देवी की इतने अनेक रूपों में क्यों आराधना की जाती है? क्या एक ही रूप पर्याप्त नहीं है? || श्रीदुर्गासप्तशती पर (2021)

January 15, 2022 | आचार्य प्रशांत

आचार्य प्रशांत: इसी में और हमें यह समझना होगा कि अगर नमित ही होना था तो देवी के एक रूप को भी नमित हो सकते थे, पर देवी के अलग-अलग रूपों की बात क्यों हो रही है? उसके पीछे भी गहरा मनोवैज्ञानिक कारण है, समझेंगे। अब जैसे देवता कह रहे हैं, “या देवी सर्वभूतेषु वृत्ति रूपेण संस्थिता,” और फिर कह रहे हैं, “या देवी सर्वभूतेषु बुद्धि रूपेण संस्थिता।” और ऐसे कह करके कई रूपों में देवी का नमन करते हैं। इतने अलग-अलग रूपों क्यों नमन करते हैं? आपको पूछना चाहिए, “क्यों, एक रूप को क्यों नहीं कर सकते थे?”

मन चूहे जैसा होता है। उसको एक तरफ भागने से रोको तो तत्काल क्या करता है? ज़रा दूसरी दिशा में भागता है। उधर भी ज़रा रोको तो क्या करेगा? तीसरे दिशा में भागेगा। तो जितनी दिशाएँ हो सकती थीं मन के भागने की, देवता उन सारीं दिशाओं को अवरुद्ध कर रहे हैं। समझ में आ रही बात?

तो कहा कि बुद्धि देवी हैं, तो मन कह सकता है कि ठीक है, “देवी बुद्धि हैं तो मैं वृत्ति तो हो सकता हूँ न। अच्छा नहीं, तो कम-से-कम बुरा तो हो सकता हूँ न मैं।” समझो बात को। देवताओं ने कह दिया, “या देवी सर्वभूतेषु बुद्धि रूपेण संस्थिता,” वो देवी सब भूतों में, सब प्राणियों में बुद्धि रूप से स्थित हैं। तो अब वहाँ अहंकार का पत्ता कट गया। कहा कि अरे! बुद्धि तो देवी के हाथ चली गई, तो क्या कहेगा? “अच्छा, बुद्धि तो अच्छी चीज़ थी न, वो देवी को दे दी, वृत्ति तो बुरी चीज़ है न, वह मुझे दे दो। हम इतने में ही खुश रह लेंगे, भाई।” और अहंकार ऐसा ही है। उसे थोड़ा सा भी कुछ दे दो, वो उससे बचा रह जाता है।


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आचार्य प्रशांत एक लेखक, वेदांत मर्मज्ञ, एवं प्रशांतअद्वैत फाउंडेशन के संस्थापक हैं। बेलगाम उपभोगतावाद, बढ़ती व्यापारिकता और आध्यात्मिकता के निरन्तर पतन के बीच, आचार्य प्रशांत 10,000 से अधिक वीडिओज़ के ज़रिए एक नायाब आध्यात्मिक क्रांति कर रहे हैं।

आई.आई.टी. दिल्ली एवं आई.आई.एम अहमदाबाद के अलमनस आचार्य प्रशांत, एक पूर्व सिविल सेवा अधिकारी भी रह चुके हैं। अधिक जानें

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