Acharya Prashant is dedicated to building a brighter future for you
Articles
आसपास दमदार-समझदार महिलाएँ दिखाई नहीं देतीं? || आचार्य प्रशांत (2020)
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
12 min
42 reads

प्रश्न: आचार्य जी, आपका वीडियो देखकर साथी के चयन के प्रति कुछ स्पष्टता आई है, लेकिन इसे जीवन में व्यावहारिक तौर पर कैसे उतारूँ? कृपया मार्ग दिखाएँ।

आचार्य प्रशांत: अपने आसपास आप वही तो देखोगे ना जो आपने अपने आसपास इकट्ठा कर लिया है। आप किसी बाग़ में चले जाइए, अपने आसपास आप क्या पाओगे? पेड़-पौधे, फल-फूल, कलियाँ। अब ये पेड़-पौधे, फल-फूल, कलियाँ ज़बरदस्ती थोड़े ही आपके आसपास आ गए हैं। ये आपके आसपास इसलिए है क्योंकि आपने इनका चयन करा। आपने चुनाव करा कि आप ऐसी जगह जाओगे जहाँ आपके आसपास फल-फूल, पेड़-पौधे, कलियाँ इत्यादि होंगे, तो आपको अपने आसपास दिखाई दे रहे हैं। अब आप चुनो कि आपको बाग़ में जाना है, और बाग़ में जाने के बाद आप बोलो कि - "मुझे यहाँ पर लैपटॉप्स क्यों नहीं दिखाई दे रहे हैं, या हाईवे क्यों नहीं दिखाई दे रहा है, या फैक्ट्रियाँ क्यों नहीं दिखाई दे रही हैं?" तो मैं क्या कहूँगा? मैं कहूँगा, "भाई, वही तो दिखाई देगा ना जो तुमने देखने के लिए चुना है।"

इसी तरीक़े से आप चले जाइए मच्छी बाज़ार में, तो आपको वहाँ अपने आसपास क्या दिखाई देगा? मछलियाँ। अब मछलियाँ क्या कूद-कूद कर आईं हैं आपकी चेतना पर आक्रमण करने के लिए? क्या मछलियों ने निश्चय किया था, या क़सम खाई थी कि वो आज आपकी इंद्रियों पर हमला बोल देंगी और आपके आसपास दिखाई देंगी? कहिए। आपको मछलियाँ क्यों दिखाई दे रही हैं? क्योंकि आपने अपने आपको ऐसी जगह पर रख दिया है जहाँ  जिधर भी देखोगे क्या दिखाई देना है? मछलियाँ ।

और याद रखिएगा ये सब हमेशा चुनाव होता है।

कोई ये ना कहे कि "मैं क्या करूँ, मैं फँसा हुआ हूँ; मैं क्या करूँ, मैं तो पैदा ही मच्छी बाज़ार में हुआ हूँ, या मैं तो पैदा ही बाग़ में हुआ हूँ।" पैदा कौन कहाँ होता है इस पर मैं मानता हूँ किसी का इख़्तियार नहीं होता। लेकिन पैदा हुए अब बहुत समय बीत गया। यहाँ कौन बैठा है नन्हा-मुन्ना? अब तो आप लोग सब वयस्क हैं ना। सबके पास ताक़त है, सबके पास चेतना है। अतः सबके पास चुनाव है।

आप अगर बाग़ में हो तो ये आपका चुनाव है, और आपको अगर अपने आसपास मरी-सड़ी-गली-कटी मछलियाँ-ही-मछलियाँ दिखाई दे रही हैं, तो ये भी आपका चुनाव है। अब प्रश्नकर्ता कह रहे हैं कि, "भई, मैं अपने आसपास देखता हूँ तो मुझे ना तो कोई सरोजिनी नायडू दिखाई देती हैं, ना लक्ष्मीबाई दिखाई देती हैं, ना मैरी क्यूरी दिखाई देती हैं," तो मैं क्या निष्कर्ष बताऊँ? आपका चुनाव है कि आपने अपने आपको ऐसे माहौल में रखा हुआ है जहाँ पर आपको उदात्त चरित्र की स्त्रियाँ दिखाई ही नहीं दे रहीं।

और मैं एक बात की इस में चेतावनी दिए देता हूँ  - तुमको अगर अपने आसपास ऊँची महिलाएँ नहीं दिखाई दे रहीं, तो ज़्यादा संभावना इस बात की है कि तुम्हें अपने आसपास ऊँचे पुरुष भी नहीं दिखाई दे रहे होंगे। अब सवाल तुम्हारे ऊपर है। तुमने अपने आपको ऐसे माहौल में क्यों रखा हुआ है जहाँ  आसपास ऊँचाई  है ही नहीं?

देखो, इंसान के भीतर कुछ ऐसा बैठा है जो बौना रहना स्वीकार ही नहीं कर पाता। हमारे भीतर कुछ ऐसा बैठा है जिसको विस्तार चाहिए, जिसको विराट चाहिए, जिसको अनंतता ही चाहिए - 'विस्तार' कहना भी जैसे छोटी बात हो गई - जो किसी सीमा में बंधने को राज़ी नहीं होता, जिसको तुम बहुत वृहद सीमा भी दे दोगे, तो वो भी कहता है, "बात नहीं बनी। ये भी ठीक नहीं है।" अब वो जो ऐसा तत्व है भीतर, जो कोई सीमा नहीं मानता, उसको तुम एकदम ही संकुचित सीमा दे दो, तो बताओ उसको कैसा लग रहा होगा? कैसे जी रहा होगा? मज़ा तो नहीं आ रहा होगा ना? कब नहीं आ रहा होगा मज़ा? हर रविवार को? शनिवार की शाम को?  यही तो मैं पूछा करता हूँ, "जी कैसे लेते हो?"

(हिंदी फ़िल्म के एक गाने की कुछ पंक्तियाँ गुनगुनाते हुए) "तेरे बिना जिया जाए ना"

ये जो 'वो' है ना जिसके बिना जिया जाए ना, 'उसी' की सत्ता को स्वीकार करना, और फिर 'उसी' पर अपना सब कुछ न्यौछावर कर देना, आत्मोत्सर्ग कर देना - यही अध्यात्म है।

फ़िल्में तो हमारी सबकुछ औरत-मर्द का खेल बना देती हैं, पर गाना बहुत दूर का है। बहुत दूर का है। 

(गुनगुनाते हुए) "बिन तेरे, तेरे बिन साजना, साँस में साँस आए ना।" 

ये जो 'साजना' है ना, इसी की तलाश धर्म ने करी है। धर्म को नाम तुम्हें जो देना है दे दो - 'इस्लाम' बोल दो, 'सनातन धर्म' बोल दो, जो नाम देना है दे दो। हर धर्म उस तलाश का, उसी के प्रेम का, और उसी के विरह का विज्ञान है—जिसको इस गीत में कह रहे हैं, "तेरे बिना जिया जाए ना"।

और हैरत की बात ये है कि जिधर देखो उधर सब ऐसे ही हैं जिनको 'वो' मिला हुआ नहीं है, लेकिन सब जिए जा रहे हैं। कैसे जिए जा रहे हैं? जी कैसे लेते हो? वहाँ तो कहा जा रहा है, "बिन तेरे, तेरे बिन साजना, साँस में साँस आए ना।" साँस कैसे ले लेते हो? दिल कैसे धड़क लेता है?

बाइबल से एक उल्लेख है, जीसस कहते हैं, "जहाँ पर भी आठ-दस बैठकर मेरी बात कर रहे होते हैं, वहाँ मैं हूँ।" यही बात रामचरितमानस में भी है कि - "जहाँ राम कथा गाई जा रही है, राम वहीं हैं।" तुम कहाँ हो?

'वो' जो है, जिसकी तलाश हर जीव को है, उसको खोजने के लिए कहीं और नहीं जाना पड़ता; कोई और दुनिया, कोई और लोक नहीं है।  बस अपने आपको ऐसा माहौल दे देना होता है जहाँ आठ-दस ऐसे हो जो उसका ज़िक्र करते हो।

सूफ़ी परंपरा में ज़िक्र का बड़ा महत्व है; ज़िक्र होना चाहिए। तुम किन लोगों के बीच रहते हो? जो कभी ज़िक्र करते ही नहीं। जी कैसे लगते हो? मर ही जाओ। हम पूरी तरह मरते भी तो नहीं, हम इंतजार करते हैं शारीरिक मृत्यु का। 

अध्यात्म कहता है, "इससे पहले कि शारीरिक मृत्यु आए, तुम अपने भीतर की बीमारी को मार दो।" इसीलिए जानने वालों ने कभी-कभी अध्यात्म को 'महामृत्यु' कहा है। छोटी मौत कौन-सी है? जो तुमको यमराज देते हैं। तुम्हारे दोस्त, भैंसे वाले, वो छोटी मौत देते हैं; बड़ी मौत वो है जो तुम ख़ुद अपने आपको देते हो, बड़े यत्न से अपने आपको मौत देते हो। किसको मारते हो तुम? अपने भीतर की बीमारी को। उस बीमारी के लिए शास्त्रीय नाम क्या है? अहम्। एक बीमारी बैठी है भीतर, उसको मार दो, फिर स्वस्थ हो गए बिल्कुल। 

मुद्दे पर वापस आते हैं। 

तो तुमने कहा कि अपने आसपास देखते हो तो ऐसी महिलाएँ तो दिखाई देतीं हैं जो कामना का विषय हो सकती हैं, लेकिन ऐसी महिलाएँ नहीं दिखाई देतीं जिनकी संगत में मन बिल्कुल आनंदमग्न हो जाए, जिनको छुएँ तो हम पवित्र हो जाएँ; ऐसी स्त्रियाँ कहीं दिखाई नहीं देतीं। वो तभी दिखाई देंगी जब तुम सर्वप्रथम ऐसों की संगत करोगे जो ज़िक्र करते हों। और उसका ज़िक्र ज़रूरी नहीं है कि पुराने, ढ़र्राबद्ध तरीक़ों से ही किया जाता हो, कि दस लोग बैठकर के चौपाईयाँ गा रहे हैं, तो ही उसका ज़िक्र है।

अगर वैज्ञानिकों का एक समुदाय है जो दिन-रात बिल्कुल एकाग्र होकर अंतरिक्ष को ही तलाशते रहते हैं, तो वो भी एक तरीक़े से सच्चाई को ही तलाश रहे हैं - अपने सीमित तरीक़े से - पर तलाश वो भी सच्चाई को रहे हैं। इनके बीच भी अगर पहुँच जाओगे, तो बहुत संभव है कि तुमको बहुत ऊँचे व्यक्तित्वों का सानिध्य मिल जाए, बहुत ऊँचे लोगों की संगत मिल जाए। जब मैं कह रहा हूँ, "ऊँचे लोग," तो उसमें पुरुष भी शामिल हैं, और स्त्रियाँ भीं।

पर ये याद रख लेना कि तुम अगर आम के बाग़ में घूम रहे हो, तो वहाँ तो तुमको शेरनी मिलने से रही, बंदरिया ज़रूर मिल जाएगी। अगर तुम ऐसे हो जिसकी आँखों को आम का ही चटक पीलापन और हरापन बहुत भाता है, और जिसकी ज़ुबान को अमियों के खट्टेपन की, खट्टी-खट्टी, खटास वाली अमिया, और पके आमों के मीठेपन की आदत लग गई है, तो शेरनी कभी तुम्हारी ज़िन्दगी में आने से रही। 

जो चाहते हों कि जीवन में शेरनी आए, उन्हें अपनी सुरक्षा से बाहर निकलकर, अपनी दीवारों से बाहर निकलकर, अपने बाग़-बगीचों से बाहर निकलकर जंगल की असुरक्षा का वरण करना होगा।

बाग़ में बंदरिया मिल जाएगी, और ज़्यादा अगर तुम रूप-लावण्य के दीवाने हो, तो तितली भी मिल जाएगी।

हम कहते भी तो यही हैं। कोई बन गई प्रेयसी, तो उसका नाम: 'मेरी तितली'। कौन कहना चाहता है: 'मेरी शेरनी'? लेकिन रानी लक्ष्मीबाई का तुमने नाम लिया, वो तो तितली किसी कोण से नहीं थी, शेरनी ज़रूर थी। शेरनी कहाँ मिलेगी? जंगल में। जंगल का मतलब समझ रहे हो? ये जो मानवकृत व्यवस्था है, जिसमें सब तरह की सुरक्षा है, इससे थोड़ा बाहर जाना पड़ेगा; थोड़े ख़तरे उठाने पड़ेंगे; बहुत लोग रुष्ट होंगे, उनके गुस्से को नज़रअंदाज करना पड़ेगा। अपनी भी प्रतिष्ठा पर, सुविधाओं पर, मानसिक धारणाओं पर, हो सकता है शारीरिक सुरक्षा पर भी आँच आए; वो सब झेलने के लिए तैयार रहना होगा।

बड़ी क़िस्मत की बात होती है कि ज़िन्दगी में कोई भी ऐसा मिल जाए, जिसके साथ वाकई जिया जा सके। बहुत, बहुत ख़ुशनसीब होते हैं वो जिनको ये सौगात नसीब होती है - वरदान है। 'ख़ुशनसीबी' थोड़ा भ्रमित करने वाला शब्द है, क्योंकि ये बात वास्तव में नसीब की नहीं, साधना की है, श्रम की है, चुनाव की है। तुम्हें चुनना पड़ता है। 

थोड़ी देर पहले हम बात कर रहे थे ना कि - कृष्ण तो सबके थे, अर्जुन अकेले थे जिन्होंने उन्हें चुना। उपनिषद भी बड़ी साफ़ बात करते हैं। वो कहते हैं: "ये जो सत्य है, ये जो आत्मा है, ये ना तो बहुत पढ़ने वालों को मिलती है, ना बहुत सुनने वालों को मिलती है; ना उनको मिलती है जो बहुत विधियाँ आज़मा लेते हैं, ना उनको मिलती है जिन्होंने बड़ा ज्ञान अर्जित कर लिया होता है।" और फिर जैसे हम सबको चिढ़ाते हुए बोलते हैं उपनिषद कि - "ये आत्मा तो बस उनको मिलती है, जो इस आत्मा को चुनते हैं।"

और वो एक ही बात है। 

उसको ऐसे भी कह सकते हो कि आत्मा ने, सच्चाई ने, ऊँचाई ने तुमको चुन लिया, या ये कह सकते हो कि तुमने उसको चुन लिया। मैं ये कहना पसंद करता हूँ कि तुमने उसको चुन लिया। क्यों? क्योंकि 'वो' तो अपनी ओर से कभी भेदभाव करता नहीं ना। हम कैसे उस पर ये इल्ज़ाम लगा दें कि उसने हमें नहीं चुना। वो तो सबका है, तो वो तो सबको चुने ही बैठा है। चुनने में कोताही, चुनाव में भूल तो हमेशा हमारी ओर से होती है। 

तुम चुनो ना! 

और कभी ये मत कहना कि - "मुझे अपने आसपास सही लोग दिखाई नहीं देते।" तुम्हें अगर अपने आसपास सही लोग दिखाई नहीं दे रहे, तो इसका मतलब तुम सही नहीं हो। तुम्हें अपने आसपास वही लोग तो दिखाई देंगे ना जिनको तुमने चुना है। गोता मार रखा है समुंदर में, तो क्या अपने आसपास हाथी दिखाई देंगे? क्या दिखाई देंगी? मछलियाँ। तुम्हीं ने तो गोता मार रखा है। अब तुम पानी के नीचे हो और शिकायत करो कि - "यहाँ  पर हाथी-हथिनी क्यों नहीं मिल रहे मुझको?" तो ये बड़ी व्यर्थ की शिकायत हो गई ना।  बंजर रेगिस्तान में तुम घर बना लो, और फिर शिकायत करो कि - "पीपल, बरगद, आम, जामुन अमरुद कहीं नज़र नहीं आ रहे," तो जिससे शिकायत करोगे वो पूछेगा ना कि - "भैया, तुमसे किसने कहा था रेगिस्तान में बसने को?" क़िस्मत को दोष देना बड़ा सरल लगता है, बड़ा आकर्षक लगता है कि - "मैं क्या करूँ, मुझे तो ज़िन्दगी में सही लोग ही नहीं मिले; मैं क्या करूँ, मुझे तो ज़िन्दगी में सही संगति ही नहीं मिली।"

दो बातों का विचार कर लीजिएगा, दो सवाल अपने आप से पूछ लीजिएगा।

पहली बात  - अगर आपको सही संगति मिली नहीं, तो क्या आपने ये काबिलियत दर्शायी कि आपको सही संगति मिले? ईमानदारी से बताइएगा। दूसरा सवाल और ज़्यादा ख़तरनाक है, दिल थाम के बैठिए। दूसरा सवाल ये है कि - सही संगति जब आपको मिली भी, तो क्या आपने उसकी कद्र करी, या आप उसे ठुकराकर आगे बढ़ गए?

एक बदकिस्मती तो ये होती है कि सच्चा साथी मिला नहीं, और उससे बहुत-बहुत बड़ी और भयावह बदकिस्मती ये होती है कि मिला, और हमने उसका मूल्य नहीं किया, उसकी कद्र, उसकी इज़्ज़त नहीं करी।

जो इन दोनों सवालों को ईमानदारी से याद रखियेगा, उसको सही संगति, सच्चे साथी अलग-अलग तरीक़ों से, अलग-अलग रूपों में, जीवनपर्यन्त उपलब्ध होते रहेंगे। शर्तें मत रखिएगा अपनी ओर से। 

सही संगति ज़रूरी नहीं है कि उसी रूप में आए जिस रूप में आपकी कामना है। वो जिस भी रुप में आए, उसे स्वीकार करना होगा, उसे सम्मान देना होगा। आपकी शर्तों में बंधकर नहीं उतरेगा सत्य आपके लिए। आपको उसकी शर्तें माननी पड़ेगी। आप अगर अपनी शर्तें ही ऊपर रख रहे हैं, आप अगर अभी सत्य की शर्तें मानने के लिए तैयार नहीं है, तो आपको आपका अहंकार मुबारक हो।

ऐश करें।

Have you benefited from Acharya Prashant's teachings?
Only through your contribution will this mission move forward.
Donate to spread the light
View All Articles