आचार्य प्रशांत आपके बेहतर भविष्य की लड़ाई लड़ रहे हैं
लेख
एक वायरस बाहर का, एक वायरस भीतर का
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
41 मिनट
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प्रश्नकर्ता: नमस्कार, आचार्य जी।

सरकार और जितने भी चिकित्सा प्रमुख हैं, जानकार हैं, उन्होंने एक बात साफ-साफ कह दी है कि इस बीमारी का निवारण बहुत साफ है—'सोशल डिस्टन्सिंग'। जबतक एंटीडोट नहीं आ जाता और उसको न जाने कितने साल लगेंगे, तब तक आप एक दूसरे से दूर रहें और किसी भी तरह की सांस्कृतिक गति-विधि में शामिल ना हों। बहुत सीधी सपाट बात है परंतु न जाने क्यों, लोगों की क्या माया है, कैसा उनका मन है कि इस साफ़ बात का भी पालन नहीं कर पा रहे हैं। अब ये जो मन है, जो एक सीधे से आदेश का पालन नहीं कर पा रहा है उसको समझने के लिए आपके समक्ष बैठा हूँ। और एक-एक करके कुछ बातों को उठाएंगे, देखेंगे कि क्या केंद्र में है जो इस समस्या को सुलझने नहीं दे रहा है।

सबसे पहले, कल ही जो भारत के प्रधानमंत्री हैं उन्होंने वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग करके पूरे देश को संबोधित किया और जिस फेसबुक-लाईव पर वो बोल रहे थे, उन्होंने कहा कि इस तरीके से अब पूरे भारत को बंद किया जा रहा है, उसी फेसबुक ब्रॉडकास्ट में एक कमेंट था जहाँ पर एक अनुयायी ने, किसी बड़े संत जन के अनुयायी ने लिखा हुआ था कि “ये सब आप किनारे रखिए, इस बीमारी का निवारण तो फलाना जो संत हैं, जो बाबा जी हैं, उन्हीं के पास है”, अब ये जो मन है, ये तो सड़कों पर भी आएगा और गुणगान करेगा, और बीमारी का तीसरा चरण क्या, चार क्या, हमें पाँच क्या छठे तक ले जाएगा। इस मन का क्या समाधान है, तत्काल समाधान?

आचार्य प्रशांत: देखिए, इसी मन को मूर्खता कहते हैं, इसी मन को अधार्मिकता कहते हैं, इसी मन को हिंसा भी कहते हैं—ये सब आपस में मिली-जुली बातें हैं।

जब विज्ञान इस बारे में साफ है, जब दुनिया भर के वैज्ञानिक, चिकित्सक, शोधकर्ता सब एक स्वर में कह रहे हैं कि अभी समय लगेगा इस बीमारी की दवाई को विकसित होने में, टीका (वैक्सीन), हो सकता है कि साल ले ले, दो साल ले ले, उससे पहले भी अभी डेटा, जानकारी और चाहिए ताकि तात्कालिक उपचार के लिये भी जो दवाइयाँ वगैरह दी जानी हैं, उनको भी तय किया जा सके, तो अभी समय चाहिये मानवता को। हम किसी तरीके से समय बचाने की कोशिश कर रहे हैं। जिसे कहते हैं न ‘बाइंग टाइम’, इससे पहले कि हम पूरे तरीके से इस बीमारी की चपेट में आ जाएँ, करोड़ों लोग चपेट में आ जाएँ, अरबों लोग चपेट में आ जाएँ, उससे पहले समय थोड़ा और मांग लो—जो ग्राफ है, समय के साथ संक्रमित लोगों की संख्या का, वो ग्राफ बिलकुल फ़न उठाए नाग की तरह ना दिखे।

संख्या तो लोगों की बढ़नी ही है, संक्रमित लोगों की, अभी पूरी कोशिश बस इस बात की हो रही है कि वो जो संख्या की बढ़ोतरी है, वो बहुत तेज़ी से ना हो, वो जो कर्वे है, वो जो ग्राफ है, उसकी ढलान एकदम खड़ी ना हो, क्योंकि ये भी हो सकता है कि इतनी तेज़ी से फैले महामारी कि आज जितने लोग संक्रमित हैं, अगले ही दिन उसके डेढे-दुगने पता चलें। वो अगर हो गया तो दो घटनाएँ घटेंगी: पहली बात, आपकी जो पूरी चिकित्सा सेवाएं हैं, वो ढह जाएँगी—आपके पास एक सीमित संख्या में डॉक्टर हैं, अस्पताल हैं, अस्पतालों में बिस्तर हैं, बेड्स हैं, दवाइयां हैं—आप नहीं चाहते हो कि अचानक से लाखों लोग अस्पतालों के आगे कतार लगाकर खड़े हो जाएँ, तो अगर लाखों-करोड़ों लोगों को संक्रमित होना भी है तो हम ये चाहते है कि वो धीरे-धीरे करके हों, छह दिन के अंदर नहीं छह महीने में हो। एक धीरे-धीरे, क्रमिक, और सामना कर पाने के तरीके से हों, धीरे-धीरे, भले ही उतने ही लोग बीमार पड़ें, पर एक साथ ना पड़ें।

अब जैसे आपके पास कुल छह थालियां हों खाने के लिए, और घर में मेहमानों की संख्या हो साठ, तो भी हो सकता है कि आप कहो कि मैं साठों को परोस दूंगा खाना, लेकिन साठों को एक साथ नहीं परोस पाऊंगा। मैं कैसे परोस लूंगा? पहले छह, फिर छह, फिर छह, फिर छह। तो दस-दस के जत्थों में करके तो सब की आवश्यकता की पूर्ति की जा सकती है, सबको भोजन मिल जाएगा, लेकिन अगर साठ-के-साठ या तीस एक साथ खड़े हो गए कि अब हमें भी ज़रूरत है, हमें भी ज़रूरत है, तो फिर पूरी व्यवस्था चरमरा जाएगी। पूरी कोशिश ये चल रही है कि किसी तरीके से संक्रमित लोगों की संख्या को कम-से-कम रखा जाए और अगर लोगो को संक्रमित होना भी है तो बाद में हो, जिसको आज होना हो वो दो महीने बाद हो, जिसको दो महीने बाद होना हो, वो छह महीने बाद हो, छह महीने बाद जिसे होना है, वो साल भर बाद हो।

प्रश्नकर्ता: समय के साथ फैलाव हो।

आचार्य प्रशांत: हाँ, ये कोशिश चल रही है। ये कोशिश बहुत ज़रूरी है क्योंकि लोग इसलिए नहीं मरेंगे, अर्थव्यवस्था और सामाजिक व्यवस्था इसलिए नहीं चरमराएगी कि इतने लोगों पर संक्रमण आ गया, वो इसलिए चरमराएगी क्योंकि इतने लोगों पर एक साथ संक्रमण आ गया। बात समझिये, हमें ये रोकना है, और तब जो मौतें होंगी वो ऐसा नहीं है कि कोविड से होंगी या ये जो सर्दी-खांसी-ज़ुखाम है इससे होंगी, याकि निमोनिया से होंगी, वो फिर जो मौतें होंगी, दुनिया भर की बीमारियों से होंगी। क्यों? क्योंकि हो सकता है कि आपको कोरोना-वायरस लगा ही ना हो, आप बहुत पहले से दिल के मरीज़ हैं, या आपको लिवर की बीमारी है, लेकिन अस्पताल तो वही है न जहाँ पर अब एक फौज जमा हो गई है, एक बहुत बड़ा झुंड जमा हो गया है कोरोना-वायरस के मरीजों का, तो अब वहाँ पर मान लीजिए कोई हृदयाघात का भी रोगी पहुंचता है, तो उसकी देखभाल करने के लिए है कौन?—सारे चिकित्सक, सारे जो बिस्तर हैं और सारे जो संसाधन हैं अस्पताल के, वो तो अब लग गए हैं ये जो भारी-भरकम संख्या है कोरोना-वायरस के रोगियों की उनकी देखभाल करने में, तो जो अन्य रोगों से पीड़ित लोग होंगे उनको भी बड़ा कष्ट होगा, उनकी बड़ी मृत्यु हो जानी है, और ऐसे लोगों में ज़्यादातर बुज़ुर्ग होने वाले है।

यूरोप का अनुभव बताता है कि जिनकी मृत्यु हो रही है, वैसे बीस में से उन्नीस लोग साठ वर्ष से अधिक की आयु के हैं—थोड़ा ये इसलिए भी क्योंकि यूरोप में बुजुर्गों की तादाद भी ज़्यादा है, लेकिन फिर भी, तो बात को समझिएगा, दो कोशिशें की जा रही हैं—पहली, कि इन बुजुर्गों को किसी तरीके से कष्ट से और मृत्यु से बचाया जा सके, और दूसरा, कि जिन लोगों को बीमार पड़ना भी है, उनकी बीमारी को किसी तरह से टाला जा सके। वही सब करने के लिए ये लॉकडाउन वगैरह का प्रावधान किया गया है जो अब कल-परसों से लागू हो गया और ये सब चल रहा है। उसमें अब अगर कुछ लोग मूर्खतापूर्ण बातें कर रहें हैं कि हमारे संत महाराज के यहाँ आ जाओ, वो सब ठीक कर देंगे, ये सब कर देंगे, तो ये सब लोग मानवता के प्रति अपराधी हैं।

अध्यात्म का काम ये होता ही नहीं है कि वो वायरस का उपचार करे।

ये किसने बता दिया ये सब कि किसी को अगर किसी तरीके का कोई ज्ञान है, या कोई है सच्चा संत भी तो वो वायरस और बैक्टीरिया का इलाज करना शुरू कर देगा? कौन-सा शास्त्र ऐसा कहता है? कहाँ पर इसका प्रमाण है, कैसे ये हो सकता है? ऐसा कुछ होने वाला नहीं है, ये सब मूर्खतापूर्ण बातें हैं। वास्तव में जो लोग ये बात कर रहे हैं उन्हें चिकित्सा शास्त्र तो नहीं ही पता है, उन्हें आध्यात्मिक शास्त्र भी नहीं पता है। ये बहुत ही फ़िज़ूल किस्म के और गए गुज़रे और आध्यात्मिक तो क्या बल्कि अनपढ़ लोग हैं जो ऐसी बातें करेंगे। सबसे पहले तो वो धर्म गुरु भर्त्सना के लायक हैं जो अपने नाम पर इस तरह का प्रचार होने देते हैं, और फिर उन भक्तों की तो क्या ही कहें, चेलों चपाटों की, जो लगे हुए हैं इस तरह की बातें प्रचारित-प्रसारित करने में।

मैं कह रहा हूँ, ये सब लोग मानवता के अपराधी हैं क्योंकि इनके प्रचार के कारण बहुत सारे लोग होंगे जो संक्रमित हो जाएँगे और वो संक्रमित होंगे तो सिर्फ अपना नुकसान नहीं करेंगे, वो संक्रमण दूसरों में भी फैलाएंगे—तो उन बातों से न सिर्फ हमें बचना है, बल्कि किसी को ऐसी बातें करते देखें तो इस समय का धर्म है, काल धर्म है, कि उसको सक्रिय रूप से हम रोकें भी, टोकें भी।

प्रश्नकर्ता: सोशल मीडिया में ऐसी रोक-टोक तो लगभग नामुमकिन ही है।

आचार्य प्रशांत: नहीं, नामुमकिन नहीं है। कई सोशल मीडिया हैं जहाँ पर अगर आप किसी तरह की अंधविश्वासपूर्ण बात डालेंगे कोरोना-वायरस के बारे में और आपकी पोस्ट अगर रिपोर्ट कर दी जाती है तो आपकी पोस्ट को हटा दिया जाएगा, यू-ट्यूब पर ऐसा हो रहा है।

प्रश्नकर्ता: जिन लोगों ने उस कमेंट को पढ़ा, उनका काल-धर्म है कि वो उसको रिपोर्ट करें या ब्लॉक करें।

आचार्य प्रशांत: उसको ब्लॉक करें, उसको सिर्फ ब्लॉक ही न करें, अगर हो सके तो उस व्यक्ति की पहचान कराई जाए और उससे पूछा जाए कि—भाई! अपने भाई बिरादरों, अपने पूरे संगठन वालों का नाम बताओ। इन लोगो के साथ वही व्यवहार होना चाहिए जो देश के ही नहीं बल्कि मानवता के शत्रुओं के साथ होता है।

आज आपको अगर पता चल जाता है कि देश में दुश्मन का एक सिपाही या एक जासूस किसी तरिके से घुसपैठ कर गया है और उसका इरादा है कहीं पर बम विस्फोट करने का, तो आप उसको पकड़ते हो और फिर उससे उगलवाते हो कि तू मुझे अपना पूरा तंत्र बता, अपने साथियों का पूरा नाम-पता बता, आप पूरा उसका जो नेटवर्क है वही उघाड़कर रख देना चाहते हो? तो इसी तरीके से ये जो धर्म के नाम पर अधार्मिक काम करने वाले चेले-चपाटे हैं, इनके भी पूरे संगठन का पता लगाया जाना चाहिए और इन सब के साथ वही व्यवहार होना चाहिए जो समाज उन लोगों के साथ करता है जो किसी चौराहे पर बम विस्फोट करके लोगों की हत्या करना चाहते हैं—क्योंकि ये भी हत्या ही करने जा रहे हैं। जो बम विस्फोट करता है वो सक्रिय रूप से हत्या करता है, ये जो हत्या करने जा रहे हैं, वो ज़रा परोक्ष रूप से करने जा रहे हैं। ये हत्या करेंगे तो पता नहीं चलेगा हत्यारा कौन है, लेकिन हत्या तो हत्या है।

प्रश्नकर्ता: यही भाव आचार्य जी मेरे मन में उठा, जब मैने उस कमेंट को देखा और सोचा कि आपसे ज़रूर विवेचना हो इस विषय में। जब प्रधानमंत्री ने पहली बार देश को संबोधित करा तो पाँच मिनट वो थाली बजाने की और तालियाँ बजाने की बात हुई, और आप-हम जानते ही हैं कि उसने क्या रूप लिया। लोग कहने लग गए, बड़े-बड़े गुरु लोग हैं भारत में जिन्होंने उसे अंतरनाद का नाम दे दिया और ये सब बातें उछालने लग गयीं सोशल मीडिया में कि जो थाली से कंपन निकल रहा है, वो वायरस को मार देगा। उसके बाद जब दोबारा संबोधित किया तो ये कमेंट आ गया (उपरोक्त वर्णित बाबा जी के अनुयायी के कमेंट को इंगित करते हुए) , मैं डर गया था।

आचार्य प्रशांत: मैं बार-बार कहा करता हूँ कि हमारी बहुत सारी समस्याओं की जो जड़ है वो शिक्षा का अभाव ही है। और दो तरह की शिक्षा है जो बहुत केंद्रीय होती है और बड़े अफसोस की बात है कि हमारा देश दोनों ही तरह की शिक्षाओं में पिछड़ा हुआ है—एक विज्ञान की, एक अध्यात्म की। एक जो औसत सामान्य भारतीय है उसको ना विज्ञान समझ में आता है, ना अध्यात्म समझ में आता है, तो उसको विज्ञान के नाम पर भी मूर्ख बनाया जा सकता है और उसको अध्यात्म के नाम पर भी मूर्ख बनाया जा सकता है। आप उससे दो-चार शब्द विज्ञान के बोल दीजिए और वो बहुत जल्दी आपसे प्रभावित हो जाएगा। उसको लगेगा आप सही ही बात बोल रहे होगे।

किसी ने बोलना शुरू कर दिया कि “जब थालियाँ बजती हैं तो उनके वाइब्रेशन से आयनोस्फियर में रेसोनेंस होती है, जिससे एक ज़बरदस्त आयनाइज़िंग पावर पैदा होती है, जो कि बैक्टीरिया के अंदर, वायरस के अंदर जाकर के किसी तरीके का रिएक्शन कर देती है और वायरस मर जाता है”, और लोगों ने कहा—“ये देखो, ये तो बहुत पढ़े-लिखे वाली बात कर रहें है, ‘रेसोनेंस’ बोल दिया, ‘वाइब्रेशन’ बोल दिया, ‘कंस्ट्रक्टिव इंटर्फेरेंस’ बोल दिया, ‘आयनोस्फियर’ बोल दिया, ‘आयनाइज़ेशन’ बोल दिया—बिलकुल सही ही बोल रहे होंगे।” भई, एक तो विज्ञान की कुछ बातें कर दीं, वो भी अंग्रेज़ी में, तो लगता है बिलकुल सही बोल रहे होंगे! तो अगर आपको लोगों को बुद्धू बनना हो भारत में, तो मैं एक फ़ॉर्मूला बताए देता हूँ, दो-चार बातें ऐसी करिए जिनमें वैज्ञानिक शब्दों का इस्तेमाल होता हो और वो सब बातें अंग्रेज़ी में करिए, लोग तैयार बैठे हैं बुद्धू बन जाने को। क्यों? क्योंकि जब विज्ञान पढ़ाया जा रहा था स्कूल में, कॉलेज में, तब वो सो रहे थे, या तो नकल करके पास हुए या किसी तरीके से उनको धक्का दे देकर पास कराया गया। पर्चे भी तो आजकल स्कूलों में ऐसे आते हैं न, बोर्ड्स में, कि बस किसी तरीके से पास करा दो, पास करा दो।

विज्ञान की ये जो अशिक्षा है वो हमें बहुत भारी पड़ रही है। वो न तो हमे संसार को समझने दे रही है, न हमको हमारे मन को समझने दे रही है। धोबी का कुत्ता, ना घर का ना घाट का—इसी तरीके से अशिक्षित आदमी या अर्धशिक्षित आदमी ना विज्ञान का ना अध्यात्म का। उनसे आप बस कुछ बातें बोलनी शुरू कर दीजिए, उनसे बोल दीजिए कि वो जब आप कुछ करते हैं तो आपके सेरिब्रम में इलेक्ट्रोमैग्नेटिक एक्टिविटी शुरू हो जाती है, जिसकी वजह से आपके पीछे एक औरा आने लग जाता है जोकि विज़िबल स्पेक्ट्रम में होता है और जिसकी इतनी वेवलेंथ होती है, और लोग कहेंगे—“वाह-वाह! बिलकुल सही! बिलकुल सही बात बोल रहे हैं”, और खास-तौर पर ये बात अगर कोई धर्म के नाम पर कर रहा हो तो लगता है ‘बिलकुल ही सही बात है’।

थोड़ा-सा भी अगर कुछ भी याद होते विज्ञान के सिद्धांत तो हम इस तरह की मूर्खतापूर्ण बातों में नहीं पड़ते न? हम इस तरह के प्रचार से, प्रचार प्रसार से बच जाते न? लेकिन ये सब चल रहा है, चल रहा है, भारी पड़ेगा। यही मौके होंगे जब हमें पता चलेगा कि हमारी उस अशिक्षा का कुल कितना ख़ामियाज़ा हमें भुगतना पड़ेगा। अब इतने लोग निकल आए, कह रहे हैं कि ये तो जो शास्त्रों में वर्णित नाद है वही है। थाली बजा रहे हो, कटोरी बजा रहे हो, चम्मच बजा रहे हो, करछुल बजा रहे हो, कड़ाही बजा रहे हो, तसला बजा रहे हो—ये नाद हो गया? ये अनहद हो गया? ये क्या हो गया? तुम किस ग्रह से आए हो? ये कैसी बातें कर रहे हो? लेकिन तुम ये बातें कर रहे हो क्योंकि तुम्हारे भी हैं कुछ गुरु-महागुरु जो इन सब बातों को प्रोत्साहन देते हैं और जहाँ प्रोत्साहन मिला नहीं इन बातों को, हमारे भीतर की वृत्तियाँ और ज़्यादा उछलने लग जाती हैं।

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, आपने और प्रशांतअद्वैत फ़ाउंडेशन ने, आपके माध्यम से, कई सालों से अंधविश्वास के खिलाफ एक मुहिम छेड़ रखी है। जब ये कोरोना-वायरस वैश्विक महामारी नहीं आयी थी, तब भी आप अंधविश्वास पर बोलते थे, आज भी बोल रहे हैं। फर्क क्या है? पहले जब आप बोल रहे थे तब शायद जानें नहीं जा रही थीं, आज बात बड़ी घातक है, आज ये अंधविश्वास सीधे जान ले रहा है।

आचार्य प्रशांत: देखिए, जानें तब भी जा रही थीं बस तब जो मृत्यु हो रही थी वो आंतरिक थी, आदमी अंदर से मर रहा था—और हम बड़े स्थूल लोग हैं, कोई भीतर से मर रहा हो हमें पता ही नहीं चलता। अब दिखाई देता है कि लाश गिर रही हैं, अस्पताल में लोग गिर रहे हैं, सड़क पर लोग गिर रहे हैं, तो वहाँ पर जो घटना है, अब वो निर्विवाद हो गई है। हमें साक्षात प्रमाण मिलने लग गया है कि—“अरे हाँ! मर गया, मौत हो गई”, मौत तो पहले भी हो रही थी। एक आदमी जिसकी समझ बिलकुल बेहोश पड़ी है, एक आदमी जिसका विवेक कोमा में चला गया है, एक आदमी जिसकी बुद्धि पंगु हो गई है, या चल भी रही है तो फिर उल्टी दिशा में, दुर-बुद्धी हो गया है, इस आदमी को कैसे कहें कि ये आदमी अभी ज़िंदा है? तो बहुत समय से कह रहा हूँ कि हम जिन तरीकों से जी रहे हैं, वो जीवन विरोधी हैं, हम जो कुछ कर रहे हैं वो मृत्योन्मुखी है, पर लोग सुनते कहाँ हैं? अब, जब सामने प्रमाण आ गया है, तो अफ़रा-तफ़री मची हुई है। अफ़रा-तफ़री भी इसीलिए मची हुई है क्योंकि लोगों को ना मन पता है, ना जीवन पता है। तो जब कोई चीज़ गंभीरता से ली जानी चाहिए, तब उसको लेंगे नहीं, और जब खतरा बिलकुल सामने ही खड़ा हो जाएगा, तब हाथ-पांव फूल जाएँगे, तब चारों तरफ बिलकुल त्राहि-त्राहि मच जाएगी। ना तो ये सही था कि जब लगे कि अभी तो सुख के दिन चल रहे हैं, तब आप जीवन के सत्य की ओर से मुँह फेर लें, ना ये सही है कि अब जब सामने एक खतरा, समस्या खड़ी हो गई है, तो आप उपद्रव करने लगें, त्राहि-त्राहि करने लगें, बेहोश होकर के गिरने लगें, और तमाम तरह के मानसिक रोगों का शिकार बनने लगें।

अभी ही, पिछले कुछ दिनों में ही जिस तरह के फोन-कॉल्स आते हैं फाउंडेशन में, मदद के लिए, उनमें से अधिकांश लोग यही कह रहे हैं कि क्या होगा, हमारा क्या होगा, और हमारे बाद, हमारे परिवार वालों का क्या होगा, और जब से घर में बंद हुए हैं तो घुटन हो रही है, किसी को नींद नहीं आ रही, किसी को विचित्र तरह के सपने आ रहे हैं, किसी को लग रहा है कि वो आत्महत्या ही क्यों न कर ले, किसी को शक हुआ जा रहा है कि उसको लग ही गई बीमारी, कोई कह रहा है कि बीमारी अगर मुझे लग गई है तो मैं बताना नहीं चाहता—न जाने कितने तरह के मनोविकार। ये सब एक ही चीज़ का नतीजा हैं कि हमारी जो शिक्षा है—विज्ञान में, अध्यात्म में—वो बड़ी खोखली है।

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, आपने कहा कि जो अनपढ़ हैं, जिन्होंने विज्ञान कभी पढ़ा नहीं शिक्षालयों में, वो बढ़ी आसानी से फंस जाते हैं।

आचार्य प्रशांत: नहीं, मैं अनपढ़ से उनकी बात नहीं कर रहा हूँ जो निरक्षर हैं। अंतर आप समझियेगा, मैं उनकी बात नहीं कर रहा हूँ जो बिचारे किन्हीं कारणों से दुर्भाग्यवश कॉलेज में या स्कूल में दाख़िला नहीं ले पाए; मैं ज़्यादा बात उनकी कर रहा हूँ जिन्होंने बोर्ड पास किए हुए हैं, जिनके पास स्नातक, स्नातकोत्तर, ग्रेजुएशन, पोस्ट-ग्रेजुएशन, सब तरह के प्रमाण पत्र हैं, जो अंग्रेज़ी भी बोलते-समझते हैं और उसके बाद भी निहायत ही जाहिल और बेवकूफ़ हैं—मैं उनकी बात कर रहा हूँ।

प्रश्नकर्ता: ये कैसा-सा रहस्य है?

आचार्य प्रशांत: कोई रहस्य नहीं है इसमें, ऐसा ही है। देखिए, एक आदमी जो बिलकुल पढ़ा-लिखा नहीं है, वो प्रभावित नहीं हो जाएगा, इम्प्रेस्ड नहीं हो जाएगा जब आप उससे कहेंगे कि ये रेसोनेंस, कंस्ट्रक्टिव-इंटरफेरेंस और आयोनाइज़ेशन और स्पेक्ट्रम है, उसके लिए तो काला अक्षर भैंस बराबर है। आप ये सब बातें बोलते रहिए, वो सर खुजाता रहेगा, उसे कोई फर्क नहीं पड़ेगा। ये जो अर्धशिक्षित लोग हैं न, ये खतरनाक हैं। ये बहुत जल्दी प्रभावित हो जाते हैं। दो-चार बातें विज्ञान की बोल दो, जैसा मैंने कहा—अंग्रेज़ी में बोल दो, और अगर तुम एक्सेंट वाली अंग्रेज़ी के साथ बोल दो तो फिर तो पूछो ही मत, एकदम लोटना शुरू कर देंगे आपके चरणों में—‘आपने जो कहा बिलकुल वहीं आदिसत्य है’। इनसे बचना है, और इनकी हूल ये है कि ये ज्ञान पाना भी नहीं चाहते, नहीं तो आज के तकनीकी युग में, इंटरनेट के होते हुए, ऐसा तो नहीं हो सकता कि आप किसी विषय में कुछ जानकारी पाना चाहें तो आपको मिल नहीं सकती है। गूगल कर लीजिए भाई, विकिपीडिया ही पढ़ लो, इतना ही कर लो! लेकिन नहीं, लोग अंध-भक्त बने रहते हैं, अंध-विश्वासी बने रहते हैं। अध्यात्म के नाम पर न जाने कितनी मूर्खतापूर्ण हरकतें करते रहते हैं, लेकिन इतना भी नहीं करते कि गूगल करके दो-चार रिसर्च पेपर ही पढ़ लें, या जाकर, अगर मान लीजिए मेडिकल विषय है, कोई ऐसी चीज़ है जिसका संबंध चिकित्सा शास्त्र से है, तो जाकर किसी डॉक्टर से ही पूछ लें।

यहाँ बात हो रही होगी शरीर की बीमारी की, वायरस की, और वो पूछ किससे रहे हैं जा करके? किसी धर्मगुरु से। अरे! धर्मगुरु क्या बताएगा इस बारे में? धर्मगुरु वाइरोलॉजिस्ट है? धर्मगुरु ने केमिस्ट्री में डिग्री ली है? धर्मगुरु बता भी सकता है वायरस चीज़ क्या होती है, ज़िंदा होती है कि मुर्दा होती है? कहाँ से आती है? किस तरीके से म्यूटेट करती है, ये बात धर्मगुरु जानेगा क्या? लेकिन हमें इतना भी नहीं पता कि कौन सी बातें किससे पूछनी हैं।

देखिए, ना जानना अपनेआप में छोटा अपराध है, लेकिन ये भी ना जानना कि किससे पूछना है, ये बड़ी मूर्खतापूर्ण बात है। आपको बुख़ार हुआ है और आप जाकर के मुहल्ले के हलवाई से दवाई पूछो, तो वो तो आपको जलेबी ही देगा, उसके पास और कोई चारा नहीं है, और चारा तो छोड़ दो उसको लालच भी है, आपको जलेबी देगा, जलेबी के पैसे लेगा—मूर्खता आपकी है न, आप हलवाई से बीमारी का इलाज क्यों पूछ रहे हो भाई? इसी तरीके से बराबर की गलती ये होगी कि आप जाकर किसी डाक्टर से कहो कि आज घर में पूजा है, बर्फी मिलेगी क्या—इतना तो पता होना चाहिए न कि कौन-सा क्षेत्र किसका है।

अध्यात्म क्या है, मैं आपके लिए और जितने लोग बाद में इसको सुनेंगे उनके लिए बताए देता हूँ, अध्यात्म का कुल एक विषय है और वो है ‘अहम’ की जांच पड़ताल। अहम माने वो सब कुछ जिसे हम ‘मैं’ कहते हैं, मैं—“मैं आता हूँ, मैं रहता हूँ, मैं खाता हूँ, पीता हूँ, मैं ज़िंदा हूँ, मैं पुरुष हूँ, मैं भारतीय हूँ, मैं ऐसा हूँ, मैं वैसा हूँ, मैं अच्छा हूँ, मैं बुरा हूँ, मैं जीता हूँ, मैं हारा हूँ”—ये ‘मैं'’ जो है न ‘मैं’—"मैं प्रसन्न हूँ, मैं आहत हूँ, मैं सुखी हूँ, मैं दुखी हूँ, मैं आशान्वित हूँ, मैं निराश हूँ”,—ये जो ‘मैं’ है, इस ‘मैं’ का पता करना कि ये कहाँ से आ रहा है, क्या चाह रहा है, किन बातों पर कैसे रंग बदलता है, अपने मन की छानबीन करना, बस इतना है अध्यात्म। इसके अलावा सब जो विषय हैं दुनिया भर के, उनके विशेषज्ञ दूसरे हैं, आप उनके पास जाइए।

किसी रसायन के बारे में जानना है भाई तो किसी रसायनशस्त्री के पास जाओ न। दांत में दर्द हो रहा है तो धर्मगुरु के पास काहे को जा रहे हो? डेंटिस्ट के पास जाओ। दाढ़ी बनवानी है तो बाबाजी के पास जाओगे क्या? नाई के पास जाओ।

प्रश्नकर्ता: फिर ये क्यों कहते हैं कि भगवन सर्वज्ञाता है, उसे सब पता है?

आचार्य प्रशांत: अरे बाबा, जिसको पता है उसको सांसारिक ज्ञान थोड़े ही पता है। हमने क्या बना रखा है कि गॉड न हुआ कुछ गूगल टाइप की चीज़ है? ये किस तरीके की हमारी भ्रांति है? जब हम कहते हैं कि ‘ब्रह्म सर्वज्ञ है’, जैसा आप कह रहे हैं न, तो हम किसी सांसारिक चीज़ की बात थोड़े ही कर रहे हैं, ना हम सांसारिक ज्ञान की बात कर रहे हैं वहाँ पर, जब हम कहते हैं कि ब्रह्म सर्वज्ञ है, तो ये किसी विषय-विशेष के ज्ञान की बात थोड़े ही हो रही है। ‘ब्रह्म सर्वज्ञ है’—से आशय ये है कि जो सामान्य ज्ञान होता है हमारा वो हमेशा आंशिक होता है। ज्ञान, ज्ञान ही तभी तक है जब तक वो आंशिक है, ज्ञान जब पूर्ण हो जाता है तो शून्य हो जाता है, वो ज्ञान बचता ही नहीं है, उसे बोध कहते है। तो जब हम बात करते हैं सर्वज्ञाता की—सब कुछ जानना, सब कुछ ही जानना—तो उसका अर्थ वास्तव में है ‘कुछ ना जानना’। जब आप कहते हैं कि आपको किसी चीज का ज्ञान है, तो हमेशा आप अपने ज्ञान की सीमा भी बताते हो न साथ में, आप क्षेत्र भी बताते हो। माने जो ज्ञान होगा वो हमेशा सीमाबद्ध होगा, आपको किसी क्षेत्र का ज्ञान होगा, ऐसा तो हो नहीं सकता कि कभी भी कुछ ऐसा हो या कोई ऐसा हो जो सब कुछ जानता हो, तो सांसारिक ज्ञान हमेशा सीमित होता है, उपयोगी होता है लेकिन सीमित होता है। सीमित नहीं तो ज्ञान नहीं। सर्वज्ञता का मतलब हुआ पूर्ण ज्ञान। आधा-अधूरा ज्ञान लाभप्रद है, पूर्ण ज्ञान अनुपयोगी है। पूर्ण ज्ञान, ज्ञान कहा ही नहीं जा सकता—पूर्ण ज्ञान है ज्ञान के पार चले जाना, पूर्ण ज्ञान को इसीलिए बोध कहते हैं।

‘पूर्ण ज्ञान’ का मतलब ये नहीं है कि आप मेरे पास आओ और मैं कहूँ कि मैं पूर्ण ज्ञानी हूँ—“बोल बच्चा क्या पूछना है मैं तुझे सब बता दूंगा”, तो आप मुझसे पूछो “वायरोलॉजी”, तो मैं वायरस के बारे में सब कुछ बता दूँगा, आप मुझसे पूछो “कॉस्मोलॉजी”, तो मैं आपको बिग-बैंग के बारे में सब कुछ बता दूँगा, आप मुझसे “इलेक्ट्रॉनिक्स” पूछने लग जाओ, आप मुझसे “माइनिंग” पूछने लगा जाओ, आप मुझसे “फ़ैशन टेक्नोलॉजी” पूछने लगा जाओ, आप मुझसे “क्रिकेट, बेसबॉल, इतिहास” पूछने लग जाओ और मैं आपको सब कुछ बता दूँ। हम क्या सोच रहे हैं कि ईश्वर कोई इस तरह का व्यक्तित्व है जो सब ज्ञान रखकर के बैठा हुआ है? नहीं भाई, ऐसा नहीं है। ज्ञान हमेशा क्षेत्र-बद्ध होता है—मैं सांसारिक ज्ञान की बात कर रहा हूँ, ठीक है? किसी के पास कुछ ज्ञान है, किसी के पास कुछ ज्ञान होगा, जो जिस क्षेत्र का है उससे जाकर के वो ज्ञान ले लो। ‘पूर्ण ज्ञान’, जिसको आप कहते हैं ‘ब्रह्मविद’ हो जाना, उसका मतलब होता है कुछ ना जानना, एकदम ही फिर अबोध हो जाना, या बोधवान हो जाना, अज्ञानी हो जाना, ज्ञान से मुक्त ही हो जाना। जो परम सत्ता है, वो वो बिंदु है जहाँ तक ज्ञान नहीं पहुँच सकता। उसी को कहने के दो तरीके होते हैं: एक तो ये कि—वो ज्ञान के पार है, ज्ञानातीत है, और दूसरा तरीका है कहने का कि—वो सर्वज्ञ है। लेकिन सर्वज्ञ का ये अर्थ कोई ना निकल ले कि ईश्वर जैसा कोई बैठा हुआ है और उसके पास एक अतिविशाल डेटाबेस है जिसमें दुनिया की छोटी-से-छोटी चीज़ चिन्हित, अंकित और रिकॉर्ड की जा रही है। ऐसा कुछ नहीं है, भाई।

प्रश्नकर्ता: आपने बताया, आचार्य जी, कि कैसे जो ईश्वर है, जो ब्रह्म है, उससे आप ये समझ लें कि आपको अगर कोरोना-वायरस के बारे में जानना है तो आप डॉक्टर के पास जाइए, किसी बाबा के पास ना जाएँ। शायद ये जो समझ आपके अंदर है, यही उस ईश्वर का प्रमाण है।

आचार्य प्रशांत: यही यही, बिलकुल बिलकुल।

प्रश्नकर्ता: ये विवेक है कि बाबा जी के पास नहीं जाना है, डॉक्टर के पास जाना है।

आचार्य प्रशांत: बिलकुल बिलकुल।

प्रश्नकर्ता: ये गौमूत्र और गंगाजल का क्या रहस्य है?

आचार्य प्रशांत: क्या रहस्य है? गंगा सुंदर नदी है, पवित्र नहीं है। हिमालय की जो ऊँचाइयों से आती है, वहाँ से जब वो आती है तो उसमें कई तरह की जड़ी-बूटियां और अन्य पदार्थ हैं जो मिल जाते हैं, तो गंगा जल जो है वो अपनेआप में बढ़िया जल है, खास-तौर पर उस समय पर जब गंगा अभी हिमालय पर हो। अगर उतर आई है, समतल ज़मीन पर, मैदानों पर, तो उसके बाद तो उसमें हम जानते ही हैं किस तरह का प्रदूषण हम घोल देते हैं, लेकिन इसका अर्थ ये नहीं है कि गंगा में कोई ऐसा विशेष जादुई रसायन घुला हुआ है जोकि वायरस इत्यादि का इलाज कर देगा। हाँ, ये ज़रूर हो सकता है कि अगर आप हिमालय के किसी गांव के वासी हैं, जो गंगा तट पर हैं और आप सदा से गंगा का जल पीते रहे हैं, तो आपकी जो इम्यूनिटी है, आपके शरीर का जो प्रतिरक्षा तंत्र है वो हो सकता है कि बाकी लोगों से थोड़ा ज़्यादा मजबूत हो, तो हो सकता है कि आपको वायरस का संक्रमण उतनी आसानी से ना लगे जितनी आसानी से दूसरों को लगेगा, लेकिन इसमें कोई ‘जादुई’ बात नहीं है, इसमें कोई नई बात नहीं है, और अगर ऐसा कुछ उपलब्ध होता ‘खास रसायन’, जो गंगाजल में है तो सबसे पहले तो खुशी-खुशी शोधकर्ता और चिकित्सक उसको लेकर के उसके माध्यम से दवाई बना देते या वैक्सीन बना देते भाई, और यही बात गौमूत्र पर भी लागू होती है।

गाय बहुत प्यारा पशु है, भोला-भाला, किसी को नुकसान नहीं पहुंचाती है गाय। गाय की रक्षा की जानी चाहिए, ठीक वैसे जैसे सब जीवों की रक्षा की जानी चाहिए, लेकिन हम गाय के साथ बड़ा अन्याय करते हैं। अन्याय यहाँ तो है ही कि हम कहते रहते हैं कि गाय का दूध विशेष है, गाय का दूध विशेष है और अब हमने उस अन्याय में एक चरण और जोड़ दिया यह कहकर कि दूध ही नहीं मूत्र भी विशेष है। गाय बिचारी ने बड़ा ख़ामियाज़ा भुगता है इस तथा-कथित विशेषता का, जैसे की ये काफ़ी नहीं था कि आपने गाय के दूध को विशेष बना रखा था, अब आपने गाय के मूत्र को भी विशेष बना डाला। इस पूरी अज्ञानता का, इस पूरी अंधता का नुकसान कौन भुगतेगा? गाय भुगतेगी। समझिए बात को। अगर कोई ऐसा रसायन मौजूद होगा गौमूत्र में तो उस रसायन के पीछे तो सबसे ज़्यादा लालाइत होकर के शोधकर्ता ही भागेंगे न? दवा बनाने वाली कम्पनी चाहे देशी हो, विदेशी हो, एलोपैथिक हो, आयुर्वेदिक हो, वो सबसे पहले उसका अनुसंधान करके उसके माध्यम से दवा बनाएंगी—मुनाफ़े के लिए ही सही—पर कम-से-कम शोध पर और प्रमाण पर तो यकीन रखो। शोध कर नहीं रहे, प्रयोग कर नहीं रहे, यूहीं कुछ भी बोले जा रहे हो, और क्यों बोले जा रहे हो? क्योंकि एक काल्पनिक नाता बैठा लिया है गाय का और धर्म का। गाय का और धर्म का क्या नाता है भाई?

धर्म की अभी थोड़ी देर पहले हमने परिभाषा दी कि धर्म का ताल्लुक सीधे-सीधे अहंकार के अनुसंधान से है। पता करो कि भीतर कौन बैठा है जो हंसता है, गाता है, खेलता है, रोता है, उठता है, गिरता है, जगता है, सोता है—उसको पता करने का क्या संबंध है बेचारी गाय से? गाय को क्यों इतना परेशान कर रहे हो? बात समझ में आ रही है? लेकिन नहीं, चूँकि हम धर्म को नहीं जानते, इसीलिए हमने न जाने कैसे धर्म का संबंध गाय के साथ जोड़ दिया है, और कई बार तो ऐसा होता है कि गाय की पूजा वो लोग कर रहे होते हैं जिन्हें मुर्गा, चिकन खाने से कोई ऐतराज़ नहीं होता। तो गाय प्यारा जीव है लेकिन उसके साथ वो कहानियां मत जोड़ो जो कहानियां किसी भी तरीके से सही हैं ही नहीं, क्योंकि ये कहानियां जोड़कर के अपना जो नुकसान कर रहे हो सो कर ही रहे हो, सबसे ज़्यादा नुकसान उस बिचारे निरीह पशु का कर रहे हो।

याद रखना, जिसको तुमने अपने लिये उपयोगी बना लिया उसका उत्पीड़न और शोषण अब तुम निःसंदेह करोगे। जो अब तुम्हारे लिए किसी काम का हो गया, जिससे तुम्हें कोई लाभ मिलने लग गया, उसको अब तुम गुलाम बनाकर मानोगे। जब तक मनुष्य में ये भावना रहेगी कि गाय मेरे काम का पशु है, तब तक गाय को मुक्ति नहीं मिल सकती, ऐसे ही नहीं भारत दुनिया भर में बीफ के सबसे बड़े निर्यातकों में से है, गौर कर लीजिएगा—गौ माँस का, या चलो गाय नहीं तो भैंस के भी माँस का इतना निर्यात भारत से क्यों होता है? इतनी भैंसें भारत में क्यों कट रही हैं? क्योंकि भाई, भैंस के दूध पर भारत चल रहा है, जिसको देखो उसी को दूध पीना है, हम सोचते भी नहीं हैं कि वो भैंस आसमान से तो नहीं टपकी न? वो भैंस है अगर तो बच्चे भी देती होगी, उन बच्चों का क्या हुआ? दूध बिना बच्चों के तो नहीं आता होगा। भैंस का पड़वा होता होगा तभी दूध आता होगा, और भैंस को पड़वा हो सके इसलिए कहीं-न-कहीं भैसा भी होता होगा। और जो भैंस के बच्चे पैदा होते हैं, शावक पैदा होते हैं, उनमें नर और मादा दोनों होते होंगे। जो मादा है वो तो चलो वयस्क होकर के भैंस बन जाएगी। शायद तुम पुनः उसको दूह लोगे, पर वो जो भैंसा पैदा हुआ है, बच्चा, उसका क्या होता होगा? इतना हम खयाल ही नहीं करना चाहते, फिर हमें समझ में नहीं आता कि अरे, भारत इतने माँस का निर्यात कैसे कर लेता है? हम कड़ियाँ जोड़ ही नहीं पाते। हमें साफ लिखी कहानी दिखाई ही नहीं देती। हम कैसे लोग हैं? जो काम भैंस के साथ हो रहा है, वही काम गाय के साथ भी हो रहा है जनाब। हम उनके पीछे तो डंडा लेकर के पड़ जाते हैं जिनको हम कहते हैं कि ये गौ-माँस खा रहे हैं, गौ-माँस खा रहे हैं, और हम ये नहीं देखते हैं कि गाय का दूध पीकर के हम क्या नहीं गौ-वध को प्रोत्साहन दे रहे? मेरी बात बहुत लोगों को बहुत बुरी लगेगी, पर मेरी उनसे प्रार्थना है कि ठंडे दिमाग से इस बात पर गौर करें, ये बात मैं इसीलिए बोल रहा हूँ क्योंकि मैं स्वयं नहीं चाहता कि किसी भी जानवर के साथ हिंसा हो। मैं बहुत सालों से इसीलिए पशुओं के प्रति प्रेम की, करुणा की वकालत कर रहा हूँ—विगानिज़्म की बात कर रहा हूँ।

प्रश्नकर्ता: धन्यवाद, आचार्य जी। इस मुद्दे को छेड़ा तो ये बात सामने आयी कि थालीबाज़ी से, या किसी बाबा के पास जाने से, या किसी पशु इत्यादि के मल-मूत्र से इस वायरस का इलाज नहीं होने जाना है। हमें धैर्यपूर्वक सोशल-डिस्टन्सिंग बनाए रखना होगा।

आगे बढ़ते हुए, संतों ने कहा है कि भय बड़ा उपयोगी हो सकता है अगर उसका इस्तेमाल सही तरीके से किया जाए। प्रधानमंत्री ने जब दूसरी बार देश को संबोधित करा तो उन्होंने भाषण में एक नहीं कई दफा डराने का प्रयास किया, ऐसा मुझे लगा, कि चलो इन्हें तथ्य बताए जाएँ ताकि ये डरें। आदमी को जब डराया जाएगा तो घर पर रहेगा, उपद्रव नहीं करेगा, बाहर नहीं जाएगा, मुझे बाकी देशों का तो अनुभव नहीं है पर ये भारतीय कैसा है जो डर नहीं रहा है?

आचार्य प्रशांत: नहीं, ऐसा नहीं है कि डर नहीं रहा है।

प्रश्नकर्ता: विडियोज़ आ रहे हैं जिसमें लड़के गाड़ियाँ ले लेकर के पर्यटन के लिए निकल रहे हैं।

आचार्य प्रशांत: नहीं, वो अभी बस कुछ दिनों की बात है।

प्रश्नकर्ता: ऐसी विडियोज़ बन रही हैं जिसमें पीछे गाने चल रहे हैं—‘जान जानी है, जाऐगी'।

आचार्य प्रशांत: ये सब दो टके की हीरोबाजी है और कुछ नहीं, जो हमारी घटिया फिल्मों ने हमको सिखाई है—जहाँ बुद्धि से ज़्यादा और विवेक से ज़्यादा महत्व दिया जाता है भावनाओं को और वृत्तियों को, और भाषणबाज़ी को और करामातबाज़ी को, जादूगरी, बाज़ीगरी को, ये सब है अभी दो-चार इन्हीं के आजू-बाजू बीमार पड़ेंगे तो ये सब जवान लोग जो अभी हीरो बन रहे हैं और अफलातून बन रहे हैं, अभी सबसे पहले इन्हीं के छक्के छूटेंगे।

प्रश्नकर्ता: डब्ल्यू.एच.ओ. से और इटली जैसे देशों से बार-बार ये खबर आ रही है कि जो जवान लोग हैं, हो सकता है वो बीमार ना पड़ें, उनमें सिम्पटम्स भी ना दिखें पर उनकी बड़ी ज़िम्मेदारी है कि वो अपनेआप को क्वारंटाइन रखें ताकि वो वायरस आगे ना फैले उनसे।

आचार्य प्रशांत: नहीं ऐसा नहीं है कि बीमार नहीं पड़ते, बस यही है कि मरने से बच जाते हैं। पर चौदह दिन बहुत होते हैं सड़-सड़ के भुगतने के लिए, और दूसरी बात, कौन से लोग हो भाई तुम कि जिनको ज़रा भी ख्याल नहीं है अपने माँ-बाप का, और नाना-नानी का और दादा-दादी का? भारत में तो अभी भी बहुत संयुक्त परिवार हैं। घर का जवान आदमी अगर ये वायरस घर लेकर के आ रहा है, संक्रमण का वाहक बन रहा है, तो वो तो घर के सब बुजुर्गों का काल बन गया न। वो यही कहते रह जाएँगे, हमारा नाती, हमारा पोता, हमारा राजू, और उनको क्या पता राजू उनका उनकी मौत बनकर आया है। राजू उनका बाहर निकला था हीरोबाज़ी में और बाहर से वायरस उठाकर के लाया है, और उस वायरस से राजू तो नहीं मरा, राजू की बेचारी दादी ज़रूर ऊपर पहुँच गई। तो ये कैसे लोग हैं जिन्हें दो पैसे की मानवता नहीं है अपने परिवार के ही वृद्धजनों के प्रति भी?

प्रश्नकर्ता: अगर इन लोगों को कंट्रोल में रखने के लिए पुलिस लाठी-चार्ज इत्यादि करती है तो क्या वो सही है?

आचार्य प्रशांत: देखिए, जो कुछ हो क़ानूनन हो, ये पहले ही सब नागरिकों को बता दिया जाए कि पुलिस को इस विशेष समय में किस तरह के आपत अधिकार दे दिए गए हैं, जो कि सिर्फ इस विशेष समय में लागू होते हैं, तो ये बात पुलिस वालों को भी और आम जनता को भी पहले ही पता होनी चाहिए कि पुलिस के पास इस-इस तरह के अधिकार हैं, फिर ठीक है, बिलकुल ऐसा होना चाहिए।

देखिए, जो मन सच नहीं समझ रहा, जो अपने विवेक का इस्तेमाल नहीं कर रहा, वो तो फिर डर पर ही चलेगा क्योंकि वो डर पर ही चल सकता है, कोई विकल्प नहीं है उसके पास। दूसरी बात, वो जैसा है सो है, वो दूसरों के लिए खतरा ना बन जाए, इसके लिए ज़रूरी है कि उसपर बल प्रयोग भी करना पड़ेगा तो किया जाए, लेकिन जो कुछ भी किया जाए, क़ानूनन किया जाए। पुलिस बल को इस समय पर कुछ विशेष अधिकारों की ज़रूरत पड़ेगी उनको वो विशेष अधिकार दे दिये जाएँ, लेकिन ये भी बता दिया जाए कि जो आपको विशेष अधिकार दिए गए हैं आप इनका उल्लंघन ना करें। ये भी नहीं होना चाहिए कि कोई पुलिसकर्मी बिलकुल मनचला होकर के अपनी मन मर्ज़ी से लाठी भांज रहा है, कुछ कर रहा है। वो फिर अपनेआप में ही एक नए तरीके का विधान-कर्ता हो गया, वो अपना ही कानून चला रहा है। ये चीज़ नहीं होनी चाहिए। साथ-ही-साथ मैं ये भी चाहता हूँ कि जैसा कहा कि खास समय है, इस खास समय में पुलिस-बलों को अगर कुछ खास अधिकार देने की ज़रूरत हो तो उन्हें ज़रूर दिए जाने चाहिए, बस वो अपने अधिकारों का फिर उल्लंघन ना करें।

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, आपके समक्ष बैठना था, इस मुद्दे पर बात करनी थी, तो थोड़ा शोध किया मुख्यतः टिक-टोक पर देख रहा था कि इन दिनों भारी मात्रा में कोरोना-वायरस संक्रमण से संबंधित ही बड़े हंसी-मज़ाक के विडियोज़ आ रहे हैं, तो इस पूरे हास्य के खेल को आप कैसे देखते हैं।

आचार्य प्रशांत: नहीं, बहुत अच्छी बात है, बस तब भी हस्ते रहना जब तुम्हारे इर्द-गिर्द बीमारी और मौत नाचे। ये हंसी थमनी नहीं चाहिए। हंसने में कोई बुराई नहीं है, हंसने का मतलब ये है कि आप शरीर से संबंधित इस खेल को, इस माया को, गंभीरता से नहीं ले रहे हो, जो कि अपनेआप में प्रशंसनीय बात है लेकिन सिर्फ तभी मत हंसो जब दूसरे मुल्क बीमार पड़े हैं और जब बाकी पूरी दुनिया में बीस-हज़ार मौतें हो चुकी हैं, तुम तब भी हंसो फिर जब खुद बीमार पड़े हो और तुम्हारे आस-पास भी मृत्यु का तांडव हो रहा है—तब भी हंसते रहना, तब भी हंसते रहे तब मानेंगे कि तुममें कुछ दम है।

प्रश्नकर्ता: आख़िरी प्रश्न, आचार्य जी, कल ही एक बड़ी दुखद खबर मैंने पढ़ी, और सोचा था कि आपसे ज़रूर इस विषय में प्रश्न करूँगा, हम हैं जो क्वारंटाइन हैं और सरकार की पूरी ज़िम्मेदारी है कि हमें बचाए इस बीमारी से और समाज में एक वर्ग है डॉक्टरों का, वो डॉक्टर हैं जो दिन-रात मेहनत करके हमारी रक्षा कर रहे हैं। इटली से तो छियासी, पच्चासी वर्ष के सेवानिवृत डॉक्टर्स भी वापिस आ रहे हैं। उनका इंटरव्यू हुआ, उनसे पूछा गया, “क्या आपको डर नहीं लगा?”, तो उन्होंने कहा कि जब शपथ ली थी, डॉक्टर बना था, तो तभी इस डर को तो पीछे छोड़ दिया था कि हॉस्पिटल में संक्रमण से बीमार हो जाऊंगा।

भारत में एक खबर आई और इसकी मैने पुष्टि भी करी कि मकान-मालिक इत्यादि जो हैं, जिनके यहाँ रेंट पर डॉक्टर्स वगैरह रह रहें हैं, नर्सेज रह रहे हैं, उन्हें वो बाहर निकाल रहे हैं इस डर से कि कहीं वो संक्रमण लेकर नहीं आ रहे हों। इसको आप कैसे देखते हैं?

आचार्य प्रशांत: नहीं, जैसे हम हैं, वही काम कर रहे हैं हम। हम ऐसे ही हैं—हम धार्मिक शिक्षा के अभाव में एक विवेकशील सामाजिकता के अभाव में बड़े संकीर्ण और क्षुद्र स्वार्थों से प्रेरित लोग हैं। अब वही चीज़ जब इतने नाटकीय रूप से होती है कि एक डॉक्टर है जो इतने लोगों की जान बचा रहा है और फिर वो वापिस आता है तो पाता है कि उसके मकान मालिक ने उससे कहा कि निकल जाओ मेरे घर से क्योंकि मुझे डर लग रहा है कि तुमसे मुझे संक्रमण लग जाएगा, तो फिर ये बात हमको बड़ी हैरतअंगेज लगती है, दुखद लगती है, बल्कि भयावह लगती है, लेकिन ये जो मकान मालिक है वो अचानक ही तो इस तरह का व्यवहार नहीं करने लग गया न? वो व्यक्ति ही ऐसा है। याद रखियेगा, वो व्यक्ति ही ऐसा है। और वो व्यक्ति ऐसा बहुत समय से है, और वो जो ये व्यक्ति है मकान मालिक, ये समाज में एक सम्मानित व्यक्ति है भई, तो यही बात नहीं है कि ये मकान मालिक कैसा आदमी है, ये भी तो बात है न कि इस तरह के लोगों को, सैकड़ों-हज़ारों लोग आजतक सम्मान कैसे दे रहे थे, वो लोग कैसे हैं? तो बात सिर्फ मकान मालिक की नहीं है, बात उस पूरे समाज की है जिसमें ऐसे मकान मालिक बैठे हुए हैं। हम सभी ऐसे ही लोग हैं, बस हमारा ये जो कुरूप चेहरा है, हमारा ये जो विभत्स्य, हिंसक व्यक्तित्व है, ये छुपा-छुपा रहता है हमारे मुखौटों के पीछे—जब आपातकाल आता है तो मुखौटे उतर जाते हैं और उसके पीछे का हमारा जो विकृत चेहरा है और नुकीले दांत हैं और पैने पंजे हैं, वो फिर सब सामने आ जाते हैं।

हमें अपने भीतर ईमानदारी से ये सवाल पूछना होगा, हम लोग कैसे हैं? लोग कैसे हैं वो हमें हमारी दिनभर की छोटी-छोटी गतिविधियों में दिख जाएगा, ज़रा-ज़रा सी बात में अगर आप स्वार्थी होकर चलते हो, दिल आपका बड़ा नहीं है, अपने छोटे से मुनाफ़े के लिए आप अगर किसी का बड़े-से-बड़ा नुकसान करवाने को तैयार रहते हो, दूसरे को भी आप देह की तरह देखते हो, खुद को भी बस देह-भर मानते हो, अपने हर काम में, अपने हर रिश्ते में, अपने परिवार के भीतर भी आपका यही हाल है कि तू भी देह है, मैं भी देह हूँ—तो फिर अब हैरत की बात क्या है कि आप किसी भी तरह का निकृष्ट काम कर डालो?

ये बीमारी तो आयी है, और मैं उम्मीद भी करता हूँ, प्रार्थना भी करता हूँ कि कुछ महीनों में नहीं तो अगले साल तक, कुछ-न-कुछ इसका मानवता इलाज निकाल ही लेगी—लेकिन ये बीमारी बाहरी है, असली बीमारी भीतर है हमारे। ये बाहरी बीमारी भी अभी मैं कल-परसो आपसे ही कह रहा था, ये बाहरी बीमारी भी हमारी आंतरिक बीमारी ने ही पैदा करी है और ये बाहरी बीमारी अगर हमने किसी तरीके से हटा भी दी, मिटा भी दी, तो भी भीतर की बीमारी तो बची रहेगी न। वो भीतर की बीमारी ही इन सब किस्सों में और घटनाओं में पता चलती है, तो उस भीतर की बीमारी का इलाज बहुत ज़रूरी है और उस भीतर की बीमारी का एक ही इलाज है—शिक्षा।

हमें दोनों तरीके की शिक्षा चाहिए—हमें विज्ञान में बहुत सार्थक शिक्षा चाहिए और हमें अध्यात्म की गहरी शिक्षा चाहिए। ये दोनों चाहिए, ये दोनों होंगे तो ही हम अपनेआप को एक पूरा इंसान कह सकते हैं, और समझ से भरा हुआ, प्रेम से भरा हुआ, और आनंद से भरा हुआ एक आज़ाद जीवन जी सकते हैं, नहीं तो फिर बेकार है।

प्रश्नकर्ता: धन्यवाद, आचार्य जी, तीन सत्संग अपने दिए हैं, तीन बार आपने इस विषय पर मौका दिया सबको कि आपको सुन सकें। आज ही आज में लगभग पच्चास संदेश मेरे पास आ चुके हैं, जब हमारी पिछली हिंदी वार्ता का वीडियो अपलोड हुआ था, लोग बहुत अनुग्रह व्यक्त कर रहे हैं, और हैरान हैं एक तरीके से कि इस संक्रमण के दौरान भी आचार्य जी कैसे भी करके सलाह दे रहे हैं।

आचार्य प्रशांत: लोगों के सामने अब नहीं बैठ सकता, लोगों से तो दूरी बनाकर रखनी है और बिलकुल सही बात है सोशल-डिस्टन्सिंग का जो कायदा है उसकी इज़्ज़त करनी ही करनी है, तो इस वक्त इसीलिए आपके साथ बात करता हूँ और वो जो बात है वो लोगों तक ऑनलाइन पहुँच जाती है।

सत्संग शब्द से कोई ये ना समझे कि इस वक्त भी यहाँ पर किसी तरह का सभा-समूह चल रहा है। ये जो सारी बातचीत है वो यहीं पर होती है, दो लोग आमने सामने बैठते हैं और जो उसका रिकॉर्डिंग है वो ऑनलाइन फिर पूरी दुनिया तक पहुँचाया जाता है।

प्रश्नकर्ता: जी, बहुत लोग थोड़ा घबरा गए थे कि विडियोज़ इत्यादि अब आएँगे कि नहीं आएँगे तो उन्हें बहुत अच्छा लगा ये देखकर कि अभी भी आचार्य जी को सुनने का अवसर मिल ही रहा है।

आचार्य प्रशांत: लोगों की घबराहट बताती है कि अभी उन्हें बहुत विडियोज़ देखने की ज़रूरत है। जब तक मैं हूँ तब तक तो विडियोज़ आएंगे ही, जब नहीं भी रहूँगा तो भी विडियोज़ आपके लिए तो उपलब्ध ही हैं, वो कहाँ जा रहे हैं?

प्रश्नकर्ता: (नमन भाव से प्रणाम करते हुए) जी।

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