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लेख
क्या राष्ट्रवाद हिंसक है, और सेना हिंसा का माध्यम?
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
36 मिनट
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स्वयंसेवी: अनिल ठाकुरी और अनिकेत तमराकर से दो अलग-अलग प्रश्न हैं, जिनको संयुक्त कर दिया गया है। कह रहे हैं कि हाल में आपका वीडियो सुना, शीर्षक था: "वेदान्त के ज्ञान से, सेना के सम्मान तक"। मेरे मन में कई प्रश्न उठ रहे हैं। पहला, देशों की और जमीन के भौगोलिक बंटवारे की जरूरत क्या है? इन बंटवारों का कारण और परिणाम सेनाएं हैं, और फिर युद्ध होते हैं, जिनमें ना जाने कितने लोग मारे जाते हैं, और संसाधनों का अपव्यय होता है। पूरी पृथ्वी को एक मानकर भी तो जिया जा सकता है, विश्वबंधुत्व की भावना से, और विश्वबंधुत्व तो देशप्रेम से कहीं आगे की बात हुई ना?

यह पहला प्रश्न है और अगला है कि सेना तो सत्तासीन सरकार की गुलाम होती है, बहुत सी सरकारें तो सेना को पेशेवर हत्यारों के रूप में भी इस्तेमाल करती हैं। यह हुई दूसरी शंका, और जिज्ञासा का तीसरा हिस्सा है कि क्या सेना इत्यादि में विश्वास रखकर, और राष्ट्रवाद, देशप्रेम जैसी भावनाओं को प्रश्रय देते हुए भी, अध्यात्म में ऊंचा उठा जा सकता है?

आचार्य प्रशांत: जैसे कि हर मुद्दे की शुरूआत होती है, इस उत्तर की शुरुआत भी उसी के साथ की जानी चाहिए जिससे सब शुरुआतें हैं: मनुष्य, इंसान।

दुनिया का कोई भी मुद्दा हो, इंसान के लिए ही है ना? आप कोई भी प्रश्न पूछते हैं, उसके केंद्र में तो मनुष्य, उसकी शंकाएं और उसके दुःख ही हैं ना? आप देशों के बारे में पूछें, चाहे राष्ट्रों और सेनाओं के बारे में: देश में मनुष्य हैं, सेना में मनुष्य हैं, और देश और सेना को लेकर जिसको दुविधा हो रही है, वह भी मनुष्य है।

शुरुआत मनुष्य से करते हैं: कौन है मनुष्य?

एकदम केंद्र में हम अहंकार हैं। जब तक हम मनुष्य हैं, साधरण मनुष्य, औसत मनुष्य, जैसे सब होते हैं, अहंकार हैं हम। और अहंकार छोटा होता है। अपने छुटपन को लेकर वह डरा भी रहता है, और अपनी छुटपन से कहीं आगे जाना भी चाहता है। विचित्र उसकी स्थिति होती है, उसे अपनी सीमा की रक्षा भी करनी है, और उसे अपनी सीमा से आगे बहुत बड़ा, विराट, अनंत भी हो जाना है। और चूंकि वह छोटा है, इसीलिए वो अपने आसपास सब कुछ छोटा-छोटा ही देखता है। चूंकि छोटा है वो, इसीलिए उसकी सामर्थ्य छोटी है, इस कारण वह अपने इर्द-गिर्द की तमाम ताकतों के प्रभाव में आ जाता है। यही हर मनुष्य और उसके भीतर बैठे अहम की कहानी है। हम केंद्रीय रूप से सीमित लोग हैं और उस सीमा के भीतर भी हम एक नहीं हैं, हम जो हैं वह ना सिर्फ छोटा है बल्कि अनगिनत हैं।

एक आम आदमी की जिंदगी को आप देखें, तो वह दिनभर में ही अनगिनत, कितने ही छोटे-छोटे किरदार निभाता रहता है, और यह सब किरदार एक दूसरे से संबंधित होते हुए भी कटे होते हैं, प्रथक होते हैं। तो आदमी जो कुछ फिर करता भी है अपनी जिंदगी में, वह इन सीमाओं की ही अभिव्यक्ति होता है।

हम भीतर से जैसे हैं, बाहर भी वैसा ही तो करेंगे ना? जब हम भीतर से छोटे-छोटे और खंडित हैं—जैसे टूटे हुए दर्पण के अनगिनत टुकड़े, जो बहुसंख्य भी हैं और सीमित लघु भी, ऐसे होते हैं हम भीतर से—तो हम बाहर भी जो करते हैं, वो इन छोटी सीमाओं की और भीतर के अनगिनत भेदों की अभिव्यक्ति ही होता है। यही वजह है कि हमारे भीतर की सीमाएं, हमारे बाहर के कृत्यों में प्रदर्शित होती हैं।

मैं सबसे पहले समझता हूँ कि मैं कुछ हूँ , यह पहली सीमा मैंने खींच दी ना? मैं हूँ, मैं हूँ, और मेरे होते ही मैं आप से अलग हो गया, मैं संसार से अलग हो गया, हो गया ना? मेरे होने के लिए ही, मुझे संसार से प्रथक एक इकाई होना पड़ेगा। लो खिंच गई सीमा: मैं अलग, संसार अलग। अगर मैं अलग और संसार अलग नहीं, तो फिर तो मैं हो ही नहीं सकता, तो लो सीमा हमने यहीं पर खींच दी। और मैं भी जो हूँ, मेरे भीतर भी अनेक खंड हैं। तो भीतर अनेक खंड, फिर मैं एक सीमित इकाई। उसके बाद मैं कहता हूँ: मैं और मेरा परिवार , लो खिंच गयी ना सीमा।

देश की सीमाओं की तो अब बात कर रहे हो, अपने घर और पड़ोसी के घर के बीच दीवार क्यों खड़ी करते हो, वो सीमा नहीं है क्या? क्यों कहते हो कि यह मेरा परिवार है, यह मेरी पत्नी है, या मेरा पति है, यह मेरे बच्चे हैं, यह मेरी संपत्ति है, यह मेरा घर है? और मेरी संपत्ति, मेरे पड़ोसी की संपत्ति एक नहीं हो सकती, मेरे बच्चे मेरे पड़ोसी के बच्चे नहीं हो सकते। खींच रहे हो सीमा कि नहीं खींच रहे हो? इन सीमाओं की बात क्यों नहीं करते? ये सब सीमाएं हमारे भीतर की सीमाओं से निकलती हैं—हम भीतर से छोटे-छोटे और टूटे-फूटे हैं। ये जितनी टूट-फूट है, वो बाहर दीवार के रूप में और सीमाओं के रूप में अभिव्यक्त होती है। जितनी पहचानें लेकर जीतें हैं हम दुनिया में, संसार-समाज में, वो सब भीतर की किसी सीमा की ही तो अभिव्यक्ति हैं: मैं इस धर्म का हूँ, मैं इस जाति का हूँ, मैं इस रंग का हूँ, मैं इस वंश का हूँ, मैं अमीर हूँ, मैं गरीब हूँ, मैं ज्यादा पढ़ा-लिखा हूँ, मैं कम पढ़ा-लिखा हूँ, मैं गाँव का हूँ, मैं शहर का हूँ, मैं स्त्री हूँ, मैं पुरूष हूँ, मैं जवान हूँ, मैं बूढ़ा हूँ। ये सब बातें हमारे आचरण में दिखाई देती हैं कि नहीं देती हैं? दिखाई देतीं हैं ना? वो हमारे भीतर की सीमाओं की अभिव्यक्ति हैं।

अब ये जो भीतर की सीमाएं हैं तमाम, जो भीतर की टूट-फूट है, बाहर के आचरण में ये अभिव्यक्ति पाती हों, तो निश्चित रूप से वैसा आचरण किसी काम का नहीं है, किसी सम्मान का पात्र नहीं है, इसमें कोई दो राय नहीं हैं। और अधिकांशतः बाहर जो सीमाएं खिंची हैं, वो भीतर की ही व्यर्थ सीमाओं का प्रतिबिंब हैं। तो इसीलिए बाहर वाली जो सीमाएं हैं, उन्हें कोई सम्मान मिलना नहीं चाहिए, यही बात इस प्रश्न में शंका के तौर पर रखी गयी है कि बाहर जो सीमाएं खिंची हैं, उन्हें इतना सम्मान क्यों मिलता है? बात बिल्कुल ठीक भी है। भीतर की ही अभिव्यक्ति अगर बाहर सम्मान पा रही हो, तो उसे क्या सम्मान दें? एक जमीन के टुकड़े को आपने दूसरे जमीन के टुकड़े से इसीलिए अलग कर लिया, क्योंकि पहले टुकड़े पर काले लोग रहते हैं, दूसरे टुकड़े पर गोरे लोग रहते हैं। निश्चित रूप से इस सीमा का कोई महत्व नहीं होना चाहिए, और इसे कोई आदर नहीं मिलना चाहिए। या आपने जमीन के एक टुकड़े को दूसरे लोगों से इसीलिए अलग कर लिया क्योंकि इधर के लोगों का इतिहास अलग है उधर के लोगों से, या इधर के लोगों की खानपान की आदतें दूसरी हैं, खाल का रंग दूसरा है उधर के लोगों से, तो ऐसी सीमाओं को महत्व मिलना नहीं चाहिए। अधिकांशतः हम ऐसी ही सीमाएं खींचते आए हैं जमीन पर, जो हमारी भीतरी बीमारी का बाहरी प्रकटीकरण होती हैं—भीतर की बीमारी बाहर प्रकट होती हैं, बाहर हमने जो सीमाएं खींचीं हैं उनके रूप में। समझ में आ रही है बात?

इसीलिए जानने वालों ने बाहरी सीमाओं की भी निंदा करी है, कि बाहरी सीमाएं गलत हैं, गलत हैं। लेकिन एक महत्वपूर्ण अपवाद होता है उसको सब समझिएगा। महत्वपूर्ण अपवाद क्या होता है? भीतर हमारे खंड-ही-खंड, भेद-ही-भेद भरे हुए हैं, लेकिन एक भेद और भी है जो सब भेदों को मिटा देता है। समझना, एक तो मन का वो हिस्सा है या मन की वो धारणा है, जो मन को टुकड़ों में बांटकर रखती है। वो क्षेत्र है जिसमें सब टुकड़े-ही-टुकड़े हैं, और एक विभाजन और भी है जो टुकड़ों के खिलाफ है। समझ रहे हो? ऐसे समझ लो जैसे दो क्षेत्र हों तुम्हारे ही भीतर, तुम्हारे भीतर दो कमरे हैं जैसे। एक कमरे में सब टुकड़े-ही-टुकड़े, टूट-फूट, खंडित चीजें पड़ी हुई हैं। और वो खंडित चीजें आपस में क्या हैं? बँटी हुई हैं। और इस कमरे और दूसरे कमरे के बीच एक दीवार है, तो यह भी एक बंटवारा हो गया। पर वो जो दूसरा कमरा है, वो कमरा क्या है? प्रतिनिधि है उसका जो अखंड है। उस कमरे में कुछ बँटा हुआ नहीं है, और उस कमरे में आयोजन हो रहा है कि जितने बँटवारे हैं उनको रोका कैसे जाए। तो अब कहने को ये भी एक बँटवारा है, एक कमरे और दूसरे कमरे के बीच में, लेकिन ये बँटवारा शुभ हो गया। बात समझ रहे हो?

दुनिया के सारे बंटवारे पहले कमरे से निकलते हैं, तो इस पहले कमरे में जो कोई भी है, वह तो बंटवारों का ही कायल हो जाएगा ना? तो जिन्हें बँटवारा नहीं चाहिए उन्होंने एक बँटवारा और किया, उन्होंने कहा कि हम दूसरे कमरे में जा रहे हैं। अभी यह एकमात्र बँटवारा है, एकमात्र सीमा है, एकमात्र विभाजन है जो शुभ है। और वहाँ जो करा जा रहा है वह इसलिए नहीं करा जा रहा कि बंटवारे बढ़ें, सीमाएं बढ़ें, द्वंद बढ़ें, द्वेष बढ़ें—वहाँ जो हो रहा है वह प्रेम की खातिर हो रहा है। तो क्या तुम यह विभाजन भी रद्द करना चाहोगे? तुम इस विभाजन के विरुद्ध भी शंका करोगे?

अगर मेरी बात बहुत जटिल लग रही हो तो समझना, क्या कहने जा रहा हूँ। सरल तरीके से और बताए देता हूँ। देश और देश की सीमा, इनके विरुद्ध प्रश्न है तुम्हारा, कि "देश बनते ही क्यों हैं, जमीन को बांटा ही क्यों जाता है, हर इंसान को समूची धरती क्यों नहीं उपलब्ध है, हम विश्व बंधुत्व की भावना से क्यों नहीं जी सकते"—यह प्रश्न है। मैं कह रहा हूँ एक देश बनता है किसी आधार पर, देश ने जो एक विभाजनकारी रेखा अपने चारों ओर खींची है, जमीन को बांटा है, कि इतने में हम रहेंगे, उसका कुछ आधार होता है ना? आधार आमतौर पर यही होता है कि साहब हम फलाने नस्ल के लोग हैं, यह हमारा देश है। साहब हम सब एक साझी विरासत से आ रहे हैं, हमारा अतीत एक है, इतिहास एक है, तो हम एक लोग हैं। समझ में आ रही है बात? साहब हम पुराने उस कबीले के लोग हैं जो बहुत समय से इस जमीन पर, इसी क्षेत्र में रहा करते थे, तो ये देश हमारा कहलाएगा। याकि ये जो जगह है, इसको सबसे पहले हमारे पूर्वजों ने आकर बसाया था, तो ये देश हमारा कहलाएगा, क्योंकि इस जमीन पर सबसे पहले कदम हमने रखे थे, तो ये जमीन हमारी हुई। अब आम तौर पर जो सीमाएं खींची जाती हैं, वह इन आधारों पर खींची जाती हैं, क्योंकि आदमी के अंदर ऐसे ही आधार जड़ जमा कर बैठे हुए हैं। इन्हीं छोटी-छोटी बातों के साथ हम अपनी पहचानें जोड़ते हैं, तो देश भी इन्हीं आधारों पर बनते हैं।

लेकिन एक देश ऐसा भी हो सकता है जो इन आधारों पर ना बना हो, एक देश ऐसा भी हो सकता है जो बना ही इसलिए हो ताकि आदमी के भीतर जितनी क्षुद्रताएँ हैं, जितनी मूर्खताएं हैं, उनसे लड़ सके, उनको मिटा सके। तो बताओ उस देश की जरूरत है या नहीं? और अगर उस देश की जरूरत है तो उस देश की सीमाओं को रक्षा की जरूरत है या नहीं? अच्छा एक बात बताना, कोई बहुत गंदा इलाका हो, और जब हम गंदा इलाका कहें तो जाहिर सी बात है कि किस गंदे इलाके की बात हो रही है, तो समूचे जगत को ही गंदा इलाका माना जाता है। "ये दुनिया कांटन की झाड़ी, उलझ-उलझ मर जाना है": ये पूरी दुनिया ही कांटों की झाड़ी है, गंदा इलाका। उसमें एक मंदिर हो बीच में, तो मंदिर के इर्दगिर्द दीवार होती है या नहीं होती? बोलो! तो मंदिर को भी सीमा की आवश्यकता है या नहीं है? और बहुत गंदे इलाके को बहुत ज्यादा जरूत है मंदिर की या नहीं है? और यदि बहुत ज्यादा गंदे इलाके में मंदिर बनाएंगे तो उसे बहुत ज्यादा सुरक्षा की जरूरत पड़ेगी कि नहीं पड़ेगी? तो इसका मतलब है कि जितना स्वच्छ, सुंदर और असली आपका मंदिर है, उसे उतनी ही ज्यादा सुरक्षा की जरूरत पड़ेगी, क्योंकि वह अपने आसपास की गंदगी के विरुद्ध एक विद्रोह जैसा होगा ना? पूरा इलाका ही गंदा है।

गंदे से मेरा मतलब सिर्फ बाहरी गन्दगी नहीं होती, वो इलाका ऐसा है कि जहाँ पर आप अध्यात्म का नाम लें, तो आपको बहिष्कृत कर दिया जाता है। वो इलाका अहंकारियों का इलाका है, वो इलाका ऐसा है जहाँ अपने स्वार्थ की खातिर आदमी, जानवर किसी को भी काटकर खा जाए। उस इलाके में आपने मंदिर की स्थापना की, वो इलाका जबरदस्त विरोध करेगा कि नहीं करेगा? वो इलाका संसार है, और वो जो मंदिर है, वो एक सुंदर राष्ट्र है। उस राष्ट्र को मैं अभी कोई नाम नहीं दे रहा। मैं बस आपसे यह पूछ रहा हूँ कि उस राष्ट्र को सुरक्षा की जरूरत है या नहीं है? और जो बल्कि गंदे इलाके हों, उस बड़े गंदे क्षेत्र के भीतर जो छोटे-छोटे गंदे इलाके हों, उन्हें किसी सुरक्षा की जरूरत है? उन्हें तो बहुत सुरक्षा की जरूरत भी नहीं। वो तो पहले ही गंदे हैं, उन्हें गंदा करने कौन आएगा, वो तो पहले ही मिटे हैं, उन्हें मिटाने कौन आएगा? लेकिन मंदिर को मिटाने सब आएंगे, क्योंकि इस मंदिर की सीमा को एक बहुत विशिष्ट आधार पर बनाया गया है। ऐसा नहीं कि उस पूरे बड़े, गंदे इलाके में और सीमाएं नहीं हैं, वहाँ भी लोग रहते हैं, तो उनके अपने छोटे-छोटे घर हैं, उन घरों के बीच में सीमाएं हैं, पर वो सीमाएं हैं गंदे और गंदे के बीच में। बात समझना, वो सब सीमाएं हैं गंदे और गंदे के बीच में। और जो मंदिर की सीमा है, वो है गन्दे और साफ के बीच में। ये सीमा विशिष्ट है। बात समझ में आ रही है?

गंदे और गंदे के बीच की सीमा है, उसको तत्काल मिटा दो, लेकिन ये सीख भी कहाँ से उठेगी? मंदिर से ही उठेगी ना? और अगर तुमने सीमाएं मिटाने के नाम पर मंदिर को ही मिटा दिया, तो इतना बता दो मंदिर और मंदिर की सीमाओं को तो मिटा दिया, लेकिन वह जो तमाम अन्य सीमाएं हैं पूरे संसार में, उनको तुमने मिटा दिया क्या? एक घर और दूसरे घर के बीच की दीवार तुमने गिरा दी क्या? मूल विभाजन तो वही है ना, इंसान से इंसान का विभाजन, वो तुमने मिटा दिया क्या?

तुम ये तो नहीं कर पाए कि तुम इंसान और इंसान के बीच का विभाजन मिटा दो, जो कि पहला विभाजन है, जिसके बाद तमाम अन्य विभाजन चालू होते हैं, वो तो तुम नहीं कर पाए, लेकिन तुमने राष्ट्रवाद को एक घातक विचार बताते हुए मंदिर को मिटा दिया, और मंदिर को मिटाने से इतना ही हुआ, कि जो एकमात्र संभावना थी, जो एकमात्र आशा थी, कि दुनिया से व्यर्थ की दीवारें, सीमाएँ और विभाजन गिर जाएँ, वो आशा मिटी, खत्म हो गयी। तो जब आप राष्ट्रवाद के खिलाफ बात करते हैं, तो थोड़ा जमीन पर रहकर बात करिए।

एक ओर तो हम बिल्कुल कहेंगे कि आसपास का माहौल कैसा भी हो, आपको अपनी पूरी कोशिश करनी चाहिए कि आप सही रहें और सच्चे रहें, लेकिन जिन्होंने प्रश्न कर है, अनिल और अनिकेत, मैं आपसे पूछ रहा हूँ, जरा बताना, क्या तुम्हारे लिए ये संभव है कि तुम्हारे आसपास का माहौल कैसा भी रहे, तुम सही और सच्चे रह जाओगे? सही और सच्चे बने रहने के लिए अपने आसपास का माहौल भी तो थोड़ा नियमित होना चाहिए ना? थोड़ा अध्यात्मिक होना चाहिए ना? थोड़ा सही-सच्चा होना चाहिए ना?

तुम मिटा दोगे मंदिर, तुम्हें वो माहौल कहाँ से मिलेगा? बोलो। दुनिया के कई देश हैं जिनमें धर्म वर्जित कर दिया गया है। हमारे उत्तर में ही एक विशाल देश है जिसमें धर्म करीब-करीब वर्जित है। तुम लोग वहाँ रहकर के आध्यात्मिक साधना कर पाते, अनिल और अनिकेत? तुम लोग वहाँ रहकर के मुझसे ये सारे सवाल पूछ पाते क्या? तो तुम्हें भी एक ऐसा अपने लिए शांत स्थान चाहिए ना जहाँ पर धर्म की स्थापना की जा सके, जहाँ उच्चतर मूल्यों के आधार पर कामकाज चलता हो। और अगर वैसा कोई शांत स्थान तुमको मिलता है, तो तुम उस शांत स्थान की सुरक्षा करना चाहोगे या नहीं चाहोगे? बोलो! या तो तुम यह कह दो साहब कि दुनिया से सब सीमाएं मिटा दीजिए, और फिर उसके बाद इंसान बिल्कुल अतिमानव हो जाएगा, सुपरमैन, और कहीं भी कैसा भी माहौल होगा, हम उस माहौल में अपनी सच्चरित्रता और अपनी सत्यता बरकरार रख लेंगे, रख लोगे क्या?

एक देश है, मान लो अमेरिका, जहाँ की तकरीबन सारी ही आबादी जानवर मारकर खाती है। यहाँ हालत यह है कि अधिकांश लोग सालभर में अपने वजन से कहीं ज्यादा वजन के जानवरों को मारकर खा जाते हैं। तुम अगर उस देश में पैदा हुए होते, तो क्या तुम अहिंसक, शाकाहारी रह पाते? भई, बच्चा तो बच्चा होता है, वहाँ भी जो बच्चा पैदा हो रहा है, वो भारत में पैदा हुए बच्चे जैसा ही है ना? पर वहाँ के बच्चे को एक ऐसे देश का माहौल मिला, जहाँ संस्कृति ही यही है: "काटो-मारो-खाओ! लाओ चिकन कहाँ है? मटन कहाँ है? पोर्क कहाँ है? बीफ कहाँ है? लाओ खाएं"। तुम अगर वैसे देश में पैदा हुए होते तो निपुच आता ना सारा अध्यात्म? फिर कौन-से उपनिषद और कौन-सी साधना? तो तुम उपनिषदों के पास जा सको, तुम साधना कर सको, तुम समस्त प्राणियों के प्रति करूणा रख सको, इसके लिए भी भारत देश का होना आवश्यक है कि नहीं है? और अगर भारत देश को होना है, तो भारत देश हवा में तो नहीं झूलेगा, भारत देश को जमीन पर ही होना पड़ेगा। और अगर जमीन पर है भारत देश, तो सीमाएं होंगी, और अगर सीमाएं होंगीं तो उन सीमाओं को सुरक्षाबल चाहिए, सेना चाहिए, प्रहरी चाहिए कि नहीं चाहिए?

हटा लो तुम सीमाओं से सेना ये कह कर कि राष्ट्रवाद तो बड़ा जहर होता है, और अध्यात्म में तो देशभक्ति का कोई काम ही नहीं है, बिल्कुल हटा लो सीमाओं से सेनाएं। और भूलना मत कि उन्हें अक्साई चीन क्यों चाहिए। अगर थोड़ा-सा शोध करोगे तो पता चलेगा कि वहाँ से दिल्ली बहुत दूर नहीं रह जाती। और हो गया दिल्ली पर एक बार कब्ज़ा, तो तुम कह लेना कि नहीं साहब हमको तो भजन-कीर्तन चाहिए, हमको तो हनुमान चालीसा चाहिए, हमें तो मंदिरों में रामचरितमानस का पाठ चाहिए।

चीन में ज़िन जियांग है, उनकी एक प्रोविन्स, उनका एक राज्य, जहाँ वो मुस्लिमों को इतना भी हक़ नहीं देते कि अगर रमजान है तो रोज़े रख लो। वो कहतें हैं कि हर आदमी को सिर्फ और सिर्फ उत्पादकता, प्रोडक्टिविटी के लिए काम करना है, ताकि चीन आगे बढ़ सके। और चीन में मतलब है कि "द पीपल मस्ट वर्क"। तो अगर आप व्रत रखोगे दिनभर, महीनेभर, तो आप काम कैसे करोगे? तो व्रत वगैरह कोई नहीं रखना, चलो काम करो, चलो काम करो। तो तुम हटा लो सीमाओं से सेनाएं, उसके बाद तुम अपने एकादशी के व्रत रख लेना, उसके बाद तुम्हारा अध्यात्म खूब फलेगा-फूलेगा!

लेकिन वही एकदम हवा-हवाई बातें जिनका जमीनी व्यवहार से कोई संबंध ही नहीं, कह रहे हैं: "अध्यात्म में सेनाओं की क्या जरूरत? आचार्य जी, आपने क्यों कह दिया वेदान्त के ज्ञान को और सेना के सम्मान को एक ही सांस में? इन दोनों बातों को आपने जोड़ क्यों दिया?”

इसलिए जोड़ दिया बेटा क्योंकि जमीन पर धर्म भी फल-फूल सके, इसके लिए तुम्हें जमीन का एक सुरक्षित टुकड़ा चाहिए। बताया ना अभी, मंदिर को भी दीवारों की जरूरत होती है। और अगर दीवारें नहीं होंगी तो तुम मंदिर में पूजा-पाठ नहीं कर पाओगे। मंदिर के भी कपाट बंद होते हैं, वहाँ भी ताले लगते हैं, वहाँ भी सीमाएं चाहिए। तो निश्चित तौर पर मैं कह रहा हूँ कि आमतौर पर राष्ट्र जिस आधार पर बनते हैं, वह आधार मूर्खतापूर्ण होता है, क्योंकि आदमी के भीतर के ज्यादातर विभाजन मूर्खतापूर्ण हैं ही, तो उस तरह का राष्ट्रवाद निश्चित रूप से जहरीला है।

लेकिन राष्ट्र और राष्ट्र में अंतर होता है भाई। जब आप भारत राष्ट्र की बात कर रहे हैं, भारत राष्ट्र कोई राजनीतिक इकाई नहीं है। मैं कई बार कह चुका हूँ: भारत राष्ट्र, वेदान्त की परंपरा का राजनैतिक प्रकटीकरण है। वेदान्त आत्मा जैसे भौतिक अभिव्यक्ति पा गयी हो। तुम उसको कुछ सुरक्षा देना चाहते हो या नहीं देना चाहते हो? या तुम्हारा कुछ ऐसा खयाल है कि इसको तो कुछ सुरक्षा की जरूरत नहीं। तुम मत दो सुरक्षा, और फिर मुझे दिखा दो कि इसी भारत के जो हिस्से असुरक्षित रह गए, उनमें आज कहाँ है वेदान्त? बताओ। या है अभी? जो हिस्से आपने गँवा दिए, उन हिस्सों में कहाँ है वेदान्त? दिखाओ ना मुझको? उन जगहों पर फिर रहने वाले जो लोग थे, आपने ही, उनके साथ अन्याय करा कि नहीं करा? ये जो भारत देश है, जिसको आप सिर्फ एक राजनैतिक इकाई बोलते हो, मैं कह रहा हूँ कि इसका कोई हिस्सा आज अगर राजनैतिक दृष्टि से भारत से अलग हो जाए, तो ये उस हिस्से में रहने वाले लोगों के साथ अन्याय हो जाएगा कि नहीं हो जाएगा?

इतिहास पर नजर डाल लो कि क्या हुआ है उन हिस्सों के साथ जो भारत से अलग हो गए। तुम चाहते हो कि भारत के जो हिस्से हैं अभी उनका भी वही हश्र हो जो उन हिस्सों का हुआ जो भारत से अलग हो गए? और अगर तुम वो हश्र नहीं चाहते, तो क्या तुम नहीं चाहोगे कि तुम्हारी जो सीमाएं हैं वो सुरक्षित रहें? बोलो!

जिस वीडियो की तुम बात कर रहे हो, उस वीडियो में मैंने साफ बोला था कि भारत देश महत्वपूर्ण है क्योंकि भारत देश भारत राष्ट्र की राजनैतिक अभिव्यक्ति है, और भारत राष्ट्र महत्वपूर्ण है क्योंकि भारत राष्ट्र मूलतः वेदान्त के ऊंचे मूल्यों पर आधारित है। भले ही आप किसी पंथ, परंपरा आदि के अनुयायी हों, लेकिन आप गौर से देखेंगे तो आपकी भारतीयता में वेदांत के शाश्वत मूल्य ही कूटस्थ हैं। हो सकता है कि आपने स्वयं वेदान्त पढ़ा भी ना हो, लेकिन फिर भी जिसको आप भारतीय संस्कृति कहते हैं, उसके सब मनके, वेदांत रूपी सूत्र के इर्दगिर्द ही पिरोए गए हैं, और वो ऊंचे से ऊंचे मूल्य हैं जो मानव ने जाने हैं। तो चूंकि भारत राष्ट्र वेदान्त के उदात्त मूल्यों पर आधारित है, इसीलिए भारत राष्ट्र बचाए जाने का अधिकारी है। और चूंकि भारत राष्ट्र अधिकारी है सुरक्षा का, संरक्षण का, आदर का, इसीलिए भारत देश अधिकारी है कि उसकी, भले ही सिर्फ़ वो राजनैतिक इकाई हो, लेकिन उसकी रक्षा की जाए।

हाँ, कभी ऐसा समय आ जाए, भारत देश भारत राष्ट्र से बिल्कुल अलग हो जाए, तब हम कुछ अलग बात करेंगे। कभी ऐसा हो जाए कि जो भारत देश है उसकी राजनैतिक व्यवस्था भारत राष्ट्र से बहुत दूर छिटक जाए, तो फिर हम बात करेंगे कि क्या करना है। पर अभी तो लगता नहीं कि वैसा समय आया है। समझ में आ रही है बात? इसीलिए भारत में परंपरा रही है कि राष्ट्रभक्ति आपकी धार्मिकता का अंग रही है। इसीलिए आपसे सिर्फ ये नहीं कहा जाता था कि देवी-देवताओं की या ईश्वर की भक्ति करो, आपसे कहा जाता था कि ये बात भी धर्म के अंतर्गत ही आती है कि आप राष्ट्र की भी भक्ति करो। क्योंकि राष्ट्र वो जमीनी जगह है, वो मंदिर है जहाँ आपका धर्म पल्लवित, पोषित होता है।

वो जमीनी जगह ही नहीं रहेगी तो धर्म आगे कहाँ से बढ़ेगा? कहो! बोलो! तो इसलिए सेनाएं जरूरी होती हैं। अब ये कहकर मैं, जो व्यर्थ तरीके का राष्ट्रवाद होता है ना, उसका समर्थन नहीं कर रहा हूँ। हिटलर भी राष्ट्रवादी था पर उसका राष्ट्रवाद आधारित था जर्मन खून की, जर्मन नस्ल की श्रेष्ठता पर। वो कहता था कि ये जो हम जर्मन लोग हैं ना, हम बाकी सब नस्लों से श्रेष्ठ हैं, तो उसका राष्ट्रवाद इस चीज पर आधारित था। ऐसा राष्ट्रवाद मूर्खता का है, क्योंकि इस राष्ट्रवाद के केंद्र में कोई ऊंचा मूल्य है ही नहीं, नस्लवाद है, रंगभेद है, तो उस तरह का राष्ट्रवाद मूर्खतापूर्ण है। लेकिन राष्ट्र और राष्ट्र में अंतर है, और राष्ट्रवाद और राष्ट्रवाद में अंतर है।

एक राष्ट्र होता है ऐसा, जो दूसरे राष्ट्रों से उच्चतर मूल्यों पर आधारित हो। बिल्कुल होता है। थोड़ा हटाइए अपने आदर्शों को और जमीनी बात करिए। सब राष्ट्र एक ही आधारशिला पर नहीं खड़े होते। तो आंखें खोलकर के निरपेक्ष, निष्पक्ष दृष्टि से पूछिए कि भारत राष्ट्र का क्या आधार है, और फिर आपको समझ में आएगा कि यह जो महान प्रयोग है, जिसे भारत कहते हैं, ये महान तो है ही लेकिन ये खतरे में भी है।

हमने कहा ना, जितने गंदे इलाके में मंदिर होगा, मंदिर उतने खतरे में होगा। दुनिया गंदी थी और इस वक्त तो विशेषतया गंदी है, तो उसमें यह जो भारत नाम का प्रयोग है, इसको बहुत खतरा है बाहर से भी और भीतर से भी। इसे सुरक्षा की जरूरत निश्चित रूप से है, ऐसे समय पर यह कहना कि साहब सेना वगैरह बेकार की चीजें हैं, और सेनाओं पर तो धन की बर्बादी होती है, इस तरह के कई तर्क दिए जाते हैं कि सेना पर आप इतना धन लगा रहे हैं उससे अच्छा आप इतने अस्पताल बना दीजिए, इतने आप विद्यालय बना दीजिए। तुम्हारे अस्पताल, तुम्हारे विद्यालय क्या करेंगे? अस्पताल और विद्यालय तो खूब थे हिंदुस्तान में, लेकिन जब कोई तैमूर लंग घुस आएगा तो क्या करोगे अस्पतालों का और विद्यालयों का, बताओ? तैमूर याद है ना, तैमूर कौन था? जो नाता यहूदियों का हिटलर के साथ है, वही नाता भारतीयों का तैमूर के साथ है, उतना ही क्रूर आक्रांता था वह, और उतनी ही उसने दहशतगर्दी और ख़ूनखच्चर करा था दिल्ली में। और बाहर से जानते हो ना वह क्यों आया था हिंदुस्तान? क्योंकि हिंदुस्तान एक बहुत विकसित राष्ट्र था आर्थिक रूप से, यहाँ सोना बहुत था, यहाँ लोगों के पास अपेक्षतया दुनिया के अन्य मुल्कों की अपेक्षा पैसा ज्यादा था, तो इसीलिए दुनियाभर से जो आक्रमणकारी थे, यहाँ आक्रमण करने के लिए आकर्षित होते थे। कोई बिल्कुल ही बेकार दरिद्र जगह हो तो वहाँ कोई आक्रमण करेगा क्या? भारत पर यह सब आक्रमण क्यों करते थे? भारत में पैसा खूब था। पैसा खूब था तो अस्पताल तो रहे ही होंगे, चिकित्सालय रहे होंगे, विद्यालय रहे होंगे। विद्या का स्तर भी यहाँ खूब ऊंचा था, तो विद्यालय भी थे, चिकित्सालय भी थे। तुमने तैमूर को रोक लिया विद्यालयों से और चिकित्सालयों से? और तैमूर ने जो आग लगाई थी हिंदुस्तान में, हिंदुस्तान आज भी पूरी तरह उबरा नहीं है। तैमूर हो, गौरी हो, गजनवी हो, ना जाने कितने आक्रांता आए। भारत में बड़े-बड़े विश्वविद्यालय थे, क्या हुआ उन विश्वविद्यालयों का? कहते हैं कि सेना की ओर जो धन जा रहा है उस दिन से विश्वविद्यालय बना देने चाहिए। क्या हुआ तक्षशिला का? क्या हुआ नालंदा का? बताओ ना मुझे? थे तो बड़े-बड़े विश्वविद्यालय, उन विश्वविद्यालयों ने रोक लिया आक्रांताओं को? और जब वो आक्रांता आए तो क्या वो विश्वविद्यालय खुद भी बचे? बौद्ध धर्म के ग्रंथ नहीं मिलते, जैनों के ग्रंथ नहीं मिलते, कितने उपनिषद खो गए, दर्शन की कितनी किताबें मिलती नहीं, बताओ क्यों नहीं मिलती वो किताबें? वह सब विश्वविद्यालयों में थीं, और बर्बर आक्रांताओं ने उन विश्वविद्यालयों को आग लगा दी। आज वो किताबें मिलती ही नहीं हैं, मिलती भी हैं तो उनके आधे सूत्र मिलते हैं, आधे खो गए। बौद्धों और जैनों से ज्यादा शांतिप्रिय धर्म किसी का था? और बौद्ध कैसे काटे गए भारत के पश्चिमी हिस्सों में इसकी कोई मिसाल है?

आप शांतिप्रिय हो जाएं तो हो जाएं, दुनिया शांतिप्रिय हो गयी क्या? आप कह रहे हैं "सेना की जरुरत क्या है?” जिसे आप अफ़ग़ानिस्तान आज बोलते हो, और जिसको आप बोलते हो, "ये जगह तो दुनिया की सब हिंसा और आतंकवाद का केन्द्र है”, अफगानिस्तान को, कभी पाकिस्तान को आप ऐसे ही कहते हो ना कि सब दुनिया की हिंसा यहीं से निकलती है? अमेरिका से भी अक्सर वक्तव्य आते रहते हैं, "पाकिस्तान इज दि एपीसेंटर ऑफ ग्लोबल टेररिज्म"। अफगानिस्तान वही जगह था जहाँ गान्धार कला ने अपना यौवन पाया था, जहाँ बुद्ध की शिक्षा सबसे ज्यादा फली-फूली थी और प्रसारित हुई थी। बताओ ना कहाँ हैं बुद्ध अफगानिस्तान में आज? कहो! सिंधु नदी के किनारे तुम्हारे वेदों की रचना हुई, तुम्हारे उपनिषद सिन्धु नदी के तटों से, घाटियों से उठे हैं। आज? बामियान में बुध्द की प्रतिमाएं थीं। मैं कॉलेज में हुआ करता था उन दिनों की बात है, और तालिबान ने बुद्ध की प्रतिमाओं को पहले से पूरी दुनिया को बताकर, एक महीने-दो महीने पहले से बताकर के, उन सब प्रतिमाओं को, जो हज़ारों साल पुरानी हैं, उन्हें बम से उड़ाया। ये होता है, जब किसी क्षेत्र के पास कला होती है, बुद्धि होती है, धर्म होता है, अध्यात्म होता है, संस्कृति होती है, पर सेना नहीं होती। ये होता है। जाओ आज तुम पुनः बुध्द का शान्ति का संदेश कर लो ना प्रसारित अफगानिस्तान में, जाओ कर लो। आज से करीब 20 साल पहले की बात होगी, संयुक्त राष्ट्र संघ ने बड़ा हल्ला मचाया, भारत ने भी विरोध किया, लेकिन तालिबान को रोक नहीं पाए। उन्होंने पहले ही कहा: "ये तो बुत हैं, और बुतों का हमारे विचार में कोई स्थान नहीं, तो जो ये बुध्द की जितनी प्रतिमाएं हैं, सारी हम उड़ा देंगें"। उन्होंने उड़ा भी दीं हज़ारों साल पुरानी प्रतिमाएं।

चिकित्सालय बहुत अच्छी चीज हैं, विश्वविद्यालय बहुत ऊंची चीज हैं, धर्म-कला-संस्कृति, विचार की ऊंची से ऊंची उड़ान, ये सब बहुत बढ़िया हैं, लेकिन इस सबको सुरक्षा और संरक्षण चाहिए। भारत के पास ये सब कुछ थे, बस एक चीज नहीं थी, क्या? एक संयुक्त सेना। और उस संयुक्त सेना के अभाव का भारत ने बड़ा खमियाजा भुगता है। भारत अपने इतिहास में आज सामरिक रूप से जितना सक्षम है, उतना कभी नहीं था। और इतनी सामर्थ्य के बाद, इतनी सामरिक सामर्थ्य के बाद भी तुम देखते ही हो कि डोकलाम में क्या हो जाता है, और गलवान वैली में क्या हो जाता है। देख रहे हो ना! पुलवामा में क्या हो जाता है। ये सब तब है जब आज भारत जितना तैयार है, इतना अपने इतिहास में कभी नहीं था। सोचो अगर इससे कुछ कम तैयारी हो सेना की, तो क्या होगा?

सकल घरेलू उत्पाद (जी.डी.पी) के प्रतिशत के तौर पर भारत अपनी सेनाओं पर जितना खर्चा करता है, उससे दुगना खर्चा हमारे पड़ोसी देश करते हैं। और हम जितना खर्चा करते हैं सकल घरेलू उत्पाद के प्रतिशत के तौर पर, वो बढ़ नहीं रहा, वो कम ही होता जा रहा है, और पड़ोसी मुल्कों का बढ़ता ही जा रहा है। उसके बाद लोगों का कहना है कि "सेना तो बेकार की चीज है, सेना की जरूरत क्या है?” सेना निश्चित रूप से हटा देना, पर तब हटा देना ना जब आदमी और आदमी के बीच का द्वेष भी गिर जाए, और जब दुनिया के सब राष्ट्रों में अध्यात्म की और करुणा की और बंधुत्व की ज्योति जग जाए। जब दुनिया के सब देश ये कहने लग जाएं कि हमें दूसरे से कोई रंजिश नहीं, कोई द्वेष नहीं, हम दूसरे को ना मरना चाहते हैं, ना लूटना चाहते हैं, ना ही हम दूसरे का धर्मांतरण कराना चाहते हैं। जब सब देश ऐसा कहने लग जाएं, तब तुम दुनिया की सब सीमाएं निश्चित रूप से गिरा देना, और फिर तब किसी सेना की जरूरत भी नहीं होगी। लेकिन जब तक आदमी और आदमी के मन में अंधेरा है, तब तक तुम कम-से-कम उस जगह को तो सुरक्षा दो ना जहाँ प्रकाश का प्रबंध किया जा रहा है।

जब तक आदमी के मन में अंधेरा है, जब तक इस पूरी दुनिया के इंसानों के मन में अंधेरा है, तब तक कम-से-कम उस जगह को तो सुरक्षा दे दो जहाँ प्रकाश का प्रबंध किया जा रहा है। तुमने उस जगह को भी सुरक्षा नहीं दी, तो अंधेरे की ताकतें आकर उस जगह को लील जाएंगी, जहाँ से रोशनी उठने की संभावना है। समझ रहे हो बात को? तो इसलिए यह जो बातें हैं कि सरकारें तो सेना को पेशेवर हत्यारों की तरह इस्तेमाल करती हैं, ये सब बातें बिल्कुल फ़िजूल हैं, ना जाने कौन-सी किताबों में आप ये बातें पढ़ लेते हो। कम-से-कम भारत पर तो ये बातें बिल्कुल लागू नहीं होतीं।

एक तो हिंदुस्तान में यह बड़ा चलन है उदारवादी शिक्षा के कारण, कि जो कुछ यूरोप में हुआ, वो सारे सिद्धांत सीधे-सीधे उठाकर भारत पर लागू कर दो। वो कहते हैं कि "फासीवाद के ये पांच या छः चरण होते हैं—जब फ़ासिज़्म आ रहा होता है, तो उसके ये पांच लक्षण होते हैं"। फिर कहेंगे कि "देखो यह पांच चीजें जर्मनी में हुईं थी ना, और इटली में हुईं थी ना, अब देखो उन पांच में से तीन चीजें भारत में हो चुकी हैं। भारत में भी जल्द ही फासीवाद का वर्चस्व हो जाएगा"। अरे भाई, वह जर्मनी था, वह इटली था, यहाँ नहीं हो जाना है। तुम यहाँ कल्पना कर सकते हो कि जो हिटलर ने किया यहाँ कोई करेगा? यह करुणा का देश है, यहाँ यह थोड़ी हो जाने वाला है कि तुम लोगों को गैस चेंबर में डालकर मार रहे हो। इसी तरीके से ये सब बातें कि "सरकार सेना को पेशेवर हत्यारों की तरह इस्तेमाल करती है,” हमारी विरासत ऐसी नहीं है भाई। हिंदुस्तानी मरा खूब है, उसने मारा बहुत कम है।

अभी भी अगर तुम जाओगे और थोड़ा गूगल पर और विकिपीडिया पर पढ़ोगे कि आज तक के सबसे बड़े नरसंहार कौन-से हैं, उनमें आधे से ज्यादा नरसंहार तुम भारत में पाओगे। और वो भारतीयों के नरसंहार थे, भारतीयों द्वारा नहीं किए गए थे नरसंहार। कभी कोई घुस आया कभी कोई घुस आया, उसने मार दिया, ये कर दिया, वो कर दिया। या कि जो अभी सबसे निकट का है, 1971 में, पाकिस्तानी सेना ने बांग्लादेश में ना जाने कितने लाख लोगों को मार भी डाला, जबरदस्त रूप से बलात्कार भी किया, और वो जो हत्या का और बलात्कार का वीभत्स कार्यक्रम चला था उसमें भी धार्मिक आधार पर छटाई की गई। समझ रहे हो? सेना की जरूरत है। उस समय भी जितने लोग मारे गए 1971 में, उससे कई गुना मारे गए होते अगर मुक्तिवाहिनी के साथ भारतीय सेना ने कार्यवाही ना की होती तो। तो सेना को हत्यारा नहीं बोलो, सेना जान बचा रही है।

बाकी तो सेना और सेना में अंतर होता ही है, निर्भर करता है कि किसकी सेना है। एक कृष्ण की सेना है, एक दुर्योधन की सेना है, किसकी सेवा की बात कर रहे हो? जब तुम कह रहे हो कि सेना पेशेवर हत्यारों का समूह होती है, तो तुम किसकी सेना की बात कर रहे हो? सेना और सेना में अंतर होता है, होश में आओ।

जो लोग तुमको पढ़ा रहे हैं, जिन विश्वविद्यालयों से तुम सबक ले रहे हो, उनके हिसाब से तो कृष्ण होते ही नहीं, कृष्ण में तो उनकी कोई आस्था ही नहीं है, गीता तो उनके हिसाब से फ़िजूल है, तो उनके हिसाब से सब सेनाएँ दुर्योधन की ही होती हैं। लेकिन तुम्हें याद रखना चाहिए कृष्ण की भी सेना होती है, और कुछ युद्ध होते हैं जो धर्म की संस्थापना के लिए किए जाते हैं। आप कितने भी शांतिप्रिय हों, आप कितने भी शांतिवादी हों, आप कितने भी आध्यात्मिक हों, लेकिन एक मौका आता है जब आपको कहना पड़ता है कि, "अर्जुन, धनुष उठा और तीर चला," वक़्त आ गया है अब मारने का। और अगर आप में सामार्थ्य ही नहीं है धनुष उठाने की और तीर चला पाने की, तो फिर आप तैयार रहिए कि सत्ता दुर्योधन जैसों के हाथ में रहेगी, उन्हीं के बनाए नियम कायदे चलेंगे और फिर दुर्योधन के राज में आप कर लेना नैतिकता की स्थापना, धर्म की स्थापना, अध्यात्म की स्थापना। उच्चतर मूल्यों की स्थापना कर लेना, जब दुर्योधन जैसे राजा होंगे तो कर लेना। दुर्योधन जैसे राजा ना बनें इसी के लिए सेना भी चाहिए होती है। हाँ, वो सेना कृष्ण की सेना होनी चाहिए।

सेना और सेना में अंतर है, मैं सब सेनाओं का समर्थन नहीं कर रहा हूँ। पर जब पाश्विक सेनाएं होती हैं, तो उनके खिलाफ फिर मानवीय सेनाएं भी चाहिए ना? जब सेना और सेना में अंतर होता है, इसका मतलब अंधेरी सेनाएं बहुत हैं, कोई प्रकाशित सेना भी चाहिए ना या नहीं चाहिए? या हम कह दें, सब सेनाएं अंधेरे की हैं तो हमारी जो सेना है, हम उसको बिल्कुल खत्म किए देते हैं, ताकि आसपास का जितना अंधेरा है वो हमारे ऊपर चढ़ बैठे? और मैं जो बात कह रहा हूँ वो कोई फ़िजूल आदर्शवाद नहीं है। पूरे इतिहास में हमने यही तो होते देखा है ना भारत के?

तो जो लोग सच्ची जिंदगी जीने के आकांक्षी हों, वो एक बात समझ लें: सच्ची जिंदगी जीने के लिए सिर्फ अच्छा आंतरिक माहौल काफी नहीं होगा, आपको एक बाहरी माहौल भी बनाना पड़ेगा, जहाँ सुशासन चलता हो, जहाँ धार्मिकता चलती हो, जहाँ सच्चरित्रता चलती हो, उसी को एक सच्चा राष्ट्र कहते हैं।

एक साफ-सुंदर बाहरी माहौल भी चाहिए ना? वो बाहरी माहौल ठीक नहीं है तो तुम अपना अंदरूनी माहौल ठीक नहीं रख पाओगे, अपनी पूरी कोशिशों के बात भी? आप कहते हो, उदाहरण के लिए, आपको सब जीव प्यारे हैं, आपको हर जीव में परमात्मा और नर-नर में नारायण दिखाई देता है, और आपको धूल के कण-कण में भी ईश्वर दिखाई देता है, ठीक? और आप रह रहे हो कसाइयों के मौहल्ले में, जहाँ दिन-रात बस पशुवध की दिल दहला देने वाली आवाजें आपके कानों में पड़ती हैं, आप शांत रह लोगे? बोलो, रह लोगे शांत? इधर सूअर काटा जा रहा है, उसके बिलबिलाने की आवाज़ आ रही है, वहाँ बकरा कट रहा है, उसके छटपटाने का दृश्य आपके सामने है, इधर भैंसा कट रहा है, लहू की धार बह रही है आपके घर के सामने से, आप रह लोगे शांति से? आपका अध्यात्म परवान चढ़ लेगा? तो बाहरी माहौल भी जरा ठीक रखना पड़ता है। और बाहर माहौल तब तक ठीक नहीं रख पाओगे जब तक बाहरी माहौल ठीक रखने की भौतिक क्षमता आप में नहीं होगी। इसीलिए जो चाहते हों साफ और सुंदर तरीके से रहना, उनके पास इस जगत में भौतिक शक्ति भी होनी चाहिए, नहीं तो आप बस कोरी आदर्शवादी बातें करते रहोगे। आप कहोगे, "क्या करना है? बाहर जो हो रहा है सो हो रहा है, हम तो अपने आंतरिक जगत में रहते हैं।" ये बेकार की बात है। तुम्हारा ना निर्वाण हो गया है, ना मोक्ष हो गया है कि तुम सिर्फ अपने आंतरिक जगत में रहते हो। ये तुम कायरता की बातें कर रहे हो, चूंकि तुम्हारी हिम्मत नहीं है बाहर की हिंसक और डरावनी ताकतों से लड़ पाने की, इसलिए तुम कहते हो "बाहर जो हो रहा हो सो हो रहा हो, हम तो साहब अपनी भीतर की दुनिया में मस्त मगन रहते हैं"। अरे हटाओ! बाहर की दुनिया भी ठीक रखनी होती है: चाहे अपना घर हो, चाहे मोहल्ला हो और चाहे राष्ट्र हो। तो इसीलिए सेना चाहिए ताकि आपके पास ताकत रहे कि कोई आ रहा हो आपके घर को प्रदूषित करने, गाड़ने, जलाने तो आप विरोध कर पाओ।

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