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उपनिषद् क्यों अनिवार्य हैं? || श्वेताश्वतर उपनिषद् (2021)
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
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प्रश्नकर्ता: हमने अभी समझा, आचार्य जी, कि निराशा होना बहुत ज़रूरी है। तो अब जो इंसान बाहर भी ढूँढ रहा है, बुलडोज़र चला रहा है, खरगोश मार रहा है, तो मेरे ख्याल से निराशा का भी सही आयाम ज़रूरी है क्योंकि इंसान वहाँ भी निराशा तो पा ही रहा है। वो निराशा पा रहा है और पहले आपने बताया कि बुलडोज़र लाया फिर उसने खोद दिया, फिर उसने आग भी लगा दी। तो ये जो बार-बार हम मतलब स्क्रिपचर्स (ग्रंथों) को सुनते भी हैं, शास्त्रों में कि निराश होना बहुत ज़रूरी है, लेकिन मुझे लगता है कि निराशा का आयाम भी सही होना ज़रूरी है कि किस जगह निराश हो रहे हैं।

आचार्य प्रशांत: नहीं, उसको अभी निराशा हुई नहीं है, उसको बस खिसियाहट हुई है। निराशा का मतलब है भविष्य की समाप्ति। निराशा का मतलब है आगे के लिए तुम्हारी सारी ऊर्जा का ही समाप्त हो जाना। तुम कह रहे हो 'मैं जिस रास्ते पर चल रहा हूँ उस पर आगे अब एक कदम नहीं जा पाऊँगा', इसको निराशा कहते हैं।

तुम अभी आगे जाकर के खरगोश मारना चाहते हो तो ये निराश कहाँ हुए अभी तुम? ये तो अधिक-से-अधिक झुंझलाहट है, खिसियाहट है। तुम कह रहे हो, 'है तो अंगूठी यहीं पर, इन नालायक खरगोशों ने गायब कर रखी है; इन्हें मार दो।' तुम अभी ये थोड़े ही मान रहे हो कि 'अंगूठियाँ थी ही नहीं, खरगोश मार कर क्या होगा।' तब तुम कहलाते वास्तव में निराश। जब तुम बिलकुल उखड़ जाते, पाँव उलट कर वापस आ जाते।

अभी तो बस तुम झुंझलाए हो। तुम कह रहे हो 'चीज़ यहीं है, ये शरारत कर रहे हैं खरगोश, इनके कारण मुझे मिल नहीं रही; इनको सज़ा दो।' तुमने ये थोड़े ही माना है कि चीज़ है ही नहीं। चीज़ है ही नहीं, अभी भी नहीं है और आगे भी नहीं मिलेगी; भविष्य ख़त्म, इसको निराशा कहते हैं।

भविष्य ख़त्म, अब आगे के लिए कुछ नहीं है। जब तक आगे के लिए कुछ है तुम्हारे पास, तब तक अहंकार आगे की ओर बढ़ता रहेगा। आगे के लिए जो कुछ था उसका मटियामेट हो जाना, उसका शून्य हो जाना बहुत ज़रूरी है। भाई, झूठ क्यों कायम रह पाता है? क्योंकि उसे आगे अपने बने, बचे रहने की और सुख की उम्मीद होती है, बड़ी तगड़ी उम्मीद होती है। इसीलिए तो झूठ जितना बढ़ेगा, उम्मीद की संस्कृति उतनी ज़्यादा बढ़ेगी।

आजकल देखते नहीं हो होप (आशा) पर कितना ज़ोर है और कितनी बिक रही है। किसकी दुकान सबसे ज़्यादा चल रही है? आशा ताई की। बाज़ार में कौनसी दुकान एकदम गरम है? आशा ताई की। और कुछ बिके न बिके, होप ज़रूर बिकती है – आशा। क्यों? क्योंकि दुःख जब सघन, सघनतर होता जाएगा तो उसे बचे रहने के लिए उतनी ही ज़्यादा आशा चाहिए। वर्तमान जितना रोगी होता जाएगा, तुम्हें उतनी ज़्यादा भविष्य के लिए उम्मीद चाहिए न। तो आशा ख़त्म हो गई, रोगी ख़त्म हो गया। स्वस्थ आदमी के लिए प्रार्थना करते हो क्या? 'भगवान कल ठीक कर दो इसको।' करते हो क्या? जो रोगी होता है उसी के लिए तो उम्मीद करनी पड़ती है न।

हम बहुत मोटी चमड़ी के लोग हैं। हम आसानी से उम्मीद छोड़ते नहीं। हम उम्मीद का सहारा लेकर सच से लड़ जाते हैं और इसीलिए आदमी को इतनी उम्मीद चाहिए, क्योंकि सच से लड़ना है तो उम्मीद तो चाहिए। सच तो तुम्हें बार-बार परास्त करेगा, फिर भी तुम डटे कैसे रह जाते हो? उम्मीद का सहारा लेकर, 'कि सच ने सौ बार मुझे पटखनी दी है। क्या पता एक सौ एकवीं बार मैं जीत जाऊँ, उम्मीद तो रखनी चाहिए न, होप ', इसीलिए होप इतनी बिकती है।

हम ये यथार्थ देखते ही नहीं कि बात सिद्धांत की है। ऐसा नहीं कि हम एक बार, दो बार या दस बार हारे हैं, हमारा हारना तय और अनिवार्य है। संयोगवश नहीं हारे हैं, सिद्धांतवश हारे हैं। संयोगवश हारे होते तो संयोगवश कभी जीत भी सकते थे। संयोग ने हराया, संयोग ही जिता भी सकता था; हम सिद्धांतवश हारे हैं।

सिद्धांतवश कैसे हारा जाता है?

सिद्धांतवश ऐसे हारा जाता है कि 'ए' प्लस 'बी' द होल स्क्वायर ईज़ ऑलवेज़ ग्रेटर दैन ए स्क्वायर प्लस बी स्क्वायर ('अ' योग 'ब' का वर्ग, 'अ' के वर्ग और 'ब' के वर्ग के योग से हमेशा बड़ा होगा)। ये अब सिद्धांत की बात है, ए स्क्वायर प्लस बी स्क्वायर हमेशा हारेगा। ए और बी की कोई भी इसमें वेल्युज़ हों, एक पक्ष को इसमें हमेशा हारना है। चलो एक शर्त रख लो कि और बी दोनों पॉज़िटिव होने चाहिए, पर जब तक तुम उस डोमेन (निश्चित क्षेत्र) में काम कर रहे हो, तब तक ये नहीं हो सकता कि तुम उम्मीद कर रहे हो कि क्या पता और बी का जो अगला कॉन्बिनेशन आए उसमे ए स्क्वायर प्लस बी स्क्वायर ही जीत जाए। नहीं जीतेगा बाबा, नहीं जीतेगा। दोनों पॉज़िटिव हैं तो भी नहीं जीतेगा, दोनों नेगेटिव है तो भी नहीं जीतेगा। उसके लिए तुम्हें एक और डायमेंशन (आयाम) में जाना पड़ेगा, किसी और क्वाड्रेंट में जाना पड़ेगा जहाँ एक पॉज़िटिव और एक नेगेटिव हो, फिर हो सकता है।

हम ये मानते ही नहीं हैं कि हम संयोगवश नहीं, सिद्धांतवश हार रहे हैं, और जो सिद्धांतवश हार रहा है वो कभी नहीं जीत सकता। हम यही माने चलते हैं कि 'वो तो इस बार बात बनी नहीं, अगली बार बन जाएगी'। उम्मीद।

प्र: इससे एक और बात पता लगती है कि आत्मज्ञान की जो शिक्षा है वो बहुत पहले से मिलनी चाहिए, वरना ये सिद्धांत का आपको पता लगेगा ही नहीं। आप पूरा जीवन निकाल दोगे सोचते-सोचते, मतलब आपको सूझेगा ही नहीं कि आप खेल ही ग़लत खेल रहे हो।

अगर हम ख़ुद सोचें कि हम जैसे किसी लॉन में ढूँढें जा रहे हैं कि इसी में कुछ है, ये आपको विचार ही नहीं आएगा कि अंगूठी यहाँ है ही नहीं। तो स्क्रिपचर्स या फिर आत्मज्ञान की शिक्षा बहुत-बहुत ज़रूरी है।

आचार्य: कोई शक़ नहीं इसमें बिलकुल, क्योंकि देखो, अंगूठी नहीं मिल रही। अंगूठी के ना मिलने पर दोनों संभावनाएँ हो सकती हैं। एक ये कि नहीं है इसलिए नहीं मिल रही, और दूसरा ये भी तो हो सकता है कि है तो पर मिल नहीं रही। तो कौन तुम्हें रोक लेगा इस संभावना को मानने से कि है तो, बस मिल नहीं रही?

भाई, तार्किक दृष्टि से अगर तुम देखो, आप एक चीज़ खोज रहे हो और मिल नहीं रही तो दोनों बातें हो सकती हैं न। एक तो ये हो सकता है कि नहीं है इसलिए नहीं मिल रही और दूसरा हो सकता है कि है पर अभी नहीं मिल रही, उम्मीद ये है कि आगे मिल जाएगी। अब तर्क यहाँ पर रुक जाएगा। तर्क उम्मीद को कभी ख़ारिज नहीं कर सकता क्योंकि तार्किक बात तो यही है कि, भाई, हमें यही पता है न यथार्थ में कि चीज़ अभी नहीं मिली। अगर अभी नहीं मिली तो ये कैसे साबित कर लोगे कि आगे भी नहीं मिलेगी? तो बस चूँकि तर्क ये साबित नहीं कर पाता कि आगे भी नहीं मिलेगी तो आदमी तर्क का सहारा लेकर उम्मीद का धागा पकड़े लटका रहता है।

तो जो कुछ मूलभूत सिद्धांत हैं वो पता होने चाहिए। वो शिक्षा से ही पता लगेंगे। कोई कहे कि 'नहीं मुझे तो अपने-आप पता लग जाएँगे' इत्यादि, ऐसे नहीं होता। उसके लिए तो ठोस, आयोजित, व्यवस्थित जीवन शिक्षा चाहिए-ही-चाहिए। तुमको शिक्षा ना दी गई होती, तुम छोड़ो कैलकुलस , जो बिलकुल छोटू पाइथागोरस थ्योरम है वो भी तुम्हें अपने-आप पता चल जाता क्या? बोलो? अब तुमको बहुत आसान लगता है कि हाँ पाइथागोरस का थ्योरम ही तो है, क्या हो गया। पर तुम अस्सी साल के हो जाते, अपने-आप तुम्हें नहीं पता लगता। लेकिन दावा हमारा यही है कि अध्यात्म की शिक्षा हमें नहीं चाहिए, जीवन से ख़ुद ही सीख लेंगे।

अपने-आप तो हज़ारों सालों तक करोड़ों लोगों को ये भी नहीं पता चला था कि पृथ्वी गोल है। आज तो चार साल का बच्चा भी जानता है पृथ्वी गोल है। उसके हाथ में तुम ग्लोब दे देते हो छोटा सा। अपने-आप पता लग जाता? हज़ारों साल तक करोड़ों लोगों को नहीं पता लगा कि पृथ्वी गोल है। पर दावा हमारा यही है कि 'मन के भीतर की सच्चाई क्या है ये तो हमें जीवन के अनुभव बता देंगे, हम ख़ुद ही कर लेंगे!' नहीं पता लगेगा स्वयं, उपनिषद् आवश्यक हैं। कोई सोचे, 'हमारा हो गया, हम देख लेंगे।' नहीं होगा भाई, नहीं होगा।

बड़े तर्क उठते हैं, कहते हैं 'ऋषियों को कैसे पता लग गया था?' हाँ, ऋषियों को पता लग गया था, तुम ऋषि हो? तुम्हें नहीं लगेगा पता। ये बात तुम्हें बुरी लगती हो तो लगे। और ऋषियों को वैसे ही पता लग गया था कि फिर जैसे आइंस्टीन को रिलेटिविटी पता लगी थी। करोड़ों में किसी एक को पता लगता है। ना तुम ऋषि हो, ना तुम आइंस्टीन हो।

तुम्हें 'अहम् ब्रह्मास्मि' स्वयं पता लगने की संभावना उतनी ही है जितनी ये संभावना है कि अपने-आप एक दिन ऐसे ही सड़क पर चलते-चलते तुमको स्पेसटाइम कर्वेचर (अंतरिक्ष का एक नियम) समझ में आ जाए। लेकिन जब तुमसे कहा जाएगा कि "क्या ऐसा हो सकता है कि एक दिन तुम अपने किराने की दुकान से सब्जी मंडी की ओर जा रहे थे और तुम्हें अचानक स्पेसटाइम कर्वेचर समझ में आ गया?" तो तुम कहोगे कि, "नहीं, ऐसा तो नहीं हो सकता, उसके लिए तो बहुत किताबें पढ़नी पड़ेंगी।" वहाँ तुम तुरंत मान जाओगे लेकिन 'अहम् ब्रह्मास्मि' तुम्हें लगता है कि ऐसे ही आ जाएगा समझ में। 'ऋषि को आ गया था तो हमें भी आ जाएगा।' नहीं आएगा।

राधेलाल निकले हल्दी के छः बोरे बेच करके घर जाने को, तभी याद आया कि लहसुन खरीदनी है। और लहसुन वाले के सामने खड़े थे कि बिलकुल स्पष्ट हो गया कि प्रकाश भी आवश्यक नहीं है, कि सीधी रेखा में चले, अचानक सारी इक्वेशंस आँखों के सामने नाचने लग गईं। (सामने बैठे हँसते हुए श्रोता को सम्बोधित करते हुए) अब क्यों हँस रहे हो? क्यों तुम्हें लगता है कि ऐसा हो ही नहीं सकता?

श्रोडिंजर्स इक्वेशन , उसकी सारी आइजन वैल्यूज , वो सब मुन्ना-मुन्नी बन कर नाच रहे हैं। एक लहसुन हो गया, एक धनिया हो गया, परवल, कद्दू और पीछे पूरा नाचने वालों का एक जमघट है। पूछा, "ये क्या?" बोले "ये तो बहुत सारी प्रोबेबिलिटीज़ हैं। सब समझ में आ गया हमको!"

घर आए, बिल्ली दिखी, बोले, "ये तो श्रोडिंजर्स कैट है। हो भी सकती है, नहीं भी हो सकती है।"

क्या ये कमरे में है?

'पक्का नहीं।'

क्या ये नहीं है?

'पक्का नहीं।'

हो सकता है ऐसा?

अरे, पढ़ाया ना जाए न तो जीवन भर आदमी 'अ' नहीं लिख पाता ख़ुद। अस्सी-अस्सी साल के लोग हो जाते है और 'अ', 'ब' लिखना नहीं आता। 'अ', 'ब' लिखना नहीं आता 'अहम् ब्रह्मास्मि' आ जाएगा? अपने-आप आ जाएगा? और अहम् ब्रह्मास्मि नहीं आया तो तुम बताओ मुझे जीवन में काम क्या करना है, धंधा क्या करना है, पैसे कहाँ से कमाने हैं, ये तुमने कैसे सीख लिया?

जब तुम स्वयं को नहीं जानते, तुम्हें कैसे पता कि तुम्हें क्या काम करना चाहिए? फिर तुम करोगे कोई घटिया काम और पैसे आ रहे होंगे, अपना आ रहे हैं पैसे, और वो क्यों कर रहे हो घटिया काम? इसीलिए क्योंकि 'अ से अहम्' तुमने कभी सीखा ही नहीं। कैसे बनाओगे रिश्ते? जब अहम् को नहीं जानते तो तुम्हें कैसे पता अहम् का संबंध किसके साथ बनाना चाहिए, बताओ? फिर करोगे यही कि इधर-उधर जाकर उल-जुलूल कुछ शादी ब्याह कर लाओगे और फिर माथा फोड़ोगे अपना भी, उसका भी।

तो ऐसा नहीं है कि अगर तुमको अध्यात्म की शिक्षा नहीं मिली है तो तुमको बस कुछ इधर-उधर के किताबी सिद्धांत नहीं पता चले, कि तुम बस पुस्तकीय ज्ञान से वंचित रह गए। अगर तुम्हें अध्यात्म की शिक्षा नहीं मिली है तो तुम जीवन में हर उस चीज़ से वंचित रह गए जो सही है और सुंदर है। और किस चीज़ से जीवन तुम्हारा भर जाएगा? हर उस चीज़ से जो ग़लत है और कुरूप है। जीवन को ग़लत ही बनाना हो, कुरूप ही रखना हो तो कर लेना उपनिषदों की उपेक्षा।

प्र: और उसमें, आचार्य जी, अब तो समय कहाँ है? अभी एक शोध आया था कि ७ साल और १०२ दिन बचे हैं कुल। एक 'क्लाइमेटिकल वॉच' बनाई गई है, तो उसके मद्देनज़र तो ऐसा होना चाहिए कि 'अ से अंगूर' भी पढ़ाया जाए और 'अ से अहम्' भी पढ़ाया जाए। मतलब अब तो एक तरह से कानून ही बनना चाहिए। ये बात मान भी लेते हैं कि करोड़ों में से एक आदमी जागृत हो जाता है, ऋषि हो जाता है लेकिन अब उतनी प्रोबेबिलिटी (संभावना) है भी नहीं इंसान के पास। जब समय ही इतना कम है तो ये तो एक तरह से मार्शल लॉ ही बनना चाहिए कि आपको 'अ से अंगूर' और 'अ से अहम्' दोनों ही पढ़ाया जाए।

आचार्य: हाँ, बनना चाहिए लेकिन उसके लिए फिर सत्ता जागृत हाथों में होनी चाहिए न। उसके लिए सत्ता भी फिर किसी ऋषि के हाथ में होनी चाहिए। ऋषि के हाथ में सत्ता होगी तभी तो वो ये अनिवार्य कर पाएगा की सब बच्चे फिर उपनिषद् पढ़ें। ये जो आम राजनेता हैं, ये थोड़े ही अनिवार्य कर पाएँगे उपनिषदों को।

प्र: मतलब ऋषि को राजनीति में आना ही ज़रूरी है?

आचार्य: अगर दुनिया उसको बचानी है तो आना होगा। और अगर उसको ये कहना है कि 'दुनिया क्या है, आँखों का धोखा! मिट जाए तो मिट जाए', तो नहीं आएगा। उसकी मौज पर है।

प्र२: जैसे बताया था कि आइंस्टीन और अन्य ऐसे लोग भी एक साधना वाला जीवन जी रहे थे। ऐसे ही उनको भी ऐसे ही नहीं मिल गया कि अचानक से चलते-चलते ही पता लग गया। तो मतलब ब्रह्म ज्ञान तो बिलकुल भी संभव नहीं कि ऐसे ही मिल जाए। ऋषियों ने भी साधना वाला जीवन जिया होगा।

आचार्य: हाँ, बिलकुल। देखिए, ये तो जैसे अब इ इज़ इक्वल टू एमसी स्क्वायर है 'अहम् ब्रह्मास्मि' वैसा है। अहम् बराबर ब्रह्म। वो ऐसा ही है, बराबर एमसी स्क्वायर * । अब ये सूत्र बहुत छोटा है, लेकिन इसके पीछे जो * रिसर्च (शोध) है और कैलकुलेशन (हिसाब) है वो बहुत विशाल है, और जो प्रयोग है इसके पीछे वो बहुत ज़बरदस्त है।

लेकिन चूँकि हम भौतिक लोग हैं इसीलिए भौतिक चीज़ों को बहुत सम्मान देते हैं और भौतिक सिद्धांतों को भी सम्मान दे देते हैं। तो ' इ इज़ इक्वल टू एमसी स्क्वायर ' का संबंध पदार्थ से है, उसको हम सम्मान दे लेते हैं कि 'हाँ-हाँ इसके साथ छेड़खानी नहीं करेंगे और बड़ी मेहनत से ये सूत्र निकला होगा'। उसको हम सम्मान दे लेते हैं। लेकिन 'अहम् ब्रह्मास्मि' में पदार्थ तो कुछ है नहीं, ना अहम् पदार्थ है ना ब्रह्म पदार्थ है। तो उसको हम सम्मान नहीं दे पाते, वो लगता है हमें कि ऐसे ही है ये तो। पनवाड़ी के यहाँ की चीज़ है, हम भी जाएँगे, कहेंगे, "लगाना ज़रा कत्था चूना मार कर अहम् ब्रह्मास्मि"।

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