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लेख
कालातीत योग और समकालीन चुनौतियाँ || आचार्य प्रशांत (2018)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
14 मिनट
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प्रश्नकर्ता: योग तो कालातीत है, पर उसके सामने समकालीन चुनौतियाँ क्या हैं?

आचार्य प्रशांत:

योग के सामने कोई चुनौतियाँ नहीं होती। योग तो मन की सहायता हेतु है। मन चुनौतियों से घिरा हुआ है, मन की सहायता के लिए योग है।

आपने कहा, “समकालीन चुनौतियाँ”, काल ही मन के लिए होता है। काल के अनुसार मन के सामने चुनौतियाँ बदलती जाती हैं। अलग-अलग समय में मन के लिए अलग-अलग तरह के विक्षेप होते हैं, राग होते हैं, द्वेष होते हैं, समस्याएँ होती हैं।

मन योगस्थ हो सके, मन हृदय से मिल सके, आत्मा में लय हो सके – इसके सामने आज क्या चुनौती है? आज का आदमी सहजता से योगस्थ क्यों नहीं हो पा रहा है? पतंजलि शुरुआत करते हैं। कहते हैं, “योगश्चित्त वृत्ति निरोधः।”

चित्त की वृत्तियों का निरोध ही योग है। निरोध हो सके चित्त की वृत्तियों का, इसके लिए आवश्यक है सर्वप्रथम कि चित्त की वृत्तियों का पता तो चले। चित्त की वृत्तियाँ, वृत्ति रूप में, समस्या रूप में, सामने खड़ी तो हों!

आज के समय को देखें तो वृत्तियों के संदर्भ में दो बातें साफ़ नज़र आएँगी।

पहली ये कि ज्ञान के सहारे विज्ञान, और तकनीक के सहारे चित्त ने बड़ा बल पा लिया है, बहुत कुछ कर डाला है। और जो कुछ कर डाला है वो भौतिक दृष्टि से, दैहिक दृष्टि से उपयोगी भी है। उसकी उपयोगिता से इंकार नहीं किया जा सकता। तमाम इमारतें खड़ी हैं, चिकित्सा के क्षेत्र में बड़ी प्रगति हुई है, अणु तोड़ डाले गए हैं, परमाणु की ऊर्जा का उपयोग हो रहा है।

आदमी प्रकृति पर प्रधान हो गया है, तो वृत्ति ने बहुत बल पा लिया है। जो बलशाली हो जाता है, उसका निरोध आसान नहीं रह जाता।

आदमी हिंसक था, और हिंसा की वृत्ति ने उसे हिंसा हेतु तमाम प्रत्यक्ष-परोक्ष साधन दे दिए हैं – वो साधन आज बहुत बलवान हो गए हैं। एक मिसाइल भी हिंसा का बहुत बलवान साधन है, और एक बड़ी कार भी हिंसा का बहुत बलवान साधन है! ज्ञान भी हिंसा का बलवान साधन है। ऐसे साधन आज जितने प्रचुर हैं, इतने कभी नहीं थे।

हम वृत्ति का निरोध करने की बात करें, उससे पहले वृत्ति के बारे में ये मूलभूत बात है जो हमें पता होनी चाहिए कि – हम जिसका विरोध करने निकले हैं, हम जिसका निरोध करने निकले हैं, हम जिसका दमन करने निकले हैं, हम जिसका शमन करने निकले हैं, जिसको शांत करने निकले हैं, वो आज बहुत ताकतवर हो चुका है।

पतंजलि के समय से दुनिया बदल गई है।

मूल वृत्ति अहम्-वृत्ति ही है, जीव-वृत्ति ही है, मृत्यु-वृत्ति ही है। लेकिन समय के साथ उसने बड़ा बल अर्जित कर लिया है। आज उसके वेग को झेलना उतना आसान नहीं जितना शायद पतंजलि के समय में था। आप जिधर देखिए उधर आपको मनुष्य की वृत्ति का ही पसार नज़र आता है। आपको क्या लग रहा है, आधुनिकता जिन-जिन प्रतीकों से परिभाषित होती है वो क्या अधिकांशतः आत्मा से, प्रेम से, आनंद से पैदा हो रहे हैं? नहीं! वो मनुष्य की वृत्ति से ही पैदा हो रहे हैं।

आदमी डरा है, तो उसने अपने डर के कारण न जाने कितने आविष्कार, कितने निर्माण कर लिए हैं। आदमी कामुक है, आदमी जटिल है, यही सब तो वृत्तियाँ होती हैं न? और इन्हीं वृत्तियों से प्रेरित होकर, इन्हीं वृत्तियों का अनुगमन करके आज इंसान ने अपने चारों ओर एक बड़ा जाल फैला लिया है। वो जाल इतना बड़ा है, इतना बड़ा है कि बनाया भले ही उसे मनुष्य ने हो, मनुष्य खुद आज उस जाल में फँसी हुई एक छोटी-सी मक्खी की तरह है।

और दूसरी बात, आज के समय में, समकालीन सन्दर्भों में, वृत्ति के बारे में ये है कि आज वृत्ति जब दुःख दे - क्योंकि वृत्ति पर चलने का सीधा अंजाम होता है दुःख - आज वृत्ति जब दुःख दे तो उस दुःख से पलायन करने के लिए न जाने कितने तरह के साधन उपलब्ध हैं। ये सभी साधन पतंजलि के समय में उपलब्ध नहीं थे।

तो पहली बात हमने कही कि – आज वृत्ति भौतिक रूप से बहुत बलशाली हो चुकी है। तमाम व्यवस्थाएँ बन गईं हैं, विज्ञान का चारों तरफ बोल-बाला है। और दूसरी बात हमने कही कि – जब आदमी आज अपनी वृत्तियों से कष्ट पाता है, तो उसका दिल बहलाने के लिए इतनी दुकानें खुल गई हैं कि उसे वृत्ति का निरोध करने की ज़रुरत ही नहीं पड़ती।

समझिएगा!

पहली बात हमनें कही थी कि वृत्ति का निरोध आदमी कैसे करेगा क्योंकि आज वृत्ति के फल बहुत बल ले चुके हैं। कैसे लड़ोगे उससे जो तुमसे ही बहुत बड़ा हो गया है, और तुम्हारे चारों ओर है? आज आदमी वृत्ति की गोद में ही पैदा होता है। आदमी छोटा है, वृत्ति बहुत बड़ी है। उसका विरोध कैसे करेगा आदमी? और दूसरी बात हम कह रहे हैं कि – विरोध करने की, या निरोध करने की तुम्हें ज़रुरत ही क्यों महसूस होगी जब दुःख तुम्हें सता ही नहीं रहा है।

आदमी अपने चित्त की वृत्तियों को शत्रु तो तब माने न जब वो शत्रु उसे पीड़ा दे। आज स्थिति यह है कि पीड़ा उठती है, और आदमी के पास पलायन के, मनोरंजन के, प्रसन्नता के, प्रमाद के पचास साधन मौजूद हैं।

अहम् वृत्ति ने परेशान किया, ईर्ष्या ने परेशान किया, महत्वाकांक्षा ने परेशान किया, अकेलेपन ने परेशान किया, हार ने परेशान किया, प्रतिद्वंद्विता ने परेशान किया, कामुकता ने परेशान किया, आप कहीं भी चले गए जी बहलाने – किसी दूसरे शहर चले गए, कुछ खरीदने चले गए, शॉपिंग कर ली, फिल्म देख ली, किसी अन्य तरीके से मनोरंजन कर लिया। हाथ में मोबाइल फ़ोन तो हमेशा मौजूद है ही।

कुछ-न-कुछ तो आपको ऐसा मिला रहेगा जिससे कि आप यथार्थ को भूलकर कल्पना-लोक में जा सकें – कड़वे यथार्थ का आपको सामना ना करना पड़े। कुछ-न-कुछ तो आपको ऐसा मिला रहेगा जो आपको बताएगा, आपको सांत्वना देगा कि आपकी हालत बहुत बुरी नहीं है, कि आशा अभी बाकी है। आज आशा के बहुत दरवाज़े उपलब्ध हो गए हैं। तो वृत्ति का डट कर सामना करने की ज़रुरत ही नहीं पड़ती।

और याद रखियेगा, जो वृत्ति का निरोध करने निकले हैं, उनकी राह आसान नहीं होती है – अष्टांग योग है पतंजलि का।

अष्टांग योग है। यम-नियम से तो शुरुआत भर होती है। सीढ़ी चढ़ते-चढ़ते फिर जाना पड़ता है धारणा, ध्यान, समाधि तक। इतनी मेहनत कोई क्यों करे, जब सस्ते उपचार मौजूद हैं?

योग के सामने बहुत बड़ी चुनौती है – आदमी की सफलता, सभ्यता और संस्कृति की सफलता, विज्ञान की सफलता।

आदमी की बनाई व्यवस्था जितनी दैत्याकार होती जाएगी, जितनी भारी होती जाएगी, वो आदमी को जितना घेर लेगी, वो आदमी के ऊपर जितनी हावी हो जाएगी, उसकी आदमी के ऊपर जितनी मालकियत हो जाएगी, आदमी उतना कम उस वृत्तिजनित व्यवस्था से लड़ना चाहेगा। तो फिर ‘चित्त-वृत्ति निरोध’ की शुरुआत ही नहीं होने वाली। आदमी कहेगा, “ये चीज़ इतनी भीमकाय है कि मेरी हैसियत क्या कि मैं इससे लड़ूँ! जिधर देखो, उधर वृत्तियाँ ही तो वृत्तियाँ हैं!”

बड़े नेता कौन?

जो अपनी वृत्तियों को पोषण दे रहे हैं।

दुनिया में सम्मानित कौन?

जो अपनी वृत्तियों पर चले, और जिनकी वृत्तियाँ फलित हो गईं।

सफल कौन? पूजनीय कौन?

वो थोड़े ही जिसने अपनी वृत्तियों का शमन किया!

सफल भी वही है जिसकी अपनी अहम्-वृत्ति भड़की हुई है, और जो दूसरों की अहम्-वृत्ति भड़का रहा है।

जब आप देख रहे हो कि दुनिया भर में हर तरीके से, हर क्षेत्र में, वृत्ति का ही, और वृत्ति वालों का ही बोलबाला है, तो आप वृत्ति से लड़ने के लिए तैयार ही नहीं होओगे।

वृत्ति बड़ी बलवान! आप कहोगे, “भाई! हमनें हार मानी!”

और दूसरी बात हम कह रहे हैं कि बड़ी-से-बड़ी लड़ाई भी आप लड़ लो, अगर लड़ने के लिए आपके पास पर्याप्त कारण हों। और वृत्ति से लड़ने का समुचित कारण होता है कष्ट। कष्ट मानव इतिहास के इस चरण में अनुभव ही नहीं होता। आज तो आपको सहलाने के, दुलारने के हज़ार तरीके मौजूद हैं।

आपको ये महसूस ही नहीं होने दिया जाता कि दुःख आत्यंतिक और अवश्यम्भावी है। आपसे कहा जाता है, “दुखी हो? लो ये गोली खा लो। दुखी हो? लो कपड़ा पहन लो। दुखी हो? लो वहाँ घूम आओ। दुखी हो? लो ये चीज़ खरीद लो। दुखी हो? लो ये जी बहलाने का साधन लो, गीत संगीत लो।”

जब इतनी आसानी से दुःख का उपचार हो जाता हो, तो कौन जाएगा आठ अंगों वाले, आठ सीढ़ियों वाले दुष्कर योग की शरण में?

और अब मैं आपको बताने जा रहा हूँ कि इन दो चुनौतियों के अलावा एक बड़ी तीसरी समकालीन चुनौती भी है योग के समक्ष। अष्टांग योग के समक्ष आज हठ योग एक बड़ी चुनौती बन कर खड़ा हो गया है।

ये बात बड़ी विचित्र है। वास्तव में अगर आप हठयोग प्रदीपिका के प्रथम अध्याय के प्रथम सूत्र पर ही जाएँ, तो स्वात्माराम कहते हैं कि हठयोग इसलिए है ताकि हठयोग में दीक्षित होकर जीव राजयोग में या अष्टांगयोग में प्रवेश कर सके।

वो कहते हैं कि जो लोग अभी इस क़ाबिल ही नहीं हैं कि यम-नियम आदि अनुशासनों का पालन कर सकें, उनके लिए आवश्यक है कि पहले वो देह के तल पर अपने आप को नियमित और अनुशासित करें।

तो, पूरे हठयोग का उद्देश्य यह था कि – हठयोग सीख लो, ताकि फिर तुम उच्चतर योग में प्रवेश कर सको। हठयोग को सीढ़ी बताया गया कि, "इस सीढ़ी पर चढ़ो ताकि तुम वास्तविक योग में प्रवेश पा सको।" पर आज बड़ी विचित्र स्थिति पैदा हो गई है। जो हठयोग सीढ़ी की तरह होना चाहिए था ताकि उसका उपयोग करके लोग वास्तविक योग में प्रवेश कर सकें।

वास्तविक योग क्या है? चित्त की वृत्ति का निरोध वास्तविक योग है! जो तुम्हारी आदतें हैं, जो तुम्हारी वृत्तियाँ हैं, उनसे तुम आज़ाद हो जाओ, उनसे तुम्हें मुक्ति मिल जाए – यही मोक्ष है, यही योग है।

तो, हठयोग इसीलिए दिया गया था ताकि तुम वास्तविक योग के दरवाज़े तक पहुँच सको।

पर जिसका उपयोग होना चाहिए था वास्तविक योग के तुम्हें दरवाज़े तक पहुँचाने के लिए, आज उसका उपयोग होने लग गया है वास्तविक योग से तुम्हें दूर रखने के लिए।

यहाँ तक कि आज हठयोग को ही योग माना जाने लगा है।

अगर कोई आपसे मिले और कहे कि वह योग करता है, तो निन्यानवे प्रतिशत सम्भावना है कि वो शारीरिक योग करता है, हठयोग के आसन-मुद्राएँ आदि करता है। जबकि हठयोग, हठयोग प्रदीपिका के अनुसार ही, सीढ़ी मात्र है। वास्तविक और आखिरी योग नहीं है हठयोग। लेकिन आज हठयोग ही योग के सामने एक बड़ी चुनौती बन कर खड़ा हो गया है। लोग हठयोग करके ही संतुष्ट हो जाते हैं। जब आप हठयोग करके ही संतुष्ट हो गए, तो असली योग में आप प्रवेश कैसे करेंगे?

सीढ़ी, द्वार का विकल्प बन गई है। और सीढ़ी, द्वार का विकल्प बन कर द्वार की दुश्मन बन गई है।

तो मैंने जो दो चुनौतियाँ बोलीं वर्तमान युग में योग के समक्ष – एक वृत्तियों का बल, और दूसरा वृत्तियों से पलायन के प्रचुर साधन। इनमें आप एक तीसरी चुनौती भी जोड़ लें! सच्चे योग के सामने हठयोग दुर्भाग्यवश आज एक चुनौती बन गया है।

मैं हठयोग की उपयोगिता से इंकार नहीं कर रहा, शरीर को दीक्षित किया जाना ज़रूरी है। और बहुत लोग ऐसे हैं जिनके अगर शरीर को दीक्षित नहीं किया गया, तो वो मन के तल पर कभी पहुँच ही नहीं सकते, क्योंकि जो आदमी जिस तल पर है, उसकी शिक्षा-दीक्षा की शुरुआत वहीं से हो सकती है।

जो शरीर से बहुत ज़्यादा तादात्म्य रखता हो, जो बहुत देहभाव में जीता हो, उसकी आध्यात्मिक शिक्षा की शुरुआत तो देह से ही होगी। इसीलिए हठयोग आवश्यक है, क्योंकि हठयोग का पूरा ताल्लुक देह से है। तो मैं हठयोग की उपयोगिता से इंकार नहीं कर रहा, लेकिन हठयोग के बाद व्यक्ति को अष्टांगयोग में आरूढ़ होना चाहिए, प्रविष्ट होना चाहिए।

वो कहीं होता नहीं दिखता।

लोग वज़न घटाने के लिए, स्वास्थ्य लाभ करने के लिए योग का सहारा ले रहे हैं। योग इसीलिए थोड़े ही है कि तुम स्वास्थ्य लाभ करके रुक जाओ। ये तो हमने योग को व्यायाम के तल पर उतार दिया।

योग व्यायाम नहीं है। पर अधिकाँश लोग योग का इस्तेमाल सिर्फ़ देह को चमकाने के लिए कर रहे हैं। ये योग के साथ हमने बड़ा अन्याय कर डाला। और क्योंकि योग के साथ अन्याय किया नहीं जा सकता, तो वास्तव में हमने अपने ही साथ अन्याय कर डाला।

तो मैं समझता हूँ कि समयातीत योग के सामने ये तीन समकालीन चुनौतियाँ हैं।

और इन तीनों चुनौतियों पर विजय पाई जा सकती है, विजय पाने के कई तरीके हो सकते हैं।

मेरी दृष्टि में जो सर्वोच्च तरीका है, वो है – अपने दैनिक जीवन का अवलोकन।

आप जैसे भी जी रहे हैं, अपने आप को ज़रा ईमानदारी-पूर्वक देखें। आपका अनुभव ही आपको बता देगा कि कहीं कुछ कोरापन है, खालीपन है, रिक्तता है, सूनापन है, दुःख कचोटता है।

भले ही आपने अपने जीवन को कितने भी सुख-संसाधनों से, भौतिक सुविधाओं से भर रखा हो, लेकिन आपकी आँखों और आपके चेहरे से ही पता चल जाएगा कि मन व्याकुल है।

मन व्याकुल है, अर्थात – मन अपने केंद्र से छिटका हुआ है, मन शान्ति की तलाश में है।

जैसे ही आप जानेंगे कि मन शान्ति की तलाश में है, अपने आप दो चीज़ें होंगी।

पहली बात – वो सब कुछ जो आपको अशांत करता है, आप उसे छोड़ने के लिए तैयार होने लगेंगे।

और दूसरी बात – तमाम तरीकों से आप शान्ति को खोजेंगे।

और, ये बड़ा चमत्कार है, बड़ा जादू है कि जो शान्ति को खोजता है, शान्ति साकार रूप लेकर ही उसके सामने प्रकट होना शुरू हो जाती है। जो अपने जीवन का अवलोकन करता है, वो पाता है कि वो शीघ्र ही ऐसी स्थितियों में पहुँचने लगा है जहाँ मार्गदर्शन उसे स्वतः उपलब्ध होने लगता है।

जिसे प्यास लगती है, पानी उसे उपलब्ध होना शुरू हो जाता है। भौतिक जीवन में भले ही ऐसा न होता हो, पर अध्यात्म में ये जादू सदा होता है।

अपने जीवन के प्रति ईमानदार रहें, अपनी दैनिकचर्या का, अपनी रोज़मर्रा की ज़िन्दगी का ईमानदार निरीक्षण करें, अवलोकन करें। अगर आपको कुछ ऐसा दिखाई देता है जो नहीं होना चाहिए, और साथ-ही-साथ आपको कुछ पता चलता है जो होना चाहिए पर नहीं है, तो आपने योग की तरफ पहला कदम बढ़ा दिया।

पहला कदम आप बढ़ाइए, आगे की यात्रा स्वतः होने लगती है!

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