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कैसे तरें भवसागर? || श्वेताश्वतर उपनिषद् पर (2021)

त्रिरुन्नतं स्थाप्य समं शरीरं हृदीन्द्रियाणी मनसा सन्निरुध्या। ब्रह्मोडुपेण प्रतरेत विद्वानस्त्रोतांसि सर्वाणि भयावहानी॥

विद्वान पुरुष को चाहिए कि वह सिर, ग्रीवा और वक्षःस्थल इन तीनों को सीधा और स्थिर रखे। वह उसी दृढ़ता के साथ सम्पूर्ण इन्द्रयों को मानसिक पुरुषार्थ कर अंतःकरण में सन्निविष्ट करे और ॐकार रूप नौका द्वारा सम्पूर्ण भयावह प्रवाहों से पार हो जाए।

~ श्वेताश्वतर उपनिषद् (अध्याय २, श्लोक ८)

आचार्य प्रशांत: इसी तरह कहा है कि, "ब्रह्म की नौका के द्वारा सब भयावह प्रवाहों से पार हो जाओ।" कैसे? वही, सर को, गर्दन को, छाती को एक सीध में रखना है। इन्द्रियों को हृदय के पास रखना है, मन को भी। और फिर ब्रह्म रूपी नौका का प्रयोग करके इन भयावह जलों के पार हो जाना है। उपमा है सुंदर। छवि देख पा रहे हो?

ब्रह्म को यहाँ पर क्या कहा गया है? नाव है, यही तारेगी तुमको। और तुमने जो अपना ये मायाजाल रचा हुआ है इसको क्या कहा गया है? ये भयावह समुद्र है या नदी है जिसमें बिना तुम ब्रह्म की नाव के डूबे ही डूबे। अब ये क्या बात है, क्योंकि इस प्रतीक का इस्तेमाल भी इतना किया गया है, इतना किया गया है कि हम जब सुनते हैं तो हमें लगता है कि हमें बात पता है। जब हम सुनते हैं तो हमें लगता है कि बात पता है।

(एक श्रोतागण की ओर इशारा करते हुए) इनका क्या नाम है? क्या नाम है (जवाब आया 'अजितेश')। आप लोग हैं यहाँ पर, आप में से ज़्यादातर लोग 'अजितेश' शब्द का अर्थ नहीं जानते होंगे। 'अजितेश' शब्द आपके लिए बिलकुल वैसा ही है जैसे कि अगर मैं आपसे कह दूँ 'कुकुटु'। पर अगर मैं आपसे कह दूँ ‘कुकुटु’ तो ये बात आपके कान को चुभेगी क्योंकि आप इस शब्द से परिचित नहीं है। मैं 'अजितेश' कहता हूँ, आपको लगता है कि हम तो जानते ही हैं। 'अजितेश, ये रहा अजितेश, अजितेश'।

किसी चीज़ का अभ्यस्त हो जाना बहुत ज़बरदस्त धोखा होता है। तुम्हें उसका कुछ नहीं पता लेकिन तुम उसके अभ्यस्त हो गए हो तो अब ये बात खटकनी भी बंद हो गई है कि तुम्हें कुछ नहीं पता। ‘कुकुटु’ कहते ही तुम्हारे कान खड़े हो जाएँगे, 'कुछ ऐसा कहा गया जिसका मुझे कुछ पता नहीं।' 'अजितेश' कह दिया, तुम्हारे मोहल्ले में कोई लड़की रहती हो ‘कनिका’। बड़े आराम से कहते हो ‘कनिका, कनिका, आओ कनिका, आओ कनिका, कनिका, कनिका’। ‘कनिका’ माने क्या होता है बताना? क्या होता है?

वो हिबा। कौन है यहाँ पर जो ‘हिबा’ शब्द का अर्थ जानता है? अभी वो ‘हिबा’ आकर के कहे कि, "आज से मेरा नाम है ‘भमभंभो’", तो तुम परेशान हो जाओगे कि, "'भमभंभो’ क्या होता है? ‘भमभंभो’ नाम का मतलब बता, तूने अपना नाम ‘भमभंभो’ क्यों रखा?" पर मुझे बताओ न तुम्हें ‘हिबा’ का मतलब पता है, न तुम्हें ‘भमभंभो’ का मतलब पता तो तुम ‘हिबा’ के साथ कैसे सुविधा अनुभव करते हो और ‘भमभंभो’ सुनते ही तुम कैसे परेशान हो जाते हो, बताओ न मुझे?

अगर तुम्हारी तकलीफ़ ये है कि ‘भमभंभो’ शब्द का अर्थ तुमको नहीं पता है तो पता तो तुम्हें ‘हिबा’ शब्द का अर्थ भी नहीं है, तो तुम्हें तकलीफ़ क्यों नहीं हो रही? क्योंकि तुम अभ्यस्त हो गए हो। ये अभ्यस्त हो जाना, हैबिचुएटेड हो जाना हमें कहीं का नहीं छोड़ता।

ये परिणय। बताओ ‘परिणय’ माने बताओ। अब ये परिणय बोल देगा, "मेरा नाम परिणय है ही नहीं, मेरा नाम ‘पोयापो’ है।" अब ये सारे खड़े होकर, "‘पोयापो’ कैसे, तू ‘पोयापो’ कैसे हो गया, क्यों हो गया, क्या हो गया?" लेकिन परिणय इतना सुन लिया, इतना सुन लिया, इतना सुन लिया कि तुम्हारे भीतर की जिज्ञासा मर गई। अब तुम सवाल करोगे ही नहीं।

यहाँ जितने लोग बैठे हैं इनमें से तुम्हें किन्हीं के भी नामों का अर्थ न पता होगा। बताओ ‘अनुपम’ माने क्या होता है? ‘अंशु’ शब्द का अर्थ बताओ? दिन रात करते रहते हो ‘अंशू सर, अंशू सर’। ‘अंशू’ तो होता भी नहीं ‘अंशु’ होता है, माने क्या, बोलो? तो तुम्हें बिलकुल नहीं मालूम ‘अंशु’ माने न। जब तुम्हें उसे ऐसे ही किसी नाम से पुकारना है जिसका तुम्हें अर्थ नहीं पता, तो अंशु क्यों, उसका नाम आज से 'टंशु' कर दो। दोनों शब्द बराबर के हैं कि नहीं? तुम्हें तो दोनों का ही मतलब नहीं पता।

लेकिन एक शब्द के साथ तुम बिलकुल सहज हो और दूसरे शब्द के साथ तुम विरोध में आ जाते हो कि "ये, ये ठीक नहीं है, ऐसे नहीं है। किसी का नाम 'पोयापो' कैसे हो सकता है, हैं भई?" किसी का नाम अजितेश भी कैसे हो सकता है? तुम तो दोनों के प्रति ही अज्ञानी हो न, लेकिन एक के साथ तुम अभ्यस्त हो। अभ्यस्त हुए नहीं कि तुम्हें लगता है 'हमें पता है'। यही दिक़्क़त है, पता हमें कुछ नहीं है, हमें इस पूरी दुनिया का कुछ नहीं पता, हम बस इसके अभ्यस्त हैं।

अब बताओ ब्रह्म रूपी नौका से जग रुपी भवसागर पार करने का क्या अर्थ है?

इतना सुना न 'तेरा राम जी करेंगे बेड़ा पार', कि लगता है ये तो वही है, वही है, पुरानी चीज़ तो है। 'नैय्या तेरी राम हवाले, लहर-लहर हरि आप संभाले'। "वही है, हाँ वही है, सब सुना हुआ है।" "अच्छा, ये क्या चीज़ है? जो वहाँ सुनी थी। अच्छा वो क्या चीज़ है? जो वहाँ सुनी थी। अच्छा वो क्या चीज़ है? जो वहाँ सुनी थी।" अरे, सब कुछ जहाँ भी सुना था, कुल मिला कर उसका अर्थ क्या है वो तो बता दो! 'नहीं, अर्थ हमें पता नहीं, लेकिन जो भी अर्थ होगा हमें पता ही होगा क्योंकि पाँच सौ बार सुना है।' हैं? पाँच सौ बार सुना है तो? तो?

अभी हालत ये है, ख़ासतौर पर जो वर्तमान पीढ़ी है उसकी, कि उसमें ज़्यादातर लड़के-लड़कियों को अपने ही नाम का मतलब नहीं पता होता। अगर हमें इस बात से असुविधा हो रही होती कि हम कोई चीज़ नहीं जानते हैं, तो हमें सबसे पहले किस चीज़ से असुविधा होती? हमें सबसे पहले तो अपने ही नाम से असुविधा हो जाती न। पर नहीं, जैसे हम अपने नाम को नहीं जानते न वैसे ही हम अपने-आपको, अपने मन को भी नहीं जानते। पर हम, ये जो देह है, इसके साथ अपने पहले दिन से हैं, या ये कह दो हम अपना पहला दिन गिनते ही उसको हैं जिस दिन ये देह आयी थी, तो रिश्ता पुराना हो गया है। इस पुरानेपन के कारण हमें ऐसा लगता है कि हम इसको जानते हैं।

एक बार को अपने भीतर से इस अन्धविश्वास को हटाओ कि आपको कुछ भी पता है। पहले बड़ी भयानक सी अनुभूति होगी लेकिन उसके बाद बड़ा हलकापन आएगा। पहले तो डर जाओगे, ख़ौफ आ जाएगा कि 'हाय राम! मुझे तो कुछ भी नहीं पता, वास्तव में कुछ नहीं पता। मूर्खतापूर्ण आत्मविश्वास है बस एक कि मुझे कुछ भी पता है।' उसको हटाओ तो पहले डर लगता है लेकिन उसके बाद बड़ा हलकापन होता है।

कुछ ना जानने में जैसी मौज है वैसी जानने में तो बिलकुल ही नहीं है। जानना तो व्यर्थ का बोझ है; पहली बात बोझ है, दूसरा व्यर्थ का। व्यर्थ का इसलिए क्योंकि तुमने ऐसी चीज़ का बोझ लिया जो तुम्हारे काम नहीं आनी क्योंकि उसमें कुछ मूल्य नहीं है क्योंकि तुम वास्तव में कुछ नहीं जानते हो, बस जानने का अभिनय करते हो। ख़ुद को जताते हो जैसे कुछ पता है।

तो मूल प्रश्न पर फिर से आते हैं। ये ब्रह्म रूपी नौका से भवसागर पार करने का क्या मतलब है? चलो, वेदांत पर आओ। उपनिषदों के साथ हैं भई, जहाँ कहीं भी फँस जाया करो याद रखा करो। दो-तीन हैं, उन दो-तीन में उस एक के अलावा बाकी दोनों जो हैं उनको क्या हो जाना है? उस एक में प्रविष्ट हो जाना है, मिल जाना है, मिट जाना है। और जब दो तीन नहीं बचते, एक ही बचता है तो उस एक को भी हम कहते हैं कि, "'एक' क्या कहें तुझे?" तो उसको भी हम बस कह देते हैं कि बस अस्ति, 'है'। कैसे कह दें कि एक है, कि शून्य है कि कितना है, बस है।

तो जो दो-तीन हैं इन्हीं से देख लो कि नाव क्या होगी, पानी क्या होंगे और जो नाव में बैठा है वो कौन होगा। संकेत है, सुन्दर है, एक तरह का काव्य रचा गया है। क्या है, पानी क्या है? मन का विस्तार। मन के विस्तार को इस सन्दर्भ में तुम कह सकते हो माया का विस्तार, या प्रकृति कह सकते हो। विस्तृत तो प्रकृति ही होती है न; इधर-उधर चारों तरफ़ फैली हुई, लहराती हुई, प्रकृति ही होती है।

नाव में जो बैठा है वो कौन है? अहम्। अब अहम् और प्रकृति के मध्य कौन आ गया? ब्रह्म। नहीं तो अहम् ने अपना भाग्य क्या तय कर रखा था? कि वो प्रकृति के विस्तार में डूब ही जाएगा। तो ब्रह्म वो है जो तुमको प्रकृति के विस्तार में डूबने से बचा देता है, नहीं तो प्रकृति में डूबना निश्चित है तुम्हारा।

कोई है ऐसा जिसको पानी में डालो और डूब न जाए? तो ब्रह्म वो है जो ऐसा जादुई कारनामा करके दिखा देता है कि तुम पानी में होकर भी डूब नहीं रहे हो।

ये पानी का तल है (हाथ से इशारा करते हुए), ठीक है? तुम नाव में हो। वास्तव में तुम्हारी टाँगें कहाँ पर हैं? जानते हो पानी के तल के थोड़े अंदर तक हैं? तुम पानी में ही हो लेकिन फिर भी पानी तुम्हें स्पर्श नहीं कर रहा। ये है ब्रह्म का जादू कि उसकी सहायता से तुम प्रकृति में होकर भी प्रकृति से अस्पर्शित बचे रह जाते हो। हो तुम पानी में ही, और ब्रह्म की चतुराई देखो, वो पानी जो तुम्हारा सबसे बड़ा दुश्मन था, जो तुमको डुबा लेने को तत्पर था, उसी पानी का उपयोग करके उसी पानी के पार निकल गए। नाव चल किसमें रही है? पानी का इस्तेमाल करके पानी के पार निकल गए!

तो जो ब्रह्म की नाव पर बैठा होता है वो ऐसा हो जाता है। प्रकृति में ही रहता है और प्रकृति का ही सुंदर और सुमतिपूर्ण प्रयोग करके वो प्रकृति के पार निकल जाता है। प्रकृति उसकी दुश्मन नहीं हो गई, प्रकृति उसकी दोस्त हो गई। आम आदमी के लिए प्रकृति क्या है? एक ज़बरदस्त दुश्मन जिसमें उसका डूबना तय है। और जो ब्रह्मस्थ है वो साथ तो ब्रह्म के है, दूरी उसने प्रकृति से बनाई है, लेकिन दूरी बनाने के कारण प्रकृति उसकी दुश्मन नहीं हो गई है बल्कि दोस्त हो गई है। यही अजीब बात है।

आम आदमी प्रकृति में डूबा हुआ है तब भी प्रकृति उसे कोई तोहफ़ा नहीं दे रही, उससे कोई दोस्ती नहीं निभा रही। वो जितना डूब रहा है प्रकृति में उतना तबाह हो रहा है, ठीक? पानी में जितना डूबते हो उतना मरते जाते हो। और ब्रह्मस्थ आदमी को देखो, वो प्रकृति से दूर है, प्रकृति जैसे उसको प्रसन्न होकर के भेंट दे रही हो, कह रही हो, "तुम मुझसे दूर हो इसीलिए मैं तुम्हारी मदद करूँगी, तुम्हें पार निकाल दूँगी।"

ये सूत्र पकड़ो। उससे चिपकोगे वो तुम्हें डुबा देगी, कहीं का नहीं छोड़ेगी; और बुलाती है वो, 'आओ, मुझ में डूब जाओ। आओ, आओ, आओ।' तो क्या करना है, दूर भाग जाना है? तो फिर तो नदी कभी पार ही नहीं होगी दूर भाग गए तो। नदी पार करनी है तो नदी में उतरना तो पड़ेगा। यहाँ हवाई यान का कोई प्रावधान नहीं है। नदी पार करनी है तो नदी में उतरना तो पड़ेगा ही।

तो दो विकल्प हमने देख लिए। एक ये कि नदी में डूब ही गए हो, वो बुला रही है 'आओ, आओ, मेरे आग़ोश में समा जाओ' और तुमने कहा 'आहाहा! क्या बात है।' बढ़ गए आगे और डूब गए। दूसरा विकल्प ये है कि भग गए डर के मारे। बोले, 'अभी-अभी देखा है तीन-चार को डूबते हुए, हम ना डूबेंगे, दादा! हम इसी किनारे पर घर बना लेते हैं, हमें पार जाना ही नहीं है।' ये दूसरा आदमी भी मूरख, सूनी इसकी ज़िन्दगी।

ये जो तीसरा आदमी है इसको समझो। ये प्रकृति का आमंत्रण स्वीकार कर लेता है। बोलता है 'आ रहे हैं। तुमने बुलाया और हम चले आए, बस साथ ब्रह्म को भी ले आएँगे। आएँगे तो पर अकेले नहीं आएँगे। तुमने बुलाया है आओ, आओ, हम आए हैं। पर हम जहाँ भी जाते हैं, वो एक हैं हमारे, उनको साथ लेकर जाते हैं, उनको छोड़कर नहीं जाते कभी।'

अब बात कुछ और हो जाती है। ध्यान रखो, ये नहीं कहा जा रहा है कि जीवन से दूर रहना है, ये नहीं कहा जा रहा है कि जीवन की सरिता के प्रवाह का बहिष्कार कर देना है। फिर जी ही क्यों रहे हो? फिर तो जीवन का जो उद्देश्य है वो तुम कभी पार कर ही नहीं पाओगे, पार कभी पा ही नहीं पाओगे। जीवन का उद्देश्य क्या है? पार जाना। पार कैसे जाओगे अगर नदी में उतरोगे ही नहीं? तो नदी में उतरना भी है और डूबना भी नहीं है। ना डूबने के संकल्प का नाम है ब्रह्म।

नाव माने क्या हुआ? उतरना तो है पर डूबना नहीं है। हममें और प्रकृति के बीच में नाव के पेंदे जितनी दूरी रहेगी। और नाव का पेंदा बहुत मोटा नहीं होता है। समझ रहे हो? फिर प्रकृति ही तुम्हारी सहयोगी हो जाती है। वो पानी जिनमें तुम डूब रहे होते, उन्हीं पानियों का इस्तेमाल करके तुम आगे बढ़ रहे होते हो। जैसे कि प्रकृति तुम्हारी दुश्मन हो ही ना, और प्रकृति हमारी दुश्मन क्यों होगी, भाई? प्रकृति तो माँ है। माया को माया ही हम बोलते रहते हैं, माया तो माँ है, वो दुश्मन कहाँ से हो गई? उसी ने तो शरीर दिया है। जो तुम्हें शरीर दे वही तो माया है।

तो माया का अपमान करने से लाभ क्या है? या तो ये कह दो कि, "नहीं, तुम शरीर हो ही नहीं।" जब तक तुम शरीर हो तब तक तो तुम्हारी पहली पहचान ही माया से आ रही है। और जैसे माँ दुश्मन नहीं होती वैसे ही प्रकृति और माया भी दुश्मन नहीं हैं। हाँ, तुममें बुद्धिमत्ता होनी चाहिए। माँ शरीर देती है लेकिन ये थोड़े ही बोलती है माँ कि बुद्धि का विकास मत करना, 'मैंने शरीर दे दिया है अब बस तुम शरीर ही बने रहना।' माँ शरीर देती है लेकिन साथ-ही-साथ तुम्हें ये सम्भावना भी देती है न कि 'बेटा, जन्म तो दे दिया, अब आगे तुम अपना विकास भी स्वयं करो।'

तो प्रकृति दोनों है। तुम्हें डुबो देने वाला पानी भी, और भूलना नहीं कि प्रकृति का ही अंग है अहम्, प्रकृति के ही एक तत्व को अहम् कहते हैं। तो अगर अहम् आत्मा से या सत्य से मिलने को आतुर है तो माने कौन सत्य से मिलने को आतुर है? ख़ुद प्रकृति, भई।

तो ये मत कह देना कि ये जो नाव है, ये जो भवसागर है ये सिर्फ़ तुम्हें डुबोने के लिए है। नहीं, वो तुम्हें डुबो भी सकता है और वो तुम्हें पार भी निकाल सकता है, जैसे कि उस भवसागर की ख़ुद ये इच्छा हो कि आए कोई ऐसा सूरमा, कोई बिरला जो हमारा इस्तेमाल करके पार चला जाए। 'ये सब मूर्ख हमें बस अभद्र शब्द ही बोलते रह गए कि ये नदी हमें डुबोने के लिए है, नदी हमें डुबोने के लिए है।' अरे बाबा, नदी तुम्हें डुबोने के लिए नहीं है, नदी तो तुम्हें पार लगाने के लिए है।

पर तुम्हें इतनी बुद्धि ही नहीं थी कि तुम नदी का सदुपयोग कर पाते। तुम डूब रहे हो, ये तुम्हारी मूर्खता है न। नदी डुबो सकती है तुम्हारे शरीर को, तुमसे किसने कह दिया कि तुम शरीर भर बने रहो? शरीर भारी होता है, बुद्धि हल्की-से-हल्की होती है, बुद्धि नहीं डूबती। अगर तुम शरीर भर हो तो नदी में डूब जाओगे पर अगर तुम चेतना भी हो तो नहीं डूबोगे। पानी में वही चीज़ डूबेगी न जो पानी से भारी हो। पानी से भारी क्या है? शरीर। चेतना बहुत हल्की है, बहुत ही हल्की है; वो डूबेगी ही नहीं पानी में। जिसके पास चेतना है वो नदी पार कर जाएगा। चेतना के ही ऊँचे उठने को, जीवन चेतना के सहारे बिताने को कहते हैं 'ब्रह्म'।

अब नाव का मतलब समझ लो। अगर तुम नदी पार कर रहे हो सिर्फ़ शरीर के भरोसे तो डूब जाओगे। और अगर तुम नदी पार कर रहे हो चेतना के भरोसे, चेतना की ऊँचाई के भरोसे, तो तुम पार कर ले जाओगे। तो ब्रह्म फिर क्या हुआ? तुम्हारी चेतना की ही ऊँचाई का दूसरा नाम है 'ब्रह्म'। तो ब्रह्म की नाव माने चेतना की नाव। शरीर बनकर जीवन नहीं जीना है। शरीर बनकर जो जीवन की नदी में उतरा, वो डूबा। और चेतना बनकर के जो जीवन की नदी में उतरा वो पार कर गया।

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