आचार्य प्रशांत आपके बेहतर भविष्य की लड़ाई लड़ रहे हैं
लेख
फ़िल्में: मनोरंजन या मनोविकार?
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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प्रश्नकर्ता: आचार्य जी एक तरफ तो फ़िल्में हमें मनोरंजन देती हैं, हँसाती हैं, रुलाती हैं और दूसरी ओर उसी इंडस्ट्री से दुखद और चौंका देने वाली खबरें भी आती रहती हैं। कुछ कहिए।

आचार्य प्रशांत: सबसे पहले तो हमें इस धारणा से बाहर आना होगा की फ़िल्में मात्र हमें मनोरंजन देती हैं। इस धारणा के पीछे हमारा अज्ञान है मन के प्रति और मनोरंजन के प्रति। हम चूँकि समझते नहीं कि मन क्या है और उसको क्यों उत्तेजना की या मनोरंजन की बार-बार ज़रूरत पड़ती रहती है; इसीलिए हम मनोरंजन की तरफ दौड़ते भी रहते हैं और मनोरंजन को साधारण या हानिरहित या कोई अगंभीर, सस्ता मसला समझ कर छोड़ देते हैं। मनोरंजन उतनी छोटी चीज़ नहीं है। रंजन का अर्थ समझते हो? रंजन का मतलब होता है दाग लगना। कई अर्थ हैं रंजन के जिसमें से एक अर्थ में दाग लगना। मनोरंजन एक तरीके से मन को दागदार करने का काम है। ख़ासतौर पर अगर मनोरंजन की गुणवत्ता पर ध्यान ना दिया जाए तो।

हम क्या सोच रहे हैं कि मनोरंजन बस आता है, हमारा मन बदल करके, हमारा मूड ठीक करके जैसा तुमने लिखा है कि हमें हँसाती हैं, रुलाती हैं फ़िल्में, बस इतना ही काम है उसका? तुम्हारा मन बहला देना और तुम्हारा मूड ठीक करके चले जाना? नहीं इतना ही नहीं है! हम जिस चीज़ का प्रयोग कर रहे हैं मनोरंजन के लिए, वह चीज़ आ करके हमें उत्तेजना या बहलाव देकर चली नहीं जा रही है। वह हमारे मन में बस जा रही है। रंजन माने क्या? दाग लगना, जैसे कोई बाहरी चीज़ आई हो उसने तुम्हें स्पर्श किया हो और स्पर्श के बाद उस चीज़ का निशान तुम्हारे ऊपर छूट गया हो। वैसे ही मनोरंजन है; कोई बाहरी चीज़ आती है, उसकी कहानी, उसके दृश्य, उसके गीत, उसके किरदार, वो आते हैं और ये नहीं है कि ढाई घण्टे बाद वो तुम्हारे मन से चले जाते हैं। वो पक्के तरीके से तुम्हारे मन में घर कर जाते हैं। घर कर जाने के बाद फिर वह तुम्हारे जीवन को ही संचालित करने लग जाते हैं। अब यह बात हममें से बहुत लोगों को बहुत दूर की लगेगी कि, "नहीं!नहीं! ऐसा थोड़े ही है कि वह हमारे जीवन को संचालित करने लगती हैं। अपने जीवन को संचालित तो हम ही करते हैं। फ़िल्म, टीवी या अन्य मीडिया का तो बस हम इस्तेमाल करते हैं अपनी खुशी के लिए।"

नहीं ऐसा नहीं है! आप भूल में हैं अगर आपको ऐसा लग रहा है कि आप फ़िल्मों का, टीवी का, गीतों का या अन्य मीडिया का इस्तेमाल कर रहे हैं अपनी खुशी के लिए। अगर ग़ौर से देखेंगे तो शायद यह पता चले कि वह सब मीडिया, गीत-संगीत वगैरह आपका इस्तेमाल कर रहे हैं। समझ रहे हैं? आपको लग रहा है आप उनका इस्तेमाल कर रहे हैं, अपने मन बहलाव के लिए, लेकिन तथ्य यह है कि वह सब कुछ आपका इस्तेमाल करे ले रहा है। वह आपके ऊपर चढ़कर बैठ जाता है।

अभी भी मेरी बात थोड़ी अविश्वसनीय लग रही होगी तो मुझे बताइए आपने ज़िंदगी में जो कुछ भी मन के बारे में, इंसान के बारे में, जीवन के बारे में, परिवार के बारे में, जीवन के उद्देश्य के बारे में जाना है वह अधिकांशतः कहाँ से आया है? किसने सिखाया आपको वह सब जिसको अब आप समझते हैं कि जीवन की साधारण और सर्वस्वीकृत बाते हैं? जिन बातों को अब आप कह देते हैं कि यह तो प्रकट ही हैं, प्रत्यक्ष ही हैं, ऑब्वियस ही हैं वह बातें आपको सिखाईं किसने? थोड़ा ग़ौर तो करिए आपको वह सब बातें क्या स्कूल की पाठ्यपुस्तकों ने सिखाईं? वो सब बातें क्या आपको बड़े-बड़े लेखकों, दार्शनिकों और विचारकों ने सिखाईं, वो सब बातें क्या आपको कवियों ने और ऋषियों ने और चेतना की ऊँचाई पाए हुए मनीषियों ने सिखाईं? ना!

कवियों से, लेखकों से, वैज्ञानिकों से, शोधकर्ताओं से, वो सब लोग जो जीवन में कुछ ऊँचा पाए और जिन्होंने जीवन को जाना और जिन्होंने जीवन को समझा उनसे तो हमारा कोई संपर्क ही नहीं है। उनके बारे में तो हम कुछ जानते ही नहीं। मेरी यह बात फिर कई लोगों को अविश्वसनीय लग रही होगी, वह कहेंगे, "नहीं!नहीं! हम जानते हैं।" अभी मैं उस पर एक छोटा सा प्रयोग कर लूँगा; साथ रहिएगा। हमारे मन में जो कुछ है वह अधिकांशतः फ़िल्मों से, टीवी से, रेडियो से और सस्ते मनोरंजन से ही आया है। यह बहुत-बहुत खतरनाक बात है। हमें प्रेम किसने सिखाया? फ़िल्मों ने, हमें रिश्तों का अर्थ किसने बताया? फ़िल्मों ने। नहीं किसी और ने नहीं बताया! बिलकुल मत कहिएगा कि हमें परिवार ने बताया। परिवार ने बताया तो परिवार को फ़िल्मों ने बताया। स्रोत क्या है? सीख कहाँ से रहे हैं आप? कहाँ से आपके भीतर आदतें और संस्कार आ रहे हैं कहिए तो? और यह बात स्वयं से पूछनी अगर बहुत कठिन लगती हो तो अपने आसपास दूसरों को देख लीजिए। दूसरों को देखिए और आपको पता चल जाएगा कि हममें से ज़्यादातर लोग फ़िल्मों के परदे पर जो पात्र होते हैं, उनको जीने की कोशिश कर रहे हैं। फ़िल्मों में जैसा प्रेम और जैसी शादियाँ दिखाई जाती हैं हमें प्रेम वैसा ही करना है, हमें शादियाँ वैसी ही करनी हैं।

नहीं ये मत कहिएगा की फ़िल्में हमारा अनुकरण करती हैं। नहीं! नहीं! नहीं! फ़िल्म आगे हैं आप पीछे हो। यह बहस शुरू भी मत करिएगा कि, "फ़िल्में तो वही दिखाती हैं न जो समाज में चल रहा है?" फ़िल्म तो कुछ भी दिखा देती है पूर्णतया काल्पनिक। तो वो क्या समाज में चल रहा होता है? फ़िल्म दिखा देगी कि एक रॉकेट है जो पृथ्वी-वासियों को करोड़ों मील दूर किसी ग्रह पर ले जा करके बसा रहा है। यह बात क्या वास्तव में हो रही है? नहीं हो रही है। फ़िल्में नई-नई जगहे बता देंगी, फ़िल्में नए-नए तरीके बता देंगी कभी प्यार करने के, कभी हत्या करने के। वह क्या वास्तव में हो रहा होता है? अधिकांशतः फ़िल्म ही जनता के मन का, जनता की कल्पना का, जनता की चेतना का नेतृत्व कर रही होती है। फ़िल्मकार कुछ कल्पना करके पर्दे पर उतारता है और जनता पर्दे पर जो देखती है उससे इतनी ज़्यादा वशीभूत हो जाती है कि पर्दे में देखी हुई चीज़ को वह ज़िंदगी में उतारने की कोशिश करने लग जाती है। तो हमारा पूरा जीवन संचालित कर रही हैं फ़िल्में।

फ़िल्मों को छोटा मुद्दा मत समझ लीजिए। हम सोचते हैं बड़े मुद्दे तो हैं शिक्षा और बड़े मुद्दे हैं राष्ट्र की सुरक्षा और बड़े मुद्दे हैं धर्म। इन मुद्दों पर अगर कहीं कोई विवाद खड़ा हो तो हम तुरंत सतर्क हो जाएँगे, सजग हो जाएँगे, हम कहेंगे, "यह सब बड़े गंभीर मुद्दे हैं! इन पर हमें जागरूकता दिखानी चाहिए", और फ़िल्मों को तो हम यूँ ही छोटा मसला, मनोरंजन की सस्ती बात समझ कर छोड़ देते हैं। हम कहते हैं, "ठीक है, कुछ नहीं है, ऐसे ही फ़िल्में देख आते हैं", लोग हैं टीवी देख लेते हैं वगैरह- वगैरह या वेबसाइट पर भी अब मनोरंजन आने लग गया है, ऑनलाइन इंटरटेनमेंट काफ़ी आगे बढ़ गया है। वह कहते हैं यह सब तो छोटी बाते हैं। नहीं! जितना बड़ा मुद्दा आपकी दृष्टि में आपके बच्चों की शिक्षा है, उदाहरण के लिए, उससे ज़्यादा बड़ा मुद्दा होना चाहिए आपकी नज़र में आपके बच्चों के मन में जो मनोरंजन पहुँच रहा है वो। क्योंकि शिक्षा जो स्कूलों कॉलेजों में मिलती है उससे ज़्यादा बड़ी शिक्षा तो मनोरंजन के नाम पर मीडिया से मिल जाती है और उसकी ओर आप ध्यान ही नहीं दे रहे। इसी तरह से राष्ट्र की सीमाओं पर जो हो रहा है उसको लेकर के हम बड़े सजग और सतर्क रहते हैं। हम कहते हैं, "बाहरी दुश्मन आया कहीं वो हम पर कब्ज़ा ना कर ले!" यही कहते हैं न हम कि, "सीमा के उस पार से दुश्मन आकर के हम पर कब्ज़ा ना कर ले"? इस बात के ख़िलाफ हम बड़े चौकस रहते हैं लेकिन सीमा के अंदर ही ऐसा दुश्मन बैठा हो जो अंदर बैठे-बैठे ही आपके मन पर कब्ज़ा किए ले रहा हो और आपको ग़ुलाम बनाए ले रहा हो तो आप क्या करोगे? मीडिया वह ताक़त है जो सीमा के भीतर ही बैठी हुई है और यहाँ बैठे-बैठे ही आपको मानसिक रूप से वश में किए ले रही है। आपको मानसिक रूप से ग़ुलाम बनाए दे रही है।

इसी तरह से आपके संस्कारों पर, आपकी प्रथाओं पर और धर्म पर अगर कोई वार करता हो तो तुरंत आप सड़क पर निकल जाते हो, उत्तेजित हो जाते हो, उग्र प्रदर्शन करने लग जाते हो लेकिन आप भूल ही जाते हो की सबसे ज़्यादा संस्कारित तो आपको फ़िल्में ही करती हैं, उनकी तरफ हमारा ध्यान ही नहीं है। उस मुद्दे को हमने छोटा, मूल्यहीन समझ कर यूँ ही छोड़ दिया है। राष्ट्र की सुरक्षा जितना बड़ा मुद्दा है, फ़िल्में, उन पर उतनी ही गंभीरता से ध्यान देना चाहिए। यही कि वहाँ चल क्या रहा है। क्या परोसा जा रहा है? देश के मन का किस प्रकार निर्माण किया जा रहा है बल्कि कहिए कि विध्वंस किया जा रहा है, उसमें विकृतियाँ डाली जा रही हैं। लेकिन इस ओर हमारा ध्यान नहीं है। क्यों? क्योंकि हम सोचते हैं, "ऐसे ही है, गीत-संगीत है फ़र्क क्या पड़ता है?"

मैं अभी थोड़ी देर पहले कह रहा था दुनियाभर का हमें कुछ पता नहीं। मैंने कहा वैज्ञानिकों का आपसे पूछा जाए, आपको पता नहीं होगा तो आपके मन पर वह कैसे प्रभाव डाल देंगे? आपसे लेखकों-चिंतकों का पूछा जाए तो आपको पता नहीं होगा तो वो आपके मन पर प्रभाव और संस्कार कैसे डाल देंगे? तो मैं कह रहा था आपके सारे संस्कार आ ही रहे हैं सस्ते मीडिया, फ़िल्मों और गीतों से। वहीं से हम जीवन की सीख ले रहे हैं। प्रयोग करके देख लीजिए- मैं अभी अगर आपसे कहूँ की फ़िल्मों के पाँच प्रसिद्ध गीतकारों के नाम बता दीजिए, आप खट-खट-खट-खट बता देंगे। कोई नहीं होगा जो फ़िल्मी गीतों को लिखने वाले लिरिसिस्ट के नाम ना जानता हो, सबको पता है। यही मैं आपसे कहूँ, "चलिए हिंदी के पाँच मूर्धन्य कवियों के नाम बता दीजिए", तो आप फँस जाएँगे। जो थोड़े पुराने लोग होंगे वो तो फिर भी बता दें, पर जो वर्तमान पीढ़ी है वह तो बिलकुल ही नहीं बता पाएगी। मैं पूछूँ सूर्यकांत त्रिपाठी निराला कौन? तो मुँह ताकेंगे। महादेवी वर्मा कौन? नहीं पता! सुभद्रा कुमारी कौन? नहीं पता! पंत कौन? नहीं पता! धूमिल कौन? मुक्तिबोध कौन? नहीं पता!

हाँ, कोई आड़े-तिरछे बोल के गीत लिखने वाला, नया-नया गीतकार, लिरिसिस्ट फ़िल्मोद्योग में आ गया हो तो उसका नाम बिलकुल फैल जाता है और उसने जो गीत लिखे हैं वह भाषा के साथ अत्याचार है। भाषा पर जैसे बलात्कार किया गया हो और एक नहीं एक साथ दो-तीन भाषाओं पर, कुछ पता नहीं चलेगा वह जो बोल हैं वो किस भाषा के हैं। कि उसमें हिंदी भी होगी, पंजाबी भी होगी, अंग्रेजी तो होने-ही-होनी है उसके बिना तो कोई गीत हो ही नहीं सकता अब, दो-चार शब्द और इधर-उधर की भाषाओं के डाल देंगे और कुछ शब्द ऐसी भाषाओं के होंगे जिनका इंसान को कुछ पता नहीं, जानवरों को भी कुछ पता नहीं कि वह भाषा कौन-सी है। वह बस आवाज़ें होती हैं "ऊह! आह!" भाषा के नाम पर और वह गीत में बोल की तरह चल रहा है, "ऊह! आह!"

मैं आपसे अभी कहूँ, निराला की कोई कविता सुना दीजिए, आप सुना सकते हैं? मैं कहूँ अज्ञेय की कोई रचना बता दीजिए, क्या आप बता पाएँगे? मैं कहूँ गीतांजलि ने भारत को गौरव दिलाया था, गीतांजलि से ही दो-चार उद्धरण दे दीजिए क्या आप दे पाएँगे? बहुत मुश्किल हो जाएगा। यहाँ छोटे-छोटे बच्चे हैं, जो अंगूठा चूस रहे हैं फ़िल्मी गीतों की तर्ज पर। फ़िल्मी गीत आपको खूब पता होंगे। आप समझिए तो आपके मन का निर्माण ही जैसे बॉलीवुड में हो रहा है। आप सोच रहे हैं आपके मन का निर्माण आपके घर में हो रहा है, आप की परंपरा से हो रहा है, आपकी विरासत से हो रहा है आपके धर्म या आपकी संस्कृति से हो रहा है। नहीं! आपके मन का निर्माण वहाँ बॉलीवुड में बैठा गीतकार, निर्माता-निर्देशक कर रहा है।

छोटे बच्चे से भी कहिए, "ज़रा गाना सुनाना।" वह गाना शब्द से ही समझ जाता है कि आप कह रहे हैं फ़िल्मी गाना। वह आपसे पूछता भी नहीं कि, "गाना माने कौन सा गाना? रविंद्रसंगीत सुनाऊँ क्या?" पूछता है क्या? जब आप कहते हो, "गाना सुनाना", तब आपसे पूछता है कि, "कबीर साहब की रमैनी सुनाऊँ"? पूछता है क्या? गाना माने फ़िल्मी गाना। फ़िल्मी गाना उससे कहिए पाँच सुना दो, वह पचास सुना देगा। पचास सुना देगा वो फ़िल्मी गाने। आप उससे कहिए, "बेटा पाँच मन को साफ़ करने वाली, चित्त को उठाने वाली कविताएँ सुना दो", वह नहीं सुना पाएगा। हाँ, रैप सुना देगा, कामोत्तेजक गीत सुना देंगे चार-चार साल के बच्चे होंगे। रियलिटी शो में छोटी-छोटी लड़कियाँ होंगी वो जाकर के भद्दे और अश्लील गीतों पर नाच रही होंगी और उनके माँ-बाप ताली बजा रहे होंगे, यह सब चल रहा होगा। आप देखिए तो हमारा निर्माण, हमारे द्वारा खाई हुई रोटी-सब्जी नहीं कर रही है हमारा निर्माण। यह फ़िल्मी गीत, इनकी कहानियाँ, इनके किरदार और यह छिछोरे अभिनेता-अभिनेत्री कर रहे हैं।

अभी मैं दस साल पहले का भी कोई फ़िल्मी गीत आपको सुना दूँ तो आप तुरंत मुझे उसकी धुन बता देंगे और साथ में थाप देनी शुरू कर देंगे क्योंकि वह फ़िल्मी गीत आपको बखूबी याद है। मैं अभी आपको कविताएँ सुनानी शुरू करूँ, मुझे आप बताइएगा इनमें से कितनी कविताएँ आपने सुनी हैं? इनमें से कितनी कविताओं को आप किसी तर्ज पर गुनगुना भी सकते हैं?

"इस सदन में मैं अकेला ही दिया हूँ; मत बुझाओ! जब मिलेगी, रौशनी मुझसे मिलेगी! पाँव तो मेरे थकन ने छील डाले अब विचारों के सहारे चल रहा हूँ आँसूओं से जन्म दे-देकर हँसी को एक मंदिर के दिए-सा जल रहा हूँ; मैं जहाँ धर दूँ कदम वह राजपथ है; मत मिटाओ! पाँव मेरे, देखकर दुनिया चलेगी!"

सुना है? गाइए इसको, सड़कों पर गाइए, अपनी फ़िल्मों में, अपनी दावतों में, अपनी पार्टियों में, यह गीत भी बजाइए। आप नहीं बजाएँगे, आपको अजीब-सा लगेगा, "यह भाषा कौन सी है? हिंदी तो नहीं लग रही। और इसमें उह! आह! और वहशी-पाशविक आवाज़ें तो आई ही नहीं, यह गीत कैसे हुआ? गीत बताओ न!" और अगर यह भाषा आपको हिंदी नहीं लग रही है तो यह भाषा आपको कौन सी लगेगी? यह भाषा तो आप कहेंगे, "पता नहीं कहाँ की है!"

"बीती विभावरी जाग री! अम्बर पनघट में डुबो रही तारा-घट ऊषा नागरी! खग-कुल कुल-कुल-सा बोल रहा किसलय का अंचल डोल रहा लो यह लतिका भी भर ला‌ई- मधु मुकुल नवल रस गागरी बीती विभावरी जाग री!"

यह तो हिंदी ही नहीं है, यह तो संस्कृत है आपके हिसाब से और कितनी बार कह चुका हूँ- जहाँ भाषा गई वहाँ संस्कृति गई, जहाँ संस्कृति गई वहाँ धर्म गया, जहाँ धर्म गया वहाँ इंसान गया। कौन है जो आपकी भाषा छीने ले रहा है? याद रखिएगा कि भाषा का बच्चे से भी पहला परिचय गीतों से ही होता है और छोटे बच्चे बड़ा नाचते हैं। आप घर में रेडियो पर कोई संगीत बजा दीजिए, वह पाँव से थाप देने लगेंगे, वह लगेंगे नाचने। उन्होंने भी जैसे अपने व्याकरण के, अपने शब्दकोश के पहले शब्द गीतों से ही सीखे हों। कौन से गीत हैं जो आपके नौनिहालों के कानों में पड़ रहे हैं, कहिए? अज्ञेय की अमर रचना पड़ रही है उनके कानों में?

"मैं कब कहता हूँ जग मेरी दुर्धर गति के अनुकूल बने, मैं कब कहता हूँ जीवन-मरू नंदन-कानन का फूल बने? काँटा कठोर है, तीखा है, उसमें उसकी मर्यादा है, मैं कब कहता हूँ वह घटकर प्रांतर का ओछा फूल बने?"

ये गा रहे हैं आपके बच्चे? क्या गा रहे हैं आपके छोटे बच्चे? गीत बताइए न कौन-सा गीत गा रहे हैं?

"लगदी लाहौर दियाँ, जिस हिसाब तू चल दियाँ..."?

वह फिर वैसा ही हो जाना है, लाहौर जैसा ही। बोलो! तुम लोग बैठे हो यहाँ पर, ये गीत गाते हो क्या अपनी रोज़मर्रा की ज़िंदगी में?

गीत सिर्फ़ मनोरंजन नहीं है, भूलिएगा नहीं। गीत सिर्फ़ मनोरंजन नहीं है। गीत आपको आपके जीवन का दर्शन दे रहे हैं। गीत से सिर्फ़ आप मनोरंजन नहीं ले रहे। गीत से आप एक फिलॉसफ़ी ले रहे हो। आप जीने का एक बहाना, एक फलसफ़ा, एक आधार ले रहे हो। आप सोचते हो मनोरंजन भर तो है, यूँ ही सुन लिया, मन बहल जाता है, जी ज़रा हल्का हो जाता है। नहीं! जी नहीं हल्का हो जाता है; दर्शन है! दर्शन!

"साँप! तुम सभ्य तो हुए नहीं नगर में बसना भी तुम्हें नहीं आया। एक बात पूछूँ--(उत्तर दोगे?) तब कैसे सीखा डँसना-- विष कहाँ पाया?"

ये कविता भर नहीं है। इसमें जीवन के प्रति एक दृष्टि है। इसी प्रकार से आप जो छिछोरा गीत भी सुन रहे हो उसमें जीवन के प्रति एक दृष्टि है। भले ही वह आपको पता न चले कि गीत की आड़ में आपको दर्शन शास्त्र परोसा जा रहा है। आप सोचोगे गीत है, मनोरंजन है, ले लो यूँ ही मन बहल रहा है। आपको पता ही नहीं चलेगा आपने क्या पी लिया। क्या पी लिया है? आपने जीवन जीने का एक तरीका पी लिया है। अपने जीवन के प्रति एक दृष्टि पी ली है। उसी से आपका दर्शन निर्मित होगा। आपने बर्बाद कर लिया अपने आपको, कर लिया कि नहीं कर लिया?

और जब एक कवि लिखता है कविताएँ तो वह ऋषि होने के बहुत निकट पहुँच जाता। कवि में और ऋषि में बहुत फ़ासला नहीं होता। कवि आगे बढ़कर के ऋषि बन सकता है अगर जिन भावों को वो भाषा दे रहा है, उन भावों और भाषा दोनों का उल्लंघन करने की श्रद्धा प्राप्त कर ले। कभी जब भाव और भाषा दोनों का अतिक्रमण कर जाता है तो वह ऋषि हो जाता है। अभी ईशावास्योपनिषद हम कल पढ़ रहे थे न? ईशावास्योपनिषद किन की बात करता है? कहता है, "कवि और मनीषि", खोलिएगा और पढ़िएगा "कवि और मनीषि", और कवि और मनीषि एक ही साँस में कह दिया उपनिषद ने। उनके लिए एक ही है कवि और मनीषि।

ऋषियों ने जो लिखे हैं वह गीत ही तो हैं? ऋचाएँ क्या हैं? गीत ही तो हैं। कृष्ण के कालातीत वचन को गीता ही तो कहते हो? वह भी तो एक गीत है। श्रीमद्भगवद्गीता; वह भी तो एक गीत है। अष्टावक्र जो कह रहे हैं वह भी तो एक गीत है। उस गीत से आपको किसने दूर कर दिया? पूछते क्यों नहीं अपने आप से? उस गीत से आपको इन बाज़ारूँ गीतों ने दूर कर दिया। जब आपके मन पर यही चढ़कर बैठे हैं तो मैं आपसे पूछ रहा हूँ आपके मन में जगह कहाँ है? दिनकर के लिए, रामावतार त्यागी के लिए भी जगह नहीं होगी, श्री कृष्ण और अष्टावक्र इनके लिए जगह नहीं, किसी के लिए आपके मन में जगह नहीं है। आपके मन में बस फ़िल्मों के लिए जगह है। दिन-रात फ़िल्में। कल्चर का मतलब ही है फ़िल्म। बात कुछ आ रही है समझ में?

दर्शन हर तरह का होता है। घटिया दर्शन भी होता है, ऊँचा दर्शन भी होता।

"वे रोगी होंगे प्रेम जिन्हें अनुभव-रस का कटु प्याला है- वे मुर्दे होंगे प्रेम जिन्हें सम्मोहन कारी हाला है मैंने विदग्ध हो जान लिया, अन्तिम रहस्य पहचान लिया- मैंने आहुति बन कर देखा यह प्रेम यज्ञ की ज्वाला है!"

"मैंने आहुति बन कर देखा यह प्रेम यज्ञ की ज्वाला है।" यह बात अब छंद भर की नहीं रही, यह बात अब किसी गीत का बोल भर नहीं रही, यह बात अब बस सांस्कृतिक भर भी नहीं रही, यह बात धार्मिक है। यह जो बात यहाँ कह गए अज्ञेय। यह बात सांस्कृतिक भी नहीं कह सकते आप। इस बात का अब भाषा से भी बहुत कम संबंध है। यह बात अब भाषा से भी आगे की है। यह बात अध्यात्म की है और यह बात हम तक नहीं पहुँच रही है क्योंकि हम तक बहुत सारा फ़िल्मी मनोरंजन पहुँच रहा है। क्राउडिंग आउट समझते हो? सब कुछ तो तुम्हारे मन में बैठ नहीं सकता न, तुम्हारे मन में सीमित ही जगह है। अगर एक चीज़ घुसकर के बैठ गई है तो वह दूसरी चीज़ के लिए जगह नहीं छोड़ेगी, या अगर एक चीज़ घुसना चाह रही है, तो जो दूसरी चीज़ें मन में हैं उनको वो निकाल बाहर करेंगी। ये हो रहा है हमारे साथ। हमारी आँखों में, हमारे मन में, हमारी स्मृति, हमारे चित्त में लगातार सिने-तारिकाएँ, सिनेमा की चकाचौंध, तड़क-भड़क, उत्तेजक गीत, उत्तेजक बोल यही भरे जा रहे हैं और यह सब हम होने दे रहे हैं क्योंकि हम ध्यान से देख ही नहीं रहे हैं क्या हो रहा है।

आप पूछेंगे, "ऐसा कोई क्यों करेगा?" ऐसा कोई इसलिए करेगा क्योंकि सस्ता माल बेचना हमेशा ज़्यादा मुनाफेमंद होता है। जो लोग अपने आपको सिने-बफ़्स कहते हैं। सत्यजीत रे की अप्पू ट्रायलजी देखी है? कितने लोग हैं जो दिन-रात फ़िल्म-फ़िल्म करते रहते हैं जिन्होंने 'पाथेर पंचाली' देखी होगी? बहुत कम। तो वास्तव में हमें सिनेमा से भी आकर्षण या रिश्ता नहीं है, हमारा रिश्ता सिर्फ़़ उत्तेजक मसाले से है और जो वहाँ निर्देशक या निर्माता, प्रोड्यूसर बैठा हुआ है, फाइनेंसर बैठा हुआ है जिसे पैसा बनाना है वह तो आपको सबसे घटिया चीज़ परोसेगा ही न? क्योंकि सबसे घटिया चीज़ आपको सबसे आकर्षक लगती है, आपको उत्तेजना देती है। हमारा बहुत बड़ा हिस्सा अभी भी है तो जानवर का ही न? उसको तुम कामवासना परोसोगे, नंगे दृश्य परोसोगे, वह आकर्षित हो जाएगा, बहुत आसानी से आकर्षित हो जाएगा, अब मेहनत करके कौन एक अच्छी और ऊँची फ़िल्म बनाए अगर ज़्यादा आसानी से सिर्फ़ जिस्म परोस कर के और हिंसा परोस करके और फूहड़ कॉमेडी परोस करके टिकट बेचे जा सकते हैं, फ़िल्म को सुपरहिट किया जा सकता है, चार-पाँच सौ करोड़ की आमदनी की जा सकती है, कौन मेहनत करे?

इसके अलावा एक ऊँची पिक्चर बनाने के लिए सबसे पहले पिक्चर बनाने वाले का ऊँचा होना ज़रूरी है। यह जो तुम्हारे लोग हैं जो फ़िल्में बना रहे हैं, तुम्हें किस दृष्टि से लगता है कि ऊँचे कलाकार हैं या ऊँचे रचनाकार हैं? यह तुमको ऊँचे लेखक दिखाई देते हैं, ऊँचे गीतकार दिखाई देते हैं या ऊँचे निर्देशक दिखाई देते हैं? कैसे भाई? जीवन के प्रति उनकी क्या दृष्टि है? क्या जानते हैं जीवन के बारे में? कितनी इनमें सात्विकता? कितना इनमें संयम है? कितना इनमें साहस है? कितना इनमें त्याग है और जिसके पास यह गुण नहीं है उसकी रचना कहाँ से गुणवती हो जाएगी? उसकी रचना भी उस रचनाकार की तरह ही निम्न दर्जे की, औसत दर्जे की ही होगी न? इंसान जैसा होता है उसकी कृति भी तो वैसी ही होती है। रचना रचनाकार के बहुत आगे की थोड़े ही हो सकती है। रचनाकार की ही सारी वृत्तियाँ और रचनाकार के ही सारे मंसूबे उसकी रचना में स्पष्ट हो जाते हैं। तो यह सब जो रचनाकार हैं इनकी ओर ग़ौर से देखो तो ये किस तरीके के हैं? यह क्या तुमको परोस रहे होंगे? बात समझ में आ रही है?

मैं तुमसे पूछूँ, "गायक बताना?" मैं पाँच कहूँगा तुम पच्चीस बता दोगे। "यह गायक वह गायक आ हा हा क्या आवाज़ है!" कोई यहाँ से गाता है कोई वहाँ से गाता है और गायिकाओं का तो कहना ही क्या! जाने कहाँ-कहाँ से गाती हैं और ऐसा गाती हैं कि तुम्हारा अंग-प्रत्यंग बिलकुल हिल जाता है आवाज़ सुन कर के। उनको अच्छी तरह से पता है कि कैसे गाना है कि सुनने वालों - ख़ास तौर पर पुरुषों - के दिल-ओ-दिमाग पर तुरंत छा जाओ। लेकिन मैं तुमसे पूछूँ कि सहजोबाई का कोई गीत पता है? तुम नहीं बता पाओगे। तमाम वहाँ के गायकों गीतकारों के नाम तुम्हें याद होंगे मैं पूछूँ बाबा बुल्लेशाह की कोई काफ़ी भी सुना दो। उसमें भी जमकर आशिक़ी है। तुम नहीं सुना पाओगे।

कबीर साहब से गहरी प्रेम की बात किसी ने करी नहीं, मंत्रमुग्ध हो जाओ ऐसी बातें हैं। मैं कहूँ कबीर साहब को 'प्रेम' पर सुना देना, तो नहीं सुना पाओगे। मैं नाम लेलूँ दादू दयाल का, मैं नाम लेलूँ रविदास साहब का, मैं नाम लेलूँ गरीबदास का, तुम्हें कुछ पता है इनके बारे में? कोई इनकी रचना जानते हो? और इसमें तुम्हारी पूरी तरह ग़लती नहीं है क्योंकि तुम्हारे पास जगह ही नहीं है इनके बारे में जानने के लिए। पूछो क्यों? क्योंकि तुम्हारी सारी जगह पर फ़िल्मों ने कब्ज़ा कर रखा है, जगह कहाँ है? और थोड़ी बहुत जो जगह है भी उसमें तुम कैसे किसी बुल्लेशाह को प्रवेश कराओगे? वह घटिया जगह पर जाते नहीं वह बहुत ऊँचे लोग हैं। तुमने अपने मन के कमरे में सब घटिया लोगों को भर रखा है एक ऊँचा आदमी क्या किसी ऐसे कमरे में प्रवेश करेगा जिसमें दस घटिया लोग पहले से बैठे हुए हों? वह आएगा देखेगा यहाँ गलत तरह के लोग हैं वह बाहर निकल जाएगा। बात समझ में आ रही है?

लोग कहते हैं इंसान को भगवान ने बनाया। मैं बहुत ग़लत नहीं बोल रहा हूँ अगर मैं कहूँ कि आज का जो औसत भारतीय इंसान है इसको भगवान ने नहीं फ़िल्मों ने बनाया है। कम से कम अस्सी-प्रतिशत तो उसको फ़िल्मों ने बनाया-ही-बनाया है। समझ में आ रही है बात?

बहुत बड़ा आकर्षण तो फ़िल्मों का नग्नता के कारण है। देह का कारोबार चलता है। छोटे-छोटे बच्चे बच्चियों को भी मैं कहूँ कि, "बताना आज कल कौन सी एक्ट्रेसेस हॉट हैं?" नहीं एक्ट्रेस तो तुम अब बोलते नहीं, लिबरल लोग हो, तुम उन्हें भी एक्टर बोलते हो, चलो तो कौनसी फीमेल एक्टर्स हॉट हैं? खट-खट-खट-खट बता दोगे ये हैं ' द न्यू चिक इन द टाउन ', ' द हॉट बेब ' इन्हीं अलंकारों से तो मीडिया विभूषित करती है इनको? किसी को कहती है स्टीमिंग हॉट है, किसी को कहते हैं शी विल मेक यू शिवर इन यॉर पैन्ट्स * । इन सबके नाम तुम तुरंत बता दोगे और मैं तुमसे पूछूँ कि ज़रा जॉन ऑफ आर्क के बारे में कुछ बताना, हेलेन केलर के बारे में कुछ बताना, मेरी एडवर्ड के बारे में कुछ बताना, मेरी क्यूरी के बारे में कुछ बताना। तुम कहोगे, "ये लोग कौन हैं? ये लोग * हॉलीवुड की एक्ट्रेसेज़ हैं क्या?" ये तुम्हारा जवाब होगा। अच्छा यह पुराने लोग हो गए इसलिए तुम्हें नहीं पता, अच्छा चलो यही बता दो एंजेलिना मर्केल का नाम सुना है? तुम्हें तो शायद वह भी ना पता हो।

देख लो फ़िल्मों ने तुम्हारे मन को स्त्री जाति के प्रति कितनी कामुकता और कितने अपमान से भर दिया है कि अब तुमसे कहा जाए कि, "बताओ कौन सी पाँच-दस स्त्रियाँ है जो तुम्हारे मन पर राज करती हैं?" तो तुम सिर्फ़-और-सिर्फ़ देह दिखाने वाली जवान औरतों की ही बात कर सकते हो। मैं पूछूँ, "वर्जिनियाँ वुल्फ़?" तुम कहोगे, "वुल्फ़ वगैरह हम नहीं जानते!" और फिर हमें अचरज होता है कि समाज में स्त्रियों के प्रति इतनी दूषित दृष्टि क्यों है, इतने बलात्कार क्यों हैं। क्यों तुम्हें अचरज होता है? तुम्हारी जो औसत फ़िल्मी हीरोइन है, उसकी सबसे बड़ी पात्रता क्या है बताना ज़रा? उनके नाम अलग-अलग हो सकते हैं, चलेगा। हो सकता है कोई बंगाल से आई हो, कोई तमिलनाडु से आई हो, कोई कश्मीर से हो, कोई राजस्थान से हो, चलेगा यह भी। हो सकता है कोई विदेश से हो, श्रीलंका से हो, कोई ब्रिटेन से हो तो भी चलेगा, किसी को भाषा पर पकड़ हो किसी को भाषा पर पकड़ नहीं भी हो तो भी चलेगा, कोई ज़रा ठीक अभिनय करती हो कोई ठीक अभिनय नहीं भी करती हो तो भी चलेगा, लेकिन एक चीज़ नहीं चलेगी, क्या? कि उनका शरीर अगर अति आकर्षक कामोत्तेजक नहीं हो तो नहीं चलेगा। दो-चार अपवादों की बात मत करना कि एकाध दो अपवाद हुए हैं कि यह शारीरिक दृष्टि से आकर्षक नहीं थी फिर भी इन्हें फ़िल्मों में कुछ काम मिला। उन अपवादों की बात मत करो। सौ में से निन्यानवे मामलों की बात करो।

इसी तरीके से तुम्हारा जो औसत हीरो है तुम उससे क्या माँगते हो? कि उसे एक ज़बरदस्त अभिनेता होना चाहिए? बोलो? जैसे तुम अपनी अभिनेत्रियों से कि यह ज़बरदस्त किस्म का अभिनय करती होंगी बस यह उम्मीद करते हो कि इनका जिस्म ज़बरदस्त होगा और उस जिस्म को यह दिखाने को भी तैयार होंगी वैसे ही तुम अपने अभिनेताओं से यह कहाँ ही उम्मीद करते हो कि उन्हें मानव स्वभाव की परख होगी? कि वह आदमी के अंतर जगत की छोटी-छोटी महीन बारीक सूक्ष्म संवेदनाओं को भी पर्दे पर प्रकट कर पाते होंगे, तुम यह उम्मीद भी करते हो क्या? हाँ यह ज़रूर तुम्हारी उम्मीद रहती है कि इसके सिक्स पैक एब्स होने चाहिए, मोटा नहीं होना चाहिए, एक ख़ास उम्र का ही होना चाहिए, एक ख़ास रंग का ही होना चाहिए। दुनिया में तो रंग भेद होता है तो हम इतना शोर मचा लेते हैं। अमेरिका में अभी आंदोलन चल रहा है, उसको लेकर के भारतीय भी उत्तेजित हो रहे हैं। कह रहे हैं, "हाँ यह बिलकुल सही बात है रंगभेद नहीं होना चाहिए!" सबसे बड़ा उदाहरण तो रंगभेद का हमारी फ़िल्में हैं। मुझे बताओ गहरे साँवले रंग की कौन सी अभिनेत्री हिंदी फ़िल्म इंडस्ट्री में अति सफल हो पाई आज तक? बताना? सौ में से निन्यानवे कौन हैं? उन्हें गोरा होना चाहिए, उन्हें चिकना होना चाहिए, यह स्त्रियों का सम्मान कर रहे हैं हम? बोलो? यह स्त्रियों का सम्मान है? और फिर हम कहते हैं कि पति पत्नी को सम्मान नहीं देते, आज़ादी नहीं देते।

छोटी बच्चियों की भ्रूण हत्या हो रही है और अब यह बात इतनी ज़्यादा सामान्य हो गई है कि इस पर कोई चर्चा भी नहीं करता। अगर मुझे सही याद है तो हज़ार लड़कों पर भारत में नौ-सौ-बीस लड़कियाँ पैदा होती हैं। नौ-सौ-बीस नहीं तो नौ-सौ-तीस होंगी। या शायद और कम हो गई हों। यह जो बाकी बच्चियाँ जन्म लेने के पहले मार दी जाती हैं, तुम समझ रहे हो इन को मारने वाला कौन है? इनको मारने वाली वही दृष्टि है जो कहती है कि स्त्री केवल भोग की वस्तु है, स्त्री केवल पुरुष की कामोत्तेजना मिटाने की वस्तु है। यह सीख हमें कौन दे रहा है? यह सीख हमें फ़िल्मों का पर्दा दे रहा है और भी कई चीज़ें दे रही हैं। टीवी भी दे रहा है, रेडियो भी दे रहा है, प्रचलित संस्कृति भी दे रही है, पर मैं समझता हूँ इस तरह की सीख देने में फ़िल्मों का योगदान तो सबसे ज़्यादा है। बात समझ रहे हो?

मैं कहूँ कि बताना कौन से निर्देशक आजकल छाए हुए हैं? तुम तुरंत नाम बता दोगे। निर्देशकों की एक नई पीढ़ी निकल कर आ रही है, इनके नाम तुमको खूब पता हैं। यह फ़िल्में बनाते हैं, यह वेब सीरीज़ बनाते हैं गालियों से भरी हुई, बदतमीज़ीयों से भरी हुई, वह तुमको खूब भाती हैं। वह बात तुमको बड़ी नई और आकर्षक, एंटरप्राइजिंग लगती है, "वाह! एकदम इस बंदे ने कुछ नूतन कर डाला आ हा हा।" अभी मैं तुमसे कहूँ कि रामानुजाचार्य का कुछ बताना? माधवाचार्य का कुछ बताना? इन्हें जानते हो? तुम्हें नहीं पता होगा। पाणिनि के बारे में जानते हो? तुम्हें नहीं पता होगा और यह तो बहुत दूर की बात है कि मैं तुमसे पूछूँ कि कपिल, कणाद, शौनक, यागवल्क्य इनका कुछ बता दो भाई। यह नाम ही नहीं सुने होंगे। उपनिषद होते क्या हैं हमें पता कहाँ है? उपनिषदों को पढ़ने की फुर्सत तो तब मिलेगी न जब तुम फ़िल्मी मैगज़ीन पढ़ना छोड़ोगे! जब तुम्हारे दिमाग में फ़िल्मी मैगज़ीन के माध्यम से इन्हीं औसत लोगों के नाम भरे हुए हैं तो तुम्हारे दिमाग में फिर आएँगे कहाँ से, मैं पूछ रहा हूँ, बुद्ध और महावीर और कृष्ण और कणाद? कहो?

आजकल तो टीनएज लड़के भी मीडिया और इंटरटेनमेंट (मनोरंजन) के नाम पर बहुत प्रसिद्ध हो रहे हैं। कहते हैं, "देखो टीनएजर है लेकिन कितना आगे निकल गया आ हा हा हा हा!" और करता क्या है वह? करता यही है कि एक-से-एक मूर्खतापूर्ण बातें कर रहा है जिसको सुन-सुन कर के सातवीं-आठवीं-दसवीं के बच्चे एक हाथ में दुद्दू लिए हुए हॉरलिक्स पी रहे हैं और दूसरे हाथ से माँ-बहन की गालियाँ बक रहे हैं। इधर करते हैं मुँह, इस हाथ और क्या करते हैं? हॉरलिक्स पीते हैं। मम्मी कह रही है, "जल्दी हॉर्लिक्स पी लो" और दूसरे हाथ को मुँह करते हैं और जो फूहड़-से-फूहड़ गाली होती है उसको बकते हैं। और ये वो हैं जिनको अभी दाढ़ी मूँछ भी आई नहीं है। ये वो हैं जिनको शायद अभी शर्ट पैंट भी पहनना आया नहीं है, इनकी मम्मियाँ पहनाती होंगी। यह टीनएज सेंसेशन बने हुए हैं, क्योंकि इनको टीनएज सेलिब्रिटी मिले हुए हैं। एक बच्चा नचिकेता भी था, एक बच्चा अष्टावक्र भी था, उनकी बातें कौन करेगा और कब करेगा? और वह ऐसे बच्चे थे दमदार जानदार, वह तुम्हारे सामने खड़े हो जाएँ तो तुम्हारी आँखें चुंधिया जाएँ, उनकी बातें कौन करेगा? यह तो फिर भी टीनएजर हैं, होंगे अट्ठारह-उन्नीस साल के जो छाए हुए हैं। नचिकेता और अष्टावक्र तो और बच्चे थे, दस साल, बारह साल के। आदर्श बनने लायक वह हैं, लेकिन उनका तुम्हें पता भी नहीं क्योंकि तुम्हारे दिमाग पर घटिया मीडिया छाया हुआ है। कुछ आ रही है बात समझ में?

मैं पूछूँ, "वोल्टायर कौन?" तुम कहोगे, "हाँ?"

"कैन्ट कौन?"

"हैं?"

"शोपेनहॉर कौन? रसेल कौन?"

"हैं?"

हाँ इनकी जगह मैं हॉलीवुड के एक्टर्स (अभिनेताओं) के नाम पूछ दूँ तो वह तुम बता दोगे।

"ह्यूम कौन?" मैं अगर सवाल पूछ रहा हूँ तो अब तक तो तुम मुझसे बहुत दूर जा चुके होओगे और ये सब वेस्टर्न फिलॉस्फर्स हैं। वेस्ट से क्या तुम्हें सिर्फ़ वेस्टर्नाइज़ेशन ही लेना है? पाश्चात्य चिंतन भी है, पाश्चात्य दर्शन भी है, वो क्यों नहीं पढ़ते अगर तुम्हें पश्चिम की ओर ही देखना है? या उनकी जो ऊल-जलूल-फ़िजूल बातें हैं वही ग्रहण करनी हैं? भाषा भी तुम कहाँ वेस्टर्न ले रहे हो? स्लैंग ले रहे हो। गोन्ना , ब्रो - और भाषा से ख़्याल आता है अब हैं तो ये सब नमूने हिंदी फ़िल्म इंडस्ट्री में काम करने वाले - ये सब इंटरव्यू हमेशा अंग्रेजी में क्यों देते हैं? तुमने कभी ग़ौर करा? और ख़ासतौर पर अभिनेत्रियाँ और जो जितनी निम्न कोटि की अभिनेत्री होगी वो उतना ज़्यादा अंग्रेजी फोड़ रही होगी। ये किससे बात कर रहे हैं अंग्रेजी बोल कर बताओ? काम तो तुम हिंदी इंडस्ट्री में कर रहे हो, सारे जो तुम्हारे दर्शक हैं वो तुम्हें किस भाषा में सुनते हैं? हिंदी में।

तुम हिंदी फ़िल्म इंडस्ट्री में काम कर रही हो, तुम हिंदी की रोटी खा रही हो, तुम्हारे सारे दर्शक हिंदी भाषी हैं ये इंटरव्यू के समय तुम अंग्रेजी बोलना कैसे शुरू कर देती हो?

सबसे पहले तो फ़िल्म इंडस्ट्री के उन लोगों से बचो जो तुमसे बात अंग्रेजी में करते हैं। तुम समझ नहीं रहे हो ये क्या हो रहा है? ये तुम्हारा असम्मान हो रहा है। सिर्फ़ भाषा का ही नहीं, सब दर्शकों का असम्मान हो रहा है। वो तुम्हारा सम्मान करें कैसे मुझे बताओ न? उन्हें अच्छी तरह पता है कि तुम उनकी तरफ़ क्यों आते हो। तुम माँस लगी हुई हड्डी दिखाते हो, एक कुत्ता पूँछ हिलाता हुआ आ जाता है, तुम उस कुत्ते का सम्मान करते हो क्या? बोलो? तुम्हें पता है वो कुत्ता क्या देख कर आया है, माँस देख कर आया है। उसे माँस चाटना है, हड्डी चबानी है। यही करने को कुत्ता तुम्हारी ओर आया है। इसी तरह से वो अभिनेत्रियाँ नहीं जान रही हैं कि तुम कि तुम उनको देखने क्यों जाते हो? हड्डी और माँस के लिए ही तो जाते हो। वो तुम्हारा सम्मान कैसे कर लेगी? और उनको पता है कि आम हिंदुस्तानी को अपमानित करने का, दबाने का इससे अच्छा और तरीका नहीं कि उसपर किटर-पिटर अंग्रेजी थोप दो। हिंदुस्तानी तुरंत प्रभावित हो जाता है, डर जाता है, दब जाता है, एकदम इंप्रेस हो जाता। यह कभी सोचा नहीं तुमने?

जिन लोगों को हमने अधिकार दे दिया है कि अब वह हमारी संस्कृति के ठेकेदार हो गए हैं, कभी देखो तो वो लोग हैं किस तरीके के? एक गंदा आदमी होता है तो माँ-बाप उसे घर में नहीं घुसने देते कि, "कहीं यह मेरे घर को बिगाड़ ना दे, कहीं ये मेरे बच्चों को खराब ना कर दे", है न? आपके घर का दरवाज़ा होता है, उससे आप किसी गंदे आदमी को भीतर नहीं प्रवेश करने देते। नहीं करने देते न?लेकिन टीवी के माध्यम से और रेडियो के माध्यम से और सिनेमा की स्क्रीन के माध्यम से आप अपने घर में जो सबसे गिरे हुए लोग हैं उनको बेरोकटोक प्रवेश दे देते हैं, ये कहाँ की अक्लमंदी है? और इस बात का कुल नतीजा यह हुआ है कि यह जो पूरी इंडस्ट्री ही है इस पर पूरा कब्ज़ा ऐसे ही लोगों का हो गया है जिन्हें जनता की नब्ज़ पता है। वो अच्छे से जानते हैं किस तरीके का माल आपको परोसा जाएगा तो आप तुरंत पूँछ हिलाते हुए सिनेमा घर की तरफ भागेंगे और डेढ़-सौ रुपए का टिकट खरीद लेंगे। उनके हाथ में सारी ताक़त, सारी सत्ता आ गई है। जब इस तरह के लोगों के हाथ में सारी ताक़त आ जाती है और वह गुटबंद-गोलबंद हो जाते हैं तो उसके बाद वो किसी ऐसे को चलने भी नहीं देते जो कुछ अलग, कुछ नया, कुछ साफ सुथरा करना चाहता हो।

भाई जिस तरह के लोग किसी इंडस्ट्री में ताक़तवर हो गए हैं पैसे से भी, रिश्तों से भी, वह फिर अपने ही जैसे लोगों को फिर इंडस्ट्री में आने देंगे न? कोई बाहर वाला आ गया, वह उसको जीने ही नहीं देंगे। तो आपने जो सवाल पूछा है कि, "अभी इंडस्ट्री से दुखद और चौंका देने वाली खबरें आई हैं।" मुझे आशंका यह है कि हो सकता है कि जिस दुखद घटना की तुम चर्चा कर रहे हो वह इसीलिए हुई हो क्योंकि अंदर वाले लोग अब एक तरह का ही माल तैयार करना चाहते हैं और एक तरह के ही लोगों को अपने गुट में प्रवेश देना चाहते हैं। वह उन्हीं लोगों को प्रवेश देंगे जो उन्हीं की तरह एक गिरी हुई संस्कृति रखते हों, उन्हीं की तरह ही छोटे और मूर्खतापूर्ण विचार रखते हों। कोई बाहर वाला आ गया जिसके विचार अलग हैं, जो वैज्ञानिक दृष्टि रखता है जिसकी अध्यात्म में भी रुचि है, उसको वह अपने गुट में, बल्कि कह दो, अपने गिरोह में प्रवेश ही नहीं देंगे। वह कहेंगे, "यह बाहर वाला है, न जाने कैसी कैसी बातें करता है।" देखो, विज्ञान की बात करने के लिए भी दिमाग को मेहनत लगती है, आम आदमी विज्ञान की बात नहीं कर सकता। मुश्किल होता है न वैज्ञानिक बात करना? अक्ल लगानी पड़ती है, दिमाग को मेहनत करनी पड़ती है। इसी तरह अध्यात्म की बात भी आम आदमी के बस की नहीं होती, उसमें भी अक्ल लगानी पड़ती है, मेहनत करनी पड़ती है, साधना।

मैं बार-बार कहा करता हूँ उन्नत आदमी के ये दो लक्षण होते हैं - एक; उसका विज्ञान की ओर रुझान होगा, दूसरा; उसका अध्यात्म की ओर रुझान होगा। और अक्सर उन्नत लोगों में यह दोनों रुझान एक साथ पाए जाते हैं। वो विज्ञान और अध्यात्म दोनों के प्रति रुझान, बल्कि प्रेम रखते हैं। अब अगर ऐसा कोई आदमी है उसको कहाँ ये छोटे-मोटे छुद्र लोगों के बीच की जगह मिलने वाली है और उन्हीं के पास सारी सत्ता, उन्हीं के पास सारा पैसा। उन्होंने ही पूरी इंडस्ट्री के हर छोटे बड़े हिस्से पर, हर कलपुर्ज़े पर कब्ज़ा कर रखा है। क्यों उन्होंने कब्ज़ा कर रखा है? उन्हें ये ताक़त, ये सत्ता सौंपी किसने? हमने और आपने सौंपी क्योंकि उनकी घटिया पिक्चरों को हमने तवज्जो दी। हम टिकट कटा कर देखने पहुँच गए, क्योंकि हम आध्यात्मिक नहीं हैं, हम में आत्मसंयम नहीं है। जितना गिरा हुआ माल-मसाला स्क्रीन पर परोसा जाता है, उतना हमको मज़ा आता है, हम ताली बजा-बजाकर हँसते हैं और हमारी इसी कमज़ोरी का फ़ायदा फिर झूठे और छुद्र लोग उठाते हैं। बल्कि यह कह दीजिए, हमने ही उनकी छुद्रता को प्रोत्साहित किया है। अगर उनके द्वारा बनाई गई घटिया फ़िल्में हम फ़्लॉप करा देते तो क्या दोबारा वह वैसी ही घटिया फ़िल्म बनाते? तो उनको बार-बार घटिया फ़िल्में बनाने के लिए प्रेरित और प्रोत्साहित कौन कर रहा है? हम और आप कर रहे हैं। क्यों कर रहे हैं? क्योंकि हमारे जीवन में आध्यात्म का कोई स्थान नहीं है। क्योंकि जो बातें अभी मैंने आपसे पूछीं, उनका आपके पास कोई जवाब नहीं था। मैं कहूँ गार्गी और मैत्रेयी के बारे में कुछ बता दीजिए आप नहीं बता पाएँगे। अभी मैं दो सिने-तारिकाओं का नाम ले लूँ तो आप मुझे उनकी पूरी कुंडली बता देंगे। आप कहेंगे, "यहाँ की रहने वाली है इतनी फ़िल्में कर चुकी, उस की आने वाली फ़िल्में यह हैं, इस कॉलेज से निकली है इन इन ऐड्स में मॉडलिंग करी है", यह सब आप बता देंगे। "इस इस लड़के या पुरुष से उसका प्रेम प्रसंग चला है।" सब कुछ आपको पता होगा। हाँ, गार्गी मैत्रेयी के बारे में कुछ पूछ लूँ तो आपको कुछ नहीं पता होगा।

तो दोष उस इंडस्ट्री का भी नहीं है, मैं इतनी देर से उस इंडस्ट्री के बारे में बोले जा रहा हूँ, नाइंसाफी है शायद। दोष हमारा और आपका है। तो आ रही है बात समझ में? इसको छोटा मसला मत मानो। जैसे बोलते हो न डिफेंस या राष्ट्रीय सुरक्षा बड़ी अहमियत का और केंद्रीय राष्ट्रीय सुरक्षा का मुद्दा। ठीक उसी तरीके से फ़िल्मों को और इस तरह की सब मीडिया को राष्ट्रीय महत्व का मुद्दा माना जाना चाहिए। जैसे तुम डिफेंस को कहते हो कि, "हमें अपनी रक्षा करनी है न बाहर के दुश्मन से!" वो दुश्मन स्थूल होता है, बाहरी होता है। वैसे ही फ़िल्मों या मीडिया के मुद्दे पर याद रखो कि तुम्हें अपनी रक्षा करनी है सूक्ष्म दुश्मन से। बराबर का ध्यान दो इस सूक्ष्म दुश्मन पर भी। इसको विदूषक भर मत मान लेना कि, "यह तो कॉमेडियन भर है, हमें हँसाता रहता है।" वह कॉमेडियन भर नहीं है, आपको हँसा भर नहीं रहा है, वह आपके मन में धीरे-धीरे करके रोज़-रोज़ ज़हर घोल रहा है। वह आपके मन पर चढ़कर बैठता जा रहा है।

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