संसार टपक पड़ा है, कि एक बून्द थी और उससे सारा फिर संसार ही बिलकुल बाढ़ की तरह खुल बैठा, वो हिरण्यगर्भ है – संसार का सबसे ऊँचा बिंदु। तुमने वो भी पा लिया। उसके पार है सत्य।

तो कुछ तो श्रेष्ठ अर्जित करना पड़ेगा, कहीं तो उपलब्धि प्रदर्शित करनी पड़ेगी। और जीवन के हर क्षेत्र में अगर तुम उपलब्धिहीन ही हो तो फिर तो अभी संसार तुम पर बहुत हावी रहेगा, संसार तुमको बड़ा आकर्षित करेगा। कोई चीज़ जब तक मूल्यवान लग रही हो, छोड़ी नहीं जाएगी। कोई चीज़ जब तक मिल ही ना रही हो, तब तक उसका मूल्य तुम्हारी नज़र में ऊँचा ही रहेगा।

और होना भी चाहिए क्योंकि अभी तो तुम इतने भी ऊँचे नहीं हो कि दुनिया को ही पूरा पा सको तो तुम दुनिया के पार वाले को क्या पाओगे! दुनिया के पार जाने के लिए पहले दुनिया को तो लाँघना पड़ता है न। अभी तो तुम्हारी दुनिया को ही लाँघने की हैसियत नहीं हो रही है, दुनिया के भीतर ही तुम ठीक से कुलाँचे नहीं मार पा रहे; तुम पार क्या निकलोगे!

तो जो दुनिया के भीतर ही अभी फिसड्डी बनकर बैठे हों, अध्यात्म उनको जमता नहीं है। उन्हें बात ही नहीं समझ में आती। जब उनके सामने पार की बात होती है तो वो रोमांचित नहीं हो जाते, उनका लहू और गर्म नहीं हो जाता, दिल और ज़्यादा उत्तेजित होकर धड़कने नहीं लगता। उनके सामने जब अध्यात्म की बात होती है, उनको नींद आने लग जाती है।

वो कहते हैं, "क्या बातें हो रही हैं? पता नहीं क्या है। इस दुनिया में तो हम फिसड्डी हैं, आप कह रहे हो 'दुनिया के पार निकल जाना है, दुनिया से भी श्रेष्ठ कुछ है।' अरे! हम पहले दुनिया के तो क़ाबिल बन जाएँ।" और हमें उनसे सहानुभूति रखनी पड़ेगी, वो ठीक ही कह रहे हैं।

तो कई बातें हैं जो श्लोक के इस छोटे से हिस्से से स्पष्ट होती हैं। पहली बात, अगर ब्रह्मा इस दुनिया के रचयिता हैं और हिरण्यगर्भ वो प्रथम बिंदु है जिसके माध्यम से इस दुनिया की रचना हुई, तो वो भी फिर दुनिया के हिस्से ही हो गए, उनके पार जाना है। ब्रह्म और ब्रह्मा की कोई तुलना नहीं।

हाँ, और ब्रह्माण्ड और ब्रह्मा एक ही आयाम में हो गए, माने चीज़ का जो रचयिता है, वो चीज़ के ही आयाम में होता है। तो अगर इस संसार को रचने वाला कोई हो गया तो वो संसार के ही आयाम में हो गया। संसार के पार जो होगा, वो फिर संसार का रचनाकार भी नहीं हो सकता, वो रचनाकार भी नहीं है।

देखो, 'साक्षी' होने में और रचनाकार होने में बहुत अंतर है। 'साक्षी' तो रचना कभी नहीं करता, या करता है? भारतीय दर्शन इस मामले में बेजोड़ है। यहाँ 'साक्षी' समझा गया, रचनाकार नहीं, क्रिएटर नहीं; विटनेस (साक्षी)। ये नहीं कहा गया कि परम वो है जो दुनिया को बनाता है। दुनिया को तो माना गया साफ़-साफ़ कि दुनिया उसने नहीं, हमने और आपने बनाई है। प्रतिपल हम और आप हैं जो दुनिया को अपने मन और इन्द्रियों से प्रक्षेपित कर रहे हैं।

तो दुनिया परमसत्ता ने नहीं बनाई है। परमसत्ता ने कुछ नहीं करा है। परमसत्ता तो स्वयं में सम्पूर्ण, अद्वैत, प्रथम और आख़िरी और एकमात्र और केवल है। वो वहाँ बैठकर कोई निर्माण नहीं कर रहा कि 'पहले मैं बैठकर के आदमी बनाऊँगा फिर औरत बनाऊँगा फिर ये करूँगा, वो झील बनाऊँगा, तालाब बनाऊँगा, हूरें बनाऊँगा, ये बनाऊँगा'; ना, ना, ना, ना! कोई मतलब ही नहीं है उसको कुछ बनाने से। कुछ कभी बना ही नहीं है।

जिनको लगता है कि कुछ बना हुआ है वो ही माया में फँसे हैं। इसलिए अद्वैतवाद को 'मायावाद' भी कहा गया और ख़ासतौर पर जो लोग अद्वैतवाद को समझ नहीं पाते और अद्वैतवाद से किसी प्रकार की रंजिश रखते हैं, वो उसको 'मायावाद' कहकर के चिढ़ाते हैं, कहते हैं, 'ये तो मायावादी हैं'।

यहाँ किसी तरह की रचना की कोई संभावना नहीं है और परमात्मा की रचना करने में कोई रुचि नहीं। रचनाकार कौन है? हम और आप। प्रमाण इसका ये है कि आपकी दुनिया अलग, मेरी दुनिया अलग। अगर किसी एक दुनिया को किसी एक ऊपरवाले ने रचा होता तो वो हम सबके लिए समान होती न? आपकी दुनिया अलग, मेरी दुनिया अलग, खरगोश की दुनिया अलग, कुत्ते की दुनिया अलग। और आपकी भी दुनिया जो इस पल है वो अगले पल नहीं रहेगी। ये तो दुनिया भी अनंत है और प्रतिपल बदल रही है। कोई एक दुनिया ही नहीं है तो रची किसने? ज़रूर हम ही ने रची है। ये तो हमारे ही मन का विस्तार है, हमारा ही फैलाव है बस।

तो इस फैलाव के पार जाना है। और चाहे हिरण्यगर्भ हो चाहे ब्रह्मा हों, हैं तो वो इसी फैलाव के हिस्से। तो इसीलिए सत्य ब्रह्मा और हिरण्यगर्भ से श्रेष्ठ होगा। वही बात यहाँ कही गई है कि "जो उस जीवजगत से परे हिरण्यगर्भरूप ब्रह्मा से भी अत्यंत श्रेष्ठ है।" ब्रह्मा को प्रतिनिधि मान लो सब देवी-देवताओं का, ब्रह्मा को प्रतिनिधि मान लो संसार की भी जो उच्चतम अवस्था है और संसार से भी जो ऊँचे-से-ऊँचा, बढ़िया-से-बढ़िया तुम्हें सुख मिल सकता है उसका। कह रहे हैं, अगर जगत को बनाने वाले ब्रह्मा हैं, तो सत्य ब्रह्मा से बहुत ऊँचा है।

आगे, "जो अत्यंत व्यापक है, किन्तु प्राणियों के शरीरों के अनुरूप उन सब प्राणियों में समाया हुआ है।"

है तो वो अनंत व्यापक, अनंतता है उसकी, कभी ख़त्म नहीं होता। कौन जाकर सीमा लगाएगा उस पर? लेकिन फिर भी प्राणी जितने हैं उन सबमें विद्यमान हैं। प्राणी में वो विद्यमान है इसका अर्थ क्या है? प्राणियों में विद्यमान है प्राणियों की आख़िरी संभावना के रूप में। वो प्राणियों में ऐसे नहीं विद्यमान है कि भीतर कोई बैटरी लगी हुई है या चिप किसी ने आकर के फ़िट कर दी है।

हर प्राणी की उच्चतम संभावना परमात्मा ही है। और चूँकि कोई भी प्राणी अपनी उच्चतम संभावना पर पाया नहीं जाता, इसीलिए हर प्राणी तड़प रहा है। और जो प्राणी अपनी उच्चतम संभावना पर पहुँच गया वो परमात्मा ही हो जाता है, "ब्रह्मविद ब्रहमैव भवति।" वो तुम्हारे भीतर बैठा हुआ है एक बुलावा बनकर, वो तुम्हारे भीतर बैठा है एक शाश्वत आमंत्रण के रूप में कि 'आओ, उठो, तुम ऐसे हो सकते हो, ये क्या जीवन बिता रहे हो तुम!'

वो तुम्हारे भीतर ऐसे नहीं बैठा है कि बाहर जैसी दुनिया तुम्हारी चल रही है धूल-कीचड़ में लिपटी हुई, अज्ञान में सनी हुई, वो बाहर-बाहर चलती रहे और भीतर तुम्हारे परमात्मा विराजा है और तुम कहो, 'आहा! मेरे हृदय में तो परमात्मा बसता है।' नहीं, ऐसे नहीं। तुम्हारी ज़िंदगी अगर ख़राब चल रही है तो परमात्मा तुम्हारे भीतर बैठा हुआ है उस ख़राबी की तड़प के रूप में। तुम ये बताओ मुझे कि ख़राबी बुरी क्यों लगती अगर ख़राब होना ही तुम्हारा स्वभाव होता? बताओ, बोलो?

ज़िंदगी बिलकुल निम्नस्तरीय चल रही है, घटिया। अगर किसी निम्नस्तरीय चीज़ से ही तुम्हें तृप्ति मिल सकती तो किसी को भी एक निचला, छिछला, उथला जीवन जीने में क्या आपत्ति होती? लोगों के भीतर आकांक्षा, महत्वाकांक्षा, कामना उठती ही क्यों? कामना की मौजूदगी ही इस बात का प्रमाण है कि तुम जैसे हो, वैसे होना तुम्हीं को स्वीकार नहीं है। लोग कहते हैं कि 'प्रमाण क्या है कि जगत के पार कुछ है?' प्रमाण ये है कि जगत में तुमको चैन और राहत तो मिलते नहीं। तुम प्रमाण हो, और क्या प्रमाण चाहिए? बात ख़त्म।

एक से बढ़कर एक नास्तिक आते हैं, कहते हैं, "क्या प्रमाण है ईश्वर का?" मैं कहता हूँ, "तुम हैप्पी (प्रसन्न) हो? तुम संतुष्ट हो, सैटिस्फाइड ?"

"नहीं।"

तो बस यही प्रमाण है। बताओ, तुम्हें क्या लेकर दे दें कि तुम हो जाओगे संतुष्ट? ये लेकर दे दो, वो लेकर दे दो। थोड़ी सी भी बुद्धि होगी तो कहेगा, "कुछ भी लाकर दे दो, रहूँगा तो मैं ऐसा ही, ख़ुद से रूठा हुआ।" यही प्रमाण है कि जगत के पार कुछ है और वही चाहिए तुमको, इसीलिए तो तुम परेशान हो, पागल।

तो ये भी बड़ी भ्रान्ति है कि हम सबके भीतर क्या बैठी हुई है? आत्मा बैठी हुई है, इत्यादि, इत्यादि। नहीं, आत्मा नहीं बैठी है तुम्हारे भीतर। तुम्हारे भीतर कुछ नहीं बैठा है। तुम्हारे भीतर वही है जो तुम्हारे बाहर है, क्या? यही सब माँस, खाल, कोशिकाएँ, तंतु। मिट्टी, जिससे उठा भोजन, जो भीतर गया, हड्डी बन गया, माँस बन गया, यही सब है; अंदर भी यही है। आत्मा कहीं नहीं है अंदर।

हाँ, भीतर एक तड़प है। वो तड़प प्रतिनिधि है परमात्मा की। परमात्मा तुम्हारे भीतर मौजूद है उस तड़प के माध्यम से। और वो तड़प तुमसे बार-बार कह रही है 'उठो, उठो, उठो!' और तुम इतना उठ सकते हो कि परमात्मा सदृश ही हो जाओ, उसी के जैसे हो जाओ, ये तुम्हें मिली हुई है क़ाबिलीयत। यही जीवन का लक्ष्य है कि उस संभावना को तुम साकार कर सको।

तो अब आगे से कभी सुनना कि हर नर में नारायण होता है, जीव में ही ईश्वर है और कण-कण में राम बसता है, तो उस बात का असली मतलब समझना। क्या है उसका असली मतलब? कि जो भी चीज़ जैसी है, वैसा होने से वो संतुष्ट नहीं है, वैसा होना उसकी नियति नहीं है। जब एकमात्र यथार्थ ब्रह्म है, तो जो कुछ भी है चैतन्य उसे ब्रह्म ही होना है, और ब्रह्म से अलग या ब्रह्म से नीचे अगर वो कुछ बनी बैठी है तो तुम उसके जीवन में अशांति पाओगे। स्पष्ट है?

"सम्पूर्ण जगत को अपनी सत्ता से घेरे हुए उस महान परमात्मा को जानकर विद्वान पुरुष अमर हो जाते हैं।"

पूरे जगत को उसने अपनी सत्ता से घेर रखा है, माने पूरे जगत में तुम जहाँ भी जाते हो, वास्तव में उसी के लिए जाते हो। ऐसे समझो कि पूरे जगत पर अगर किसी की सत्ता चलती हो, ऐसा कोई हो हुक्मरान, शासक जो पूरे जगत में अपनी सत्ता चला रहा है, तो उस पूरे जगत में बड़ी-से-बड़ी और छोटी-से-छोटी चीज़ जो भी गति कर रही है, जो भी कहीं कोई जा रहा है या कुछ कर रहा है, वो किसके लिए कर रहा होगा, फॉर हूम ? शासक के लिए न।

तो इसी तरह से इस पूरी दुनिया में हम भी जो कुछ कर रहे हैं वो शांति के लिए कर रहे हैं, इसलिए वो इस पूरी दुनिया का सत्ताधीश है। नहीं समझे? अगर इस दुनिया का कोई सत्ताधीश होता, शासक होता तो हम जो कुछ भी कर रहे होते, किसके लिए कर रहे होते? उसके लिए। अब इस दुनिया में आओ। अभी भी बिलकुल ऐसा है कि हम जो कुछ भी कर रहे हैं, किसी एक चीज़ के लिए कर रहे हैं। किसके लिए कर रहे हैं? सत्य या शांति या मुक्ति के लिए। तो इसका मतलब है कि इस दुनिया का शासक कोई है और उसका हम नाम भी दे सकते हैं; उसका नाम हो गया सत्य, शांति, मुक्ति, क्योंकि यहाँ जो कुछ हो रहा है, उसी के लिए हो रहा है।

कोई भी व्यक्ति कुछ भी कर रहा हो, थोड़ी जाँच-पड़ताल करो, तुम्हें पता चलेगा कि वो शांति के लिए ही कर रहा है। अशांति के लिए कौन कुछ करता है? जो व्यक्ति भी जो कुछ भी कर रहा हो, उससे पूछोगे तो यही कहेगा कि 'ये चीज़ मुझे सही लग रही है।' झूठ के समर्थन में कौन कुछ करता है? अपनी नज़र में तो हर व्यक्ति सच की तरफ़ ही होता है न?

तो जब ये बात कभी सामने आए कि परमात्मा इस जगत का पालनहार है या इस पर नियंत्रण चलाता है, तो इसका मतलब ये नहीं है कि ऊपर बैठा हुआ है और वो नियंत्रण चला रहा है। इस बात के अर्थ सूक्ष्म हैं। सूक्ष्म बात के स्थूल अर्थ करोगे तो बड़ी विकृति हो जाएगी।

"सम्पूर्ण जगत को अपनी सत्ता से घेरे हुए है वो", माने सम्पूर्ण जगत में जो भी गति हो रही है, उसके लिए ही हो रही है; उसी से शुरू हो रही है, उसी पर ख़त्म हो रही है। उससे शुरू हो रही है, ये बात आसानी से समझ में नहीं आती। पर कामना तो समझ में आती है न? क्योंकि कामना से ही हमारा जीवन है। तो बस ये देख लो कि जो कुछ कर रहे हो वास्तव में किस चीज़ के लिए कर रहे हो।

क्यों चाहिए पैसा? मिल जाता है तो बड़ी ठंडक होती है। क्यों चाहिए वो जगह? क्यों चाहिए वो गद्दी? क्यों चाहिए वो इंसान? क्यों चाहिए एक फ़लाने तरीके का परिणाम? क्यों जीतनी है कोई लड़ाई? कोई आदमी-औरत क्यों हासिल करना है? बड़ी ठंडक लगती है, शांति मिल जाती है। तो माने जो कुछ भी कर रहे हो तुम, कर किसके उद्देश्य से, किसकी ख़ातिर रहे हो? शांति के लिए।

तो इस अर्थ में कहा गया है कि उसी की सत्ता चल रही है पूरी दुनिया में, उसी के पीछे सब भाग रहे हैं। जो सबसे आगे-आगे रहे, वही तो राजा हुआ न? सब शांति के पीछे भाग रहे हैं, तो सबसे आगे कौन है? शांति। तो फिर राजा कौन है? शांति। ये बात है।

"उस महान परमात्मा को जानकर विद्वान अमर हो जाते हैं।"

अब यहाँ पर फँस जाओगे। बहुतों को लगेगा कि उसको अगर जान लें तो क्या पता अमर ही हो जाएँ। लेकिन प्रथमसूत्र याद रखना है, बात परमात्मा को जानने की तो हो ही नहीं सकती, क्योंकि इस पूरी चीज़ की विषयवस्तु क्या है? जीव, जीव का डर, जीव के ताप, जीव के भय, जीव के कष्ट, जीव का अहंकार। तो उसको जानने की बात नहीं है। वो तो अज्ञेय है, उसको कैसे जानोगे? बात है स्वयं को जानने की। बात है जो ऊँचे-से-ऊँचा है उसको जानने की।

उसको जानकर तुम अमर नहीं हो जाओगे। उसको जानना तो सम्भव ही नहीं है। उसको जानने से अर्थ है कि तुम्हारा और कुछ जानने में बहुत प्रयोजन ना रह जाए। परमात्मा को जानकर जीव अमर हो जाता है, इसको ऐसे पढ़ना है कि परमात्मा को जानना माने संसार को जानने से उदासीन हो जाना। भाई, उसी चीज़ को तो जानोगे न जिसमें तुम्हारी रुचि रहेगी? तो परमात्मा को जानने से अर्थ है संसार को जानने से उदासीन हो जाना, या संसार के प्रति तुमने जो जानकारी इकट्ठा कर रखी है उससे विश्वास खो देना।

तो परमात्मा को जानना तुम्हारे ज्ञान में अभिवृद्धि नहीं करता, परमात्मा को जानना वास्तव में तुम्हारे ज्ञान को कम कर देता है। ज्ञान से हम भरे हुए हैं, वो सारा ज्ञान हमें किसका है? संसार का। परमात्मा को जानना माने संसार को नहीं जानना, माने संसार विषयक तुम्हारे पास जो ज्ञान था, तुमने उस ज्ञान को छोड़ दिया, त्याग दिया। ये है परमात्मा को जानना।

फिर कहा है, "परमात्मा को जो जान गया वो मृत्यु से मुक्त हो जाता है।"

पर अभी तो हमने कहा कि परमात्मा को जानना माने अपने ज्ञान से मुक्त हो जाना। कहीं ऐसा तो नहीं कि अपने ज्ञान से मुक्त होना ही कहलाता है मृत्यु से मुक्त होना? कहीं ऐसा तो नहीं कि हमारा जितना ज्ञान है वही मृत्युमूलक है, वही मृत्युधर्मा है? तो इसीलिए जब हमारा ज्ञान गया, तो साथ में मृत्यु का भय गया। शायद हमारा सारा ज्ञान हमें चीख-चीखकर के बतलाता ही यही है कि 'तू मरेगा, तू मरेगा।' एक बार उस ज्ञान से हमने पिंड छुड़ा लिया, तो फिर हमने मिट जाने की संभावना से और डर से भी पीछा छुड़ा लिया।

इस पूरी चीज़ में कुछ जाना गया क्या? नहीं, जाना कुछ नहीं गया। जो झूठा ज्ञान अर्जित कर रखा था, उस झूठे ज्ञान को बस विदाई दे दी गई। कुछ अतिरिक्त नहीं जान लिया गया। तो फिर आत्मज्ञान क्या है? आत्मज्ञान यही है – स्वयं को देखना और अपने झूठ को त्यागते चलना। जब भी ख़ुद को देखा, कोई झूठ ही पकड़ में आया। जानकारी में कोई इज़ाफ़ा, कोई वृद्धि हुई? नहीं, नहीं भैया। बस ये पता चल गया कि अभी तक जो सोचते थे वो कितना उथला था, कितना निराधार था।

आत्मज्ञान का मतलब है अपने पूर्वसंचित ज्ञान को लगातार झूठा, असत्य, छद्म, निराधार जानते चलना। अपनी धारणाओं से, अपने विश्वासों से, अपने पूर्वाग्रहों से, भविष्य के प्रति अपनी योजनाओं से लगातार मुक्त होते चलना।

परमात्मा का कोई ज्ञान नहीं होता। कोई पूछे, "आपको परमात्मा के दर्शन हुए हैं?" तो उत्तर होना चाहिए, "परमात्मा के दर्शन नहीं हुए, बाकी सब जिन चीज़ों के दर्शन हुआ करते थे बहुत ज़्यादा, उनका दर्शन करने में अब हमें कोई रुचि नहीं रही।" ये है परमात्मा का दर्शन करना। "बाकी सब दर्शन अब हमें महत्वहीन, बेईमानी लगने लगे हैं", ये है परमात्मा का दर्शन।

परमात्मा का ज्ञान भी इसी तरह क्या है? दोहराइए। परमात्मा का तो ज्ञान क्या ही मिलेगा, ये जो बाकी सब ज्ञान इकट्ठा कर रखा था, ये कितना मूर्खतापूर्ण है ये स्पष्ट हो गया।

'परमात्मा के रास्ते पता चल गए क्या? ज़रा हमें भी बताओ मुक्ति की राह।' नहीं, मुक्ति की राह तो क्या पता चली, ये पता चल गया कि हमारी जितनी राहें थीं आजतक, वो मौत की ओर ही जाती थीं। उन राहों से मुक्त हो गए।

"विद्वान पुरुष अमर हो गए।" अमर कैसे हो गए? बहुत जीयेंगे बढ़िया? अभी तक जी रहे होंगे फिर तो सब? और अगर कोई आज तक नहीं जी रहा तो माने कोई विद्वान ही नहीं हुआ। यहाँ तो लिखा है, "विद्वान पुरुष अमर हो जाते हैं।" ये अमरता कौनसी है? अमरता शरीर की नहीं है, क्योंकि शरीर कभी मौत को लेकर चिंता करता ही नहीं है। मौत को लेकर चिंता करती है झूठे ज्ञान से लिप्त चेतना।

शरीर पड़ा रहे, तुम मरे नहीं हो पर शरीर बेहोश है; मरे नहीं हो, बेहोश पड़े हो, माने चेतना बिलकुल सो गई है; तुम्हें मौत का डर सताता है? बेहोशी में मौत से डर लगता है क्या? पर शरीर तो है और शरीर बेहोश है, शरीर की हालत ख़राब है, डर क्यों नहीं रहा मौत से? क्योंकि शरीर कभी नहीं डरता। मौत का ख़्याल ही उसके लिए है जो ख़्याल कर सकता है, माने चेतना है; चेतना है जो मौत के डर में रहती है, चेतना ही है जो लगातार मरती भी रहती है, इसीलिए अमरता भी किसको मिलती है? शरीर को नहीं, शरीर तो मर ही जाना है।

अमरता भी किसको मिलती है? चेतना को मिलती है। कैसे मिलती है? चेतना अब हमेशा रहेगी? नहीं। चेतना मौत के भय से मुक्त हो जाती है, क्योंकि वो मृत्यु को समझ जाती है।

मृत्यु से मुक्त होने का मतलब ये नहीं होता कि तुम समय में अब लम्बा चलोगे। मृत्यु से मुक्त होने का मतलब होता है कि तुम समय से बिलकुल छलाँग मारकर बाहर आ गए।

मृत्यु ही तो समय है। मृत्यु भी काल है, समय भी काल है। मृत्यु से मुक्त हो गए, काल में लम्बा चलने लग गए, ये क्या पागलपन है! अगर कोई कहे, "मृत्यु से मुक्त होने का मतलब है कि अब मैं समय में लम्बा चलूँगा", तो वास्तव में ये कह रहा है कि 'मैं काल से मुक्त होकर के काल में लम्बा चल रहा हूँ।' काल से मुक्त हो गए, काल में लम्बे चल रहे हो, क्या पागलपन है!

तो मृत्यु से मुक्त होने का ये मतलब नहीं है कि तुम समय में लम्बे चलोगे। मृत्यु से मुक्त होने का मतलब है कि तुमने छलाँग मार दी। समय अपनी चाल चल रहा है अब। समय की चाल शरीर के लिए है, शरीर परिवर्तनीय है। समय की चाल विचारों के लिए, भावनाओं के लिए है, ये सब शरीर संबंधित हैं, ये अपना परिवर्तन करते रहेंगे। हम बाहर आ गए। हम मरेंगे नहीं, क्यों? क्योंकि अब हम वो हैं जो कभी पैदा नहीं हुआ था। ऐसा नहीं है कि हम पैदा तो हुए थे, मरेंगे नहीं। अब हम वो हैं ही नहीं जो इस संसार का है। संसार के होते तो पैदा हुए होते, पैदा हुए होते तो मर भी जाते।

जब हम अमरत्व की कामना करते हैं तो हमारा इरादा ये रहता है कि पैदा तो हों, कभी मरें ना। हम कहते हैं 'बबुआ, तू अमर हो जा।' माने जो बबुआ है, ये जो अभी पैदा हुआ था बाईस साल पहले, ये चले अब, बाईसों साल चले, आगे भी चलता ही रहे। नहीं, ये अमरत्व नहीं होता। अमरत्व का मतलब होता है कि बबुआ बबुआ ही नहीं रहा।

एक तरह से ये कहो अमरत्व का मतलब होता है 'तत्काल मृत्यु'। हमें तो ये पता था अमरत्व माने मरना नहीं है। नहीं, अमरत्व माने तभी मर जाना है, कैसे मर जाना है? अपने वर्तमान स्वरूप से मर जाना है, डाई टू योर प्रेज़ेंट सेल्फ़ ; ख़त्म। क्योंकि अभी जो हम हैं वो मृत्युधर्मा था, वो लगातार मरे ही जा रहा था। तो मौत से पीछा छुड़ाने के लिए हमने क्या किया? अभी हम जैसे थे, उसको मार दिया।

ये जो मैं बना बैठा था, वो बड़ा मरियल था, वो लगातार मरता ही जा रहा था, मरता ही जा रहा था और मौत से डरता जा रहा था। तो मैंने क्या किया? मैंने कहा, 'इस मरियल के साथ जुड़कर कौन रहेगा!' मैंने मरियल को ही मार दिया, माने मरियल से संबंधविच्छेद कर लिया। अब मैं अमर हूँ। अब मैं वो हूँ ही नहीं जो ज़िंदा होता है, जन्म लेता है, मरता है और ये सब समय की धारा में गोते खाता है; मेरा कोई मतलब नहीं।

विद्वान पुरुष अमर कैसे हुआ? इस संसार के यथार्थ को जानकर के। संसार के यथार्थ को जानना माने संसार के बारे में जितना भ्रामक ज्ञान इकट्ठा कर रखा था उसको तिरोहित कर देना। संसार का यथार्थ क्या है? क्या जानेगा? संसार का यथार्थ है – कुछ नहीं। तो जाना क्या? कुछ नहीं। छोड़ा क्या? सबकुछ। ये आत्मज्ञान है।

इतना आसान है? जी। जानना क्या है इसमें? कुछ नहीं, कुछ यथार्थ होगा तो न जानेंगे। जो चीज़ ही नकली है उसका यथार्थ क्या है? कुछ नहीं। तो जाना कितना? शून्य। छोड़ा कितना? बहुत सारा। यही तो मुक्ति हो गई न; जोड़ा कुछ नहीं, सब घटा दिया।

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