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प्रकृति है मैया, अहम है बबुआ || (2021)
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
19 min
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आचार्य प्रशांत: जीवात्मा प्रकर्ति से युक्त है। युक्त माने? जुड़ा हुआ, योग में। जो चीज़ किसी से योग में हो उसे कहते हैं युक्त। जीवात्मा त्रिगुणी प्रकृति से योग में है तो जीवात्मा गुणों से युक्त है। जीवात्मा प्रकृति से योग में है इसका क्या अर्थ है?

बात समझते चलिएगा। जहाँ समझ में नहीं आ रही हो, पूछिएगा। एक-एक करके श्लोक आगे बढ़ते रहें और जीवन में ना उतारें तो कोई लाभ नहीं।

जीवात्मा प्रकृति से योग में है इस बात का अर्थ क्या? जीवात्मा अगर अहम् है, तो अहम् क्या है? प्रकृति का ही एक तत्व। और इस बात की विवेचना सबसे सुन्दर कहाँ की गई है? श्रीमद्भगवद्गीता में, जहाँ पर प्रकृति की त्रिगुणात्मक सत्ता के बारे में श्रीकृष्ण ने विस्तार में बताया है। वो कहते हैं वहाँ पर कि अहम् भी प्रकृति का ही एक तत्व है।

प्रकृति माँ है। उस माँ के घर में बहुत सारे तत्व हैं जिसमें एक तत्व उस माँ का एक बच्चा, एक बेटा, अहम्, वो भी है। समझाने का एक तरीका है। ऐसा है नहीं, समझाने के लिए बोल रहा हूँ।

पूरा जो ब्रह्मांड है, उसको मानो एक घर। किसका घर है वो? प्रकृति। उसमें बहुत सारे क्या हैं? तत्व हैं। उन तत्वों में जो चैतन्य तत्व है उसका क्या नाम है? अहम्। तो पूरा ब्रह्मांड है, ब्रह्मांड प्रकृति का घर है, उसमें एक चैतन्य तत्व रहता है, उसका क्या नाम है? अहम्। माँ ने इस बेटे को पैदा किया है। माँ की उम्मीद है कि बेटा घर से बाहर निकलेगा और कुछ ऊँची उपलब्धि हासिल करेगा, जैसा कि माँओं का अक्सर ख्याल रहता है, इच्छा रहती है। अच्छी माँ होगी है तो अच्छी कामना ही करेगी अपने बेटे के लिए।

प्रकृति अच्छी माँ है, प्रकृति ने अपने बच्चे अहम् के लिए क्या कामना करी है? कि ये घर से बाहर निकलेगा। उसे अब पैदा घर में करा, पाला-पोसा घर में, बड़ा घर में करा। पर कौन सी माँ होती है जो चाहती है कि जिस घर में बच्चे को पाला-पोसा वो जीवन भर उसी घर में पड़ा रह जाए? कोई माँ ऐसा चाहती है? कोई माँ ये चाहती है क्या कि जिस घर में वो पैदा हुआ, फिर बड़ा हुआ, जवान हो गया, वो उम्रभर उसी घर में पड़ा रह जाए? माँ ऐसा चाहती है? ऐसा अगर माँ चाहती हो तो बड़ी गड़बड़ माँ है। काबिल होगी माँ तो क्या चाहेगी? कि, "भाई, अब तू बड़े हो गया। अब तू बाहर निकल और जो चीज़ पाने लायक है उसको पा। ऊँची उपलब्धि हासिल कर।"

तो प्रकृति भी अहम् से यही चाहती है कि अब तू इस घर से, माने कहाँ से? प्रकृति से बाहर निकल और कुछ ऊँचा हासिल कर। लेकिन प्रकृति के घर में बड़ी मस्त-मस्त, बढ़िया-बढ़िया चीज़ें हैं। आलिशान घर है और बबुआ उसी घर में रहा है बचपन से और बबुए को लग गई है आदत। अंग्रेजी में बोलते हैं न, *बॉर्न विथ अ सिल्वर स्पून*। बबुए को घर की ही चीज़ों की आदत लग गई है।

अब घर की चीज़ों से उसको क्यों पाला-पोसा गया था? घर में बहुत अच्छी-अच्छी चीज़ें हैं जिनसे उसका शरीर बना है, मस्तिष्क बना है, उसको ज्ञान दिया गया है। वो सब क्यों दिया गया था? ताकि वो एक दिन घर से बाहर निकल सके। पर बबुए को घर में ही अब मज़ा आने लग गया। बबुआ क्या है? अहम्। अहम् माने 'मैं'। 'मैं' माने तुम, हम सब।

बबुए को घर में मज़ा आने लग गया। बोल रहा है, "मम्मी, बाहर ना जाएँगे। यही ठीक है।" वो हम सब की हालत है। हम सब को घर में ही, प्रकृति के घर में मज़ा आने लग गया है। क्यों? क्योंकि घर में तीन बहुत मस्त-मस्त चीज़ें हैं: सत, रज, तम। आहाहा! सुबह-सुबह सत, दोपहर में रज, रात में बिस्तरे पर तम, सब ख़तम, काहे को बाहर जाना है!

सुबह सूरज उठता है तो बढ़िया-बढ़िया ज्ञान मिल जाता है, सात्विक ज्ञान। बबुआ को मज़ा आ गया घर में ही। उसकी होम एजुकेशन चल रही है, घर पर ही शिक्षा। तो बढ़िया लगा, अच्छा है ज्ञान मिल गया घर पर ही। प्रकृति के अंदर ही तो है सतोगुण, मिल गया ज्ञान। फिर अब दोपहर का समय आया, दस बज गए, बारह बज गए, दो बज गए। अब बाहर निकलकर कुछ हासिल करना है, वो सब भी घर के अंदर ही हो गया। बहुत विशाल घर है। तो जितनी राजसिक अभिलाषाएँ थीं वो भी घर में ही पूरी हुई जा रही हैं। और फिर रात में जो बेहोश पसर कर सोने का सुख है, बिस्तर पर तमोगुण, वो भी घर में ही मिल गया, तो बबुआ बोलते हैं, "हम तो बाहर नहीं जाएँगे।"

अब प्रकृति देवी परेशान हैं। बोल रही हैं, "ये क्या पूत जन दिया मैंने।" मुक्ति कहाँ है? घर से बाहर। और प्रकृति का जो राज़ है वो ये है कि उसने इस पूत को पैदा ही करा था कि ये बाहर जाकर के मुक्ति पाए, और समूची प्रकृति मुक्ति पा जाए अपने इस पूत के माध्यम से। पर ये पूत कपूत निकल गया। मुक्ति पाने की जगह इसने क्या किया? ये घर में ही बैठ गया।

हम सब वो कपूत हैं जो प्रकृति के घर में ही बैठ गए हैं और तीनों गुणों का उपभोग करे जा रहे हैं, करे जा रहे हैं। घर से बाहर निकल ही नहीं रहे अपनी नियति पाने के लिए, अपनी मुक्ति पाने के लिए। वो काम ही नहीं कर रहे, घर में ही बैठे हैं। प्रकृति हमें देख रही है और छाती पीट रही है कि, "हाय! हाय! ये क्या ग़लती हो गई मुझसे।"

अब समझ में आ रहा है कि प्रकृति इतनी सारी चैतन्य सत्ताएँ क्यों पैदा करती है? कि कोई तो पूत ऐसा निकले जो सपूत हो, जो बाहर जाए और हासिल कर के लाए। और कुछ जो बाहर हासिल करना है वो एक ही चीज़ है। बाहर निकलने को ही मुक्ति बोलते हैं।

तो प्रकृति माँ ज़रूर है लेकिन उसकी ये इच्छा कतई नहीं है कि तुम माँ के आँचल में ही दुबके रहो जीवनभर। लेकिन प्रकृति के ही तत्वों से ग़लत सम्बन्ध बना करके तुम प्रकृति को माया बना देते हो। सुना है न कई बार? मैंने ही बोला है कि प्रकृति ही माया है। प्रकृति वास्तव में माया नहीं है, प्रकृति को माया हमने बना दिया।

जब तुम प्रकृति से एक ग़लत सम्बन्ध बना लेते हो तो प्रकृति तुम्हारे लिए माया हो गई।

ये जो तीन गुण हैं, ये तीन गुण इसलिए हैं ताकि तुम एक-एक करके तीनों को लाँघ जाओ। ये इसलिए नहीं हैं कि इन्हीं को भोगते रहो, भोगते रहो। इनका इस्तेमाल सीढ़ियों के सोपानों की तरह करना है। एक कदम रखा, फिर ऊँचा कदम, फिर ऊँचा कदम और फिर आकाश में उड़ान, सब सीढ़ियों से परे। जो आकाश में उड़ गए तुम तो आत्मा हो गए। जब तक प्रकृति के आँचल में ही लोट रहे हो, जीवात्मा हो तुम। अंतर समझ में आ रहा है?

जब तक त्रिगुणी भोग का लोभ है तुम्हें, जीवात्मा हो तुम। जब इन्हीं तीनों गुणों का उपयोग करके इनका अतिक्रमण कर गए, आत्मा हो गए तुम। और याद रखना और कुछ नहीं है तुम्हारे पास। इससे बाहर जाने के लिए भी इसी का इस्तेमाल करना है। प्रकृति से बाहर जाने के लिए भी तुम्हें प्रकृति का ही इस्तेमाल करना है।

माँ ने बड़ी कोशिश की है, बड़ी तैयारी की है कि ऐसा कर पाओ। तुम्हें क्यों ये शरीर दिया है, क्यों बुद्धि, मस्तिष्क दिया है? प्रकृति में ही सारा ज्ञान निहित है, तुम्हें क्यों इतना ज्ञान मिला है? वो सब इसीलिए मिला है। ये समझ लो माँ ने तुम्हारी तैयारी करवाई है, कि "मेरे पास जो कुछ था मैंने तुझे दे दिया। सत, रज, तम सब मैंने तुझको दे दिया लड़के। अब मैंने तुझे जो कुछ दिया है — च्यवनप्राश, हॉर्लिक्स, बॉर्न्विटा सब दे दिया — अब इसका इस्तेमाल करके ताक़त दिखा और उड़ जा।"

अब वो लड़का निकला छौना। उसको जब कहा जाता है उड़ जा तो क्या बोलता है? "मम्मी, घर अच्छा है।" घर तो अच्छा है ही। माँ ने बड़े लाड़-प्यार से पाला है, घर में सब सुख-सुविधाएँ रखी हैं, तो घर तो अच्छा लगता ही है। उस घर में तुम्हारा एक ख़ास कमरा भी है, जानते हो? बहुत बड़ा घर है, विशाल घर है, पर उस विशाल घर में तुम्हें प्रकृति माँ ने एक ख़ास कमरा दिया है। उस कमरे का क्या नाम है? शरीर।

ये शरीर तुम्हारा वो ख़ास कमरा है जो तुम्हें प्रकृति माँ ने दिया है। ये तुम्हें ख़ास कमरा क्यों दिया गया है? ताकि इस ख़ास कमरे में तुम्हारी चेतना का पूरा विकास हो सके। ये कमरा इस तरीके से बनाया गया है कि इसमें तुम्हारी चेतना पूरी तरह विकसित हो सके, ऊँचाई पा सके। और फिर तुम इस कमरे का ही इस्तेमाल करके इस कमरे से आगे निकल जाओ।

लेकिन ये कमरा इतना बढ़िया है कि इससे बाहर आने का मन ही नहीं करता। कौन बाहर आए! जैसे जाड़े में रज़ाई से बाहर आने का मन ना करे। कौन बाहर आए। रज़ाई तुम्हें इसलिए दी गई थी कि तुम रज़ाई को ही क़ब्र बना लो, उसी में जीवनभर सोते रहो? जिस जगह पर तुम सोते ही रह जाओ वो जगह फिर बिस्तर नहीं क़ब्र कहलाती है, कि नहीं?

रज़ाई किसलिए दी गई थी? कि सो लो, ताज़े हो जाओ और फिर दूनी ताक़त के साथ उठो और कुछ करके दिखाओ। पर नहीं।

तो कैसा है आपका कमरा? इसे शरीर नहीं बोला करो, ऐसे बोला करो 'रूम नंबर चौदह-सौ-दो'। इसीलिए जब सत्र हो रहा हो तो दीवार पर टिककर नहीं बैठे रहते। त्रिगुणी माया का बहुत प्रभाव है। चौदह-सौ-दो से बाहर ही नहीं निकलना। जो चौदह-सौ-दो से बाहर नहीं निकल सकता, वो शरीर से बाहर निकल कर क्या करेगा? तुम तो बाहर वाले कमरे को भी नहीं छोड़ पा रहे, अंदर वाले कमरे को कैसे छोड़ोगे फिर? दिक़्क़त हो जाएगी न?

अब समझ में आ रहा है क्यों फ़क़ीर बोलते हैं, "सराय है, सराय है। चिपक मत जाओ।" ये जगह तुमको दी गई है काम करने के लिए, सोने के लिए नहीं दी गई है। बिस्तर को चिता नहीं बना लेना है। रज़ाई के नीचे क़ब्र नहीं खोद लेनी है। रज़ाई, बिस्तर ये सब बाहरी शरीर हैं। ये (शरीर) क्या है? ये अंदर वाला शरीर है, पर इससे भी लगभग वैसा ही रिश्ता रखो जैसा रज़ाई से, बिस्तर से और कमरे से रखा जाता है। जब तक उनकी ज़रूरत है इस्तेमाल करते हैं, और फिर उनसे आगे निकलते हैं न? हमें पता होता है ये संसाधन मात्र हैं। इनसे चिपकना नहीं है, इनका सही इस्तेमाल करना है। और सदा याद रखना है कि एक दिन आएगा बाहर निकलने का। वो दिन भूलना नहीं है।

जितने दिन तुम हो, उतने दिन वहाँ रहने की कीमत दे रहे हो, कि नहीं दे रहे? जैसे किसी भी कमरे में रहने की कीमत देते हो, भले ही वो कमरा तुम्हारा अपना ही क्यों न हो, तो भी कीमत तो दी न उसे बनवाने की? किराए पर हो तो भी दे रहे हो, अपना है तो भी दे रहे हो कीमत। दे रहे हो नहीं दे रहे हो? जैसे किसी भी कमरे में लगातार रहने की कीमत देते हो, वैसे इस (देह) कमरे में रहने की भी लगातार कीमत दे रहे हो। मूरख हो न अगर इसकी रोज़ कीमत दे रहे हो लेकिन इससे कुछ उगाह नहीं रहे?

तुम कहो कहीं कि, "साहब, हम आए हैं बिज़नेस विज़िट पर।" अभी यहाँ बैठे हो दिल्ली और यहाँ से बैंगलौर चले जाओ और बोलो, "ये हमारी बिज़नेस विज़िट है। हम व्यापार के नाते यात्रा कर रहे हैं।" वहाँ तुम जाओ और किसी होटल में चेक-इन कर लो। वहाँ तुम भाड़ा दे रहे हो रोज़ का मान लो छः हज़ार रुपया और बीस दिन वहाँ रहे होटल में। गए थे फ्लाइट से, फिर छः हज़ार का होटल, फिर खाना खा रहे हैं तो उसका भी उस हिसाब से। तो मिला-जुला करके खर्चा कर आए दो-तीन लाख। खर्चा तो कर ही आए, और बीस दिन में पाया क्या? ठनठन गोपाल। तो क्या कहलाओगे? मूर्ख। मूर्ख कहलाओगे।

सज़ा जानते हो फिर कैसे मिलती है? दोबारा भेजे जाते हो और इस बार दो-हज़ार के होटल में ठहराए जाते हो। इसको वेदांत कहता है कि अब जब पुनर्जन्म होता है तो निचली योनि में होता है। यात्रा पर दोबारा भेजे जाओगे और घटिया होटल में ठहराए जाओगे। मनुष्य योनि नहीं मिलेगी, कोई और योनि मिलेगी क्योंकि मनुष्य योनि का तुमने सदुपयोग नहीं किया। तुमने बर्बाद कर दिया। महंगी योनि थी भाई, और तुमने बर्बाद कर दी। तो अब कुत्ते बनोगे। काहे? प्रकृति कहती है कि, "कुछ करके तो वैसे भी नहीं दिखाएगा, कम-से-कम भाड़ा ही कम लगे। पिछली बार गया था, ढाई-लाख रूपए फूँके, कर के कुछ भी नहीं आया। तो इस बार इस पर ढाई-लाख का निवेश करना ही नहीं है।"

तो इसी बात को भारत में इस तरह से फिर कहा जाता है कि जो लोग ये जन्म बर्बाद कर देते हैं, उनको अगला जन्म निचली योनि का मिलता है। लेकिन वो बात वैसी नहीं है कि अभी तुम मरोगे और तुम ही जाकर कुकुर बन जाओगे और उस कुत्ते की शक्ल थोड़ी-थोड़ी तुम्हारे जैसी होगी। और फिर कोई आएगा, कहेगा, "ये तो वही है, मेरा दोस्त। इसने अभी उधार ले रखे थे दस-हज़ार रूपए।" फिर कुत्ते से निकलवा रहा है पैसे। वैसा नहीं होगा। बात प्रतीकात्मक है, समझो।

तो भूलो नहीं कि इसमें (शरीर) में रहने का रोज़ किराया-भाड़ा दे रहे हो। जितना दे रहे हो उससे ज़्यादा हासिल करना है, वसूल करना है। कैसे करनी है वसूली? वसूली ऐसे करनी है कि समय को नापना है। मंज़िल दूर है, यात्रा चल रही है और समय बीत रहा है। समय ही सबसे बड़ी कीमत है जो तुम रोज़ अदा कर रहे हो। रोज़ क्या फिसल रहा है तुम्हारे हाथों से, क्या जा रहा है, क्या भुगतान? समय। बाकी सब चीज़ हो सकता है तुम बचा भी लो, एक चीज़ है जो तुम नहीं बचा सकते — समय। हो जाओ बहुत बड़े अमीर, घड़ी की टिक-टिक रोक लोगे? उम्र का बढ़ना रोक लोगे? वही एक चीज़ है जो तुम नहीं बचा सकते। तो उसी का इस्तेमाल करके तुम्हें नापना है कि जीवन का सदुपयोग किया कि नहीं किया, जो इसमें हमारा खर्चा हो रहा है वो वसूला कि नहीं वसूला।

रोज़ अपने-आपसे पूछो, "आज मुक्ति की तरफ कितना बढ़ा?" या "आज चेतना ने कितनी ऊँचाई पाई? आज बेड़ियाँ कितनी शिथिल हुईं? आज मैं और ऊँचा, बेहतर इंसान हुआ कि नहीं हुआ? आज डर कुछ कम हुआ कि नहीं हुआ?" इसी आधार पर नापना है कि ये जो पूरा दिन गुज़रा इसकी वसूली हुई कि नहीं हुई। वसूली नहीं हुई, तो फिर वही है कि रहने के लगाए दिन के दस-हज़ार रूपए और कमाया कुछ नहीं। हर दिन जो बीत रहा है उस पर प्रकृति का मीटर डाउन है। तुम कुछ हासिल करो या ना करो, मीटर चल रहा है। डरावनी बात है न? जिस दिन तुम पैदा होते हो उस दिन क्या होता है? मीटर डाउन हो गया। अब तुम कुछ हासिल करते हो कि नहीं करते हो, तुम जानो। भाड़ा लगना शुरू।

गड़बड़ बात ये है कि प्रकृति तो गिन रही है, हम गिन नहीं रहे। कैसे गिन रही है? (घड़ी की ओर इशारा करते हुए) वो रहा पीछे देखो। संख्याएँ दिख रही हैं पीछे वहाँ दीवार पर लिखी हुई? वो प्रकृति का मीटर है। प्रकृति तो गिन रही है लगातार कि मैंने इतना ही दिया है। और जितना उसने दिया है, जिस दिन पूरा हो जाएगा उस दिन तुमको वापस बुला लिया जाएगा। समय से ज़्यादा कोई जी सकता है?

तो प्रकृति का मीटर डाउन है। उस मीटर का क्या नाम है? घड़ी। वो तो चल रही है अपने हिसाब से, तुम्हारे पास कोई मीटर नहीं है। तुम गिनती ही नहीं करते कि आज कितना कमाया, कितना गँवाया। प्रकृति एक सेकंड नहीं चूक रही। कभी ऐसा हुआ है कि एक सेकंड चूक गई हो प्रकृति? कि घड़ी भूल गई हो और धोखे से तुमको दो मिनट ज़्यादा दे दिए हों, कभी ऐसा हुआ है? नहीं हुआ।

उसका मीटर तो चल रहा है। वहाँ पर एक-एक चीज़ लिखी जा रही है, नापी जा रही है, तौली जा रही है और हम कोई नापतोल कर नहीं रहे। हम बिलकुल नहीं नाप रहे कि आज का दिन कितना सार्थक बीता मेरा, पिछला घण्टा कितना सार्थक बीता मेरा। हम बिलकुल नहीं नाप रहे, घड़ी सब कुछ नाप रही है। तो अब बताओ जब घड़ी और हममें प्रतिद्वंद्विता होगी तो कौन जीतेगा?

तुम्हें एक ऐसी चेतना चाहिए अपने भीतर जो घड़ी को मात दे दे, पर वैसी चेतना हममें है नहीं। उसी को फ़िर कहते हैं कालातीत चेतना, काल को हरा दे ऐसी चेतना, काल पर भारी पड़े ऐसी चेतना। वो कालतीत चेतना हममें है नहीं। तुम्हारी चेतना में ये जान होनी चाहिए कि वो घड़ी से जीत सके। सिकंदर दुनिया में सिर्फ़ एक ही है असली। कौन? जो घड़ी को हरा दे। वरना बहुत बड़े-बड़े बादशाह हो गए। सबसे जीत लेते हैं, किससे हार जाते हैं? घड़ी से। घड़ी से जीत कर दिखाओ तो बात है।

वो टिक-टिक हमेशा याद रहे। "श्वास नगाड़ा कूच का बाजत है दिन-रैन।" कलाई पर नहीं भी बंधी तो भी धड़कन में बज रही है साँस बनकर। क्या कहा है साहब ने? "श्वास नगाड़ा कूच का।" कूच माने? विदाई। वो कह रहे हैं टिक-टिक नहीं है, नगाड़ा है भाई, नगाड़ा बज रहा है। कलाई वाली घड़ी तो बहुत महीन टिक-टिक करती है। साँस नगाड़े की तरह बजनी चाहिए भीतर। और दिन-रात बज रहा है वो नगाड़ा, "बाजत है दिन-रैन।"

साँस को याद रखो। साँस तुमको लगातार बता रही है कि तुम्हारा मीटर चल रहा है, मीटर चल रहा है, मीटर चल रहा है। "कुछ और खो दिया मैंने, कुछ और खो दिया मैंने। बिल बढ़ता ही जा रहा है, भुगतान करना है, बिल बढ़ता ही जा रहा है। कमाया क्या, भुगतान कैसे करूँगा?"

लल्लेश्वरी देवी के वाक हैं, वक्तव्य। उसमें वो कहती हैं, बहुत सुन्दर है, कहती हैं, "साँझ ढल रही है, पार जाना है। नाव तो दिख रही है, पर दिनभर मैंने दो कौड़ी भी नहीं कमाई, नाविक को दूँ क्या? पार कैसे जाऊँ?" ये हमारी हालत है। जो दिन बीत गया आज का, उसमें तुमने क्या कमाई करी? कैसे पार जाओगे, बताओ? सूरज तो ढल जाएगा, और सूरज के ढलने पर फिर मुझे पिंक फ्लॉयड (एक अंग्रेजी बैंड) भी याद आ जाते हैं। बोलते हैं, " नो वन टोल्ड यू व्हेन टू रन, यू मिस्ड द स्टार्टिंग गन। " फिर कहता है कि सूरज तो ढल रहा है, वो पीछे से वापस आ जाएगा। लेकिन जितनी बार सूरज तुम्हारे सामने से ढलकर पीछे से वापस आता है, उतनी बार तुम थोड़े और बूढ़े हो चुके होते हो। ' टाइम ' गाने का है। अब पिंक फ्लॉयड ने कोई आध्यात्मिक अंदाज़ में नहीं कही ये बात, बस इस मौके पर याद आ गई।

समझ में आ रही है बात? क्या? "पार जाना है और जेब में दो कौड़ी नहीं है। पार कैसे जाऊँ? दिन किस लिए मिला था? कि दिनभर वो कमाई कर लो जो कमाई साँझ को नाविक को दोगे ताकि वो तुमको पार लगा सके। पर पूरे दिन मैंने कमाई करी ही नहीं। अब नाव भी है, नाविक भी है, मैं पार कैसे जाऊँ?" लल्लेश्वरी कह रही हैं।

(आचार्य जी फ़ोन से पिंक फ्लॉयड के गीत के बोल पढ़ते हैं)

नो वन टोल्ड यू व्हेन टू रन, यू मिस्ड द स्टार्टिंग गन सो यू रन, एंड यू रन टू कैच अप विथ द सन बट इट्स सिंकिंग रेसिंग अराउंड टू कम अप बिहाइंड यू अगेन द सन इज़ द सेम इन अ रिलेटिव वे बट यू आर ओल्डर शॉर्टर ऑफ़ ब्रेथ एंड वन डे क्लोज़र टू डेथ

सुन लीजिएगा, मज़ा आएगा।

" नो वन टोल्ड यू व्हेन टू रन, यू मिस्ड द स्टार्टिंग गन। " कोई आता ही नहीं बताने। झूठ बोल रहे हो कोई आता नहीं बताने। ये हर बार जो टिक-टिक हो रही है और क्या बता रही है? ये स्टार्टिंग गन ही है। स्टार्टिंग गन तो एक बार बजती है, ये तो हर सेकंड में बजती है और यही बोल रही है, 'दौड़, दौड़'। और हम क्या कर रहे हैं? "मम्मी का घर है, काहे को दौड़ें? हम सोएँगे।" तो सोओ।

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