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लेख
भारतीय युवाओं में अपनी संस्कृति के प्रति अज्ञान और अपमान क्यों?
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी, हम भारतवासी अपनी संस्कृति और विरासत को लेकर गौरव क्यों नहीं अनुभव करते? खासकर युवा पीढ़ी में तो गौरव छोड़िए बल्कि अपनी संस्कृति और अतीत को लेकर थोड़े अपमान का भाव है।

आचार्य प्रशांत: आप पूछ रहे हैं भारतवासी अपनी संस्कृति को और अपनी विरासत को लेकर गौरव क्यों नहीं अनुभव करते? ये संस्कृति और विरासत हैं क्या? क्या मिला है तुमको अतीत से धरोहर के रूप में? क्या है तुम्हारी संस्कृति?

इन शब्दों के अर्थ क्या हैं? कितनी गहराई से जानते हो इन्हें और अगर जानते ही नहीं तो इन पर गौरव कैसे अनुभव कर लोगे? गौरव किसी ऐसी ही चीज़ पर हो सकता है न तुम्हें जिसकी कोई कीमत हो और जिस चीज़ को तुम जानते नहीं, उसकी कीमत कैसे जानते हो? क्या तुम्हारी विरासत है? क्या अतीत? क्या धरोहर है? इसका तुमको, आम हिंदुस्तानी को, आज की युवा पीढ़ी को ज्ञान कितना है? और जिस चीज़ के बारे में जानोगे नहीं। ये तो छोड़ों कि उसको लेकर तुम्हे गौरव होगा तुम्हें उसको लेकर अपनापन भी नहीं होगा।

मैं अगर पुछूँ एक आम भारतीय से कि साहब! अपनी संस्कृति के बारे में कुछ बताइए। क्या है भारतीय संस्कृति? या कोई विदेशी आ जाए मान लो और तुमसे पूछने लगे कि आप भारतीय संस्कृति-सभ्यता और इनसे बहुत निकट की बात होती है धर्म, संस्कृति-सभ्यता-धर्म इनके बारे में कुछ बताइए तो आप क्या बता पाएँगे? एक आम भारतीय बता क्या पाएगा? वो वही बता पाएगा जो हमने आजतक बताया है पिछले तीस-चालीस सालों में।

दुनिया में भारतीय संस्कृति का अर्थ होता है- कास्ट, काऊ एन करी कि भारतीय संस्कृति क्या है? वो जिसमें जातिप्रथा चलती है, जिसमें खाने में सब्जी-तरकारी बनती है और जिसमें गाय की पूजा की जाती है। अच्छा! और बताओ और क्या है भारतीय संस्कृति? क्या है उसके प्रतीक? क्या है उसका आधार? तो तुम कह दोगे 'होली-दिवाली', तुम कह दोगे 'नमस्ते' ये हमारी संस्कृति का प्रतीक है। ये सब बातें कितनी धुंधली-सी हैं न? इनमें कोई स्पष्टता है? इनका कोई ठोस केंद्र है? तुम कैसे गौरव करोगे किसी ऐसी चीज़ पर जिसके बारे में तुम्हारे ही मन में धुंधलका छाया हुआ है। बहुत सारे लोगों को तो अपने नाम तक का अर्थ नहीं पता होता, उन्हें अपनी संस्कृति का क्या पता होगा? और अभी पिछले एक-दो दशकों से तो ऐसा भी हो रहा है कि माँ-बाप बच्चों के ऐसे नाम रख देते हैं जो बिल्कुल अनर्थक होते हैं। जिनके अर्थ में ही नाश छुपा होता है। कुछ जानते ही नहीं, जब नहीं जानते तो क्या गौरव करोगे?और तुमसे पूछे कोई हाँ जी! बताइए अपनी संस्कृति के बारे में तो तुम क्या बता पाते हो? तुम कहते हो "हमारी संस्कृति रामायण और महाभारत की संस्कृति है।" यही बोलते हो न?

रामायण और महाभारत इतिहास काव्य हैं। उनका भी अर्थ तुम तभी कर पाओगे जब पहले तुमको वो 'कुंजी' मिली हो जिससे सब भारतीय ग्रंथों को खोला जाता है। नहीं तो तुम जितनी बातें करोगे वो बड़ी बचकानी और हास्यास्पद लगेंगी। लोग कहते हैं भारत की संस्कृति तो राधा-कृष्ण की संस्कृति है, सीता-राम की संस्कृति है और फ़िर राम को या सीता को लेके या कृष्ण को और राधा को लेके या इंद्र को और विष्णु को लेकर के या शिव को लेकर के हम कुछ पुरानी घिसी-पिटी, रटी-रटाई कहानियाँ हैं, वो सुनाने लग जाते हैं संस्कृति के नाम पर। हम कहते हैं हमारी तो वो संस्कृति है जिसमें पुत्र बड़ा आज्ञाकारी होता है, पिता ने कह दिया जाओ वनवास चौदह वर्ष का, तो वो चला गया इत्यादि ऐसी बातें करने लग जाते हैं।

हम समझते ही नहीं रामायण और महाभारत कहानियाँ भर नहीं हैं, वो जनसाधारण तक कोई बहुत मार्मिक, कोई बहुत केंद्रीय बात पहुँचाने के लिए ख़ासतौर पर रची गयी कृतियाँ हैं। वो बहुत सधे हुए मन से किये गए वैज्ञानिक प्रयोग हैं। राम कोई पुरुष नहीं हैं, सीता कोई स्त्री मात्र नहीं हैं। जब रामचरितमानस कहता है-"सियाराम मय सब जग जानि" तो क्या मतलब है इसका? ये बात किसी साधारण स्त्री-पुरुष के लिए तो कही नहीं जा सकती कि पूरा जगत ही सियाराम मय है। इसी तरीके से जब तुलसीदास कहते हैं कि 'राम' वो हैं जो बिना कान के सुनते हैं, बिना आँखों के देखते हैं और बिना पाँव के चलते हैं तो निश्चितरूप से किसी व्यक्ति की बात तो करी नहीं जा रही न? सीता हों, चाहे राम हों, चाहे लक्ष्मण हों, कृष्ण हों, चाहे अर्जुन हों ये सब किन्हीं सिद्धांतों को जनसाधारण तक पहुँचाने के लिए बनाए गए प्रतीक हैं और वो सिद्धांत क्या हैं?

भारतीय संस्कृति भारतीय धर्म से अलग नहीं है। वास्तव में संस्कृति कहीं की भी वहाँ के धर्म से अलग हो ही नहीं सकती और भारतीय धर्म है 'वैदिक धर्म' वेदों का शीर्ष हैं उपनिषद लेकिन उपनिषदों की जो बातें हैं वो कुछ लोगों के लिए थोड़ी क्लिष्ट है समझने में, जो अभी परिपक्व बुद्धि के न हों उनके लिए वो बातें ज़रा जटिल हैं तो सब तक उपनिषदों का माने वेदान्त का संदेश साफ़-साफ़ पहुँच सके इसके लिए पुराण हैं और इतिहासकाव्य हैं जैसे रामायण हो गयी, महाभारत हो गयी इन सब में कहानियाँ हैं। पुराण हमारे कहानियों से भरे हुए हैं और वो कहानियाँ जन-साधारण में प्रचलन में आ गयी हैं। अभी हालत ये है कि हमारे पास बस वो कहानियाँ हैं, उन कहानियों का मर्म समझा देने वाली कुंजी हमारे पास नहीं है।

ये ऐसी-सी बात है जैसे आपके पास किसी ऐसी भाषा का कोई गीत पहुँच जाए जो भाषा आप समझते न हों और वो गीत आप गाए-गुनगुनाए जा रहे हैं संस्कृति के नाम पर लेकिन उसका अर्थ आपको पता ही नहीं। क्योंकि उस गीत का अर्थ करने वाली जो कुंजी थी वो खो गयी आपकी। तो अब आप अपने स्वर्णिम अतीत की बात करते-करते उस गीत को सहेजे रहेंगे, उसको बड़ा सम्मान देंगे, अपने ख़ास अवसरों पर उसको गाएंगे-गुनगुनाएंगे लेकिन कोई पूछेगा "भाई इसका मतलब क्या है?" आप बता नहीं पाएँगे और कोई पूछेगा इस गीत से तुम्हारी रोज़मर्रा की ज़िंदगी पर फ़र्क क्या पड़ रहा है? इस गीत से तुम्हारा जीवन बेहतर कैसे हो रहा है? आपके पास कोई उत्तर नहीं होगा। बल्कि आप पूरे जगत में उपहास के पात्र बनेंगे और होता भी यही है।

जब आप नहीं जानते कि 'राम' वास्तव में कौन हैं? 'कृष्ण' वास्तव में कौन हैं तो आप उनको व्यक्ति बना लेते हैं? आप कहना शुरू कर देते हैं ये तो इतिहास के चरित्र हैं। ये तो लोग हैं जो कभी पैदा हुए, इन्होंने कुछ काम किये, कुछ कर्म थे इनके, कुछ गाथाएँ थीं इनकी और इनके कर्म ऊँचे थे इसलिए हम इनकी पूजा करते हैं। ये बात गलत नहीं है लेकिन बहुत कम 'सही' है या यह कह लीजिए कि ये बात बहुत निचले तल पर सही है।

जब आप संस्कृति के नाम पर रामायण के कुछ किस्से सुनाने लग जाएँगे और उन किस्सों का गूढ़ अर्थ आपको नहीं पता होगा तो आप उन सब लोगों के सामने उपहास के पात्र बन जाएँगे जिन्हें धर्म से ही परहेज़ है, जो धर्म के नाम पर डर जाते हैं, चिढ़ जाते हैं, जो धर्म से किसी भी तरह भागना चाहते हैं। क्यों भागना चाहते हैं? वो एक अलग मुद्दा है उसकी चर्चा हम कर लेंगे बाद में। अब आप कहना शुरू कर देते हैं उदाहरण के लिए देखो हनुमान को, हनुमान क्या हैं वास्तव में ये आपको पता नहीं, नतीजा सोशल मीडिया पर खिल्ली उड़ रही है हनुमान की और ऐसी-ऐसी भद्दी बातें हो रही हैं कि धार्मिक लोगों को चोट लगी जा रही है। जो लोग यह भद्दी बातें कर रहे हैं, जो लोग आपकी परंपरा का, इतिहास का और संस्कृति का मज़ाक बना रहे हैं, जानते हैं आप? सुनने में आपको बुरा लगेगा लेकिन उनको ये मज़ाक बनाने का हक़ आपने ही दे दिया है।

भारत और लंका के मध्य सेतु बन रहा है, ये सेतु तथ्य हो न हो, सत्य की ओर इशारा करने वाला एक सशक्त प्रतीक ज़रूर है लेकिन वो प्रतीक क्या है? ये आपको पता नहीं क्योंकि वेदांत की आपको कभी शिक्षा मिली नहीं, वेदों को आपने कभी पढ़ा नहीं, वेदों के जो शिखर हैं उपनिषद, उनका आपको पता नहीं तो इसीलिए भारत और लंका को जोड़ने वाले पुल का वास्तविक अर्थ क्या हुआ ये आप जानते नहीं। आप वास्तविक अर्थ जो कि बड़ा सूक्ष्म है, चूँकि आप जानते नहीं तो इसीलिए आप उस पुल को स्थूल रूप से खोजने की कोशिश शुरू कर देते हैं। फ़िर आप जाइये इंटरनेट पर गूगल करिए वो बतायेंगे नासा के किसी सेटेलाइट ने तस्वीर ली है और उस तस्वीर में वो पुल जो है वो पाया गया है। अरे भाई! इस बात से कोई अंतर नहीं पड़ता कि वह पुल आज सेटेलाइट की किसी तस्वीर में दिख रहा है कि नहीं दिख रहा है। दिख जाए तो भला! न दिखे तो भला! ये बात महत्व की है ही नहीं और संभावना यही है कि वैसा कोई पुल वैज्ञानिक तौर पर, किसी सेटेलाइट द्वारा खींची गई किसी तस्वीर में नहीं दिखेगा, दिख भी सकता है पर संभावना बहुत कम है। वो पुल आपके भीतर की कोई घटना है क्योंकि देखिए सारा अध्यात्म आदमी के भीतर का विज्ञान है। अध्यात्म का औचित्य, उद्देश्य यह नहीं होता कि वो आपको संसार में कोई पुल बनाना सिखा दे। अध्यात्म का उद्देश्य होता है कि वो आपके मन की अशांति को शांति से जोड़ने वाला पुल बना दे और वो पुल कहीं संसार में, किसी समुद्र में नहीं होगा, वो पुल अपने मन के भीतर होगा, वो पुल भवसागर पर बनेगा। भवसागर भी कहीं बाहर नहीं होता, बाहर कहीं होता तो अब तक हमने खोज लिया होता न? पृथ्वी का तो पूरा नक्शा बना लिया है न? उसमें कहीं भवसागर मिला? तो वो भवसागर क्या है जिसकी ऋषियों ने संतों ने चर्चा की है? वो भवसागर हमारे भीतर है, उसी के पार जाना है। उसके एक तरफ़ हम हैं, जिस तरफ हम हैं उस देश का नाम है अशांति, उसकी दूसरी तरफ़ जो देश है उसी का नाम है शांति या मुक्ति या सत्य। उस भवसागर को पार करने के लिए जो पुल बनता है समझ लीजिए वो हुआ राम सेतु। वो एक अंदरूनी घटना है उसको बाहर कहाँ खोज रहे हो? पर आप बाहर खोजते हो और जितने पढ़े-लिखे हुए लोग हैं वो आपकी खिल्ली उड़ाते हैं, वो कहते हैं "ये देखो! ये बाहर खोज रहे हैं।"

इसी तरीके से 'हनुमान' हैं। हम समझे ही नहीं कि हनुमान के वानर होने का अर्थ क्या है? क्योंकि फ़िर कहूँगा वेदों में, वेदान्त में हमने कभी शिक्षा ली ही नहीं, हमारी पूरी शिक्षा व्यवस्था से उनको बाहर रखा गया। तो अब आप भारतीय संस्कृति के एक अंश के रूप में जब भी कभी हनुमान की चर्चा करेंगे, आप पाएँगे कि जितने भी अधार्मिक, अविश्वासी लोग हैं वो या तो रुचि नहीं ले रहे आपकी बात में या आपकी बात पर हँस रहे हैं। आपने सदा ऐसा दिखा दिया कि जो हनुमान हैं वो बंदर हों, उन्हें पूँछ वगैरह पहना दी। उनका मुँह भी वानर जैसा दिखा दिया।

अभी मैं देख रहा था किसी ने फ़िकरा कसा था- वानर राजाओं की पत्नियाँ थी टीवी धारावाहिक रामायण के किसी दृश्य में और बाकी परिवार भी दिखाया था। उसमें जितनी स्त्रियाँ थीं उनको साधारण स्त्रियाँ दिखाया था और पुरुषों को दिखा दिया कि वानर हैं, उनके मुँह बंदर जैसे हैं और उनके पूँछ है। तो मज़ाक उड़ाने को तैयार जितने लोग थें वो उसके नीचे फ़िर टिप्पणी कर रहे थे सोशल मीडिया पर वो कह रहे थे "ये कौन से वानर हैं जिनके यहाँ जब बच्चा पैदा होता है तो बस लड़कों के पूँछ होती है और लड़कियों के पूँछ ही नहीं होती और लड़कों का मुँह बन्दर जैसा होता है और लड़कियों का मुँह सामान्य स्त्रियों जैसा होता है?"

और देने वालों के पास कोई उत्तर नहीं था इसके लिए, कोई जवाब दे नहीं पाए। जब आप बात ऐसी करोगे तो आप जवाब दे भी कैसे पाओगे?

ये हनुमान कोई बंदर थोड़े ही थे? हनुमान को वानर दिखाने का, जामवंत को रीछ दिखाने का एक उद्देश्य है। बताया ये जा रहा है कि प्राकृतिक तौर पर तो हम सब पशु ही होते हैं और जीवन का उद्देश्य है अपनी पशुता को रामत्व की सेवा में लगा देना। पर ये बात आपको तब समझ में आए न जब आप सांख्ययोग पढ़ें या जब आप अष्टावक्र के पास जाएँ। जब आपको प्रकृति का और पुरुष का कुछ रिश्ता समझ में आए और जब आप समझें कि गीता के क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग में कृष्ण किस क्षेत्रज्ञ की बात कर रहे हैं और फ़िर क्षेत्रज्ञ को भी उठकर के जिस आत्मा में लय हो जाना है वो कौन है? ये बातें आपने समझी होती कभी तो फ़िर आप हनुमान के वानर होने का और जामवंत के रीछ होने का भी वास्तविक अर्थ समझ पाते।

पर भारत के साथ बड़ी दुर्घटना, एक अजीब त्रासदी हो गयी। हमें कहानियाँ दे दी गयीं उन कहानियों के पीछे की चाभी नहीं दी गयी या ये कह लीजिए कि हमने हीं उस चाभी में रुचि नहीं दिखाई। क्योंकि जो रामायण पढ़ रहा है, जो महाभारत पढ़ रहा है, वो उपनिषद भी तो पढ़ सकता था न? पर उपनिषद ज़रा दिमाग पर ज़ोर डालकर पढ़ने पड़ते हैं। कहानियाँ रुचिकर लगती हैं, कहानी तो अच्छी है मनोरंजक होती है। उपनिषद वैज्ञानिक हैं उनमें प्रवेश करने के लिए सरल हृदय, श्रद्धा ही नहीं चाहिए, तीक्ष्ण प्रज्ञा भी चाहिए और साधना करनी पड़ती है। रामायण-महाभारत की कहानियाँ तो छोटे बच्चे दादी से लोरी में भी सुन लेते हैं न? कि दादी ने लोरी में बता दिया बिल्कुल कि क्या हो रहा था- राम थे, लखन थे, सीता थीं लेकिन उपनिषदों को तुम ऐसे लोरी में नहीं पाओगे। उसके लिए तो फ़िर एक किशोर को, फ़िर एक युवा को, फ़िर एक वयस्क को जीवन का समय देकर के कठिन साधना करनी पड़ती है तब बात समझ में आती है कि ये कही क्या जा रही है?

और अगर उपनिषद समझ में आ गए, कुंजी हाथ लग गयी सिर्फ़ तब तुम भारतीय संस्कृति के एक-एक प्रतीक का सही अर्थ कर पाओगे और ऐसा अर्थ खुलेगा कि तुम अचंभित रह जाओगे। तुम कहोगे बाप रे बाप! खजुराहो का ये अर्थ है? महाबलेश्वर का ये अर्थ है? उज्जैन का ये अर्थ है? ऋषिकेश का ये अर्थ है? शक्तिपीठों का ये अर्थ है? तीर्थों का ये अर्थ है? अभी तो हमें अर्थ कुछ पता नहीं। बस बाहर-बाहर की बात है अंदरूनी से हमारा कोई नाता रहा नहीं। बाहर-बाहर की जो चीज़ है उसको हम सर पर ढो रहे हैं। उसको हम सर पर ढो रहे हैं क्योंकि पुरखों की, प्रथा की और परम्परा की बात है, तो हम सर पर ढोए जा रहे हैं। भारतीयों में से बहुत लोगों ने ख़ासकर युवाओं ने उन चीज़ों को सर पर ढोना भी बंद कर दिया है। वो कहते हैं तुम्हारा सारा अतीत ही कचड़ा है, वो कहते हैं सारी पुरानी किताबें जला दो, तुम्हारी सारी पूरानी किताबें अंधविश्वास से भरी हुई हैं और उन पुरानी किताबों में सब बातें स्त्री विरोधी और दलित विरोधी हैं। वो कहते हैं हटाओ ये सब पुरानी किताबें और वो जब ऐसा कुछ कहते हैं तो आपके पास कोई प्रत्युत्तर नहीं होता क्योंकि आपको वास्तव में नहीं पता कि आपकी किताबों में जो लिखा हुआ है उसका असली अर्थ है क्या? आप नहीं जानते! जब आप समझते ही नहीं हैं 'सीता' वास्तव में कौन हैं तो सीता की अग्नि परीक्षा किस तरफ़ इशारा कर रही है आप बता कैसे पाएँगे?

भाई देखिये! बात समझिए! कोई भी व्यक्ति आदमी हो कि औरत हो वो जलती हुई आग में से गुज़र के जिंदा तो नहीं बचेगा न? तो जब सीता की अग्नि परीक्षा की बात हो रही है तो निश्चितरूप से वो कोई साधरण भौतिक आग तो रही नहीं होगी क्योंकि जो साधरण आग होती है इसमें से किसी भी इंसान को निकालो वो जल ही जाएगा तो निश्चितरूप से वो अग्निपरीक्षा कुछ और थी। वो क्या थी ये हम जानते ही नहीं तो फ़िर जब हमें अपनी राम लीलाओं में दिखाना होता है या रामायण में दिखाना होता है टीवी पर तो उसमें हम ऐसे ही दिखा देते हैं कि एक आग जलाई गई और सीता जी उसमें से गुज़र रही हैं।अरे भाई! ऐसा नहीं हुआ था बात कुछ और है समझो! इसी तरीक़े से हम दिखा देते हैं कि जब सीता समाधि लेना चाहती थीं तो पृथ्वी फ़ट गयी और वो उसमें समा गयीं। किसी व्यक्ति के इच्छा करने पर पृथ्वी फ़ट सकती है क्या? ऐसा हो सकता है? निश्चितरूप से ये जो बात कही गयी है ये कुछ और बात है और ये बहुत गहरी बात है, बहुत सुंदर बात है लेकिन इस बात के असल मायने क्या हैं वो कोई जानता नहीं, वो कोई किसी को बताता नहीं तो फ़िर हम यही कहते रहते हैं कि राम ने सीता को अग्नि से गुज़ारा क्योंकि वो रावण के यहाँ रह आयी थीं। अरे! रावण कौन है? मन की किस स्थिति का, अहं की किस वृत्ति का प्रतीक है रावण ये समझो! फ़िर ये भी समझ जाओगे कि सीता कौन हैं? बात समझ में आ रही है? भारतीय संस्कृति पर भारतीयों को गौरव तब तक नहीं होगा जब तक वो अपनी संस्कृति के अर्थ को खोलने वाली कुंजी का प्रयोग करना सीख नहीं लेते और उस कुंजी का एक ही नाम है-वेदांत। क्योंकि बात बहुत सीधी है न?

'मुक्तिका उपनिषद' है उसमें राम ही कह रहे हैं कि एक उपनिषद को कोई पढ़ ले वो तर जाएगा। अच्छा! एक में काम नहीं होता तो दस या ग्यारह जो प्रमुख उपनिषद हैं उनको पढ़ लो। अच्छा उनसे भी काम नहीं होता तो लो मैं सूची दिए देता हूँ एक सौ आठ उपनिषदों की इनको पढ़ लो। लोग आते हैं, कैसा भी भारतीय हो उसे रामायण का तो पता होता ही है लेकिन उन्हीं श्रीराम का गुरु वशिष्ठ से संवाद है 'योगवाशिष्ठ' है वो नहीं पता होता। अरे भाई! अगर आपको योगवाशिष्ठ नहीं पता तो रामायण चाहे वो वाल्मीकि रामायण हो, चाहे रामचरितमानस हो आपके लिए अर्थहीन हैं। वो फ़िर आपके लिए बस आचरण को निर्धारित करने वाला एक ग्रंथ बन जाएगा और भारत के साथ यही हुआ है।

लोग कहते हैं 'आचरण' वैसा करो जैसा राम ने किया, सिया ने करा और लखन ने करा। अब आज के समय में वैसा आचरण करने में बड़ी दिक्कत है, बड़ी अड़चन है क्योंकि एक समय का आचरण दूसरे समय पर जैसे का तैसा आरोपित नहीं किया जा सकता। आचरण आरोपित नहीं किया जा सकता है लेकिन 'सत्य' कालातीत होता है। सत्य जो तब था सत्य वही आज भी है। हमें सत्य से तो कोई लेना देना ही नहीं रहा जबकि संस्कृति का उद्देश्य ही यही होता है कि लोगों को सत्य की तरफ़ ले जाए और होती किस लिए है संस्कृति?

संस्कृति का मतलब समझते हो क्या होता है? कुछ शिक्षा देना, संस्कारित कर देना। भई एक बच्चा पैदा होता है वो करीब-करीब वैसा ही होता है जैसे जानवर का बच्चा। उछलने-कूदने से उसे मतलब है, उसे दूध वगैरह दे दो, वो अपना मस्त इधर-उधर हाथ पाँव फेंकता रहता है। फ़िर तुम उसे संस्कारित करते हो, फ़िर तुम उसे संस्कृति में दीक्षित करते हो। संस्कारित क्यों करते हो? हमें संस्कृति क्यों चाहिए? ताकि वो जो बच्चा है वो इंसान बन सके जानवर न निकल जाए। तो सारी जो संस्कृति होती है उसका ये उद्देश्य होता है। वरना आपको कोई संस्कारित क्यों करें? मन पर आपके कोई छाप क्यों छोड़े? क्योंकि संस्कृति एक तरह से मन को प्रभावित करने की प्रक्रिया है। बात समझ रहे हैं?

ये क्यों ठीक है कि आपके मन को प्रभावित किया जाए? आपको कुछ बातें बताई जाए। आपको कुछ शिक्षा दी जाए इसकी जरूरत क्या है? सारी संस्कृति होती ही इसीलिए है ताकि वो जो बच्चा है वो बड़ा होकर के या जैसे-जैसे बड़ा होता जा रहा है, उस प्रक्रिया में वो भ्रम का शिकार न बन जाए, वो झूठ में न फंस जाए। दुनिया में बहुत सारे छलावे हैं ज्यों की प्रकृति ही मायावी हो और बच्चे को अगर आप सही शिक्षा, सही संस्कार नहीं दोगे तो वो दुनिया में बहुत ठोकरें खाएगा इसलिए होती है संस्कृति।

अब आप की संस्कृति अगर सत्य की ओर ले ही नहीं जा रही तो कौन सी संस्कृति है वो? और अगर आपकी संस्कृति आपको सत्य की ओर ले जा रही हो तो आपको निश्चित रूप से स्वयं ही उसमें बहुत गौरव रहेगा। फ़िर इस तरह का प्रश्न पूछने की जरूरत ही नहीं पड़ेगी कि भारतीयों को अपनी संस्कृति पर गौरव क्यों नहीं है? इसलिए नहीं है क्योंकि संस्कृति और सत्य के बीच का रिश्ता टूट गया है। हमारे पास बस आचारबद्ध संस्कृति है। हमें यह तो पता है कि हमारे कुछ आदर्श पुरुष थे, महापुरुष थे उन्होंने ऐसे-ऐसे काम करें तो हमें भी वैसे काम करने चाहिए। लेकिन ये बात तो बस आचरण की हुई, इस बात के आत्यंतिक मायने क्या हैं? इस बात के असली अर्थ क्या हैं? क्या श्रीराम ने अयोध्या बस इसलिए छोड़ी थी क्योंकि पिता की आज्ञा थी या बात दूर की है? बात गहरी है। आज तो लोग सवाल उठाते हैं कि पिता एक स्त्री के प्रभाव में था, कैकयी बड़ी सुंदर रानी थीं और वो जो स्त्री थी वो पुत्रमोह के प्रभाव में थी और एक दासी के प्रभाव में थी। तो दासी ने रानी को प्रभावित किया, रानी ने राजा को प्रभावित किया और राजा ने राम से बोला तुम चले जाओ तो राम चले क्यों गए? ये राम का निर्णय गलत नहीं था? पढ़े-लिखे बुद्धिजीवी आपत्ति उठाते हैं, सवाल करते हैं और संस्कृतिवादियों के पास इस सवालो के कोई तीक्ष्ण या अकाट्य उत्तर होते नही हैं। उत्तर वो दे लेते हैं लेकिन वो सब उत्तर फ़िर ऐसे ही होते हैं, काम चलाऊ। उन उत्तरों से प्रश्नकर्ता की जिज्ञासा शांत नहीं होती। बल्कि ऐसे उत्तर सुनकर के प्रश्नकर्ता को और विश्वास हो जाता है कि आपकी संस्कृति में कोई गहराई नहीं है। बात समझ में आ रही है?

आप एक नदी की पूजा करें, आप एक पशु विशेष की पूजा करें आपको पता तो हो आप कर क्या रहे हैं? हो सकता है कि आप जो कर रहे हैं वो बिल्कुल ठीक है लेकिन अगर आप नहीं जानते कि आप क्या कर रहे हैं तो ठीक से ठीक काम भी अर्थहीन हो जाता है।

कोई बहुत सुंदर मंत्र हो सकता है जिसमें आदिसत्य उभर के आता हो 'अहं ब्रह्मास्मि'। पर अगर आप सोते-सोते या बेहोशी में दोहरा रहे हैं- 'अहं ब्रह्मास्मि' तो बात कितनी भी ठीक हो स्थिति तो हास्यादपद ही है न? कहिए?

कोई बात कितनी भी ठीक हो लेकिन उस ठीक बात का या उस ठीक आचरण का अगर आपको उद्देश्य या औचित्य या अर्थ नहीं पता तो आप जो कुछ कर रहे हैं उसपर न तो आपको गहरा गौरव होगा न ही कोई दूसरा आपको सम्मान देगा या आपकी सुनेगा या आपसे सहमत होगा या आपसे प्रभावित होगा। यही इस वक्त भारतीयों की हालत है।

इतने त्योहार आते हैं पंचांग में, तीन सौ पैसठ दिनों में छोटे-मोटे सब त्योहार अगर तुम उठा लो तो दो सौ नहीं तो तीन सौ त्योहार होंगे। हर त्योहार मैं कह रहा हूँ, विशिष्ट है और हर त्यौहार की अपनी कुछ प्रथाएं हैं, कुछ कायदे हैं लेकिन न हमें उन प्रथाओं का मतलब पता है, न उन कायदों का मतलब पता है? हम उन त्योहारों को बिल्कुल वैसे ही मना रहे हैं जैसे हमारे पुरखे मनाते थे और बस इसलिए मना रहे हैं क्योंकि हमारे पुरखे उन त्योहारों को उस तरीके से मनाते थे।

कोई आपसे पूछे फ़लाने त्योहार पर तुम नदी में तिल क्यों बहाते हो? आप बता नहीं पाएँगे लेकिन आप करते यही हैं। एक त्योहार है जिसमें नदी में तिल बहाते हैं आप बहा आते हैं। अब कोई और देख रहा है जो आपके धर्म को नहीं मानता, जिसका आपकी संस्कृति से कोई अनुराग नहीं है या जो किसी और देश का है वो आपको देख रहा है तो वो कहेगा "ये कितने बेवकूफ़ लोग हैं भारतीय? ये पानी में तिल बहा रहे हैं।" काश की आप उसे समझा पाते कि पानी में तिल बहाने का अर्थ क्या है? पर आप नहीं जानते।

इसी तरीके से आप आरती करते हो। वो आरती चीज़ क्या है? क्यों कर रहे हो आप? एक प्रतिमा है आपके सामने, आप क्यों घूर्णन कर रहे हो उसके समक्ष अग्नि का? प्रतिमा के सामने अग्नि का घूर्णन करने का अर्थ क्या है? बताओ मुझे? और अगर आप अर्थ नहीं जानते तो ये करे क्यों जा रहे हो? इसलिए भारतीय संस्कृति रसातल में जा रही है क्योंकि हम ज़रा-सी मेहनत नहीं कर रहे हैं अपनी संस्कृति को समझने की। संस्कृति के नाम पर हमारे पास बस यही है कि जब दीवाली आएगी तो पटाखे जला लेंगे, मोमबत्तियाँ-दिये जला लेंगे और कुर्ता पहन कर खड़े हो जाएँगे। तो ये इंडियन कल्चर है और इसकी ऐसी खिल्ली उड़ती है दुनिया में कि पूछिए मत। नहीं मुझे बताओ न? कुर्ते-पजामे का श्रीराम के अयोध्या आगमन से सम्बंध क्या है? आप भी नहीं जानते, कुछ नहीं जानते!

अच्छे से समझ लेना इस बात को जिस भी काम को तुम बिना जाने करोगे, वो काम तुम बहुत दिनों तक कर नहीं पाओगे और किसी दूसरे को तो उस काम को लेकर के बिल्कुल भी समझा नहीं पाओगे, सहमत नहीं कर पाओगे।

बहुत पुराना है भारत। सिद्धान्त दिए गए, फ़िर उन सिद्धान्तों के साथ भारत खेला है। भारत ने 'सत्य' को सिर्फ़ कोई सैद्धान्तिक या किताबी बात नहीं रखा। भारत ने सत्य को बिल्कुल ज़मीन में और जीवन में उतारा है। तो होगा कोई उपनिषदों का गहरा से गहरा सूत्र, वो सूत्र इस तरीके से एक कहानी में अभिव्यक्त कर दिया गया कि लो भाई! किसी पेड़ के इर्द-गीर्द धागा बाँधना है। अब आप पेड़ के इर्द-गीर्द धागा तो बाँध रहे हो, पीपल है, वट है। आप जानते नहीं हो कि आप जो ये धागा बाँध रहे हो वो क्यों बाँध रहे हो? दो सूत्र अगर 'छांदोपज्ञ उपनिषद' के पढ़ लिए होते तो समझ जाते कि ये धागा किस चीज़ की ओर संकेत कर रहा है और वृक्ष का जो तना है वो किधर को इशारा कर रहा है? उसके बाद बड़े गौरव के साथ और बड़ी निश्चिंतता के साथ अपनी संस्कृति का पालन कर पाते।

अब एक और बड़ी विचित्र और विद्रूप स्थिति है जो पैदा हो जाती है चूंकि आप असली मतलब नहीं जानते किसी प्रतीक का इसलिए आप यूं हीं कोई काल्पनिक नकली मतलब निकाल कर उसे प्रचारित करने लग जाते हो। पुष्पक विमान क्या है? ये हम समझते नहीं। लेकिन जब लोग आकर के सवाल उठाते हैं कि भाई उस समय पर पुष्पक विमान कैसे चलता था? और अगर इतनी ही तकनीक थी कि आपका पुष्पक ज़मीन से उठकर आसमानों में चलने लग जाता था तो लड़ाईयाँ फ़िर गदा से, भाले से और तीर से क्यों हो रही थीं? ये दोनों बातें मेल नहीं खा रही कि एक ओर तो आप कह रहे हैं कि आपकी तकनीक इतनी उन्नत थी कि आप बड़े-बड़े वायुयान उड़ा रहे थे और दूसरी ओर लड़ाई आप कर रहे हो गदा से और भाले से। ये बात तो कुछ जम नहीं रही है कि तलवार चला रहे हो तो आप कहते हो "नहीं! उस जमाने में भी हमारे पास इंटरनेट टेक्नोलॉजी थी, वो थी" और जैसे ही आप ये बात कहते हो लोग और ज़ोर-ज़ोर से पेट पकड़ के हँसने लग जाते हैं। वो जो लोग हँस रहे हैं उनका तो जो होगा सो होगा लेकिन मैं फ़िर कह रहा हूँ उनको भारतीय संस्कृति के ऊपर हँसने का अधिकार भारतीयों ने ही दे दिया है। ये कितनी दुर्भाग्यपूर्ण और लज्जाजनक बात है।

हनुमान संजीवनी लाने गए हैं वो पूरा पर्वत लेकर आ रहे हैं आप जानते ही नहीं हो कि इस बात का अर्थ क्या है कि चाहे हनुमान ने पूरा पर्वत उठा रखा है या श्रीकृष्ण ने अपनी छोटी उँगली पर गोवर्धन उठा रखा है। ये सब बातें सांकेतिक हैं भाई! अब आज के विज्ञान पढ़े-लिखे लोग वो पूछ लेते हैं वो कहते हैं-"एक बात बताईये अगर उँगली पर ही गोवर्धन पूरा उठा लिया था तो बहुत सारे और काम है जो करे जा सकते थे।"

वो तो सीधी सीधी गणना करके बता देते हैं। वो कहते हैं "देखिये अगर उंगली में इतनी ताकत है की पर्वत उठाया, तो कलाई में कितनी होगी और कलाई में इतनी है तो फ़िर पूरी बांह-बाजू में कितनी होगी और जब इतनी ही ताकत थी तो एक मौके पर फ़िर 'रणछोड़ दास' क्यों बनना पड़ा? जब इतनी ही ताकत थी तो इतनी बड़ी महाभारत क्यों करवाई? इतने लोग क्यों मरवाये? खुद ही फूंक मारकर दुर्योधन को उड़ा देते और इस तरीके के बहुत सारे कुतर्क दिए जाते हैं। बात समझ में आ रही है? उन कुतर्कों की कोई सीमा नहीं है और वो सारे कुतर्क लोग इसीलिए दे पा रहे हैं क्योंकि हम समझते ही नहीं हैं की इंद्र द्वारा इतनी वर्षा कर देने का वास्तविक अर्थ क्या है? कृष्ण की छोटी उंगली पर भी पर्वत स्थिर हो गया इस संकेत का वास्तविक अर्थ क्या है? तो हम जाते हैं और बिल्कुल अज्ञानियों की तरह गोवर्धन के कुछ चक्कर लगाकर आ जाते हैं।

ये चलेगा! ये तब तक चलेगा जब तक लोग बहुत सरल मन के हैं। पर देखिए अब समय और संसार उतना सरल रहा नहीं। लोग तर्क करते हैं, लोग जवाब मांगते हैं और जवाब नहीं है आपके पास तो आप भारतीय संस्कृति को बचा नहीं पाएंगे। जवाब मैं आपको कह रहा हूँ मिलेंगे एक ही जगह- वेदांत में। वेदांत से शुरुआत करिए फ़िर उसके बाद वो सब कहानियाँ जो बचपन से आप सुनते आ रहे हैं एक अलग ही रूप में खिल उठेंगी, खुल उठेंगी आपके सामने। आप कहेंगे इस बात का ये अर्थ था? अरे भाई! मैं तो इसे एक साधारण घटना या कहानी समझता था।

और अचानक आप अचंभित रह जाएँगे और गौरव से भर जाएँगे कि कितने ज़बरदस्त प्रतिभावान, मेधावान और प्रज्ञावान रहे होंगे वो लोग जिन्होंने गूढ़ से गूढ़ सिद्धांतों को इतनी ज़्यादा सुलभ और सरस कहानियों में अभिव्यक्त कर दिया। फ़िर सब अच्छा लगेगा।

लेकिन अगर वेदांत पढ़े बिना आप बस पुराणों से ताल्लुक रख रहे हैं तो आपको कुछ समझ में आने का नहीं है। आप परंपरावादी हो जाएँगे और अंधविश्वासी भी हो सकते हैं। मूर्ति क्या है? मंदिर का जो पूरा शिल्प होता है उसका विज्ञान क्या है? ये आपको पता होना चाहिए। वो जो मंदिर में बहुत सारी घंटियाँ और घंटे होते हैं, उनके आकार के पीछे भौतिकी के कौन से सिद्धांत काम कर रहे हैं आपको पता होना चाहिए।

और असली सिद्धांत एक ही है वो असली सिद्धांत सिर्फ़ और सिर्फ़ वेदांत में है। जब असली सिद्धांत आपको नहीं पता होगा तो आप बहुत सारे नकली सिद्धांतों के शरण में चले जाते हैं और आजकल ऐसे लेखकों की और गुरुओं की बाढ़ आई हुई है जो पुरानी प्रथाओं के कुछ भी झूठे-मूठे अर्थ करके आपको ऐसा ढाँढस बंधा देते हैं कि "देखो! आपकी प्रथा अर्थहीन नहीं है, इसका कुछ तो अर्थ है।" वो आमतौर पे कोई ऐसा अर्थ आपको बताते हैं जो सुनने में वैज्ञानिक-सा लगता है और आपको लगता है देखो हमारी जो प्रथा है न वो व्यर्थ नहीं है, वह अंधविश्वासी नहीं है उसका कोई वैज्ञानिक अर्थ है।

अरे भाई! अधिकांश जो आपकी प्रथाएँ हैं उनके अर्थ वैज्ञानिक कम हैं आध्यात्मिक ज़्यादा हैं। आध्यात्मिक सूत्रों के प्रयोग से आपको अपनी संस्कृति का, अपनी कहानियों का और अपनी परंपराओं का अर्थ पता चलेगा। वैज्ञानिक अर्थ मत लगाने लग जाना। समझ में आ रही है बात? क्योंकि 'विज्ञान' भारत ने वैज्ञानिकों के हाथों छोड़ दिया था कि ले जाओ। विज्ञान क्या करता है? विज्ञान तो साहब भौतिक पदार्थ का अनुसंधान करता है। तो भौतिक पदार्थ का अनुसंधान भौतिकवादियों को करने दो। उन्हें पता करने दो कि पानी में कितने अणु-परमाणु होते हैं? उन्हें पता करने दो कि पृथ्वी अपनी कक्षा में कैसे चक्कर काटती है? कितने चक्कर काटती है? ग्रह-नक्षत्रों का उनको पता करने दो ये सब बातें अध्यात्म की नहीं हैं। समझ में आ रही है बात?

लेकिन आजकल यह नया रिवाज़ शुरू हुआ है कि आप जिन भी प्रथाओं का अपनी संस्कृति में पारंपरिक रूप से पालन करते रहे हैं उन प्रथाओं के कुछ झूठे-मूठे वैज्ञानिक आधार खोजने की कोशिश की जाती है और वो सब वैज्ञानिक आधार इतने व्यर्थ के होते हैं कि वैज्ञानिक पेट पकड़कर हँसने लग जाते हैं। फ़िर वो कहते हैं ये सब 'स्यूडोसाइंटिफिक' बातें की जा रही हैं, ये कर क्या रहे हो तुम? और पढ़े-लिखे और वैज्ञानिक दृष्टि वाले लोगों की और बुद्धिजीवियों की दृष्टि में और ज़्यादा स्थापित हो जाता है कि आपकी प्रथाएँ निर्मूल हैं, अर्थहीन हैं। बात समझ में आ रही है?

भाई एक चीज़ ये है कि आप कुछ बोल रहे थे जिसका आपको अर्थ नहीं पता था। ठीक है? मान लीजिए फ्रेंच भाषा में आप कुछ बोल रहे हैं जिसका आपको अर्थ नहीं पता है, तो एक तो गलती ये हुई कि आप जो बोल रहे हो आपको उसका अर्थ नहीं पता है। उसके बाद कोई आपसे पूछे कि ये जो तुम बोल रहे हो, ये जो तुम परंपरागत तरीके से फ्रेंच में बोलते चले आ रहे हो या करते चले आ रहे हो इसका अर्थ क्या है? तो आप अपना झूठा स्वाभिमान और झूठी शान और झूठा सांस्कृतिक गौरव दिखाने के लिए कोई झूठा-मूठा अर्थ बता दे उस मंत्र का। आप जो बोल रहे हो उसका पहली बात तो आपको अर्थ नहीं पता और दूसरी बात जब किसी ने पूछा कि इसका अर्थ बताओ! तो आपने अपना छद्म गौरव बनाए रखने के लिए उस मंत्र का यूँ हीं कोई मनगढ़ंत अर्थ बता दिया। अब जो सुन रहा है उसको तो दोहरा यकीन हो जाएगा कि आप बहुत ही उथले आदमी हो और आपका यह जो मंत्र वगैरह भी है ये किसी काम का नहीं है। इससे तो कहीं अच्छा ये हो कि आप तो मान लो कि आप सिर्फ़ मंत्र दोहरा रहे हो, आप सिर्फ़ कोई आचरण दोहरा रहे हो और आपको उसका संकेत और उसका गहरा अर्थ नहीं पता।

लेकिन हम इतनी ईमानदारी भी नहीं दिखाते। हम झूठे वैज्ञानिक कारण दिखाने लग जाते हैं और झूठे वैज्ञानिक कारण भी हम अक्सर किन को बता रहे होते हैं? वैज्ञानिकों को हीं और वैज्ञानिक आमतौर पर उग्र और प्रतिक्रियावादी लोग नहीं होते। वो आपकी सारी बातें सुन लेंगे, तत्काल कोई प्रतिक्रिया भी नहीं देंगे। वो बाद में पीछे जाएँगे और एक लेख लिख देंगे उस लेख में बता देंगे कि आप झूठे हो और बात खत्म हो गई!

दो तरह के लोगों से बचना- पहले वो जो प्रथाओं और परंपराओं का पालन करते जा रहे हैं और चिढ़ जाते हैं और क्रोधित और उग्र हो जाते हैं अगर उनसे कोई पूछे कि ये प्रथा क्यों है? किस लिए है? इस प्रथा का अर्थ बताओ? ऐसे लोगों से बचना! ये वास्तव में अहंकारी लोग हैं अगर इन्हें वाकई संस्कृति से और विरासत से प्यार होता तो ये विरासत का वास्तविक अर्थ जानने की कोशिश करते न? पर इन्हें विरासत से नहीं प्यार है इन्हें प्यार बस इस बात से है कि मैं जो कर रहा हूँ ठीक ही है। उस पर सवाल क्यों उठा रहे हो? इन्हें चिढ़ इस बात से लगती है कि मैं जो कुछ भी कर रहा था तुमने पूछा क्यों कि मैं ये क्यों कर रहा हूँ? ये वास्तव में व्यक्तिगत अहंकार को कायम रखने वाले लोग हैं। इन्हें भारतीय संस्कृति या भारतीय अध्यात्म से कोई ज़्यादा प्रयोजन नहीं है। तो एक तो इस तरह के लोगों से बचना!

और दूसरा उस तरह के लोगों से बचना है जो दावा करने निकल पड़ते हैं कि जितनी आजकल प्रथाओं का पालन हो रहा है भारत में वो सब की सब बड़ी वैज्ञानिक प्रथाएँ हैं और उनके कोई वैज्ञानिक आधार हैं।

और उनसे पूछो वैज्ञानिक आधार बताइए तो कुछ ऐसी निपट काल्पनिक बातें करते हैं जिन पर एक दसवीं कक्षा का विज्ञान का विद्यार्थी भी हँसने लग जाएगा। और वहाँ दिक्कत ये है कि हममें से ज़्यादातर लोगों को न अध्यात्म का पता है, न वेदांत का पता है ना हीं विज्ञान का पता है। तो जब गुरु लोग हमको विज्ञान के नाम पर कोई भी चटनी चटाते हैं तो हम चैट भी लेते हैं। हम पूछते भी नहीं हैं कि आप जो बात बोल रहे हो वो तो विज्ञान के सूत्र तुरंत खारिज कर देंगे। कोई 8वीं, 10वीं, 12वीं का भी विज्ञान का विद्यार्थी बैठा हो तो हँसने लग जाएगा कि ये बाबा कैसी बात करते हैं? और वो भी विज्ञान के नाम पर ऐसी बात कर रहे हैं बाबा। समझ रहे हो?

रामायण-महाभारत हों, चाहे प्रथाएँ-परंपराएँ हों उनका वैज्ञानिक अर्थ जरूरी नहीं है कि हो बल्कि कम संभावना है कि होगा क्योंकि विज्ञान का संबंध भूलो नहीं किससे है? भौतिक जगत से और पदार्थ से। जबकि भारतीय संस्कृति लगातार रही है 'आंतरिक जगत' के बारे में। भारतीय संस्कृति रही है अशांत मन को शांत करने के बारे में। बंधे हुए मन को मुक्ति तक ले जाने के बारे में। तो वैज्ञानिक आधार क्या होगा? वैज्ञानिक आधार कुछ नहीं।

किसी ने पूछा, अच्छा ये भारतीय संस्कृति में साड़ी क्यों चलती है? और गुरु जी समझाने लग गए देखो! साड़ी इतने फिट की होती है, देखो इतने फिट की हुई तो उसमें इंच कितने हुए और फ़िर ये कितना हुआ, वो कितना हुआ और ये सब कुछ कर-कुरा करके वो एक हजार आठ और एक सौ आठ की संख्या पर आ गए। बोले देखा! यही तो बात है एक सौ आठ और एक हजार आठ की संख्या शुभ होती है न? इसलिए भारत में स्त्रियों को कहा गया है कि साड़ी पहनो। हँसेंगे सब हँसेंगे! क्यों बदनाम कर रहे हो भारत को?

और कोई भी चीज़ पूछो, अंधविश्वास भी बहुत चल रहे हैं संस्कृति के नाम पे। उन अंधविश्वासों को भी जायज़ ठहराने के लिए कोई झूठा वैज्ञानिक तर्क दे दिया जाता है अरे भाई! सीधे बोल दो ना कि ये बात तो अंधविश्वास की है, इसका हमारी संस्कृति से कोई लेना-देना नहीं, इसको हम अभी छोड़ सकते हैं। संस्कृति के नाम पर कुछ भी थोड़े ही करते रहोगे? भूलना नहीं की संस्कृति किस लिए होती है? हमने कहा था न बच्चे को संस्कारित क्यों करते हैं? ताकि वो 'सत्य' की ओर जा सके। अगर संस्कृति में कहीं से कोई कूड़ा-कचड़ा प्रवेश कर गया है तो हमें कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए उस कूड़े कचड़े, विजातीय तत्व को बाहर निकाल देने में। संस्कृति को भी समय-समय पर सफ़ाई की और शुद्धता की जरूरत पड़ती है। समझ में आ रही है बात?

और जिन लोगों को भारतीय संस्कृति की चिंता हो, उन्हें वेदांत के पास निश्चितरूप से जाना ही पड़ेगा और अगर तुम नहीं जाओगे वेदांत के पास तो जिसको तुम भारतीय संस्कृति कहते हो इसका भविष्य कोई बहुत उजला नहीं दिख रहा है। नई पीढ़ी बस नाम की भारतीय या सनातनी रह गई है। नई पीढ़ी करीब-करीब पूरे तरीके से छोड़ चुकी है धर्म को, देश को, अध्यात्म को और संस्कृति को। और वजह उसकी यही है- जो ज़बरदस्त ख़जाना है हमारे पास, जो अमूल्य और अनूठी निधि है हमारे पास, उससे हमने अपने आपको भी वंचित रखा है और अपनी युवा पीढ़ी को भी वंचित रखा है।

भारत की शिक्षा व्यवस्था में वेदांत के लिए कोई स्थान नहीं। ऐसी संस्थाएँ भी बहुत कम है जहाँ ईमानदारी से सच्ची शिक्षा दी जाती हो वेदांत की और ऐसी संस्थाएँ अगर हैं भी तो उनके पास जाने वाले लोग कम हैं क्योंकि वो संस्थाएँ या तो ठीक से अपने आपको प्रबंधित नहीं कर पा रही या ठीक से अपना प्रचार नहीं कर पा रही। समझ में आ रही है बात?

सिर्फ़ शोर मचाने से नहीं होगा कि संस्कृति! स्वधर्म! स्वदेशी! नारे लगाने से नहीं होगा। इन बातों का संबंध हृदय से होता है। जब आपके हृदय को कोई चीज़ भा जाती है तब आपको नारे नहीं लगाने पड़ते उस चीज़ के पक्ष में। और भूलो नहीं कि 'सच' सबको प्यारा होता है। भारतीय संस्कृति की अनूठी बात ये है कि- ये हमें 'कालातीत सच' तक ले जाती है, छोटे-मोटे सच तक भी नहीं, ऐसे सच तक ले जाती है जो समय से भी अनछुआ, अछूता रहता है। ऐसा सच जिसका कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता, न कोई दुनिया वाला, न बीतती हुई शताब्दियाँ। ऐसा 'सत्य' जो सदा अपरिवर्तनशील और अक्षुण्ण रहना है ये है आपकी संस्कृति की खूबी। और ऐसी संस्कृति से अगर आपका वास्तविक परिचय करा दिया जाए, किसी युवा आदमी का, तो उसका मन तो प्रेम में पड़ ही जाएगा न? और एक बार मन में वो प्रेम आ गया फ़िर आपको नहीं कहना पड़ेगा कि भारतीय संस्कृति ख़तरे में है।

उसके बाद तो भारतीय युवा की तस्वीर ही बदल जाएगी। उसके बाद मुकेश, 'मुक्स' नहीं होगा और सत्यम 'सैटि' नहीं होगा। फ़िर सत्य, शब्द आपके लिए बड़ा सम्माननीय ही नहीं बड़ा प्यारा हो जाएगा। आप सत्यम को 'सैटि' कर ही नहीं पाएँगे। चोट लगेगी यहाँ पर(अपने हृदय की ओर इशारा करते हुए)। कहोगे "यार! जिस चीज़ से इतना प्यार है उसको मैं बिगाड़ कैसे सकता हूँ? भ्रष्ट कैसे कर सकता हूँ?" समझ रहे हो बात को? अब उसके बाद ये नहीं होगा कि चलते हैं, यूट्यूब वगैरह पर वीडियो हैं कि एक देवी जी हैं उनसे पूछा जा रहा है कि कौरवों के बाप का नाम क्या था? वह बोल रही हैं- कंस। बहुत सारे इस तरह के हैं देखना...किसी ने पूछा अभिमन्यु, अर्जुन का क्या लगता था? बोला भाई! कुंती और कर्ण का क्या रिश्ता था? कुंती, कर्ण की पत्नी थी। ये सब है।

'महाभारत' वास्तव में क्या है? अगर आप समझ गए उसके बाद यह सब पात्र आपके खून में में रहेंगे, आपकी नस-नस में प्रवाहित होंगे। उसके बाद आप अपनी रोज़मर्रा की बोलचाल में इनका इस्तेमाल करेंगे। ये पात्र और इनकी चरित्र गाथाएँ आपके मुहावरों में सम्मिलित हो जाएँगे। पर पहले आप समझ गए तो कि 'कर्ण' मन की किस दिशा का प्रतिनिधि है? पहले आप समझिए तो कि इस बात का अर्थ क्या है कि कुंती ने सूर्य देव का आह्वाहन किया और वो आ गए और उन्हें गर्भ सौंप कर चले गए। इस बात का अर्थ क्या है कि दुर्वासा वरदान दे गए थे कि कन्या तूने मेरी बड़ी सेवा की अब तू जिस भी देव को बुलाना चाहेगी वो तेरे पास आ जाएगा। ये सब बातें क्या हैं? इन बातों को बस यूं ही सर झुका कर ऐसा न मान लीजिए कि उस जमाने में ऐसा होता रहा होगा। नहीं ऐसा कुछ नहीं है। इन सब बातों में बड़े सुंदर और बड़े उपयोगी 'इशारे' छुपे हुए हैं। वो 'इशारे' आज के जीवन के लिए भी बड़े लाभप्रद हैं। वास्तव में अगर आपको उन इशारों का अर्थ नहीं पता जैसा कि मैं बार-बार कह रहा हूँ उन इशारों का अर्थ बताने वाली कुंजी नहीं है अगर आपके पास तो आपका आज का जीवन भी बड़ा दरिद्र रहेगा क्योंकि आपको फ़िर कोई ऐसी बात फ़िर पता नहीं है जिस बात से जीवन में सुंदरता आती है और वैभव आता है। बात समझ रहे हैं आप?

वेदांत की अनुपस्थिति में सभ्यता-संस्कृति सब सिर्फ़ कोरी कहानियाँ बनकर रह जाते हैं और अगर वेदांत के सूत्र ज्ञात हैं आपको तो ये जितनी कहानियाँ हैं ये अनुप्राणित हो जाती हैं। एक-एक कहानी जीवंत हो उठती है, अब वो कहानी नहीं है, अब वो आपकी कहानी है क्योंकि अब बात आपके मन के भीतर की किसी वृत्ति की, किसी घटना की हो रही है।

तो भारतीय संस्कृति को अगर अनुप्राणित करना है, तो तरीका सिर्फ़ एक है- वेदांत। हर वो व्यक्ति जिसे भारत से प्रेम हो, हर वो व्यक्ति जो भारतीय संस्कृति की दुर्दशा देखकर दुःखी हो, उसे 'वेदांत' की ओर जाना ही होगा। कोई वजह होगी न कि भारतीय संस्कृति को वैदिक संस्कृति कहा गया? कोई वजह तो होगी और भूलिएगा नहीं कि वेदांत में ही जो दर्शन है, उसी दर्शन से समस्त भारतीय अध्यात्म, धर्म और संस्कृति प्रस्फुटित हुए हैं।

वास्तव में भारत से धर्म की जितनी भी शाखाएँ फूटी हैं आप उनमें आप उनमें से अगर किसी को भी गहराई से समझना चाहते हैं तो आपको वेदांत पता होना चाहिए। यहाँ तक की आपको अगर जैन मत समझना है? बौद्ध मत समझना है? सिख मत समझना है? तो भी वेदांत आपकी बहुत सहायता करेगा। जिसने वेदांत पढ़ा हुआ है वो कहीं ज़्यादा आसानी से समझ लेगा कि महावीर क्या कह रहे हैं? या बुद्ध क्या कह रहे हैं?

मैं नहीं कह रहा हूँ कि वेदांत के बिना नहीं समझा जा सकता बुद्ध या महावीर को। लेकिन अगर वेदांत आपको पता है तो सब संतो, ऋषियों, महात्माओं और मुक्त पुरुषों की बातें आपके लिए बहुत ज़्यादा सुगम- सुसाध्य हो जाती हैं। एकदम आसानी से समझ में आ जाएँगी कि आप कहेंगे अच्छा! यही तो बात है! समझ में आ गई! यदि आप वेदांत में दीक्षित हैं तो आप और ज़्यादा गहराई से समझ भी पाएँगे, अभिभूत हो पाएँगे, प्रशंसा कर पाएँगे सब ज्ञानीजनों की वाणी का।

और अगर 'वेदांत' नहीं पता है तो फ़िर संस्कृति के नाम पर यही सब करते रहो कि फलाने दिन कहीं जा के नहा आना है, इतने बजे सुबह-सुबह उठ जाना है, ब्रह्म को जाने बिना ब्रह्ममुहूर्त की बात करते रहो संस्कृति के नाम पर और इस तरह की बातें जब तुम करते हो तो बड़ी फूहड़ लगती हैं। 'ब्रह्म' का पता नहीं ब्रह्ममुहूर्त की बात कर रहे हैं, 'ब्रह्म' का पता नहीं ब्रह्मचर्य की बात कर रहे हैं और कह रहे हैं ये तो भारतीय संस्कृति है न ब्रम्हचर्य? क्या है ब्रह्मचर्य? ब्रह्म जानते हो?

इसी तरीके से भारतीय संस्कृति पर जितने लांछन भी लगाए जाते हैं उनको भी तुम समझ पाओगे अगर तुम्हें वेदांत पता है तो। उदाहरण के लिए जो दो सबसे बड़े अभियोग भारत पर हैं कि भारतीय संस्कृति 'स्त्रीविरोधी' और 'जातिवादी' रही है। वो बात वास्तव में क्या है? ये तुम्हें कैसे पता चलेगा अगर तुम उस संस्कृति के आधार और केंद्र को ही नहीं जानते। एक बात बताओ मुझे जो संस्कृति कहती है की "देह ही मिथ्या है और माया है और मुक्ति का अर्थ है देह के अपने तादात्म्य से आज़ाद हो जाना।" जो संस्कृति कहती है कि 'देहभाव' ही मूल बंधन है, जो संस्कृति देह को ज़रा भी मूल्य नहीं देती। वो संस्कृति देह माने लिंग के आधार पर कैसे स्त्री और पुरुष में भेदभाव कर लेगी? कहो? जो संस्कृति इस आधारभूत तथ्य पर अवलंबित है की 'आत्मा' न स्त्री है न पुरुष है और आत्मा ही सत्य है मात्र! सिर्फ़ आत्मा ही सत्य है बाकी सब तो मिथ्या ही है सत्य के समक्ष। और आत्मा का कोई लिंग होता नहीं। वो संस्कृति कैसे लिंग पर आधारित भेदभाव कर लेगी या शोषण कर लेगी? निश्चितरूप से वो बात वैदिक नहीं है। निश्चितरूप से वो बात वेदांत से नहीं आ रही है।

तो अगर किसी तरीके से भारतीय संस्कृति में इस तरह का भ्रष्टाचार और प्रदूषण आया भी कि जातिवाद बढ़ गया या स्त्रियों का शोषण बढ़ गया तो वो बात भारतीय संस्कृति के मूल में नहीं है, उद्गम में नहीं है, स्रोत में नहीं है। वो बात भारतीय संस्कृति में कहीं बाहर से प्रवेश पा गई। वो कोई विजातीय तत्व है जो किन्ही संयोगिक कारणों से भारत की संस्कृति में प्रविष्ट हो गया। फ़िर आप आसानी से कह पाओगे कि नहीं साहब! हम न स्त्रीविरोधी लोग हैं न जातिवादी लोग हैं। बहुत पुरानी संस्कृति है हमारी, उसके प्रवाह में बीच में कहीं इस तरह का दूषित जल प्रविष्ट हुआ है। जैसे गंगा चली हों हिमालय से और बिल्कुल अभी स्वच्छ ही हैं, ऋषिकेश बिता, हरिद्वार बिता, पर पाओ कि कानपुर आते-आते तमाम तरह की गंदगियाँ, मल, रसायन प्रवाह में प्रवेश पा गए हैं। इसका मतलब यह थोड़े ही है कि गंगा का स्रोत, उद्गम ही दूषित है। इसका मतलब ये है कि इतिहास की धारा में बीच में, कहीं बाहर के कुछ तत्व, बाहर के कुछ प्रभाव आकर के, गंगा को मलिन कर गए हैं भारत की। और हमें उन मलिनताओं को अपनी संस्कृति का अंग मानने का क्या शौक़ चढ़ा है भाई? गंगा में, अगर कोई प्रदूषक तत्व प्रवेश कर गया है तो उसको तुम हटाओगे या उसको गंगाजल मानकर पूजोगे?

पर ये भी अजीब प्रथा चल पड़ी है कि तुम कहते हो गंगा जल में तो कोई भी जल मिल जाए तो वो गंगा ही जल हो जाता है। कहते हैं न? कि गंगाजल में तो अगर नाले का पानी भी मिल जाए तो वो भी गंगाजल हो जाता है। अरे! ये बात तब तक ठीक है जब तक नाले का पानी थोड़ा बहुत है। उस प्रदूषण की सफाई गंगा नदी स्वयं ही कर लेती है। थोड़ा बहुत कचड़ा है तो मछलियाँ हीं उसको जज़्ब कर जाती हैं। लेकिन अगर प्रदूषक तत्वों की विशाल और मोटी और निरंतर धाराएँ आकर बार-बार, लगातार गंगा में मिलती जा रही हैं तब तुम थोड़े ही कहोगे कि तुम्हारी संस्कृति में ये जितने बाहरी और विजातीय तत्व प्रवेश कर गए हैं इन्हें भी गंगा ही मान के इनकी पूजा करनी है। इनकी पूजा नहीं करनी है इनकी शुद्धि करनी है।

भारतीय संस्कृति में महिलाओं का क्या स्थान है? ये जानना है तो ऋषियों के पास जाओ न देखोना उन्होंने क्या कहा है? ऋषियों ने थोड़े ही कहा है कि - स्त्री पीछे है पुरुष आगे है और स्त्री को घूंघट और पर्दा करना चाहिए और स्त्री को घर से बाहर नहीं निकलना चाहिए और स्त्री का स्थान पुरुष के चरणों में है।बताओ मुझे कौन से उपनिषद में ये बात लिखी है?

इसी तरीके से हम कहते हैं कि मनुस्मृति इत्यादि में 'जाति' को लेकर के बड़ी बेहूदी बातें हैं। अरे! मनुस्मृति भारतीय धर्म का कोई केंद्रीय ग्रंथ हो गया क्या? भारतीय धर्म वैदिक धर्म कहलाता है या मनु का धर्म कहलाता है? और वेद सिर्फ़ वेद हैं, वेदों का कोई विकल्प नहीं होता। स्मृतियाँ तो बहुत सारी हैं। मनुस्मृति और भी स्मृतियाँ हैं। वेद अकाल हैं, समयातीत हैं, सदा के लिए है।

स्मृतियाँ तो किसी एक समय पर सामाजिक व्यवस्था का निरूपण करने के लिए लिखी गई थीं। तो स्मृतियों को आधार बनाकर के अपनी संस्कृति को पिछड़ा हुआ या दूषित मान लेना बहुत मूर्खता की बात है। उपनिषदों के पास जाओगे, अभी कुछ दिनों पहले मैं 'वज्रसूची उपनिषद' पर बोल रहा था वो तुमको बताएँगे कि 'जाति' का वास्तविक अर्थ क्या है? जो लोग मनुस्मृति की बात करते हैं वो एक बार 'वज्रसूची उपनिषद ' पढ़ लें और उपनिषद, धर्म के केंद्रीय प्रतीक हैं। मनुस्मृति नहीं प्रतीक है। एक बार आप ने उपनिषदों को पढ़ लिया, उसके बाद आपकी अपने धर्म में और अपनी संस्कृति में आस्था जगेगी और गौरव उठेगा। उसके बाद ये जितने आते हैं वह वोग और तथाकथित लिबरल भी और वामपंथी भी और बुद्धिजीवी भी जिनका जीवनयापन ही इस अभियोग पर होता है कि भारत पिछड़ा हुआ है, भारत का विचार पिछड़ा हुआ है, भारत की संस्कृति पिछड़ी हुई है, भारत का धर्म व्यर्थ है इन लोगों को आप करारा जवाब दे पाएँगे और हो सकता है आपका मन भी आपका मन भी न करें इनको बहुत जवाब वगैराह देने का। मूर्खों के मुँह कौन लगना चाहता है?

लेकिन फ़िर आपके मन में एक अटूट और अटल और अकम्प विश्वास रहेगा अपने प्रति भी, अपने अतीत के प्रति भी और वैदिक धर्म की सच्चाई के प्रति भी। फ़िर कोई कुछ बोलता रहे आप कहेंगे ये मूर्ख है, अज्ञानी, नादान इन्हें कुछ पता नहीं है इसीलिए ये व्यर्थ की बातें करते रहते हैं। आज तो स्थिति उल्टी है जो लोग भारतीय संस्कृति पर इल्ज़ाम और अभियोग लगाते हैं वो आत्मविश्वास से भरे हुए हैं और आम भारतीय अपनी ही संस्कृति को लेकर शंकित है, डरा हुआ है और अपनी संस्कृति को वो ठीक से अपनी अगली पीढ़ी को सौंप भी नहीं पा रहा। ये स्थिति सिर्फ़ एक तरीके से बदल सकती है-चलो उपनिषदों की ओर! आ रही है बात समझ में?

अति संक्षिप्त ग्रंथ हैं उपनिषद और भारतीय दर्शन का मुकुट हैं, शीर्ष हैं, ताज हैं और दुनिया भर में जिन भी लोगों ने विचार की गहराइयों को छुआ है और दर्शन के समुद्र में गोते लगाए हैं उन्होंने सबने उपनिषदों की न सिर्फ़ प्रशंसा की है बल्कि उनको पूजा है। मैं भारत भर की बात नहीं कर रहा मैं अखिल विश्व की बात कर रहा हूँ। अगर कोई है वास्तविक विचारक, चिंतक दुनिया में और वो कहे उसे उपनिषदों का पता नहीं तो फ़िर न उसके पास विचारणा है न चिंतन।

आपकी संस्था (प्रशांत अद्वैत फाउंडेशन) अपनी ओर से पूरी कोशिश कर रही है कि 'वेदांत' को जन-जन तक पहुँचाया जाए। उसी से अध्यात्म है और फ़िर उसी से संस्कृति है और फ़िर उसी से भारत का भविष्य भी है। तो जितना प्रयास हम कर सकते हैं कर रहे हैं अगर तुम वाकई भारतीय संस्कृति को लेकर चिंतित हो तो आओ! साथ जुड़ों, सहायता करो, बड़ा विशाल अभियान है सबकी सहभागिता की ज़रूरत है।

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