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योग और वेद का समागम || श्वेताश्वतर उपनिषद् पर (2021)
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
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त्रिरुन्नतं स्थाप्य समं शरीरं हृदीन्द्रियाणि मनसा संनिरुध्या। ब्रह्मोडुपेन प्रतरेत विद्वान्स्त्रोतांसि सर्वाणि भयावहानि॥

विद्वान् पुरुष को चाहिए कि वह सिर, ग्रीवा और वक्षःस्थल इन तीनों को सीधा और स्थिर रखे। वह उसी दृढ़ता के साथ सम्पूर्ण इंद्रियों को मानसिक पुरुषार्थ कर अंतःकरण में सन्निविष्ट करे और ॐकार रूप नौका द्वारा सम्पूर्ण भयावह प्रवाहों से पार हो जाए।

~ श्वेताश्वतर उपनिषद् (अध्याय २, श्लोक ८)

आचार्य प्रशांत: श्वेताश्वतर उपनिषद् पर सांख्य और योग का प्रभाव स्पष्ट है। इस अध्याय के आज हम जितने भी श्लोक लेंगे वो बहुत सुंदर उदाहरण हैं योग और वेदान्त के समागम का। और दोनों ही तलों पर, दोनों ही आयामों में हम उन श्लोकों की व्याख्या करेंगे, उनके अर्थों को देखेंगे।

तो यह आठवाँ श्लोक हमसे कहता है कि ज्ञानी पुरुष सिर को, ग्रीवा (गर्दन) को और वक्षःस्थल (छाती) को एक सीध में करके स्थिर कर लेता है। अर्थ क्या है इसका समझते हैं। योग की दृष्टि से मन और शरीर दोनों न सिर्फ़ अन्तर्सम्बन्धित हैं, बल्कि दोनों एक दूसरे से परस्पर कार्य-कारण का संबंध भी रखते हैं। माने अगर मन पर काम करोगे तो उसका प्रभाव तन पर दिखाई देगा और तन पर काम करोगे तो उसका प्रभाव मन पर दिखाई देगा; तन स्थूल और मन सूक्ष्म।

अधिकांश व्यक्ति जिस तरह का जीवन जीते हैं उसमें सूक्ष्म के साथ उनका परिचय बड़ा क्षीण होता है। सूक्ष्म बातें जैसे हम समझते ही नहीं। इंद्रियाँ तो जो कुछ देखती हैं वो तो स्थूल ही होता है न। और अगर आप ऐसी ज़िंदगी जी रहे हैं जो इंद्रियों से ही अधिकतर संबंधित है, तो कुछ भी सूक्ष्म आपको दिखाई देना या समझ में आना बंद हो जाता है। आपको बस स्थूल पदार्थ दिखाई देता है। तो अब स्थूल तन का प्रभाव पड़ता है सूक्ष्म मन पर, और सूक्ष्म मन का प्रभाव पड़ना है स्थूल तन पर। लेकिन हम काम करें किस पर?

योग बड़ा व्यावहारिक विज्ञान है। वो कहता है कि मन पर हम काम करें कैसे, जब मन है सूक्ष्म और हमें कुछ भी सूक्ष्म दिखाई देता नहीं; हम उस पर कैसे कोई साधना, कोई नियंत्रण कर लेंगे? तो मन पर काम करना बड़ा मुश्किल है क्योंकि मन में हैं विचार, मन में हैं भावनाएँ। वो तो भीतर-भीतर चोरी-चुपके चलती रहती हैं, हम कैसे उन पर कुछ वश करें, कैसे उनको लेकर कुछ अनुशासन, कुछ साधना करें। तो ज़्यादातर लोगों के लिए बड़ा मुश्किल होता है मन का रास्ता अपनाना।

हालाँकि वो रास्ता श्रेष्ठ है कि मन पर काम करो तो तन और कर्म अपने-आप ठीक हो जाएँगे। विचारों को, भावनाओं को देखकर शुद्ध और शांत रखो तो कर्म और जीवन अपने-आप ठीक चलेंगे। यह बात श्रेष्ठ तो है पर व्यावहारिक नहीं है क्योंकि विचार दिखाई नहीं देते, वृत्तियों का कुछ पता नहीं चलता। बादल, धुँए, कोहरे की तरह ये सब उठते हैं भीतर और फिर अचानक लापता भी हो जाते हैं, बह जाते हैं कहीं।

तो योग कहता है कि ज़्यादातर लोगों के लिए तो ये संभव ही नहीं है कि वो मन पर काम करें ताकि उनका जीवन बेहतर हो। तो योग उल्टा रास्ता लेता है, वो कहता है 'तन पर काम करते हैं क्योंकि तन तो है स्थूल और स्थूल तन सबको दखाई देता है, भले ही सूक्ष्म मन दिखाई देता हो या ना दिखाई देता हो।'

कोई सामने से चला आ रहा हो और उसके मुँह पर कालिख लगी हो, उसके कपड़े मैले हों, आप तुरंत उसे टोक दोगे, या तुरंत उसके मैलेपन पर आपका ध्यान चला जाएगा। और अगर उसके शरीर और कपड़ों से दुर्गंध भी उठ रही है तो आप उससे दूर भी शायद हो जाओगे, है न? लेकिन अगर कोई सामने से आ रहा हो जिसका मन मैला हो, तो क्या उसे टोक देते हो या उससे दूर हो पाते हो? नहीं हो पाते न?

सूक्ष्म हमें कुछ दिखाई नहीं देता, स्थूल तन हम तुरंत देख लेते हैं। तो जब स्थूल तन हमें दिखाई देता है तो उस पर काम करना भी हमारे लिए ज़्यादा आसान है। याद रखिएगा, श्रेष्ठ नहीं, आसान। योग इस बात में पड़ता ही नहीं कि कौनसी विधि किन्हीं पांडित्यपूर्ण मापदंडों पर श्रेष्ठतर या उच्चतर है। योग यह देखता है कि ज़्यादा लोग हैं किस किस्म के, किस तल पर जीते हैं और कौनसी विधि उनके काम आएगी। विधि का उपयोगी होना आवश्यक है।

तो उपयोगी चीज़ ये है कि लोगों से उनके तन पर काम करा कर शुरुआत की जाए। इसीलिए योग के अंगों में आसन का और प्राणायाम का बड़ा महत्व है, और यम और नियम के पश्चात यही दोनों आरंभिक अंग भी हैं। आप और ऊपर नहीं जा सकते, आप धारणा, ध्यान, समाधि इत्यादि की बात नहीं कर सकते अगर आपने शरीर को और श्वास को अभी साधा नहीं है, ऐसा योग कहता है।

योग कहता है, 'छोड़ो ऊँची बातें। कहाँ प्रत्याहार कहने लग गए? पहले तुम सीधे बैठना तो सीख लो। ध्यान अभी बहुत दूर है तुमसे, अभी तो तुमको सीधे बैठना भी नहीं आता।' और जिसको सीधे बैठना नहीं आता उसके लिए ध्यान बड़ी टेढ़ी खीर रहेगा।

इसी तरीके से, हम भलीभाँति जानते हैं कि विचारों का सीधा असर देह पर पड़ता है। आप चाहें तो अभी प्रयोग करके देख लें, आप कोई उत्तेजक या डरावना या हर्षद विचार मन में लाएँ, और देखिए कि आपकी धड़कन बढ़ जाती है कि नहीं, साँसों की गति कम-ज़्यादा हो जाती है कि नहीं। भलीभाँति जानते हुए भी कि वो विचार आप ही जानते-बूझते, कृत्रिम रूप से अपने मन में लाए हैं, शरीर पर फिर भी उसका प्रभाव दिख जाएगा। तो मन अगर उत्तेजित होता है तो साँस भी उत्तेजित हो जाती है, और मन जब शांत होता है तो साँस भी एक सुंदर गति और लय पकड़ लेती है।

तो योग ने कहा कि मन के विचार कैसे हैं ये तो पता नहीं, लेकिन साँस कैसी चल रही है ये तो पता चलता है। साँस बड़ी स्थूल चीज़ है, दिख जाएगा कि फेफड़ों की गति बढ़ गई है, चेहरा लाल होने लग गया है, दिल ज़ोर-ज़ोर से धड़कने लग गया है। तो क्यों न श्वास पर ही ध्यान देकर उसको नियंत्रित किया जाए। ऐसे चलता है योग का विज्ञान। अब यहाँ कहा जा रहा है कि सिर को, गर्दन को और छाती को सीधा रखना है और स्थिर रखना है। यह शरीर को अनुशासन देने की बात है, स्थूल तल पर।

स्थूल तल पर इसका अर्थ यह है कि शरीर को अनुशासित करना सीखो, क्योंकि ऐसे तुम कभी भी सहज ही नहीं बैठने वाले। जब मैं सहज कह रहा हूँ तो इस समय पर मेरा आशय प्राकृतिक है। प्राकृतिक रूप से तुम ऐसे नहीं होने वाले कि तुम पीठ, छाती, गर्दन और सिर, सबको सीध में रख लो। प्रकृति तुमसे ऐसा नहीं करवाएगी। और जिस तरह का हम जीवन जीते हैं उसमें मन की जो हालत रहती है, वो भी ऐसी नहीं होती कि हम ऐसा बाहरी अनुशासन दिखा पाएँ।

तो शरीर को ये अनुशासन देने का अर्थ होगा मन को एक अनुशासन देना। आप जितनी बार सीधा बैठने की कोशिश करोगे, आप जितनी बार स्थिर बैठने की कोशिश करोगे, मन उतनी बार लचक जाना चाहेगा, ढुलक जाना चाहेगा, दाएँ-बाएँ हो जाना चाहेगा। इसका अर्थ है कि तुम जितनी बार अपने-आपको अनुशासित रख कर सीधे बैठ पाते हो, उतनी बार तुमने शरीर के माध्यम से मन को अनुशासित कर लिया, क्योंकि शरीर तो मिट्टी है, पदार्थ, उसकी तो अपनी कोई इच्छा होती नहीं।

शरीर टेढ़ा-मेढ़ा पड़ा रहे, ऐसा चाह कौन रहा है? स्वयं शरीर नहीं, बल्कि मन। तो अगर तुम शरीर को सीधा रख पा रहे हो तो क्या तुमने शरीर को साधा? नहीं, तुमने शरीर के माध्यम से मन को साध लिया − ये योग की विधि है।

और सिर्फ़ सीधा ही नहीं रखना है, स्थिर रखना है। ये सीधा रखना और स्थिर रखना, ये दोनों ही चीजें शरीर की प्रकृति का हिस्सा नहीं होती। न तो शरीर सीधा रहना चाहता है और न ही स्थिर रहना चाहता है। तो शरीर को सीधा रखकर और स्थिर रखकर तुम वास्तव में अपनी विजय की घोषणा कर रहे हो प्रकृति के ऊपर। तुम कह रहे हो 'प्रकृति तो मुझे लुढ़काए रखना चाहती थी, लेकिन देखो मुझे, मैं बिलकुल सीधा और स्थिर बैठ गया हूँ।'

प्रकृति पर विजय का अर्थ हुआ कि तुमने कह दिया कि तुम प्रकृति के आदेशों के आधीन नहीं, कि तुम्हारे लिए अनिवार्य नहीं है कि प्रकृति तुमसे जो कुछ करा रही है वो तुम करे जाओ। माने तुम्हारी प्रकृति से हटकर के अलग अपनी एक सत्ता है। तुम मुक्त हो, तुम स्वतंत्र हो। प्रकृति चाह रही होगी तुमको लुढ़का देना, लेकिन तुम सीधे तने खड़े हो या बैठे हो। ये उद्घोषणा है तुम्हारी स्वतंत्रता की। तो ये तो हुआ योग की भाषा में इस विधि का अर्थ।

वेदान्त के तल पर क्या आशय है?

सिर अहम् का सूचक है, सिर प्रतीक है अहंकार का। वक्षस्थल प्रतीक है हृदय का, और ग्रीवा, माने गर्दन, प्रतीक है दोनों को जोड़ने वाले सूत्र का। किन्हीं भी दो बिंदुओं के मध्य सबसे छोटी दूरी कौनसी होती है? एक सीधी रेखा। तो छाती को, जो कि किसकी प्रतीक है? सत्य की, आत्मा की, हृदय की। छाती को, माने आत्मा को जोड़कर रखना है अहंकार से, और वो भी सबसे छोटे रास्ते से। लंबा रास्ता कौन लेना चाहता है! सबसे छोटे रास्ते से। तो सबसे छोटे रास्ते का मतलब है सिधाई होनी चाहिए, सीधी रेखा; एक तो यह बात हुई।

दूसरा, कभी-कभार तो इनमें जुड़ाव आ ही जाता है, आकस्मिक भी आ जाता है, परिस्थितिवश भी आ जाता है, किन्हीं सुंदर परिस्थितियों के प्रभाव के चलते भी आ जाता है। कभी-कभार अगर ये दोनों जुड़ गए, मन और आत्मा, तो कोई विशेष बात नहीं हो गई, उससे कोई विशेष लाभ नहीं हो जाएगा। इनको जोड़े ही रखना है, इनको जोड़े ही रखना है इसलिए अब दूसरा शब्द प्रासंगिक हो गया − स्थिरता। स्थिरता माने जोड़ दिया तो जोड़ दिया, अटक गए, स्थिर हो गए।

पहली चीज़ है इनको जोड़ दो, इन दोनों को जोड़ दो। किनको? मन को और आत्मा को जोड़ दो, और दूसरी बात है कि जोड़ने के बाद अब तोड़ने की गुंजाइश बाकी मत छोड़ना।

सिधाई चाहिए, साथ-ही-साथ स्थिरता चाहिए। स्थिरता के बिना सिधाई का बहुत कम मूल्य है क्योंकि कभी-न-कभी, जैसा हमने कहा, अनायास ये जोड़ बैठ तो बहुतों में जाता है; लेकिन जैसे जुड़ता है मामला फिर वैसे ही टूट भी जाता है। तो जोड़ने भर से काम नहीं चलेगा। ये अनुशासन होना चाहिए कि अगर सीध बैठ गई तो अब बैठी ही रहेगी।

और असली चुनौती तो समय लेकर के आता है। आपसे अभी कहा जाए कि बिलकुल तनकर के सीधे बैठ जाइए तो आप बैठ जाएँगे। जो मैंने आपको अभी निर्देश दिया उसमें आपको कोई चुनौती नहीं आएगी। मैंने क्या कहा? सीधे बैठ जाइए। आपको चुनौती मेरे निर्देश से नहीं आनी है, आपको चुनौती समय से आनी है। जो मैंने बात कही आप तुरंत इसका पालन कर ले जाएँगे, लेकिन फिर समय आएगा, एक मिनट बीत गया, दो मिनट बीत गया, तीन मिनट बीत गया; आपको तकलीफ़ अब मैं नहीं दे रहा, आपको तकलीफ़ अब कौन दे रहा है? समय दे रहा है। तो समय से निपटना है इसलिए स्थिरता चाहिए।

वेदान्त के तल पर इस पूरी बात को ऐसे देखो, क्योंकि वेदान्त में शारीरिक मुद्राओं का, या कोणों का, या आसनों का अपने-आपमें कोई विशेष महत्व नहीं है। वेदान्त तो दो को जानता है मूलतः − मन और आत्मा। तुम वेदान्त से शरीर की बात करोगे तो वेदान्त कहेगा कि शरीर तो मन के भीतर एक स्थूल लहर का नाम है। शरीर कुछ होता ही नहीं, मन भर है। मन पसरा हुआ है चारों ओर, अंदर-बाहर, ऊपर-नीचे, यहाँ-वहाँ। सब लोकों का एक साझा नाम है, क्या? मन। तो वेदान्त की दृष्टि से शरीर भी क्या है? बस स्थूल मन को कहते हैं शरीर।

तो तुम वेदों के ऋषियों से कहोगे कि फ़लाने तरीके से बैठने का क्या महत्व है, तो वो इस पर ज़्यादा कुछ कहेंगे नहीं। उनके लिए तो एक मात्र सत्य क्या है? आत्मा। वो कहेंगे, 'मन चंचल है, चंचल इसलिए है क्योंकि आत्मा से दूर है, बस उसकी बात करो न।' लेकिन ये श्लोक उपनिषद् में आया है, बहुत सुंदर श्लोक है। इसकी व्याख्या दोनों तलों पर होनी चाहिए, योग के तल पर भी और वेदान्त के तल पर भी।

वेदान्त के तल पर अभी एक बात कहनी शेष है। हमने कहा, सीधा और स्थिर। तो भाई, सीधा तो ऐसे भी रिश्ता हो सकता है न सिर और छाती के बीच में कि आप लेट जाओ। आप अगर लेट गए हो और स्थिर हो गए हो बिलकुल, लेट जाओ और बेहोश हो जाओ तो सीधे भी हो और स्थिर भी हो। सवाल पूछा करो। अगर आप लेट गए हो, मान लीजिए शराब पी ली खूब और लेटकर बेहोश हो गए। और किसी ने आपकी गर्दन बिलकुल सीधी कर दी है। बिलकुल कह सकते हो कि 'मैं वही तो कर रहा हूँ जो उपनिषद् ने सुझाया है', क्या? कि सिर, गर्दन और छाती अब बिलकुल एक रेखा में आ गए हैं।

नहीं, यहाँ बात दूसरी है। बात ये है कि इन तीनों को ऐसा होना है कि वो प्रकृति के प्रभाव से बाहर जा सकें। सांकेतिक तौर पर बात हो रही है। अब प्रकृति किसकी प्रतिनिधि है? अद्वैतवाद को मायावाद भी कहते हैं, जानते हो? प्रकृति की प्रतिनिधि है पृथ्वी।

(रिकॉर्डर उठाते हुए) ये है, ठीक है? (रिकॉर्डर का ऊपरी सिरा दिखाते हुए) ये क्या है? सिर। (रिकॉर्डर का डिस्प्ले भाग दिखाते हुए) ये क्या है? गर्दन। (रिकॉर्डर के बटन दिखाते हुए) ये क्या है? छाती।

(रिकॉर्डर को एक ओर थोड़ा झुका कर पकड़े हुए) ऐसे रख दूँ इसे तो क्या होगा? ये पृथ्वी के प्रभाव में आ जाएगा और पृथ्वी इसको पलट देगी। (रिकॉर्डर को तिरछा पकड़े हुए) ऐसे रख दूँ तो भी क्या होगा? ये पृथ्वी के प्रभाव में आ गया, माने किसके प्रभाव में आ गया? प्रकृति के प्रभाव में आ गया। जबकि इसका पेंदा कितना भी छोटा हो, ये पेंदा (बेस), इसका क्षेत्रफल कितना भी कम हो। अगर मैं इसको बिलकुल तना हुआ रख सकूँ किसी तरीके से, तो फिर प्रकृति इस पर कोई काम नहीं कर पाएगी।

(रिकॉर्डर लेटा कर दिखाते हुए) स्थिर ये ऐसे भी है, और (रिकॉर्डर को सीधा खड़ा पकड़े हुए) स्थिर ये ऐसे भी है, लेकिन ये दो तरह की स्थिरताएँ अपने-आपमें ज़मीन-आसमान का अंतर रखती हैं। (रिकॉर्डर लेटा कर दिखाते हुए) ये स्थिरता जानते हो कौन सी है? तुमने घुटने टेक दिए। अब आकाश की ओर तुम्हारा निशाना है ही नहीं। अब तुम पूरे लेट गए माटी में ही, अब तुम पूरे ज़मीन के हो गए।

वेदान्त के तल पर क्या कहा जा रहा है? (रिकॉर्डर लेटा कर दिखाते हुए) ये पूर्ण समर्पण है, और (रिकॉर्डर को सीधा खड़ा पकड़े हुए) ये भी पूर्ण समर्पण है। (रिकॉर्डर को सीधा खड़ा पकड़े हुए) ये पूर्ण समर्पण किसको है? गगन की ओर निशाना है, सीधे ऊपर को देख रहे हैं, न इधर झुक रहे हैं, न उधर झुक रहे हैं। क्या कर रहे हैं? सीधे ऊपर को देख रहे हैं। (रिकॉर्डर लेटा कर दिखाते हुए) और पूर्ण समर्पण ये भी है; अब ये क्या कहती है स्थिति? ये स्थिति क्या कह रही है कि अब एक प्रतिशत भी हममें इच्छा या संकल्प नहीं बचा है ऊपर को उठने का, ऊर्ध्वगमन का। अब तो हम पूरे तरीके से ही लेट गए हैं।

तो इसीलिए न सिर्फ़ सीधा रहना है और स्थिर रहना है, बल्कि पृथ्वी से ९० अंश का कोण बना कर रहना है। पृथ्वी से माने जो धरातल है, जो ज़मीन की सतह है। सतह में और आपके मेरुदंड में ९० अंश का कोण बनना चाहिए।

जानते हो जो ९० अंश का कोण होता है इसकी खासियत क्या होती है? जब किन्हीं दो लकीरों के बीच में ९० अंश का कोण बन जाता है तो हम कहते हैं कि अब ये ऑर्थोगॉनल हो गए। उसका मतलब होता है कि अब इन दोनों में कोई रिश्ता नहीं बचा। अब ये दो अलग-आयाम हो गए, ये डायमेंशन अलग हो गए क्योंकि अब इनमें परस्पर कोई संबंध नहीं। अगर इन दोनों में ९१ अंश का भी कोण है तो भी इन दोनों में अभी रिश्ता बाकी है, इन दोनों में अभी कुछ-न-कुछ बंधन बचा हुआ है। लेकिन अगर किन्हीं दो रेखाओं में ९० अंश का कोण आ गया मतलब अब उन दोनों में कोई रिश्ता नहीं है।

इसलिए (हाथ सीधा ऊपर की ओर दिखाते हुए) बिलकुल ऐसे तनना। बिलकुल ऐसे तनना माने अब रिश्ता हमारा बस उससे है जिसकी ओर एकाग्र हुए हैं, जिसकी ओर निशाना है। वेदान्त की भाषा में ये चीज़ सांकेतिक है और स्मरण के लिए अनुशासन जैसी है, कि जब आप छाती तान करके और सिर को स्थिर रख करके चल रहे हो तो ये बात आपको बार-बार याद दिला रही है कि आपको आंतरिक तौर पर कैसे रहना है, जीवन के निर्णय कैसे करने हैं, मन की स्थिति क्या रखनी है।

जितनी बार आपका सिर किधर को ढुलक रहा है, जितनी बार आप ऐसे झुक रहे हो (पीठ झुकाते हुए), उतनी बार आपको याद आ जाए कि ये आपकी पीठ नहीं झुकी है, ये आपने प्रकृति और माया के सामने समर्पण कर दिया है। ये वेदान्त की भाषा में अर्थ हुआ, क्योंकि वेदान्त में तो शरीर को प्रतीक की तरह, संकेत की तरह ही काम करना होगा आपको कुछ और लगातार याद दिलाने के लिए।

तो सिर सीधा रखना है, इसलिए नहीं कि सिर सीधा रखने से मुझे कोई शारीरिक तौर पर लाभ हो जाएगा, सिर सीधा इसलिए रखना है क्योंकि सिर को सीधा रखने के अनुशासन में मुझे फिर ये याद रखना पड़ रहा है कि सिर जिस चीज़ का प्रतीक है उसे हिलना-डुलना या लचर होना नहीं चाहिए, ये संदेश है।

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