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राधा-कृष्ण में भी तो प्रेम था, तो आप हमारे प्रेम को सम्मान क्यों नहीं देते?
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
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प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, आप प्रेम और प्रेमियों के बारे में इतने कठोर क्यों हैं? जब कृष्ण जी ने राधा जी से, राम जी ने सीता जी से प्यार किया तो आप हमें क्यों रोक रहे हो? आपके वीडियो देखकर तो ऐसा लगता है जैसे आपके पास दिल ही न हो।

आचार्य प्रशांत: जो बात तुमने यहाँ लिखी है उस बात का पूरा आशय समझाने के लिए ही मैं वो कहता हूँ जो कहता हूँ। तुमने लिखा न कि कृष्ण ने राधा से, राम ने सीता से प्रेम किया था?

यही मैं समझा रहा हूँ कि वास्तविक प्रेम करने के लिए कृष्ण सी और राम सी, राधा सी और सीता सी ऊँचाइयाँ चाहिए। वो इतने ऊँचे थे तभी उनका प्रेम सदा के लिए अमर हो गया। हर किसी के प्रेम में वो ऊँचाई, वो गहराई होती नहीं है कि उसका प्रेम किसी मूल्य का, किसी स्मरण का समझा जाए।

समझो इस बात को कि तुम जैसे हो, तुम्हारे प्रेम की गुणवत्ता भी बिलकुल वैसी ही होती है।

जैसे तुम, वैसा तुम्हारा प्रेम।

तो कृष्ण का प्रेम बिलकुल वैसा ही था जैसे कृष्ण थे। कृष्ण के समूचे जीवन में और कृष्ण के प्रेम में एक मेल मिलेगा, एक साम्य मिलेगा। कृष्ण के जीवन में अन्याय का विरोध है, श्रीमद्भागवत गीता का उपदेश है, धर्म की रक्षा है, तमाम ऊँचे, अद्भुत, साहसी, अविश्वसनीय काम हैं। इसीलिए उनका राधा जी से प्रेम भी बहुत उच्च कोटि का है। कृष्ण का खुद ऊँचा होना, कृष्ण के पूरे जीवनवृत्त में, उनकी ज़िंदगी की जो पूरी कहानी है उसमें और श्री कृष्ण की प्रेमकथा में एक सूत्र है जो साझा पिरोया हुआ है। गीता की ऊँचाई, कृष्ण के जीवन की ऊँचाई, और कृष्ण के प्रेम की ऊँचाई तीनों एक हैं। ऐसा नहीं हो सकता कि कृष्ण बहुत ऊँचे हों और उनका प्रेम निचले तल का हो जाए। ये संभव नहीं है।

ऊँचा आदमी है तो उसके प्रेम में भी एक श्रेष्ठता होगी। उसका प्रेम भी उच्च कोटि का ही होगा। और आशय समझना इस बात का। इसका आशय ये है कि अगर आदमी ऊँचा नहीं है तो उसका प्रेम भी ऊँचा नहीं हो सकता। लेकिन हमें ये बड़ी गलतफहमी रहती है कि हम भले ऊँचे नहीं हैं पर हमारे प्रेम में तो बड़ी ऊँचाई है, बड़ी शुद्धता है। इसलिए इस गलतफहमी को तोड़ने के लिए मुझे तथाकथित प्रेमियों पर कई बार कठोर होना पड़ता है, उनसे दो-चार कड़ी बातें बोलनी पड़ती हैं।

मैं उनसे कहता हूँ, जब तुम्हारे जीवन में कृष्ण सी गहराई नहीं, जब तुम्हारे बोध में गीता सी ऊँचाई नहीं तो तुम्हारा प्यार कहाँ से कृष्ण के प्यार जैसा हो गया?

लेकिन अहंकार देखो, तुम्हारी ज़िंदगी में और कृष्ण की ज़िंदगी में कोई समानता नहीं होगी, लेकिन फिर भी तुम बड़ी ठसक के साथ दावा करने चले आओगे कि मेरा प्रेम भी तो कृष्ण के प्रेम जैसा ही है न? बिलकुल भी नहीं है। कहाँ कृष्ण, कहाँ तुम? इसीलिए कहाँ कृष्ण का प्रेम और कहाँ तुम्हारा प्रेम!

ये तो शर्म की बात है कि तुम बिना राम और कृष्ण जैसे हुए उनसे अपनी दुस्साहसपूर्ण तुलना कर रहे हो। ये बड़े अहंकार की बात है। और ऐसा नहीं कि तुम राम और कृष्ण हो नहीं सकते। उनके भीतर जो दिव्यता थी उसका बीज हर इंसान में है। संभावना के तौर पर, पोटेंशियल के तौर पर निश्चित रूप से हम सभी राम और कृष्ण होने की पात्रता रखते हैं लेकिन संभावना एक बात है और सच्चाई दूसरी बात है।

अपने जीवन के यथार्थ को देखो। तुम किस तरीक़े से कृष्ण जैसे हो, तुम किस तरीके से राम जैसे हो! और जब तुम उनके जैसे नहीं हो तो क्यों व्यर्थ ही ये दावा करते रहते हो कि कृष्ण ने भी तो प्यार किया था, क्या कृष्ण बुरे हो गए?

कृष्ण कुछ भी करें कृष्ण बुरे नहीं हो जाएँगे क्योंकि कृष्ण, कृष्ण हैं। और तुम कुछ भी करो, वो ऊँचा नहीं होगा क्योंकि तुम तुम हो, तुम ऊँचा उड़ने की काबिलियत तो रखते हो, संभावना तो रखते हो पर अभी तुम ऊँचे हो नहीं गए। तुम हो अभी नीचे ही। ये बात तुम्हें चुभेगी, बुरी लगेगी, कोई बात नहीं। सच जैसा भी हो, उसे स्वीकार करना चाहिए।

अभी तुम ऊँचे नहीं हो। चूँकि तुम अभी ऊँचे नहीं हो इसीलिए जिसको तुम अपना प्रेम कहते हो उसमें भी कोई ऊँचाई नहीं है। हो ही नहीं सकती। नियम है: ऊँचा आदमी, ऊँचा प्रेम और बहुत मँझोला, साधारण, औसत आदमी तो उसका औसत किस्म का प्रेम होता है।

अब औसत आदमी अपनी ज़िन्दगी को बेहतर करने की कोशिश ना करे, अपनी चेतना को उठाने की कोशिश ना करे और अपनी औसत स्तर की चेतना और अपनी औसत स्तर की ज़िन्दगी को लेकर के एक औसत सी प्रेम कहानी शुरू कर दे और अपनी औसत प्रेम कहानी को लेकर के ये दावा करे कि मेरी प्रेम कहानी तो रोमियो-जूलियट जैसी है, हीर-रांझे जैसी है, राधा-कृष्ण जैसी है, शिव-पार्वती जैसी है तो ये उस औसत आदमी का औसत अहंकार मात्र है। मत किया करो।

इतनी आसानी से कृष्ण से अपनी तुलना करके तुम ऊँचे उठने के, आगे बढ़ने के अपने सारे दरवाजे बंद किए ले रहे हो। प्रगति तो तभी होती है जब आदमी पहले ये माने कि उसमें कुछ कमी है, कुछ खोट है, कि वो अधूरा है, अभी बहुत कुछ है पाने को, पूरा होने को। लेकिन तुम आगे कैसे बढ़ोगे अगर तुम्हारा अभी से दावा हो गया कि साहब मैं तो कृष्ण जैसा हूँ। और ये दावा तुम सिर्फ़ इसलिए कर रहे हो ताकि जिसे तुम अपना प्रेम कहते हो उसका खोखलापन तुम्हें स्वीकार न करना पड़े।

तुम औसत आदमी, तुम्हारी ज़िन्दगी भ्रम से घिरी हुई। जब तुम्हारी ज़िन्दगी भ्रम से घिरी हुई है, तुम्हारा प्रेम कैसे भ्रम से घिरा हुआ नहीं होगा? तुम ज़िन्दगी में अपने ज़्यादातर जो निर्णय करते हो वो ग़लत ही निकलते हैं न? बेहोशी में लिए जाते हैं और अजीब-अजीब तरीके के तुमको वो परिणाम देते हैं। इसी तरीके से तुमने प्रेम का भी निर्णय लिया है। जब तुम्हारी ज़िन्दगी के अधिकांश निर्णय बेहोशी में लिए गए और उन्होंने बड़े अद्भुत परिणाम दिए तो वैसे ही ये जो तुम्हारे प्रेम का निर्णय है ये भी एक बेहोश निर्णय क्यों नहीं है और ये तुमको अजब-गजब परिणाम क्यों नहीं देगा?

लेकिन तुम अपने तर्कों की तरह ही अद्भुत हो। तुम कहोगे, “प्रेम का हमने कोई निर्णय थोड़ी ही लिया है। प्यार तो हो जाता है। फैसला करके थोड़ी ही किया जाता है, हमसे तो हो गया।" तुमसे जो ये हो गया न प्रेम, ये और बताता है कि तुम्हारा प्रेम बड़ा अंधा है, एकदम ही अचेतन, बेहोशी में, नशे में घटने वाली घटना है; बस हो गया।

तुम्हें कुछ पता भी है तुम कौन हो? तुम्हें कुछ पता भी है कि तुम्हें चाहिए क्या? तुम्हें पता भी है कि तुम्हें गहरा आकर्षण वास्तव में है किस चीज का? जब तुम अपने गहरे-से-गहरे आकर्षण को नहीं समझते तो तुम प्रेम को क्या समझोगे? क्योंकि प्रेम भी है तो एक आकर्षण ही न? जब तुम जानते ही नहीं कि आकर्षण का अर्थ क्या है, कौन आकर्षित होता है और ये जो आकर्षित हो रहा है उसे चाहिए क्या तो तुम क्या प्रेम की बात कर रहे हो! लेकिन मेरी बात सुनने-समझने की जगह तुम मुझ पर ही इल्ज़ाम लगा रहे हो, क्या? “आपके पास दिल नहीं है, आप पत्थर दिल हैं, आप क्रूर हैं, कठोर हैं।"

दो-चार बातें और भी लिखी हैं मैंने पढ़ी नहीं। “क्या आपको कभी प्यार नहीं हुआ? क्या अपनों के जाने पर आपको कभी दुःख नहीं होता? क्या आप कभी रोते नहीं?" और दादा, पूरी पिक्चर सुना देते। एकदम बात-बात पर तो दिल टूटते हैं और दिल जुड़ते हैं। अपने जैसी ही एक गीली, लिजलिजी पिक्चर की कहानी तुम मेरे ऊपर भी आरोपित कर देना चाहते हो। वही औसत ज़िन्दगी की औसत कहानी की औसत *मूवी*। क्यों कर रहे हो ये?

एक तरफ़ तो कह रहे हो, “कल रात से आपको सुन रहा हूँ।” क्या सुन रहे हो? अगर बात मेरी सुननी ही नहीं है, समझनी ही नहीं है तो मुझे सुनकर अपना समय क्यों खराब कर रहे हो? या तो यही कह दो कि मैं दुश्मन हूँ तुम्हारा और तुम्हें ठेस पहुँचाने के लिए ही कुछ कठोर बातें बोलता हूँ। यही कह दो, ये कहकर किस्सा खत्म करो। और अगर ये मानते हो कि मेरा उद्देश्य तुमको चोट पहुँचाना, आहत करना नहीं है, साफ़ मन से तुम्हारी भलाई के लिए कुछ कह रहा हूँ तो मेरी मंशा को समझो। ज़रा सहानुभूतिपूर्वक मेरी बातों पर विचार करने की कोशिश तो करो। और ऐसा नहीं कि इन बातों को तुम बिलकुल नहीं समझते। जानते नहीं हो क्या तुम?

अपने आस-पास देखो। अपना जो व्यक्तिगत प्रेम-प्रसंग होता है न, उसके यथार्थ को कबूलने में बड़ी चोट लगती है, दर्द होता है। हम इतने सच्चे हो नहीं पाते कि अपनी निजी जिंदगी में जो घट रहा हो उसकी हकीकत को स्वीकार कर लें। तो चलो, अपनी निजी जिंदगी को छोड़ो, आस-पास के लोगों को देखो। तुम्हारे आस-पास बहुत जोड़े घूम रहे होंगे, या घूम चुके होंगे। उनको देखते हो तो क्या बोलते हो? कि “आ हा हा, कितना पावन और सच्चा प्रेम-प्रसंग है इनका।" ऐसा कहते हो क्या?

जानते हो न तुम कि वहाँ वास्तव में क्या खुराफात चल रही है? तो जैसे तुम दूसरों की ज़िन्दगी में जानते हो कि प्रेम के नाम पर कुछ भी फ़िज़ूल चलता रहता है, वैसे ही मान लो कि तुम्हारी भी ज़िन्दगी में ऐसा ही चलता है। हम सब एक जैसे ही हैं।

तुमने बड़ी अच्छी बात करी कि अपने सवाल में राम और कृष्ण का उल्लेख कर दिया। लक्षण शुभ है। अब राम और कृष्ण की ऊँचाइयाँ हाँसिल भी करो। उन ऊँचाइयों को हाँसिल करने के बाद जिस किसी की ओर भी तुम आकर्षित होओगे वो आकर्षण शुभ ही होगा। और अगर तुमने वो ऊँचाइयाँ अभी पाईं नहीं हैं और तुम इधर-उधर बहकते-फिसलते रहते हो; कभी इधर को खिंचे, कभी उधर को लुढ़के तो ये जो तुम्हारे सारे आशिकी के अफसाने हैं ये तुम्हारे लिए भी घातक हैं, औरों के लिए भी घातक हैं।

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