November 5, 2021 | आचार्य प्रशांत
का जाति:।
जातिरिति च।
न चर्मणो न रक्तस्य न मांसस्य न चास्तिनः।
न जातिरात्मनो जातिवर्णाधरप्रकल्पिता।।
अनुवाद: शरीर (त्वचा, रक्त, हड्डी आदि) की कोई जाति नहीं होती। आत्मा की भी कोई जाति नहीं होती। जाति तो व्यवहार में प्रयुक्त कल्पना मात्र है।
~ निरालंब उपनिषद (श्लोक क्रमांक १०)
आचार्य प्रशांत: आज जो हम श्लोक लेने जा रहे हैं आरंभ में ही उसका बड़ा समसामयिक महत्व है। वास्तव में ये श्लोक जो बात कह रहा है उसको साफ़-साफ़ समझ लिया जाए तो पूरे विश्व की, विशेषकर भारत की सामाजिक, राजनैतिक स्तिथि बिलकुल पलट जाएगी, सुधर जाएगी। बहुत सारी मान्यताएँ, जो आम जनमानस में ही नहीं बल्कि बुद्धिजीवियों में भी प्रचलित हैं उनका पूरी तरह से खंडन हो जाएगा।
इतने श्लोक हैं उपनिषद में और वास्तव में श्लोक क्रमांक दस, जिसपर अभी हम वार्ता करेंगे, उससे कहीं गहरे, कहीं चमत्कारिक, कहीं ज़्यादा कालातीत भी दूसरे श्लोक प्रचुरता से मौजूद हैं, उपलब्ध हैं लेकिन इस श्लोक की सम्प्रति जो प्रासंगिकता है वो बेमेल है। तो रोचक रहेगा, आरंभ करते हैं।
आचार्य प्रशांत एक लेखक, वेदांत मर्मज्ञ, एवं प्रशांतअद्वैत फाउंडेशन के संस्थापक हैं। बेलगाम उपभोगतावाद, बढ़ती व्यापारिकता और आध्यात्मिकता के निरन्तर पतन के बीच, आचार्य प्रशांत 10,000 से अधिक वीडिओज़ के ज़रिए एक नायाब आध्यात्मिक क्रांति कर रहे हैं।
आई.आई.टी. दिल्ली एवं आई.आई.एम अहमदाबाद के अलमनस आचार्य प्रशांत, एक पूर्व सिविल सेवा अधिकारी भी रह चुके हैं। अधिक जानें
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