July 24, 2019 | आचार्य प्रशांत
प्रश्न: आचार्य जी, प्रणाम। विचारों का प्रवाह पहले से अधिक अनुभव होता है। कहाँ-कहाँ की सारहीन बातें मन को घेरे हैं। मन को निरंतर चलता देखकर खीज-सी उठती है, कि ये विचार क्यों और कहाँ से आ रहे हैं। पहले इतना शोर अनुभव नहीं होता था। अब मन यह देखकर इतना परेशान क्यों है?
आचार्य जी, कृपया इस पर प्रकाश डालें।
आचार्य प्रशांत जी: जब बीमारी का या गन्दगी का नया-नया पता चलता है, तो खीज तो उठती ही है न। अँधेरे कमरे में तो ये भी पता नहीं चलता कि सफ़ाई कितनी है और गन्दगी कितनी। जब प्रकाश पड़ेगा, तो संभावना यही है कि झटका लगेगा, खीज होगी, दुःख होगा। पहले शांत और आश्वस्त बैठे थे, अब पता चलेगा कि करने के लिए भी तो बहुत काम शेष है। कमरा बड़ा गन्दा है।
और यही बात बीमारी के उद्घाटित होने पर भी लागू होती है।
बीमारी जब तक छुपी है, तब तक चैन है। इधर -उधर थोड़ा दर्द हो रहा होगा। पर अभी तक ज्ञान नहीं हुआ कि तन में गहरी बीमारी आकर बैठ गई है। और जिस दिन बीमारी का पता चलता है, रिपोर्ट आती है, उस दिन तोते उड़ जाते हैं, जैसे की रिपोर्ट ने बीमार कर दिया हो। जैसे की रिपोर्ट अपने ऊपर बीमारी बैठाकर लाई हो।
लेकिन गन्दगी का ज्ञान होना, बीमारी का ज्ञान होना, शुभ है।
बुरा लगता है, लेकिन शुभ है।
और ये बात हम जानते हैं, इसीलिए पैसे ख़र्च करके, दाम चुका के उसके पास जाते हैं जो हमें बता सके कि हम बीमार हैं। वो आपको रिपोर्ट में लिखकर देता है कि आपको ये बीमारी है, ये बीमारी है, ये बीमारी है। वो आपसे क्षमा नहीं माँगता कि – “माफ़ करिएगा देवी जी। मैंने आपको बीमार घोषित कर दिया।” वो आपसे दाम माँगता है – “पहले पैसे दो, फिर तुमको बताएँगे कि तुम कितने बीमार हो।” और आप पैसे देते हो, क्योंकि बीमारी का उद्घाटित होना, बीमारी के इलाज की शुरुआत है।
तो इलाज शुरु करिए। और बिलकुल याद रखिएगा कि जो रुख आप पैथोलॉजी की तरफ रखती हैं, वही रुख आप उन सब लोगों की ओर रखें, उन सब घटनाओं, उन सब स्थितियों की ओर भी रखें, जो आपकी बीमारियों को उघाड़ने में सहायक हैं।
जो जितना आपको, आपके दोषों से, आपकी रुग्णता से परिचित कराए, उसको उतना धन्यवाद दें।
और धन्यवाद के साथ, हो सके तो कुछ दाम भी दे दें।
इतना ही नहीं कहा है कबीर साहब ने कि – “निंदक नियरे राखिए।” उन्होंने ये भी कहा है – “आँगन कुटी छवाय।” भई, रहने का, खाने-पीने का, मुफ़्त इंतज़ाम भी कर देना साथ में। ये नहीं कि उसको बस कह दिया कि – “आओ-आओ, पास आओ।” मुफ़्त आवास की सुविधा भी देनी होगी। जैसे पैथोलॉजी को पैसे देकर आते हो, ताकि वो बता सके कि तुम पाँच जगह से बीमार हो। वैसे ही निंदक को – रहना-खाना, मुफ़्त।
यही रवैया जीवन में रखिएगा।
खीजिएगा मत।
खीज उठेगी, पर आप खीजिएगा मत।
जितना पता चले अपने दोषों को, उतना सौभाग्य मानिएगा।
जिन विचारों की आप बात कर रही हैं, कि ये आ जाते हैं, वो आ जाते हैं, इन विचारों का ताल्लुक सत्य से थोड़े ही है। सब विकार ही हैं। दोष ही हैं। आप ही कह रही हैं, “इधर-उधर की बातें। लेना एक, न देना दो। मन में घूम रही हैं।”
जैसे -जैसे पता चलता रहे कि मन में घूम ही वही चीज़ें रही हैं जो व्यर्थ हैं, वैसे-वैसे जानती रहिए कि अब इलाज का कार्यक्रम तैयार हो रहा है।
लम्बी लड़ाई है, लड़नी है।
और उपकृत अनुभव करिए, कि पता चला दुश्मन का। अब कम-से-कम लड़ाई तो संभव हो पाएगी। वरना पहले तो वो छुपा हुआ था। बिना लड़े ही जीते ले रहा था।
आचार्य प्रशांत
कोई उन्हें अद्वैत वेदांत का समकालीन सर्वश्रेष्ठ प्रतिनिधि कह सकता है। कोई उन्हें किसी भी परम्परा से पूर्णत: परे सहज आत्मज्ञानी कह सकता है। समान रूप से, कोई उनके चरित्र में ज्ञान की अपेक्षा करुणा, प्रेम और श्रद्धा का आधिक्य देख सकता है। लेकिन उन्हें जानने का सबसे उपयुक्त तरीका है उनके काम को देखना। अधिक जानें
सुझाव