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लेख
माँसाहार का समर्थन - मूर्खता या बेईमानी? (भाग-3) || (2020)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
24 मिनट
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प्रश्नकर्ता: पौधों में भी तो जान होती है, पौधों में भी तो भावनाएँ होती हैं, और पौधे भी तो दर्द का अनुभव कर सकते हैं। तो हमें उन्हें भी तो फिर भोजन के लिए नहीं मारना चाहिए। तो आप चाहे शाकाहारी हों, वीगन हों या माँसाहारी हों, एक ही बात है क्योंकि सब जीवित प्राणियों को मार ही रहे हैं, चाहे वो जीवित प्राणी कोई जानवर या पौधा हो।

आचार्य प्रशांत: दो-तीन बातें समझो।

पहली तो ये कि जीवित होने में और चैतन्य होने में, कॉन्शियस होने में अंतर होता है। महत्व जीवन का बहुत नहीं है, महत्व चेतना का है, कॉन्शियसनेस का है। आवश्यक नहीं है कि आप जीवित हों तो आप चैतन्य, माने कॉन्शियस भी हों। उदाहरण ले लो एक व्यक्ति का जो कोमा में पड़ा हुआ है। वो जीवित तो है, पर उसमें चेतना बहुत कम है। चूँकि उसमें चेतना बहुत कम है, इसीलिए तुमने सुना होगा कि कह देते हैं कि वो वेजिटेबल स्टेट (वानस्पतिक अवस्था) में है।

अब समझ गए तुम कि पौधों में और जानवरों में या मनुष्यों में अंतर क्या होता है।

बेशक पौधों में भी प्राण होते हैं, पर उनके पास चेतना बहुत निचले स्तर की, बहुत कम, बहुत न्यून होती है। तो आप पूछेंगे कि फिर जब कोमा में जो व्यक्ति है, वेजिटेबल स्टेट में जिसके पास जीवन तो अभी है, पर कॉन्शियसनेस नहीं है, तो उसकी देखभाल क्यों करते हैं?

उसकी देखभाल इस उम्मीद में की जाती है कि एक दिन उसमें चेतना भी आ जाएगी। इसी से समझ लो कि जीवन का महत्व बस तभी है जब उस जीवन में चेतना हो। नहीं तो जीवित शरीर पड़ा रहे और अगर उसमें चेतना की कोई संभावना, कोई आशा ना बचे, तो तुम व्यक्ति को वेंटिलेटर पर भी बहुत दिन तक नहीं रखोगे।

कोई व्यक्ति कोमा में है, और अगर डॉक्टर साफ कह दें कि "इसे हम ज़िंदा तो रख सकते हैं। आप कहिए तो पाँच साल, दस साल, बीस साल वेंटिलेटर पर ये जीवित तो रहेगा, लेकिन इस बात की संभावना कि ये दुबारा चैतन्य हो पाएगा, कॉन्शियसनेस रिगैन कर पाएगा, अब शून्य है। ये कभी दोबारा कॉन्शियस नहीं होगा।" तो क्या तुम उस व्यक्ति को जीवित रखना चाहोगे वेंटिलेटर पर?

क्यों नहीं रखना चाहोगे?

इसीलिए नहीं रखना चाहोगे क्योंकि महत्व जीवन का नहीं है, महत्व चेतना का है। कोई जीवित है और उसमें चेतना नहीं बची, तो तुम उसको फिर मरे समान ही मानते हो। और अगर कोई जीवित है और उसकी चेतना विकृत हो गई है, भ्रष्ट हो गई है, तो उसको भी तुम फिर विक्षिप्त करार देते हो, पागल जान लेते हो। उसको भी फिर तुम पागलखाने में डाल देते हो, उसके जीवन की फिर कोई विशेष कीमत नहीं करते तुम।

तो पौधों के पास जीवन निसंदेह है, ठीक कहा। पर उनके पास चेतना नहीं है।

चेतना क्या है?

चेतना बिलकुल वही है जिसके माध्यम से तुम देखते हो, सुनते हो, विचार करते हो, स्वाद लेते हो। उसके लिए चाहिए होता है शारीरिक तौर पर एक नरवस सिस्टम (तन्त्रिका तन्त्र)। ये चेतना की प्राथमिक, भौतिक आवश्यकता है कि शरीर में एक नरवस सिस्टम हो।

पौधों के पास वो होता ही नहीं उनमें प्राण तो होते हैं पर उनके पास नरवस सिस्टम नहीं है जिसकी वजह से वो बाहर से आनेवाले स्टिमुलस (उत्तेजना) से पेन (दर्द) परसीव (अनुभव) नहीं कर सकते, उनको दर्द का कोई अनुभव नहीं हो सकता। दर्द के अनुभव के लिए, भई समझो, ना तो उनके पास सेंसरी न्यूरॉन्स (संवेदक तंत्रिका कोशिका) हैं, जो कि पेरीफेरल नरवस सिस्टम (परिधीय तंत्रिका तंत्र) में आते हैं, ना उनके पास ब्रेन (मस्तिष्क) है जो कि सेंट्रल नरवस सिस्टम (केंद्रीय तंत्रिका तंत्र) में आता है।

जब ब्रेन ही नहीं है, तो दर्द का अनुभव कहाँ पर होगा?

जानते हो, तुम्हें भी अगर हाथ पर चोट लगती है, तो उस चोट का तुम्हें कोई अनुभव नहीं हो सकता अगर तुम्हारे पास ब्रेन यान मस्तिष्क ना हो?

तुम क्या सोच रहे हो, कि तुम्हारे हाथ पर चोट लगी है, तो हाथ को दर्द का अनुभव हो रहा है? ना, तुम्हारे हाथ पर चोट लगी है तो वास्तव में दर्द का अनुभव मस्तिष्क को होता है। तुम्हारे पास मस्तिष्क ना हो या तुम्हारा मस्तिष्क अगर सुला दिया गया हो, कोमा में डाल दिया गया हो, और तुम्हारे हाथ पर खूब चोट मारी जाए, तो भी क्या तुम्हें दर्द का अनुभव होगा? सोचो।

तुम बिलकुल बेहोश पड़े हो, तुम्हारे हाथ पर चोट मारी जाए, तुम्हें दर्द पता चलता है? नहीं पता चलता न? क्योंकि दर्द का पता हाथ को नहीं होता। हाथ तो हैं, मस्तिष्क नहीं है, मस्तिष्क में चेतना नहीं है, तो दर्द नहीं पता चलेगा।

इसी तरीके से पौधों के पास चूँकि मस्तिष्क नहीं है, इसीलिए उन्हें दर्द का अनुभव नहीं हो सकता है। थोड़ा अगर तुम गूगल करोगे, नोसिसेपटर तो तुम्हें पता चलेगा कि ये वो सेंसरी न्यूरॉन्स हैं जिनके बिना किसी को भी—इंसान हो, जानवर हो—दर्द का अनुभव हो ही नहीं सकता। ये नोसिसेपटर पौधों में नहीं पाए जाते। समझ में आ रही है बात?

तो इसीलिए जानवरों के कष्ट की दलील देकर तुम जो साबित करना चाहते हो कि जानवर को मारना और इंसान को मारना या पौधे को मारना एक ही बात है, ये बात कहीं से भी तर्कयुक्त नहीं है।

अगर तुम कहोगे कि "देखिए साहब, जान होती है पौधे में और जान होती है जानवर में भी, इसीलिए पौधे को मारना बराबर जानवर को मारना। तो चूँकि आप पौधे को मारते हैं, तो मैं जानवर को मारूँगा। और हम आप बराबर के गुनहगार हुए, माने कोई गुनहगार नहीं हुआ।"

तो मैं फिर इसी तर्क को तुम्हारे आगे बढ़ाए देता हूँ। जान तो फिर इंसान में भी होती है, तो फिर इंसान को भी मारकर क्यों नहीं खा जाते?

तुम कह रहे हो कि पौधे को मारना बराबर जानवर को मारना, तो मैं कह रहा हूँ कि जानवर को मारना बराबर इंसान को मारना। इंसान को मारकर क्यों नहीं खाते, जवाब दो न?

क्या दलील है तुम्हारे पास? इंसान को मारकर क्यों नहीं खाते?

इसलिए नहीं इंसान को मारकर खाते क्योंकि इंसान के पास चेतना है। और पौधे के पास वही चेतना नहीं है। बात समझ में आ रही है?

नहीं तो बोलो तो, जो लोग माँस के इतने प्रेमी हैं, मैं उनसे कह रहा हूँ, इंसान का माँस खाओ, खाओ न। क्या पता वो जानवर के माँस से और ज़्यादा स्वादिष्ट होता हो, क्या पता और ज़्यादा पौष्टिक होता हो? तुम लोग तो दुहाई देते हो न, कभी प्रोटीन कभी अमीनो एसिड , क्या पता आदमी के माँस में वो बहुत पाए जाते हों? तो आदमी को मारकर क्यों नहीं खा जाते?

इसलिए नहीं खा जाते क्योंकि आदमी के पास चेतना है। जैसे आदमी के पास चेतना है जानवरों से ऊपर के स्तर की, उसी तरीके से जानवरों के पास चेतना है पौधों से ऊपर के स्तर की। सम्मान चेतना का होता है। एक इंसान के भीतर भी, याद रखना, उसके जीवन मात्र का सम्मान नहीं होता—हमने आज पहली बात कही है—उसकी चेतना का सम्मान होता है।

कीमत किसकी है? जीवन मात्र की नहीं है, चेतना की है। यही बात तो अध्यात्म सिखाता है न, कि ऐसा जीवन जिसमें चेतना ऊँची नहीं है, किस काम का जीवन है? बेकार है।

इसी सिद्धांत से कि पौधों में और जानवरों में क्या अंतर है: जानवर के पास पौधे की तुलना में ऊँची चेतना है इसलिए जानवर को मारना कुछ ठीक बात नहीं हुई।

फिर तुम कहोगे, "पौधा भी तो सूरज की तरफ झुक जाता है कभी, कभी जैसे छुईमुई होती है उसे स्पर्श करो तो पत्तियाँ बंद कर लेते हैं, और दिन में रात में ऐसे पौधे होते हैं जिनमें फूल खुल जाते हैं, पत्ते बंद हो जाते हैं।"

तो ये सब बातें चेतना की निशानी नहीं हैं। चेतना का अर्थ ये नहीं होता कि कोई ऐसी घटना तुम्हारे साथ घट रही है जिसपर तुम्हारा जो रेस्पॉन्स है, जो तुम्हारी प्रतिक्रिया है वो पूर्वनिर्धारित है।

ये पहले से ही अगर तय है कि सूरज जिधर को है, सूरजमुखी उधर को ही झुक जाएगा, तो ये चेतना की नहीं जड़ता की निशानी है।

'चेतना' का मतलब होता है चुनाव कर पाने की क्षमता। सूरज दाएँ दिशा में था, सूरजमुखी दाईं दिशा को झुक गया। ये चेतना की बात नहीं है; ये तो विवशता हो गई। सूरज जिधर, उधर को ही जाना पड़ेगा। इसमें चुनाव कहाँ बचा? समझ में आ रही है बात?

रात हुई नहीं कि पौधे का फूल बंद हो गया, उसने पंखुड़ियाँ वापस समेट ली। ये चेतना की निशानी नहीं हैं। हाँ, जीवन ज़रूर है उसमें। इससे मैं कोई इनकार नहीं करता। पर चेतना नहीं है उसके पास।

चेतना जहाँ होती है वहाँ दो बातें होती हैं। पहला, दर्द का अनुभव, पीड़ा का अनुभव, सफरिंग , और दूसरी, मुक्ति की ललक। ये दोनों जुड़ी हुई बातें हैं। चूँकि पीड़ा अनुभव होता है, इसीलिए मुक्ति की ललक होती है।

तो इसलिए तुलना मत करो शाकाहार की माँसाहार से। हाँ, इस बात से मैं पूर्णतया सहमत हूँ कि जहाँ तक हो सके पौधों और पेड़ों को भी कम-से-कम नुकसान पहुँचाना चाहिए। बिलकुल तुम्हारी बात से सहमत हूँ।

एक आदर्श व्यवस्था वो होगी जिसमें शून्य या न्यूनतम आवश्यकता होगी किसी भी पौधे को भी काटकर खाने की। पौधा समझो, बहुत सारी चीज़़ें तो तुम्हें खुद ही दे देता है। उदाहरण के लिए, एक फल गिरा एक पौधे से, पेड़ से। वो जो पेड़ है, पौधा है, वो चाहता है कि तुम वो फल खाओ क्योंकि जब तुम वो फल खाते हो तो तुम्हारे माध्यम से वो बीज दूर-दूर तक फैलते हैं। पेड़ उत्सुक है, वो आग्रह कर रहा है, वो तो तुमसे निवेदन कर रहा है कि "कृपया मेरा फल तोड़कर के खा लो।" जब तुम आम खाते हो तो उस गुटली को कहीं दूर छोड़ आते हो। ठीक इसीलिए तो आम ने वो फल पैदा करा था। देख नहीं रहे हो आम क्या चाह रहा है? आम कह रहा है, "मेरे पास आओ, मेरे पास आओ। देखो, मेरी गुठली के इर्द-गिर्द बड़ा स्वादिष्ट गूदा लगाया है मैंने!"

तो तुम उस गूदे के लालच में जा रहे हो आम के पास, तुम वो गूदा ले ले रहे हो, और उसके बाद उस गुठली को फेंक दे रहे हो बहुत दूर। आम का पेड़ बिलकुल यही चाहता है क्योंकि तुम अगर आम नहीं खाते, तो वो आम का फल गिरता पेड़ के ठीक नीचे, और बड़े पेड़ के आम के ठीक नीचे दूसरा आम का पेड़ हो नहीं सकता था। तो आम की प्राकृतिक अभिलाषा ही यही है कि तुम उसका फल ज़रूर खाओ।

अब इस बात की तुलना कर लो जब तुम मुर्गा या बकरा खाते हो। मुर्गा या बकरा तुम खाते हो इसमें मुर्गे या बकरे का कोई हित नहीं हो गया। ऐसा नहीं होगा कि तुमने उसका माँस खा लिया और उसकी हड्डी तुम कहीं दूर फेंक आए, तो उसकी हड्डी से दूसरा मुर्गा पैदा हो जाएगा। लेकिन जब तुम आम खाते हो, उसकी गुठली कहीं फेंक आते हो, तो उससे दूसरा आम पैदा हो जाएगा, अमरूद से दूसरा अमरूद हो जाएगा।

तो बहुत हद तक शाकाहार उन पौधों और पेड़ों के हित में है जिनसे तुम समय-समय पर सीमित मात्रा में फल, पत्तियाँ इत्यादि ले लेते हो। फल ले लोगे, दूसरा फल आएगा, पत्ती ले लोगे, दूसरी पत्ती आएगी। लेकिन तुम बकरे की टाँग काट दोगे, दूसरी टाँग नहीं आएगी।

लेकिन इसका ये अर्थ नहीं है कि अंधाधुंध पेड़-पौधों की कटाई की जाए और उनके साथ ज़्यादती की जाए। वो बात निश्चित रूप से गलत है। लेकिन क्या करें? उतना न्यूनतम दोहन तो प्रकृति का मनुष्य को करना ही पड़ेगा अगर उसे अपनी देह चलानी है। अगर तुम इस स्तर पर आना चाहते हो कि हमें ये भी क्यों करना पड़ता है कि हम गेहूँ खाएँ, चावल खाएँ, तो फिर तो इसके लिए अपनी देह को ही दोष दे लो, फिर तो ऊपर वाले से पूछो कि "पैदा ही क्यों किया? और तूने हमें ऐसा पैदा किया है शरीर देकर के, जो अपना भोजन स्वयं नहीं बना सकता, उसे अपना भोजन तो बाहर से ही ग्रहण करना पड़ेगा।"

अब भोजन जब बाहर से ही लेना है तो कम-से-कम हिंसा से लो न। और कम-से-कम हिंसा यही है कि तुम किसी पेड़ से फल माँग लो, पत्ती माँग लो, और अगर उससे काम ना चले, तो हो सकता है कि कभी तुम्हें ज़मीन में गढ़ी हुई है गोभी उसको उखाड़ना भी पड़े। हालाँकि मैं स्वीकार करता हूँ कि उसमें भी एक सीमा की हिंसा निहित है निश्चित रूप से, लेकिन क्या करोगे? उतनी भी हिंसा नहीं करोगे फिर तो यही प्रार्थना करो कि ये देह ही ना रहे। वो न्यूनतम हिंसा है जो आवश्यक हो जाती है देह के परिपालन के लिए, भरण-पोषण के लिए। उतनी करनी पड़ेगी।

अब तुम ज़मीन में गोभी का फूल आया है उसको काट रहे हो और एक बकरे की गर्दन काट रहे हो, और तुम इन दोनों बातों को एक समान बोलो, तो ये ऐसी ही बात है कि एक व्यक्ति पकड़ा गया है हत्या के आरोप में, और एक व्यक्ति पकड़ा गया है कि वो सड़क पर थूक रहा था, और तुम दोनों के लिए बराबर सज़ा का प्रावधान कर दो।

अपराधी दोनों हैं। मैं बिलकुल नहीं कह रहा कि जिसने सड़क पर थूका है वो अपराधी नहीं है। लेकिन अपराध और अपराध में अंतर होता है न? तुमने गोभी काट दी ज़मीन में लगी हुई हसिये से, निश्चित रूप से हिंसा है। पर उससे कहीं बड़ी हिंसा है जब तुम बकरे की गर्दन काट देते हो, और उससे भी और बड़ी हिंसा है जब तुम इंसान की गर्दन काट देते हो।

अपराध और अपराध में अंतर होता है। सब अपराध अगर एक ही बराबर होते, तो किसी अपराधी को दो महीने की और किसी अपराधी को बीस साल की कैद क्यों होती? और किसी अपराधी को मृत्युदंड क्यों दिया जाता? गुनाह और गुनाह में अंतर होता है।

तो शरीर लेकर आए हो तो एक न्यूनतम, मीनिमम हिंसा तो तुम्हें करनी पड़ेगी। और इस बात का मन में क्षोभ भी होना चाहिए कि, "मैं तो ऐसा हूँ कि जीता भी तभी हूँ जब मुझे दूसरों से भोजन मिलता है।" कोई इंसान ऐसा नहीं जिसके शरीर में उसका भोजन आप निर्मित हो जाता है। पौधों में हो जाता है। वो अपना भोजन आप निर्मित कर लेते हैं, किसी दुसरे से नहीं माँगते। बात समझ में आ रही है?

तो आइंदा इस तरह का तर्क मत देना। मैं समझता हूँ बहुत साफ-साफ समझा दिया है कि पौधे को खाने में और जानवर को खाने में किसी भी तरह की कोई तुलना करना बिलकुल नासमझी की बात है एकदम। और ये तुलना तुम क्यों कर रहे हो, तुम भली-भाँति जानते हो। ये तुलना तुम इसलिए नहीं कर रहे हो क्योंकि तुम्हें पौधों से प्यार है; ये तुलना तुम इसलिए कर रहे हो क्योंकि तुम्हारी जीभ को जानवर के माँस की हवस है। उस हवस के पक्ष में दलील देने के लिए तुम कहीं से भी तर्क उठा ले आ रहे हो। ये कोई अच्छी बात नहीं है।

प्रश्न: अगर जीव जीव को ना खाए तो प्रकृति का संतुलन कैसे बनेगा? हर जीव अपने से छोटे जीव को खा जाता है। यही सनातन सत्य है।

आचार्य: गजब कर दिया मिश्रा जी आपने!

सब धर्म ग्रंथ एक तरफ, उपनिषद एक तरफ, गीता एक तरफ। वो बेचारे तो कोशिश ही करते रह गए कि हज़ारों श्लोकों का उपयोग करके किसी तरीके से आपको सनातन सत्य की ज़रा-सी झलक दे पाएँ, पर आपने तो पाँच-दस शब्दों में ही सनातन सत्य बिलकुल पकड़ लिया। और क्या पकड़ा है!

कह रहे हैं, "सनातन सत्य यही है कि हर जीव अपने से छोटे जीव को खा जाता है।"

ये सनातन सत्य है आपका? कहाँ देखा आपने कि हर जीव अपने से छोटे जीव को खा रहा है? और प्रकृति में ऐसा होता भी है कि कुछ जीव दूसरे जीवों को खाते हैं, तो प्रकृति का सत्य से क्या ताल्लुक?

'सत्य' समझते हैं आप? सत्य माने वो जो प्रकृति से पूरी तरीके से अछूता हो। ये सत्य की परिभाषा है। सनातन और सत्य जैसे पवित्र शब्दों का उपयोग करने से पहले थोड़ा आध्यात्मिक ग्रंथों के निकट आइए। सत्य माने वो जिस तक मनुष्य मन पहुँचता है प्रकृति का अतिक्रमण और उल्लंघन करके। प्रकृति में मात्र बदलाव है, प्रकृति में मात्र एक बेहोश गति है, और सत्य वो जिसमें कोई बदलाव हो नहीं सकता।

प्रकृति में मुझे कुछ दिखाइएगा जो बदलता न हो, परिवर्तनशील न हो? और सत्य वो जिसमें कभी परिवर्तन आ नहीं सकता। तो प्रकृति में जो कुछ हो रहा है वो सत्य कहाँ से हो गया?

सत्य की मनुष्य को चाह रहती है। इसीलिए मनुष्य कहता है कि, "मुझे अपनी प्राकृतिक संरचना का उल्लघंन करके—बल्कि कई बार उसके विपरित जाकर के—अपनी बेड़ियों को, अपने बंधनों को तोड़ना है।" प्रकृति का ही तो दूसरा नाम माया है। वहाँ जो कुछ चल रहा है उसकी अगर आप दुहाई देने लग गए, तो फिर आप प्रकृति में ही रह जाएँगे, माया के बंधनों में ही कैद रहे जाएँगे।

पहली बात, सब जीव दूसरे जीव को खा नहीं जाते। दूसरी बात, प्रकृति में अगर ऐसा होता भी है तो प्रकृति में होने दीजिए न। प्रकृति में फिर जो कुछ होता है फिर आप उससे अलग क्यों व्यवहार करते हैं, बताइए?

अगर प्राकृतिक ही रहना है आपको तो पूरे तरीके से प्राकृतिक रहिए, जंगल से बाहर क्यों आए? प्राकृतिक ही रहना है तो भाषाएँ क्यों बोल रहे हैं, कपड़े क्यों पहन रहे हैं? प्राकृतिक ही रहना है तो स्कूल और विद्यालय और ज्ञान, इनकी आवश्यकता क्या है? प्रकृति में तो ये सब नहीं पाए जाते।

प्रकृति में कोई प्राणी विवाह नहीं करता, आप क्यों करते हैं? प्रकृति में तो कोई प्राणी दाँत भी नहीं माँझता, आप क्यों माँझते हैं? प्रकृति में कोई प्राणी अपने लिए किसी कृत्रिम घर का और आश्रय का और बिस्तर का निर्माण नहीं करता, आप क्यों करते हैं? प्रकृति में न कम्प्यूटर होते हैं न मोबाइल फ़ोन, आप क्यों करते हैं?

हर तरीके से आप प्रकृति से दूर ही हैं। लेकिन जब जानवर का माँस चबाने की बात आती है, तो आप कहते हैं, "देखो न, प्रकृति में बड़ा शेर छोटे हिरण को मारकर खा जाता है। तो मैं भी तो प्राकृतिक हूँ न, तो मैं भी माँस खाऊँगा।" शेर और भी बहुत कुछ करता है, वो आप क्यों नहीं कर रहे?

बस जहाँ सुविधा लगी वहाँ से उदाहरण उठा लिया। माँस खाना है तो शेर का उदाहरण उठा लिया। और कोई कांड करना है, तो देखा कि और कौन-सा जानवर है जो उस तरीके के कांड करता है, उसका उदाहरण उठा लिया। और कहा, "जब प्रकृति में ये सब होता है तब हम भी करेंगे।"

प्राकृतिक रूप से तो बहुत समय नहीं हुआ, सब मनुष्य बंदर ही थे। अभी जाकर पेड़ की डाल पर क्यों नहीं सो जाते? प्रकृति में तो कोई व्यवस्था नहीं है कि बाल काढ़े जाएँ। प्रकृति में तो ऐसी कोई बात नहीं है कि बेटे को बाप की धन-दौलत विरासत मिलेगी। और प्रकृति में ऐसा भी नहीं होता कि एक नर और एक मादा अग्नि के फेरे ले लें, तो कोई दूसरा नर आकर उस मादा को आकर्षित नहीं करेगा। प्रकृति में नियम-कायदा, न्याया लय, पुलिस, कानून व्यवस्था, कुछ नहीं होते। पूरे तरीके से फिर प्राकृतिक होकर रहिए न। बीच-बीच में अपनी सुविधानुसार प्रकृति की बात मत उठाइए।

और ये तो दोबारा कर ही मत दीजिएगा कि जंगल में जो कुछ हो रहा है उसको आप सनातन सत्य बोल दें। जंगल में जो कुछ हो रहा है, उसमें मन को कहीं से मुक्ति नहीं मिलने वाली। आदमी इसीलिए जंगल छोड़कर बाहर आया था। जंगल में जो कुछ हो रहा था, आदमी को उसी में संतुष्टि, तृप्ति मिल रही होती, तो हम जंगल छोड़कर बाहर क्यों आते? हम जंगल छोड़कर बाहर इसलिए आए हैं क्योंकि हमारे पास एक चेतना है जो प्रकृति में माने जंगल में चैन नहीं पाती; उसे प्रकृति से आगे का कुछ चाहिए। हाँ, बस दुर्भाग्य ये हो गया है कि जंगल से बाहर आकर जो हमें आगे का चाहिए, उसकी जगह हम किन्हीं और लालचों में और झंझटों में फँस गए हैं। पर मूलतः हम प्रकृति से बाहर इसीलिए आए क्योंकि प्राकृतिक व्यवस्था काफी नहीं है इंसान के मन को तृप्ति देने के लिए; उसे आगे का कुछ चाहिए, बियॉन्ड का, प्रकृति से अतीत कुछ। बार-बार प्रकृति की दुहाई ना दें।

प्रश्न: मोहम्मद कहते हैं, "ज़मीन के भीतर और ज़मीन के ऊपर सब कुछ खता है।" नानक कहते हैं, "एक नूर से सब जग उपजा।" कृष्ण कहते हैं, "सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।" सौ साल से वैज्ञानिक कहते हैं कि मटेरियल (पदार्थ) नहीं है ये सारा दृश्य एक ही सत्य से बना है तो फिर क्या वेज (शाकाहार) और क्या नॉनवेज (माँसाहार)?

आचार्य: वाह, खूब ज्ञान बताया आपने। आप कह रहे हैं कि बहुत ज्ञानी और मुक्त पुरुष बता गए हैं कि जितना भेद संसार में दिखाई देता है वो सब मिथ्या है। ये सबकुछ किसी एक सत्य का ही विस्तार है, तो ये जितनी विविधिता दिखाई दे रही है, इसका कोई अर्थ नहीं है। ऐसा कह रहे हैं प्रश्नकर्ता। और फिर ये कह रहे हैं कि विज्ञान भी यही बोल रहा है कि ये जितना आपको डाइवर्स मटेरियल दिखाई देता है न, विविध प्रकार के पदार्थ दिखाई देते हैं, इन सबके मूल में एक ही ऊर्जा है।

तो प्रश्नकर्ता कह रहे हैं, "देखिए, ये सब एक ही तो हैं। अध्यात्म में ही ऐसा ही बताया है और विज्ञान भी यही कह रहा है कि सब एक है। तो क्या पौधा, क्या जानवर, क्यों हम भेद कर रहे हैं? हमें बिलकुल पक्षपात नहीं करना चाहिए जैसे हम पौधों को खाते हैं ठीक वैसे ही हमें जानवरों को खा लेना चाहिए किसी तरीके का हमें पक्षपाती रवैया नहीं रखना चाहिए क्योंकि ले-देकर सब कुछ एक ही है, मिथ्या ही है।" इसे कहते हैं अध्यात्म का भरपूर दुरुपयोग‌।

तो आप कह रहे हैं कि जितना दुनिया में भेद है, जितनी अलग-अलग चीज़ें हैं, वो सब एक ही हैं। वो सब जब दुनिया की चीज़ें एक ही हैं, तो क्यों अपने घर को अपना घर बोलते हो? अरे भाई, एक नूर से सब उपजा। सड़क और बिस्तर में कोई अंतर ही नहीं होना चाहिए। आज की रात सड़क पर सोना!

क्यों अपने परिवार को अपना परिवार बोलते हो? जब सब कुछ एक ही है, किन्हीं भी दो चीज़ों में कोई अंतर ही नहीं है, तो जो सड़क चलता बच्चा है वो भी तुम्हारा बेटा हुआ, और सड़क चलती जो स्त्री है वो तुम्हारी पत्नी जैसी हुई। और किसी व्यक्ति की पत्नी या पति उसके अपने विशिष्ट, खास, व्यक्तिगत पति या पत्नी नहीं हुए क्योंकि सब एक ही है तुम्हारे अनुसार। जब सब एक ही है, तो कुछ चीज़ों को अपना क्यों बोलते हो? और जिन चीज़ों को अपना बोलते हो वहाँ तो बड़ा ममत्व उमड़ आता है। अपने शरीर को भी अपना शरीर क्यों बोलते हो? बताओ न।

जब सब एक है। तुम कह रहे हो, "जो जानवर है, वही पौधा है। तो जैसे पौधे को खाते हैं वैसे ही जानवर को खा लेंगे।" तो जैसे पौधा है, वैसे ही जानवर है, और वैसे ही तुम्हारा भी शरीर है। अपने शरीर को ही क्यों नहीं खा जाते? जब सब एक ही है, तो भूख लगने पर अपना ही माँस क्यों नहीं चबा लेते? तब तो सारा ज्ञान धरा रह जाता है। हाँ, जानवर की हत्या करने के लिए आध्यात्मिक पुरुषों और ग्रंथों से भी उद्धरण उठा लाते हो। कहते हो, "देखो, उन्होंने ऐसा कहा था। कृष्ण ने बोला है न कि बाकी सारी बातें छोड़ो, बस एक ही सत्य है।"

तुम और कितनी बातें समझते हो कृष्ण की, भाई? तुम और कितनी बातें समझते हो नानक साहब की, भाई? या बस तुमको जानवर का खून बहाने के लिए और माँस चबाने के लिए ही मुक्त पुरुषों की याद आती है?

और जो तुम तर्क भी दे रहे हो वो तर्क तुम्हें ही भारी पड़ेगा—सब कुछ एक ही है। जब सब कुछ एक ही है तो तुम्हारा सारा पैसा पड़ोसी का हो गया। जाओ, दे आओ। सब कुछ एक ही है।

"सब कुछ एक ही है" कहने का हक़ सिर्फ उनको है जिनके भीतर से वो मिट गया जो जगत में विविधता देखता और पैदा करता है। उसको अहंकार कहते हैं। कोई पूर्णतया अहंकार मुक्त हो गया हो, उसके लिए निःसंदेह सब कुछ एक ही है, तुम्हारे लिए नहीं। और तुम अहंकार मुक्त हो पाओ, इसके लिए आवश्यक है कि पहले तो तुम हिंसा से ज़रा तौबा करो। अपने भीतर ज़रा करुणा पैदा करो। ये वो तरीके हैं, उपाय हैं जिनसे तुम उस जगह के निकट पहुँच पाओगे जहाँ पर होकर कोई कृष्ण कहते हैं कि सारे धर्मों को छोड़ो और मामेकं शरणं व्रज। अभी बहुत छोटे मुँह बड़ी बात है कि तुम कृष्ण की कही बात को उठाकर अपनी ज़बान के स्वाद के लिए इस्तेमाल कर रहे हो।

ये कायदा फिर सिखाओ न पूरी दुनिया को - सब कुछ एक ही है। तो जो दूसरे का शरीर है वही मेरा शरीर है। जब दूसरे का शरीर ही तुम्हारा शरीर है, तो खुद खाना क्यों खाते हो? दूसरे के मुँह में डाल दिया करो। और सड़क पर निकलना, लोगों को यही अपना दर्शन समझाते हुए—सब कुछ एक ही है—और किसी के जेब में हाथ डालकर पैसा निकाल लेना। कहना, "तेरी जेब बराबर मेरी जेब।" और फिर देखना कि कौन-सा न्यायालय या कौन-सा दर्शनशास्त्री तुम्हारी वकालत करता है।

तुम खुद भी इस बात को नहीं मानते। मेरे तर्कों की कोई ज़रूरत ही नहीं है। सच तो ये है कि ये जो दलील तुम यहाँ दे रहे हो, तुम्हारा खुद भी इसमें कोई विश्वास नहीं है। ये बड़ी बेईमानी की दलील है। ये दलील सिर्फ इसलिए है क्योंकि है कोई मुर्गा, बकरा है, कोई और जानवर जिसको देखकर तुम्हारी लार बह रही है। बात इतनी छोटी और घटिया स्तर की है कि किसी की हत्या करनी है, और उसके लिए देखो तुमने दलील कितनी ऊँची दे दी कि धर्म ग्रंथों से उठा लाए।

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