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एक नाम ऐसा भी
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
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आचार्य प्रशांत: पूछा है कि, "कबीर साहब कह गए हैं कि;

कोटि नाम संसार में, तासे मुक्ति ना होए। आदि नाम जो गुप्त है, बूझे बिरला कोए।। ~कबीर साहब

तो इसमें किस नाम की बात हो रही है? फिर आगे कहते हैं कि ऐसे ही तुलसीदास कह गए हैं कि "कलयुग बस नाम अधारा।" ये कौन सा गुप्त नाम है जिसके बारे में सन्त जन कह रहे हैं कि कोटि नाम संसार में, तासे मुक्ति ना होए, आदि नाम जो गुप्त है, बूझे बिरला कोए?"

देखो, कुछ बातें तो इन पंक्तियों से ही स्पष्ट हैं, "कोटि नाम संसार में, तासे मुक्ति ना होए।" संसार में हज़ारों लाखों नाम हैं, उनसे मुक्ति नहीं होती है। तो जिस विशेष नाम की बात हो रही है, वो कोई सांसारिक नाम तो हो नहीं सकता। वो कोई सांसारिक नाम नहीं हो सकता, सांसारिक नाम तो बहुत हैं। संसार में किन चीज़ों के नाम हैं जो तुम्हारे मन के क्षेत्र में आ सकते हैं? मन के क्षेत्र में जो कुछ भी आ सकता है, वो बिना नाम के नहीं हो सकता, चाहे वो भाव हो, विचार हो, घटना हो, अतीत हो, भविष्य हो, वस्तु हो, जगह हो, कल्पना हो, व्यक्ति हो, कुछ हो, जिसका तुम चिंतन कर सकते हो, वही पाया जाएगा संसार में। संसार में कुछ ऐसा नहीं मिलेगा जिसका तुम चिंतन नहीं कर सकते। यहाँ तक कि संसार में अगर कुछ ऐसा है जो अभी तक तुम्हारे सामने नहीं आया है लेकिन उसके आने की संभावना है, तो उसको भी नाम दिया जा सकता है, वो भी तुम्हारे ही मन का एक हिस्सा है, जो अभी तक तो प्रकट नहीं हुआ है वस्तु के रूप में, लेकिन उसके प्रकट होने की संभावना है, उसको भी नाम दिया जा सकता है।

तो कबीर साहब कह रहे हैं उससे तो मुक्ति मिलती नहीं है, उससे तो कोई लाभ मिलता नहीं है। संसार में जितने नाम हैं, ये किसी काम के नहीं होते, मतलब ये है कि संसार में ये जितनी भी चीज़ें हैं जिनके नाम हैं, ये किसी काम की नहीं होती हैं। फिर आगे कह रहे हैं कि, "आदि नाम जो गुप्त है, बूझे बिरला कोए।" तो आदि नाम की बात कर रहे हैं, आदि नाम से क्या मतलब हुआ? वो नाम जो तब भी था, जब बाकी सब नाम नहीं थे या बाक़ी सब नामों को विचारने वाला मन नहीं था। आदि नाम माने प्रथम नाम, आदि नाम माने मूल नाम, आदि नाम माने नामों के पीछे का नाम। तो निश्चित रूप से ये जो आदि नाम है, ये कोई ऐसा नाम तो हो नहीं सकता जिसकी हम कल्पना कर सकते हों, इसीलिए बस नाम बोला। दुनिया में किसी का भी नाम नाम होता है क्या? कोई तुमसे पूछे, "तुम्हारा नाम क्या है?" तुम क्या कहोगे, "नाम"? नहीं। लेकिन सन्तजन बस 'नाम' बोलते हैं, नाम में कोई वो विशेष रंग नहीं भरते, नाम में कोई वो विशेष शब्द नहीं भरते, नाम बोल कर छोड़ देते हैं। क्योंकि जो भी विशेष हो गया, वो तो तुम्हारे लिए किसी काम का नहीं, जो कुछ भी विशेष हो गया बो सामयिक हो गया और स्थानिक हो गया। किसी एक स्थान का है तो स्थानिक हो गया, किसी एक समय का है तो सामयिक हो गया। वो फिर तुम्हारे काम का नहीं रहता, क्योंकि जो एक स्थान का है वो दूसरी जगह नहीं मिलेगा, तो कैसे काम आएगा? और जो एक समय का है, वो समय के साथ बीत जाएगा, तो कैसे काम आएगा?

तो आदि नाम निश्चित रूप से किसी दुनियावी चीज़ का नाम नहीं है, इसीलिए नाम नहीं दिया गया है। तो फिर सवाल ये है कि, "नाम नहीं दिया गया है तो ना इंद्र बोला, ना रुद्र बोला, ना परमात्मा बोला, ना परमेश्वर बोला, नाम भी क्यों बोल दिया? ये भी क्यों बोल दिया, 'नाम'?" वो इसलिए बोल दिया क्योंकि बोल रहे हैं। बोलेंगे कैसे अगर शब्दों का इस्तेमाल नहीं करेंगे? या तो सुनने वाली सभा ऐसी हो कि गुरु उनसे मूक वार्तालाप कर सके। शिक्षा का मूक सम्प्रेषण हो सके कि कुछ बोला नहीं, फिर भी जो सामने है उसको बात समझ में आ गई। वैसे कम लोग होते हैं, बाकियों की सुविधा के लिए किसी शब्द का इस्तेमाल तो करना पड़ेगा न? तो जो सबसे छोटा, सबसे कम हानिकारक और जो सबसे न्यून शब्द है, लघुतम शब्द है, वो है 'नाम', वो ही बोल दिया कि, "नाम, नाम! नाम जपो!" या नाम सुमिरन करो, इसी से होती है। उसको गुप्त नाम बोला, गुप्त क्यों बोला? क्योंकि हमारे लिए प्रकट वो सब कुछ है जो सामने है, इसको हम प्रकट बोलते हैं न? तुम बोलोगे मेज़ प्रकट है, तुम बोलोगे कैमरा प्रकट है, तुम बोलोगे ये व्यक्ति हैं, प्रकट हैं। वो जो नाम है वो निराकार का है, उसका कोई आकार नहीं है, उसकी कोई जगह नहीं है, उसका कोई समय नहीं है, उसकी कोई व्यवस्था नहीं है, उसकी कोई कल्पना नहीं की जा सकती, उसका कोई चिंतन नहीं हो सकता; तो इसलिए उसकी ओर बस इशारा किया जा सकता है। उसको नाम कह करके तुमको एक सीख दी जा रही है, सीख ये दी जा रही है कि बाक़ी नामों से बचना।

इसीलिए यहाँ भी पाओगे तुम कि साखी के दो हिस्से हैं जिसमें पहले हिस्से में कहा गया है, "कोटी नाम संसार के, तासे मुक्ति ना होए", यही मूल बात है, जो पते की बात है वो आधी साखी में ही बोल दी गई कि दुनिया के नामों से बचो। जब कहा भी जाता है कि नाम सुमिरो, तो वास्तव में तुम किसको सुमिरोगे, कोई व्यक्ति होता तो उसका सुमिरन कर लेते, कोई चीज़ होती तो कर लेते, नाम सुमिर में किसका नाम सुमिरना है? तो हक़ीक़त में कुछ तुम्हें सुमिरने के लिए नहीं कहा जा रहा, हक़ीक़त में कुछ तुम्हें भूलने के लिए कहा जा रहा है, क्या भूलने के लिए कहा जा रहा है? ये दुनिया भर के सारे नाम हैं, ये भुलाने हैं, दुनिया के नामों को दूर रखना है, दुनिया में कोई भी नाम तुम्हारे लिए बहुत महत्वपूर्ण बहुत कीमती ना होने पाए, कोई चीज़, कोई चेहरा तुम्हारे ज़हन में छाने ना पाए, ये आवश्यक है, और जब भी कोई आए और तुम्हारे ऊपर हावी होने लगे, तुम्हारे चित्त को ललचाने लगे, तुम्हारे मन को बिलकुल भरने लगे तो तुम्हें यही पूछना है इसका कोई नाम तो नहीं है और अगर नाम है तो उससे दूर हो जाओ। क्योंकि जिस भी चीज़ का, जिस भी चेहरे का, जिस भी ख़्याल का, जिस भी आशा का नाम हो सकता है, वो तुम्हारे काम की नहीं है।

तो जब कहा जा रहा है कि सत्य का नाम या एक नाम बस तुम सुमिरो, तो वास्तव में ये कहा जा रहा है कि अनेक नामों से दूर रहो क्योंकि सत्य का तो कोई नाम ही नहीं है तो क्या सुमिरोगे, तो सुमिरना सत्य को नहीं है, सुमिरना माया के विरुद्ध है, सत्य को सुमिरने का क्या अर्थ हुआ? कुछ नहीं। सत्य को सुमिरने लग गए तो सत्य को भी कोई चेहरा पहना लोगे, सत्य को भी फिर तुम कोई कहानी बना लोगे, सत्य के साथ भी कुछ रूप-रंग जोड़ लोगे, कुछ पसन्द-नापसन्द जोड़ लोगे, कुछ अच्छा-बुरा जोड़ लोगे, कुछ यहाँ का कुछ वहाँ का जोड़ लोगे, तो सत्य को नाम देना कुछ आवश्यक नहीं है बल्कि खतरनाक ही है, ज़्यादा आवश्यक है सब नाम धारियों से बचना। जितने भी लोग हैं, जितनी भी चीज़ें हैं, जब भी कुछ आए, इस बात को एक सूत्र की तरह, एक कुंजी की तरह पकड़ लो कि जब भी कुछ आ रहा है और बिलकुल मन को आकर्षित उत्तेजित कर रहा है तो यही पूछना है, क्या? "इसका कोई नाम है क्या?" और अगर नाम है तो दूर हो जाओ या कम-से-कम सावधान हो जाओ, उस चीज़ को अपने लिए बहुत ज़रूरी मत बन जाने दो, मन के केंद्र पर वो रहे जिसका कोई नाम नहीं; वो जिसका कोई नाम नहीं और इतना भी मैंने वर्णन करके धृष्टता कर दी। इतना भी नहीं कहना है कि वो जिसका कोई नाम नहीं क्योंकि इतना भी कह करके हमने नाम तो दे ही दिया न?

देखो, समझो बात क्या है। बात ये है कि अहंकार अपने आपको एक उपस्थिति मानता है, एक प्रेजेंस (उपस्थिति)। वो मानता है कि, "मैं हूँ", तो उसको अनुपस्थिति से बड़ी घबराहट होती है, एब्सेंस (अनुपस्थिति) से उसे डर लगता है, क्योंकि उसकी शुरुवात ही अपनी प्रेजेंस से हो रही है न, कि, "मैं तो हूँ", उसका मूल वक्तव्य क्या है? "मैं हूँ!" तो उससे तुम जब भी कहोगे कि परमात्मा नहीं है तो वो घबरा सा जाता है, तो वो इसीलिए पूरी कोशिश में रहता है कि सत्य या परमात्मा, जो भी बोलना चाहते हो, या स्रोत या मूल, वो भी जब उसके सामने आए तो वो उसको भी क्या बना दे एक? उपस्थिति बना दे, एक प्रेजेंस (उपस्थिति) बना दे, क्योंकि उपस्थिति का ताल्लुक या सम्बन्ध बन ही किससे सकता है? किसी दूसरी उपस्थिति से। मैं हूँ, मेरा सम्बन्ध किससे बनता है? इस तौलिए से, इस मेज़ से। हममें साझा क्या है? मैं भी हूँ और ये भी हैं। अब मुझे परमात्मा से ताल्लुक बनाना है तो मैं क्या करूँगा? मैं तो हूँ, मैं अपने होने को नहीं छोड़ना चाहता, भई यही तो अहंकार है कि मैं तो हूँ, अब मैं परमात्मा को भी क्या बना दूँगा? तौलिया; कोई वस्तु बना दूँगा, कोई प्रेजेंस (उपस्थिति), कोई उपस्थिति बना दूँगा। समझ में बात आ रही है?

यहाँ तक कि अगर ये भी बोल दिया जाए कि परमात्मा नहीं है तो मैं उस नहीं होने को भी क्या बना दूँगा? उसको भी एक उपस्थिति बना दूँगा। बात समझ रहे हो? ना होने को या एक एबसेंस (अनुपस्थिति) को, एक वॉइड (ख़ालीपन) को, एक शुन्यता को, एक रिक्तता को, इनको भी मैं क्या बना दूँगा? उनको भी मैं कुछ मानसिक रूप-रंग, कुछ कल्पना दे दूँगा, कुछ नहीं तो एक शब्द ज़रूर दे दूँगा। कि, "भई अब तुम किसको पूजते हो?" "मैं एक रिक्तता को, एक शून्यता को पूजता हूँ, आई वरशिप दा ग्रेट वॉइड (मैं महाशून्यता को पूजता हूँ)", लेकिन जैसे ही तुमने कहा दिया, " आई वरशिप दा ग्रेट वॉइड (मैं महाशून्यता को पूजता हूँ)", देखो इस पूरे वाक्य की शुरुवात में क्या था? आई (मैं)। अंत में क्या है? वॉइड (ख़ालीपन)। और बीच में जो कुछ है वो बस एक झूठी और बेईमान कोशिश है आई (मैं) को वॉइड (ख़ालीपन) से जोड़ देने की। उस बेईमानी का नाम था वरशिप (पूजा), " आई वरशिप दा ग्रेट वॉइड (मैं महाशून्यता को पूजता हूँ)", वरशिप (पूजा) भी झूठी है और तुमने ये जो वॉइड (ख़ालीपन) को ग्रेट (महान) बोला, ये भी झूठा है। ले-देकर तुम्हारा इरादा बस इतना था कि तुममें और वॉइड (ख़ालीपन) में सम्बन्ध बन जाए बिना तुम पर कोई आँच आए। आई (मैं) बचा रह गया न और वॉइड (ख़ालीपन) से उसका रिश्ता भी बन गया, इसीलिए शून्यता का सिद्धांत बहुत कारगर नहीं है तुम कहते हो, " आई वरशिप दा ग्रेट वॉइड (मैं महाशून्यता को पूजता हूँ), मैं शून्यता का पुजारी हूँ", तो ये कोई बात नहीं है। तुमने शून्यता को शब्द तो दे ही दिया न, नाम तो दे ही दिया न, जैसे ही तुमने शून्यता को कोई नाम दे दिया, वो चीज़ शून्य कहाँ रही है अब? तो इसलिए यहाँ इतना कह दिया गया 'नाम', नाम जपो।

इसी बात को तुम्हें पूछना चाहिए कबीर साहब ऐसे भी तो कह सकते थे कि कोई, "नाम ना जपो", इतना बोल कर रुक क्यों नहीं गए? क्यों नहीं रुक गए? क्योंकि जब तुम कोई नाम नहीं जपोगे तो तुम मालूम है क्या जपोगे? कोई नाम नहीं जपोगे, जब तुम कह रहे हो, "मैं कोई नाम नहीं जपता", तब भी तुम जप ही तो रहे हो, तब तुम क्या जप रहे हो? कोई नाम नहीं। सब्जेक्ट प्रेडीकेट (विषय विधेय) समझते हो सेन्टेंस कंस्ट्रक्शन (वाक्य सरंचना) में? पढ़ा होगा। तुम पहले कह रहे थे, "मैं राम जपता हूँ", ठीक है? तो तुम किसको जप रहे थे? राम को। अब तुम राम को हटा दो, राम की जगह तुमने क्या लिख दिया, "कोई नाम नहीं" कोई नाम नहीं, पहले था 'राम', अब क्या है? 'कोई नाम नहीं'। तो जप तो तुम अभी भी रहे हो, अब किसको जप रहे हो? 'कोई नाम नहीं' को। तो इसीलिए शून्यता रिक्तता की बात बहुत आगे तक जाएगी नहीं, हम बहुत खतरनाक लोग हैं, हम बेईमान लोग हैं। हमसे कह भी दिया जाएगा वो निर्गुण है निराकार है, तो हम निर्गुण की भी कुछ कल्पना बैठा लेंगे, "निर्गुण ऐसा होता होगा, हाँ निर्गुण ऐसा है!" वो अदृश्य है, अदृश्य है तो भी हम कल्पना बैठा लेंगे।

एक बार मेरे से किसी ने कहा, "वो तो अदृश्य है न?" मैंने बोला, "अदृश्य है माने?" बोला, "मैं तो ऐसे सोचता हूँ कि कुछ तरंगों जैसा होता होगा। जैसे तरंगे दिखती नहीं है न, वैसा होता होगा।" तरंगे तो होती हैं न? जैसे अब यहाँ पर हम बैठे हुए हैं तो पूरे कमरे में रेडिएशन (तरंगे) तो भरा ही हुआ है न? तरंगे तो हैं ही, हैं मगर दिखाई नहीं देती, "तो मैंने पता लगा लिया कि परमात्मा भी तरंगों जैसा है, तरंगों जैसा।" तुमने कर ली न अपने जैसी हरकत। जब तुम्हें बोला गया कि वो अदृश्य है तो तुमने उसके बारे में एक कल्पना कर ली कि वो तरंगों जैसा है, और ये खूब चल रहा है कि रेडिएशन है, वाइब्रेशन है और ये है वो है। ये महामूर्खता की बात है। तो जो पहली बात है, उस पर ग़ौर करो, "कोटि नाम संसार में, तासे मुक्ति ना होए।" इन नामों से दूर रहना है और फिर कहा गया है कि सच्चा नाम याद रखना है लेकिन वो सच्चा नाम याद रखना है लेकिन वो सच्चा नाम आदि नाम गुप्त है, "बूझे बिरला कोए।" इसका मतलब ही यही है कि याद रखना है, याद क्या रखना है? ये याद रखना है कि जो कुछ भी हमें प्राकृतिक रूप से याद रहता है वहाँ घपला है, यही याद रखना है, अपने ही ख़िलाफ़ सतर्क रहना है।

तो 'नाम' का अर्थ समझ रहे हो? नाम का मतलब है दुनिया भर के सारे नामों से सावधान रहो। नाम का अर्थ है नकारो सब नामों को, नकार, नकार। लेकिन ये मत कह देना कि, "मैं नकारता हूँ", कहना यही कि, "मैं नाम को पूजता हूँ", क्योंकि जैसे ही तुमने बोला, "मैं नकारता हूँ", तुम नकार नामक देवता के पुजारी हो गए। ये बात ज़रा महीन है, समझ में आ रही है कुछ? तो करना नकार ही है, करना नेगेशन (नकार) ही है, लेकिन ये भी नहीं कह देना है कि, "मैं नकारता हूँ", या, "सब चीज़ों को शून्य कर देने का पक्षधर हूँ", क्योंकि जैसे ही तुमने कह दिया कि, "साहब, सब से बड़ी चीज़ शून्यता है", तुमने शून्यता में ही ना जाने कितने रंग भर डाले।

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