आचार्य प्रशांत आपके बेहतर भविष्य की लड़ाई लड़ रहे हैं
लेख
मोटिवेशन का बाज़ार गर्म है!

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, मोटिवेशन इतना क्यों चलता है? हर हफ्ते कोई नया वीडियो आ जाता है, जैसे, “आग लगा देंगे! आसमान गिरा देंगे!" बुकस्टोर्स में भी ऐसी ही किताबें बिक रही होती हैं। ये मोटिवेशन का चक्कर क्या है?

आचार्य प्रशांत: मोटिवेशन क्या है ये समझ लेंगे, पहले ये याद करो कि जिंदगी में वो कौन से काम थे जिसमें तुम्हें मोटिवेशन की ज़रूरत बिलकुल भी नहीं पड़ी? तुम्हारा कोई दोस्त कभी किसी मुसीबत में था या ज़रूरत में था या अस्पताल पहुँच गया था तो तुम्हें ज़रूरत पड़ी थी क्या कि तुम्हें कोई मोटिवेट करे कि, "जा दोस्त की मदद कर या अस्पताल उसको पहुँचा या अस्पताल में उसको देख कर के आ"? या इसी तरीके से घर में कोई आकस्मिक स्थिति बन पड़ी हो तो क्या उसमें तुम्हें कोई बाहर वाला चाहिए होता है कि, "आ चल उठ, सो मत, कुछ करके दिखा"?

वहाँ तो सोए भी रहते हो तो खुद ही चद्दर फेंक भागते हो न? लेकिन पाते हो कि और जो काम होते हैं ज़िंदगी के उसमें तुमको मोटिवेशन चाहिए होता है कि कोई और आए उत्साहित करे, हवा भरे, पीछे से कोई धक्का दे, वजह क्या है?

वजह ये है कि पता नहीं है। पता नहीं है कि क्या करना ज़रूरी है। पता है भी तो थोड़ा बहुत तो पक्का नहीं है। इन दोनों को याद रख लो; पता नहीं है, पक्का नहीं है। नहीं जानते चूँकि कि क्या करना ज़रूरी है बिलकुल, इसलिए फिर तुम्हें कोई बाहर वाला चाहिए जो आकर के तुमको बीच-बीच में जैसे स्कूटरों में किक मारी जाती है वैसे ही किक मारता रहे और ऐसी स्कूटर है जो किक खा करके थोड़ी देर चलती है फिर बंद हो जाती है।

बाहरी प्रेरणा की, बाहरी उत्साह की जरूरत पड़ती ही तब है जब भीतर जो उत्साह का, ऊर्जा का स्रोत है वो ठप्प पड़ा हो।

तुम पूछोगे कि, "अगर हमें पता नहीं है, पक्का नहीं है तो हम जो कुछ भी कर रहे हैं वो करते ही क्यों है?" भाई, आप कुछ काम कर रहे हो उसी के लिए तो आप मोटिवेशन माँगते हो न बार-बार? तो जायज़ सवाल है कि जब जानते नहीं, समझते नहीं तो हम वो काम कर ही क्यों रहे हैं?

वो काम आप इसलिए कर रहे हो क्योंकि आप डरे हुए हो वर्ना कोई और तो वजह हो ही नहीं सकती न। आपको पता ही ना हो कि आपके लिए क्या उचित है ज़िंदगी में करना; अपनी नज़र से, अपने ज्ञान से, अपनी पूछताछ से, अपनी जिज्ञासा से कोई चीज़ ज़िंदगी में खुद जानी ही न हो, किसी चीज़ की पूरी आश्वस्ति, निश्चिंतता हुई ही ना हो और फिर भी आप वो काम कर रहे हो तो एक ही वजह हो सकती है कि कोई ज़बरदस्ती करा रहा है डरा कर या लालच दे करके या नशा दे करके। यही ज़्यादातर लोगों के साथ होता है।

हमें नहीं पता कि हमारे लिए क्या ज़रूरी है लेकिन हम फिर भी कुछ कर रहे हैं क्योंकि उसे करने के लिए हमें मजबूर किया गया है। हम पर तमाम तरह के दबाव हैं और वो दबाव ऐसे हैं कि हम ये पूछ भी नहीं पाते कि, "मुझे जो करने की दिशा में तुम भेज रहे हो या प्रेरित कर रहे हो या मुझसे उम्मीद रख रहे हो कि मैं वो काम करूँगा, वो काम तुम मुझसे क्यों करवाना चाहते हो?" दबाव इतना ज़बरदस्त है कि इस भेड़ चाल में जो काम सब कर रहे हैं वो काम हमें भी करना है।

अब तुम भेड़ चाल में कुछ कर रहे हो, चलो कर सकते हो, लेकिन वो करने की तुम्हारे पास कोई अंदरूनी वजह तो हुई नहीं, तुम्हारे पास कोई अपनी ललक तो हुई नहीं। तो फिर इसलिए जल्दी ही, बीच-बीच में और बार-बार तुम पाते हो कि तुम भीतर से ठंडे पड़ जाते हो। उसके बाद तुमको ये मोटिवेशन वाले लोग चाहिए होते हैं। ये ऐसे लोग हैं जैसे कि कोई आदमी भीतर से ठंडा पड़ रहा हो तो उसे बाहर से गर्मी दें। ये बाहर से गर्मी देना थोड़ी देर का इलाज़ हो सकता है, कुछ हद तक सहायक हो सकता है पर बहुत दूर आपको नहीं ले जाएगा, बहुत मदद नहीं करेगा।

ऐसे ही याद कर लो कि जब तुमको बुखार चढ़ता है तो वो बुखार घटाने के लिए ये भी किया जाता है कि तुम्हारे माथे पर बर्फ रख दी गई। अब माथे पर बर्फ रखना बुखार का तात्कालिक उपचार तो हो सकता है लेकिन कोई आपसे ये नहीं कहेगा कि ये बुखार की दवा है। हालाँकि ये काम करते सभी है, ये विधि सभी ने आज़माई है कि किसी को बहुत बुखार चढ़ गया हो, एक-सौ-चार हो गया है, तो उसके माथे पर आप आइस-पैक रख देते हो लेकिन आइस-पैक बुखार की दवा थोड़े ही हो गई।

दवा क्या है? दवा तो दूसरी चीज़ है। दवा जानने के लिए बुखार के मूल कारण का पता करना पड़ेगा और उस मूल कारण का फिर उपचार करना पड़ेगा। मोटिवेशन ऐसे ही है आइस-पैक की तरह।

अब तुम्हारे भीतर ही बुखार का मूल कारण बैठा हो, उसका तुम उपचार ना कर रहे हो, जिसकी वजह से तुम्हें हर हफ्ते बुखार चढ़ता हो और जब बुखार चढ़ता हो तो तुम किसी मोटिवेशन वाले को बुलाते हो, जो तुम्हारे माथे पर आकर आइस-पैक रख जाता हो, तो ये करके तुम्हारी सेहत बनेगी कि बिगड़ेगी?

दो तरफा नुकसान होना है; पहला नुकसान तो ये होना है कि सेहत तुम्हारी धीरे-धीरे करके, हफ्ते-दर-हफ्ते बिगड़ती जाएगी और खराब होती जाएगी। लेकिन जब भी तुम अपने माथे पर आइस-पैक रखोगे तो तुमको घंटे-दो घंटे-चार घंटे के लिए लगेगा कि मेरी सेहत बेहतर हो रही है। नतीजा ये होगा कि तुम्हारे मन में ये बात बैठ जाएगी कि तुम्हारे बुखार का इलाज ही आइस-पैक है। अब आइस-पैक का इस्तेमाल कर-कर के तुम्हारी सेहत गिरती जा रही है लेकिन तुम्हारे भीतर ये वहम बैठता जा रहा है कि आइस-पैक तुम्हारे लिए अच्छा है। अब बचोगे नहीं।

तो मोटिवेशन एक नशे की तरह है, वो नशा जो तुम्हें तुम्हारी बीमारी की मूल वजह तक पहुँचने ही नहीं देता, वो नशा जो तुम्हें जानने ही नहीं देता कि तुम्हारे जीवन में उत्साह की, उमंग की, प्रेरणा की, ऊर्जा की कमी है क्यों। वो तुमको बस बाहर-बाहर से चाबी देता रहता है और तुम उस बाहर-बाहर की चाबी से इतने खुश हो जाते हो कि तुमको लगता है कि इलाज मिल गया।

और खुशी की तुम्हारे पास वजह भी होती है क्योंकि जब तुम किसी मोटिवेशनल स्पीकर के हॉल में या कमरे में घुसते हो उससे पहले तुम बिलकुल निरुत्साही होते हो। मायूस, उदास, कोई गर्मी नहीं, कोई तेजी नहीं और फिर तुम उसके सामने बैठते हो और वो तुम्हारे सामने बिलकुल दोनों बाहें उठाता है और ज़ोर से कहता है; “आग लगा देंगे! छप्पड़ फाड़ देंगे! आसमान गिरा देंगे! ये फोड़ देंगे! ऐसा कर देंगे, वैसा कर देंगे!" और तुम्हें लगता है कि तुम्हारी जिंदगी में बहार आ गई, गर्मी आ गई, जवानी आ गई। तुम्हें बड़ा अच्छा लगता है। यहाँ पर ही तो धोखा खा रहे हैं हम। हमें समझ में ही नहीं आ रहा कि हमें हमारी बीमारी की मूल वजह से अनभिज्ञ रखा जा रहा है। हमें ये जानने ही नहीं दिया जा रहा कि हमारी ज़िंदगी तेजहीन क्यों है।

और उसका एक ही कारण होता है। उसका कारण होता है, ज़िंदगी के प्रति अज्ञान।

देखो, जो लोग बड़े-बड़े काम कर गए, बड़ी सफलताएँ हाँसिल कर गए—यही चाहते हो न तुम कि ज़िंदगी में ऊँचा काम करो, बड़ा कोई मकसद हाँसिल करो, सफलता के नए-नए शिखर छुओ, तुम यही चाहते हो न? जो ये लोग थे अतीत में, इतिहास में जो ये सब काम कर गए, तुम्हें क्या लगता है उन्होंने ये सारे काम मोटिवेशन के भरोसे किए? उन्होंने ये सारे काम बहुत ज़्यादा गर्म उत्साह में भर कर करें? नहीं, बिलकुल भी नहीं।

आमतौर पर जो भी कोई बड़ा और सार्थक लक्ष्य हाँसिल किया जाता है, उसमें समय बहुत लगता है और जब उसमें समय बहुत लगता है तब आप उसमें बहुत गर्मी के साथ काम नहीं कर सकते।कोई बड़ा लक्ष्य हाँसिल करना टी-ट्वेन्टी के जैसा नहीं होता है, टेस्ट-मैच जैसा होता है। सौ मीटर की रेस जैसा नहीं होता है मैराथन जैसा होता है। आप बहुत गर्मी नहीं दिखा सकते। मैराथन धावक अगर बहुत गर्मी दिखाने लग गया, उत्साह में भर कर पहले ही एक या दो किलोमीटर दौड़ गया तो उसका क्या होगा? वो पाँच-सात किलोमीटर के आगे जा ही नहीं पाएगा। तो बड़े काम कभी गर्म-उत्साह के साथ नहीं किए जाते। उनके लिए भीतर लगातार शांत और मौन ऊर्जा देते रहने वाला स्रोत चाहिए।

समझो, शोर मचाने वाला मोटिवेशन नहीं कि ‘ये कर दूँगा, वो कर दूँगा!' ये तो बाहरी है, उथला है, सुपरफिशियल है। भीतर एक शांत और मौन ऊर्जा स्रोत होना चाहिए, जैसे कि तुम्हारे दिल में न्यूक्लियर रिएक्टर बैठा हुआ हो, चुप बिलकुल! बाकी ऊर्जा के जितने स्रोत होते हैं जानते हो न वो कचरा भी फैलाते हैं, गंदगी भी करते हैं, आवाजें भी बहुत करते हैं। न्यूक्लियर रिएक्टर चुपचाप अपना काम करते हैं। उनमें ज़्यादा शोरगुल नहीं होता, उनकी कार्यक्षमता भी बहुत ऊँची होती है। तो ऐसा होता है असली मोटिवेशन , कि दिल में परमाणु विखंडन चल रहा है और बाहर किसी को खबर नहीं हो रही। ऐसा नहीं है कि बाहर-बाहर दौड़ मचा रहे हैं, उछल रहे हैं, उधम कर रहे हैं, शोर मचा कर नाररेबाज़ी कर रहे हैं कि, "इस बार तो फोड़ ही दूँगा, दुनिया की चुनौती तोड़ ही दूँगा!" और इस तरह के जुमले उछाल रहे हैं। ऐसा नहीं होता असली *मोटिवेशन*।

असली जो मोटिवेटेड बंदा होगा, उससे जब कभी मिलोगे तो तुम्हें पता ही नहीं चलेगा कि ये कितने ज़बरदस्त तरीके से मोटिवेटेड है क्योंकि उसका मोटिवेशन शांत, मौन और अक्रिय होगा। साइलेंट एंड पैसिव! साइलेंट एंड पैसिव मोटिवेशन! (शांत और अक्रिय प्रेरणा)

तुम्हें नहीं पता चलेगा। जैसे फौलाद हो उसके भीतर जो बाहर-बाहर शोर नहीं मचा रहा है। ‘थोथा चना बाजे घना' वाला हाल नहीं है, पर दिल में फौलाद है। उसको पता है कि मुड़ना नहीं है, झुकना नहीं है।

तुम अपने शरीर के चारों तरफ पन्नी पहन लो, पॉलीथिन और कहो कि, "मैं दुश्मन का सामना करने जा रहा हूँ।" तो शोर तो बहुत मचेगा। सोच सकते हो कितना शोर मचेगा? तुमने पन्नी लपेट ली है अपने चारों तरफ, कुछ भी तुम कर रहे हो तो आवाज़ तो बहुत होगी। पर उसमें दम कितना है? दम कुछ नहीं है। और यही तुम्हारी छाती में फौलाद हो तो वो दिखाई भी नहीं देगा, शोर भी नहीं मचाएगा लेकिन उसको तोड़ा नहीं जा सकता। वो झुकेगा नहीं। उसकी बेन्डिंग संभव नहीं है।

ऐसा होता है असली मोटिवेशन कि किसी को पता भी नहीं चल रहा कि तुम्हें चाहिए क्या, इश्क़ की तरह! तो असली मोटिवेशन और असली प्रेम बिलकुल एक समान होते हैं। नकली प्रेम शोर बहुत मचाता है, दिखावा बहुत करता है, गर्मी बहुत बताता है, प्रचार अपना बहुत करता है, इधर-उधर जिधर पाए ढिंढोरा पीटता घूमता है। नकली प्रेम और नकली मोटिवेशन एक जैसे होते हैं। ये उठते हैं और गिर जाते हैं। इनमें कोई स्थायित्व नहीं होता, इनमें कोई सातत्य नहीं होता।

और जो असली होती है, प्रेम चाहे मोटिवेशन , वो मैंने कहा कैसा होता है? शांत और अक्रिय! बाहर वाले किसी को उसका पता ही नहीं चलेगा। इनर्ट -सा होता है। इनर्ट मतलब समझते हो? अक्रिय। बाहर वाला न उसको उठा सकता है, न गिरा सकता है।

और ये जो बाहर वाला मोटिवेशन है, अब इसी बात से समझो, कि उसके साथ एक बड़ी तकलीफ़ ये है कि बाहर वाला तुम्हें मोटिवेशन में उठा सकता है तो बाहर वाला गिरा भी तो सकता है। एक तुमको मोटिवेशन गुरु मिला हुआ है वो तुमको चाबी भरता है, “उठो! उठो! जंगल जला दो!" और तुम तैयार हो गए कि, "हाँ! हाँ! जंगल जला दूँगा!" भले ही जंगल जलाने में तुम करो इतना कि चने की झाड़ फूँक आए, पर उस वक्त तुमको यही लगता है कि, "हाँ जंगल जला दूँगा और बिलकुल सारे दरिया काट डालूँगा, बीच में से रास्ता निकाल दूँगा।" ये सब लग रहा है तुम्हें, ये सब तुमसे किसने करवाया? किसी बाहर वाले ने। तो तुमने किसी बाहर वाले को हक दे दिया न कि वो तुम्हें चाबी भरकर चढ़ा दे झाड़ पर?

जब एक बाहर वाले को तुमने ये हक दे दिया कि वो तुम्हें झाड़ पर चढ़ा दे, तो सीधी-सी बात है तुमने हज़ार दूसरे बाहर वालों को ये भी तो हक दे दिया कि वो उल्टी चाबी भरकर तुम्हें झाड़ से गिरा भी दें। यही होता है तुम्हारे साथ। एक आदमी होता है वो तुमको मोटिवेट कर लेता है, दस आदमी होते वो तुमको डी-मोटिवेट भी कर देते हैं इसलिए मैंने कहा असली मोटिवेशन अक्रिय होता है; न कोई तुम्हें मोटिवेट कर सकता है, न कोई तुम्हें डी-मोटिवेट कर सकता।

जो दूसरों से मोटिवेट होने के कायल हों वो बिलकुल तैयार रहें कि दुनिया उन्हें डी-मोटिवेट भी कर लेगी। जिनको दूसरों की ज़रूरत पड़ती हो उत्साह और प्रेरणा के लिए, वो इस बात के लिए भी तैयार रहें कि दूसरे आ करके उन्हें निरुत्साहित कर जाएँगे। और यही तो होता है न, जब दूसरे तुम्हें निरुत्साहित कर जाते हैं तभी तो तुम भागते हो मोटिवेशन की कोई किताब पढ़ने या कोई वीडियो देखने, अन्यथा तुम्हें चाहिए ही क्यों मोटिवेशन ?

तुम कर रहे हो किसी परीक्षा की तैयारी और पड़ोस की गुप्ता आन्टी आ करके बोल गई, "हे! हे! हे! इसका क्या होगा? इसके तो दो प्रयास पहले ही हो गए हैं, बेटा अब तू ऐसा कर ले कि अब तू नीचे की किसी श्रेणी के एग्जाम की तैयारी कर ले।" और तुम्हारे छोटे-से, नाजुक-से मोम के दिल को धक्का लग गया। एकदम तुम डी-मोटिवेडेट हो गए क्योंकि आन्टी क्या बोल गई कि, "इससे तो होगा ही नहीं।" तो फट से तुम भागे और गए और बुक-स्टोर से तुमने किताब खरीदी और किताब में क्या लिखा है? “हो जाएगा! तुझसे भी हो जाएगा!" ऐसे ही टाइटल (शीर्षक) होते हैं इन किताबों के, "तुझसे भी हो जाएगा!" उस मोटिवेशन की ज़रूरत ही क्यों पड़ी? क्योंकि पहले तुम डी-मोटिवेटेड थे।

दर्शन में इसको द्वैत बोलते हैं। और लोग समझते हैं जिन्होंने जाना कि ये द्वैत होती है न, यही आदमी को बहुत परेशान करके रखती है। एक ने डी-मोटिवेट किया दूसरे ने मोटिवेट किया। कबीर साहब का पता नहीं तुमने नाम सुना है कि नहीं सुना, उनका एक दोहा है शायद तुम्हारी पाठ्यपुस्तक में रहा होगा: “चलती चक्की देख के दिया कबीरा रोए। दुई पाटन के बीच में साबुत बचा न कोय।।”

ये जानते हो दुई पाट कौन-से थे? कह रहे हैं साहब कि चक्की चल रही है—चक्की तुमने देखी नहीं होगी, तुम तो, सवाल से लग रहा है, कि अठारह-बीस साल के हो। चक्की होती है, जिसमें पत्थर का एक बेलनाकार संरचना होता है, जिसकी ऊँचाई बहुत ज़्यादा नहीं होती। उसके ऊपर बिलकुल वैसा ही संरचना रख दिया जाता है, सममित। और जो पहला वाला है वो दूसरे वाले के ऊपर गोल-गोल घुमाता है, घर्षण करता है। तो उन दोनों के बीच में जो भी चीज़ होती है, वो पिस जाती है। ये चक्की होती थी।

पहले घर-घर में होती थी, घरों में ही अनाज पीसा जाता था, आटा तैयार किया जाता था, अब नहीं होती। आज से बीस-तीस-चालीस साल पहले होती थी। तो वो कहना क्या चाह रहे हैं? कि ये दो पाट हैं चक्की के और इन दोनों में आपस में जो घर्षण, जो फ्रिक्शन हो रहा है उसमें हर आदमी दुनिया का पिसा हुआ है।

ये दो पाट जानते हो क्या हैं? ये जो दो पाट है चक्की के ये क्या हैं? ये यही हैं: *डी-मोटिवेशन, मोटिवेशन; डी-मोटिवेशन, मोटिवेशन*। और इसके बीच में पिस कौन रहा है? बेचारा प्रश्नकर्ता पिस रहा है।

मत पिसो इससे। ‘दुई पाटन के बीच में साबुत बचा न कोय।’ तुम भी साबुत नहीं बचोगे। मैंने कहा, तुम्हें मोटिवेशन इसलिए चाहिए क्योंकि तुम्हें पता नहीं है, पक्का नहीं है और तुम डरे हुए हो। तो पता करो। जिसने पता कर लिया कि कौन-सा काम करने लायक है, उसे अब मोटिवेशन की ज़रूरत नहीं पड़ेगी, नहीं पड़ेगी! और जिसे नहीं पता कि क्या काम करने लायक है, उसे मोटिवेशन की ज़रूरत पड़ेगी, पड़ेगी और बार-बार पड़ेगी। और वो कितना भी मोटिवेटेड हो ले उसके बाद भी उसकी ज़िंदगी रूखी रहेगी, फीकी, उत्साहहीन रहेगी।

क्या फायदा ऐसी ज़िंदगी जीने से?

इससे अच्छा ये है कि साफ पता करो, अपने दिल की गवाही से पता करो कि कौन-सा लक्ष्य वास्तव में पाने लायक है।

दुनिया से नहीं पूछा, सुनी-सुनाई बात पर भरोसा नहीं किया, यूँ ही मन में कोई ख्याल आ गया उस पर नहीं चल पड़े, बिलकुल बार-बार पूरी ईमानदारी और पूरी मेहनत से जाँच-पड़ताल करके ये जानने की कोशिश की कि मुझे क्या करना है, क्या पाना है, किधर जाना है। उसके बाद ज़िंदगी में तुम्हारे पास उस लक्ष्य के अलावा करने को कुछ बचेगा ही नहीं क्योंकि तुम्हें पता है अच्छे से कि वही चीज़ करने लायक है। तुम्हारा ध्यान इधर-उधर होगा ही नहीं, बल्कि जिधर को भी तुम्हारा ध्यान जाएगा, उधर से ही तुमको एक पैगाम, एक रिमाइंडर आएगा कि, "बेटा क्या तू वो काम कर रहा है जो करने लायक है?" ये पक्का समझ लो।

जब आप जानते हो कि आपको क्या करना है तो उस करने लायक काम के अलावा कुछ भी और करने बैठते हो, तो वो जो दूसरी चीज़ है न वही तुमको मुँह चिढ़ाकर बोल देती है, “मेरी तरफ मत आ, जाकर असली काम कर!" समझ में आ रही है बात?

और सोचो इससे ज़्यादा मदद तुम्हें क्या मिलेगी ज़िंदगी से, कि सही रास्ते के अलावा कोई भी और रास्ता पकड़ रहे हो, तो उस रास्ते का हर साइन-बोर्ड और हर मील का पत्थर तुमसे चिल्ला-चिल्ला कर कहने लगे; “यह रास्ता तुम्हारे लिए नहीं है।" लेकिन ये उनके साथ होता है जिन्होंने पहले सही रास्ता अपने लिए जान लिया होता है। जिन्होंने सही रास्ता नहीं जाना होता उनके लिए फिर हज़ार रास्ते खुले होते हैं और हर रास्ता बाँहें फैलाकर स्वागत कर रहा होता है; "आओ! आओ! आओ!"

हर साइन-पोस्ट यही बोल रहा होता है; “आओ! आओ! यह रास्ता तुम्हारे लिए है।" फिर फँस जाओगे। फिर थोड़ी देर में जब पता चलता है कि अरे ये रास्ता तो कुछ गड़बड़ लग रहा है, क्या बताएँ बड़ी गलती हो रही है, तो इधर-उधर से झाड़ियों से एक मोटिवेशन वाला निकल आता है, तुमसे बोलता है कि ‘तुम कर सकते हो! तुम कर सकते हो।' तुम उससे पूछो, “अरे क्या, मैं क्या कर सकता हूँ?" वो झाड़ियों में कुछ कर ही रहा था वही तुमसे भी करवाना चाहता है। तो ये हाईवे के किनारे वाले झाड़ियों में जो काम होते हैं इन कामों को छोड़ो। हाईवे से सम्बन्ध रखो, झाड़ियों से नहीं।

भागने से पहले ठहर करके, थम करके पता करो, या चल भी रहे हो तो चलते-चलते लगातार पता करते चलो, कि कहीं ऐसा तो नहीं कि बिलकुल अज्ञान में ही चला जा रहा हूँ। जितना पता करोगे उतना भीतर सब पक्का होता जाएगा, फौलाद जैसा।

प्र: क्रांतिकारी भी हुए हैं जो अपनी जान देने को तैयार रहते हैं और फिर दूसरी तरफ ये मोबाइल में दिन-रात गेम खेलने वाले लड़के भी हुए हैं। तो मेरे ख्याल से जो गेम खेलने वाले होते हैं उनको ही मोटिवेशन की ज़्यादा ज़रूरत होती है।

आचार्य: बढ़िया! इतना बढ़िया उदाहरण खड़ा कर दिया आपने सबके सामने।

एक बिस्मिल हैं, एक भगत सिंह हैं, राजगुरु हैं, सुखदेव हैं, आजाद हैं—ये अपनी जान देने जा रहे हैं, ये इतना बड़ा काम करने जा रहे हैं इससे बड़ा तो और कोई काम होगा नहीं। और इन्हें कोई मोटिवेशन नहीं चाहिए। या तुम कल्पना कर सकते हो कि कोई सस्ता मोटिवेटर इनके सामने खड़ा हुआ है और इनसे कह रहा है, " कमॉन! यू कैन डू इट , तुम भी करके दिखा सकते हो"?

ऐसा कोई जो आजकल ये मोटिवेटर चलते हैं इनमें से कोई भगत सिंह के सामने पड़ जाता, और वो भी इसी आयु वर्ग के थे जो कि मोटिवेटर्स के सभाओं-वभाओं में ज़्यादातर लड़के पाए जाते हैं। वो किस आयु वर्ग के होते हैं? अठारह साल, बीस साल, बाईस साल, इसी आयु वर्ग के बैठे होते हैं। भगत सिंह भी उसी आयु वर्ग के थे और मजाल किसी मोटिवेटर की कि भगत सिंह के सामने पड़ जाए! अंग्रेज़ बाद में ठोका जाता ये मोटिवेटर पहले साफ हो जाता, अगर इसने जुर्रत कर ली होती कि चन्द्रशेखर आजाद से बोल रहा है कि, "कमॉन! तुम कर सकते हो।"

वो इतना बड़ा काम कर रहे हैं और उनको किसी मोटिवेटर की ज़रूरत नहीं है और ये इधर-उधर के, आजकल के छोकरे इन्हें कोई चना बराबर काम करना होता है उसके लिए भी इन्हें मोटिवेशन चाहिए ये कितना विचित्र विरोधाभास है, कंट्रास्ट है?

वो इतना बड़ा काम कर रहे हैं और उनको किसी मोटिवेशन की ज़रूरत नहीं है और आजकल के जवान लोगों को कोई छोटा ही काम करना है। क्या छोटा काम करना है? ‘ये जी नौकरी का फॉर्म भरा है, पढ़ाई नहीं हो रही है।’ इसके लिए भी इनको मोटिवेशन चाहिए। तो बात बहुत सीधी है: ऊँचे काम के लिए कोई मोटिवेशन नहीं चाहिए होगा और छोटे काम के लिए बहुत मोटिवेशन चाहिए होगा।

हम सोचते हैं कि ऐसा नहीं होगा, हमें उल्टा लगता है, हमें लगता है कि छोटा काम तो हम कर लेंगे आसानी से और बड़े काम के लिए मोटिवेशन चाहिए होता है। नहीं, बिलकुल भी नहीं। तुम वास्तव में कोई बड़ा काम पकड़ कर तो देखो और बड़ा काम ये नहीं होता कि हिमालय पर चढ़ जाना है। ‘बड़े काम' का मतलब होता है जो तुम्हारे भीतर की बड़ी जगह से आ रहा हो, भीतर की स्पष्टता से आ रहा हो। ‘बड़े काम' का मतलब होता है जो बिलकुल तुम्हारे ह्रदय से, तुम्हारी आत्मा से आ रहा हो। एक बार तुम वैसा काम पकड़ लो उसके बाद तुमको ये मोटिवेटर्स , इनकी बातें इतनी ओछी लगेंगी कि इनकी बातें सुनकर तुम्हें हँसी भी नहीं आएगी। फिर यही वजह है कि आज क्रांतिकारी पैदा भी नहीं हो रहे हैं।

कोई भी बड़ा काम किसी दूसरे द्वारा चाबी भरकर नहीं हो सकता, चाहे जो आपको चाबी भर रहा हो वो खुद बहुत बड़ा आदमी हो तो भी वो आदमी आपके काम नहीं आएगा जब तक आपके भीतर अपनी ज्योति प्रज्वलित नहीं हुई है। जिंदगी में वास्तव में चलना तो आपको उसके प्रकाश में ही है।

एक बात बताओ, आपको अगर किसी का अनुकरण भी करना है, किसी को फॉलो भी करना है तो कर पाओगे क्या अगर आपके पास अपनी आँखें नहीं है? किसी को फॉलो करने के लिए भी आपके पास अपना प्रकाश होना चाहिए। जिसके पास अपना प्रकाश ही नहीं वो तो जिसको फॉलो भी करना चाहता है उसपर भी बोझ ही बनेगा। उससे कहेगा, “तुम आगे-आगे चल रहे हो हमें पकड़ कर पीछे-पीछे लिए चलो।" और जो पीछे-पीछे चल रहा है वो कभी झाड़ में घुस रहा है, कभी पेड़ से टकरा रहा है तो जो आगे भी उसका हाथ खींच रहा है उसको भी क्या लगते रहेंगे? झटकें!

जैसा कि इंजन चल रहा है आगे और पीछे के जितने डब्बे हैं उन्होंने पी रखी है तो डब्बे झूम रहे हैं, नाच रहे हैं तो उसमें इंजन को बड़ी सहूलियत हो रही है क्या? इंजन को भी तकलीफ़ ही हो रही है। तो अपनी नज़र साफ़ होनी चाहिए और वहाँ कीमत चुकानी पड़ती है।

प्र२: आचार्य जी, इसमें दो शब्द हैं जो काफी एक साथ उपयोग होते हैं; मोटिवेशन और इंस्पिरेशन * । तो * मोटिवेशन भी यही कह रहा है कि तुम कर सकते हो और कहीं-न-कहीं इंस्पिरेशन का सरोकार भी इसी बात से है कि तुम कुछ कर सकते हो तो फिर ये दोनों शब्द क्या एक ही हैं? क्योंकि मुझे लगता है कि इंस्पिरेशन कुछ सकारात्मक अर्थ में उपयोग होता है।

आचार्य: देखो, एक ही शब्द है जो सचमुच आपके कर्म का कारण होना चाहिए और वो न मोटिवेशन है, न इंस्पिरेशन है वो रिलाइजेशन (अनुभूति) है।

मोटिवेशन में और इंस्पिरेशन में होगा थोड़ा-बहुत अंतर, मोटिवेशन बिलकुल ही बाहरी बात लगती है और लालच की बात लगती है उसमें मोटिव (उद्देश्य) शब्द आता है। इंस्पिरेशन जैसा कि आप कह रहे हो थोड़ी-सी ऊँची बात लगती है, थोड़ी अंदरूनी बात लगती है। लेकिन न मोटिवेशन काम आना है, न इंस्पिरेशन काम आना है, काम तो वास्तव में रिलाइजेशन आना है।

रिलाइजेशन का मतलब है; बात समझ में आ गई, एकदम समझ में आ गई, खुद समझ में आ गई, ऐसी समझ में आ गई कि दिख रही है, अपनी आँखों से दिख रही है, कोई अब उस बात को छुपाना भी चाहे तो नहीं छुपा सकता, मैं खुद अपने-आप को इंकार करना चाहूँ कि मुझे ये बात नहीं समझ में आ रही, नहीं दिख रही तो मैं इंकार भी नहीं कर पाऊँगा क्योंकि दिख गई तो दिख गई कैसे कह दूँ कि नहीं दिख रही अब। तो वो जो रिलाइजेशन होता है, बोध, बात तो उसी से आगे बढ़नी है।

मोटिवेशन आप कह सकते हो कि किसी दूसरे ने आपको चाबी भर दी, इंस्पिरेशन आप कह सकते हो कि आपने खुद अपने-आप को चाबी भर ली। ये दोनों ही चाबियाँ बहुत दूर तक खिलौने को ले नहीं जा पाएँगे। खिलौना तो खिलौना है, आत्मा नहीं होती उसके पास।

रिलाइजेशन बिलकुल दूसरी चीज़ है। रिलाइजेशन का संबंध आपकी चेतना, जानने-समझने की आपकी ताकत से है।

प्र३: सर, अगर दो दिन बाद मेरा एग्जाम है और पढ़ाई करनी थी लगभग दो महीने से, मैं इसको टाल रहा हूँ दो दिन बाद एग्जाम है पूरा पाठ्यक्रम बचा हुआ है, तो रिलाइजेशन तो नहीं होगा न दो दिन में? अगर दो-चार मोटिवेशनल वीडियो देखकर मैं एग्जाम निकाल लूँ, अच्छे नंबर आ गए तो इसमें गलत क्या है?

आचार्य: तुम कौन-सा एग्जाम दे रहे हो? स्नातक के बाद का दे रहे होगे एग्जाम या स्नातक में दे रहे हो या अपना दसवीं-बारहवीं का दे रहे हो। लेकिन ये पहला एग्जाम तो है नहीं जो तुम दे रहे हो, इस एग्जाम को देने के लिए भी तुम पहले बहुत सारे एग्जाम पास करके आए हो? उन सारे एग्जामस् को भी तुमने मोटिवेशन की घुट्टी पी-पीकर उत्तीर्ण किया और नौबत ये आई है कि आज भी तुमको मोटिवेशन की घुट्टी चाहिए। ये एग्जाम उत्तीर्ण करके भी तुमको यही मिलेगा कि अगले एग्जाम में तुम फिर मोटिवेशन माँग रहे होगे। बताओं तुम्हें मिला क्या?

और ज़िंदगी ऐसे ही तुम्हारी लगातार आगे बढ़ती रहेगी, तुम्हें अगला जो भी कदम लेना है तुम्हें फिर उसके लिए मोटिवेशन चाहिए क्योंकि आजतक भी तुमने जो एग्जाम दिए तुम्हें पता ही नहीं था कि तुम दे क्यों रहें हो। तो तुम्हें कोई मोटिवेशन चाहिए होता था या कोई डंडा, कोई थ्रेट , कोई डर चाहिए होता था। या तो डर ये होता था कि अनुत्तीर्ण हो जाऊँगा। या ये होता था कि पिता जी से डाँट पड़ेगी, मार पड़ेगी या ये होता था कि कोई आकर तुमसे कह रहा है, “देखो, अगर तुमने कर दिया तो तुमको नई मोटरसाइकिल मिलेगी", या कोई आकर तुम्हें बता रहा है, “नहीं, डरो नहीं! सहमो नहीं! तुममें ताकत है, तुम करके दिखा सकते हो!" तो तुम्हारा अहंकार जागा और तुमने कहा, “हाँ, मैं करके दिखा सकता हूँ, बिलकुल कर दूँगा!"

ये सब कोई तुम्हारे साथ पहली बार हो रहा है? यही सब करते-करते तुम इस एग्जाम तक पहुँचे हो। तुम्हें दिख नहीं रहा कि इस एग्जाम को देने के बाद फिर अगला एग्जाम आएगा ज़िंदगी का—ज़रूरी नहीं है यूनिवर्सिटी का एग्जाम हो, ज़िंदगी का तो आएगा न? जो ज़िंदगी का अगला एग्जाम आएगा उसमें फिर तुम्हारी यही हालत होगी कि दो दिन बाद एग्जाम है और "हाय! हाय! पढ़ा नहीं जा रहा मुझसे।"

यही तुम ज़िंदगी भर करते रहोगे और इसमें फायदा बस उनका होगा जिनको अपनी मोटिवेशन की दुकान चलानी है। तुम उनके लाइफ-टाइम-मेंबर हो। तुम उनकी दुकान के आजीवन ग्राहक हो क्योंकि तुम्हें अब जो भी करना है अगले कदम पर, तुम्हें मोटिवेशन चाहिए।

उन्होंने कभी तुम्हें ये बताना ज़रूरी नहीं समझा कि, "बेटा पता तो कर ले कि तू कर क्या रहा है।" कोई भी मोटिवेशन बेचने वाला तुमसे कहता है कि उत्साह बाद में जगाना, नारा बाद में लगाना, उत्साह की बातें बाद में कर लेंगे पहले ये तो बताओ जो तुम करना चाहते हो वो करने लायक है भी क्या? कोई तुमसे पूछता है कि क्या तुम्हारे लक्ष्य क्या वाकई तुम्हारे हैं? तुम्हारी इच्छाएँ क्या वाकई तुम्हारी हैं? तुमने ये लक्ष्य बना कैसे लिया? तुम ये एग्जाम लिख ही क्यों रहे हो?

और जैसे ही मैं ये बोलूँगा बहुत सारे लोग, “हौ! हौ! हौ!" करना शुरू कर देंगे कहेंगे, “इतना सोचने लगे तो कुछ हो ही नहीं सकता!" नहीं, बिलकुल इतना मत सोचो फिर बहुत कुछ हो सकता है, क्या हो सकता है? वही जो आज तक होता रहा है तुम्हारे साथ और आज भी हो रहा है तुम्हारे साथ।

तुम्हें अगर इसी रास्ते पर चलते रहना है तो वही सब करते रहो जो आज तक करते रहे हो। और तुम्हारी बात बिलकुल सही है कि दो दिन बाद अगर एग्जाम है तो आज तुम्हें मोटिवेशन की ज़रूरत है। उस मोटिवेशन से तुम कर क्या लोगे? बस पास हो जाओगे, और क्या कर लोगे?

तुम्हें क्या लगता है जो लोग किसी भी परीक्षा में सबसे ऊपर बैठे होते हैं, वरीयता में वो मोटिवेशन की घुट्टी पी करके बैठे होते हैं? या बोर्ड वगैरह की परीक्षाओं में जो बिलकुल टॉपर्स होते हैं निन्यानवे और सौ प्रतिशत वाले उन्होंने मोटिवेशन का इस्तेमाल किया होता है? नहीं, मोटिवेशन का इस्तेमाल करके तो इतना ही होता है कि तुम कुछ औसत दर्जे का प्रदर्शन दे लोगे और यही औसत दर्जा तुम्हारी ज़िंदगी बन जानी है, बन चुकी है।

एक तरह का नशा है ये कि अगले दिन उठे हो और फिर दिन चलाने के लिए तुमको नशा चाहिए और नहीं मिला नशा तो अंदर की मशीनरी चलने से ही इंकार कर देती है। ऐसा मत बनने दो अपने भीतर की मशीनरी को कि वो बिना बाहरी चाबी के चलने से ही इंकार कर दे।

प्र३: मोटिवेशन तो बड़ा आसान होता है हो जाता है रियलाइजेशन क्यों नहीं होता?

आचार्य: रियलाइजेशन इसलिए नहीं होता क्योंकि तुम मोटिवेशन को बंद कहाँ होने दे रहे हो। और रियलाइजेशन इसलिए नहीं होता क्योंकि तुम उन जगहों से हटना नहीं चाहते जो तुम्हें डरा कर रखती हैं। रियलाइजेशन डर के माहौल में नहीं हो सकता। और जैसे ही कोई बात तुम्हें समझ में आनी शुरू होती है, वो जो चीज़ तुम्हें समझ आ रही है वो तुम्हारे लिए ख़तरा बन जाती है। खतरा इसलिए बन जाती है क्योंकि तुमने अपनी जिंदगी का एक ढाँचा बना रखा है। रियलाइजेशन का मतलब ही है कि तुम्हें दिखे कि वो ढाँचा गड़बड़ है।

रियलाइजेशन में हमेशा क्यों दिखेगा कि वो ढाँचा गड़बड़ है? क्योंकि वो ढाँचा गड़बड़ है तभी तो तुम मोटिवेशन माँगते रहते हो।

वो ढाँचा अगर सही ही होता तो तुम्हारा वो हाल क्यों होता जो आज है? तो ढाँचा गड़बड़ तो है ही। रियलाइजेशन में तुमको साफ दिखने लग जाता है कि कैसे-कैसे, कहाँ-कहाँ गड़बड़ है। और जो कुछ गड़बड़ है उसको हटाना पड़ेगा, उसकी जगह जो कुछ सही है वो लाना पड़ेगा। इसमें मेहनत लगती है, इसी को मैं कह रहा हूँ कीमत चुकानी पड़ती है। कौन कीमत चुकाए?

इससे अच्छा है रियलाइजेशन होने ही मत दो। डर लगता है भाई कीमत चुकाने से!

सब बेहतर हो सकते हैं। बेहतर होने में वो सब हटाना है जो बदतर है और वो ले करके आना है जो बेहतर है, यही तो करना है न? जो कुछ भी ग़लत है, क्षुद्र है और बिना किसी कीमत का है, बेमतलब, उसको हटाना है और उसकी जगह कुछ ऊँचा, सुंदर, सच्चा ले करके आना है।

इसमें दिक्कत क्या है? इसमें दिक्कत ये है कि वो जो चीज़ घटिया है वो तुम्हारी ज़िंदगी में मौजूद ही इसलिए है क्योंकि तुमने उसको आज तक घटिया माना नहीं।

हमने तो कह दिया कि रियलाइजेशन का मतलब है घटिया हटाओ बढ़िया लाओ—अभी यही कह रहे हैं न, "घटिया हटाओ बढ़िया लाओ"? पर अगर जो घटिया चीज़ है वो तुम्हारी नज़रों में घटिया होती तो तुम्हारी ज़िंदगी में मौजूद होती ही नहीं। इसका मतलब जो घटिया है उसको तुमने मान क्या रखा है? बढ़िया। यही कीमत चुकानी पड़ती है, मानना पड़ता है कि, "मैं गलत हूँ और विद्रोह करना पड़ता उन सब के ख़िलाफ जिन्होंने डरा-डरा कर तुम्हें मानने पर मजबूर किया कि घटिया चीज़ें बढ़िया हैं।

घटिया चीज़ को बढ़िया तुमने यूँ ही नहीं मान लिया है, तुम्हें मजबूर किया गया है और तमाम ताक़तें हैं जो घटिया चीज़ों को बढ़िया बता-बता करके तुम्हारे ऊपर थोप रही हैं, तुम्हारे अंदर प्रवेश करवा दे रही हैं।

अगर तुमने माना कि ये चीज़ घटिया है तो तुम सिर्फ उस चीज़ के ख़िलाफ विद्रोह नहीं कर रहे हो तुम उन सब ताकतों, उन सब लोगों के ख़िलाफ विद्रोह कर रहे हो जिन्होंने सर्वप्रथम तुम्हें ये धारणा दी थी कि घटिया चीज़ें बढ़िया हैं। हिम्मत नहीं पड़ती न इतनी। आदमी कहता है, “पता नहीं क्या नुकसान हो जाए।"

तुम ये देख ही नहीं पा रहे हो कि और क्या नुकसान होगा! तुम घटिया को बढ़िया मान कर बैठे हो और बढ़िया से दूर हुए बैठे हो इससे बड़ा और क्या नुकसान होगा? तो डर क्यों रहे हो? लेकिन डर भी हटता है किसी ऐसे का साथ करके जो निडर हो। वो माँगना पड़ता है, उसके लिए जज़्बा चाहिए, उसके लिए पहले अपनी आसपास की डरी हुई भीड़ से बाहर आना पड़ता है। वो सब करके दिखाओ, तुम्हें भी मिलेगा।

प्र४: मुझे आपकी वो बात बिलकुल अच्छी लगी जब आपने बोला कि आपके दिल में वो न्यूक्लियर रिएक्टर होता है जो शांत या अक्रिय होता है लेकिन शांत और अक्रिय है कोई शोर तो नहीं कर रहा। तो जब मैं संस्था के कार्य करता हूँ तो मुझे भी लगता है कि मैं अपने सामने वाले को बताऊँ कि अपने लक्ष्य के लिए मैं कितना प्रेरित हूँ और कितनी ऊर्जा है मुझमें लेकिन फिर मुझे लगता है कि वह भी उस नकली मोटिवेशन की तरह केवल बाहरी दिखावा हो जाएगा।

आचार्य: नहीं, आप जो काम करने जा रहे हो उस काम के लिए अगर ये जरूरी है कि किसी को जताओ कि आप मोटिवेटेड हो तो जता दो फिर वो जताना उस काम का हिस्सा है न? वो एक बिलकुल अलग सवाल है।

जिस बारे में हम अभी तक बात कर रहे थे वो इस बारे मैं था कि आपको मोटिवेशन की ज़रूरत है क्या? अभी जो आप मुद्दा उठा रहे हो वो ये है कि, "दूसरे को मैं कैसे जताऊँ कि मैं मोटिवेटेड हूँ?"

दूसरे को जताने में कोई समस्या नहीं, यह तो काम का हिस्सा है। सवाल ये है कि आपको किसी बाहरी प्रेरणा की, एक्सटर्नल मोटिवेशन की कितनी ज़रूरत पड़ती है?

वो एक दूसरा सवाल है एकदम।

इन दोनों में अंतर कर पा रहे हो कि नहीं? एक बात ये है कि, "क्या मुझे किसी एक्सटर्नल मोटिवेशन (बाहरी प्रेरणा) की ज़रूरत पड़ रही है?" और दूसरा ये है कि भाई तुम लोग बैठे हो और किसी वजह से मुझे तुम लोगों को ये आश्वस्ति देनी है कि मैं मोटिवेटेड हूँ, तो वो ठीक है, मैं वो दे दूँगा। भाई, वो काम के लिए ज़रूरी है अगर कि लोगों को ये जताना, ये समझाना, ये आश्वस्त करना कि हाँ भाई, तुम्हारा ये साथी, ये सहकर्मी, ये बॉस खुद भी मोटिवेटेड है तो मैं किसी-न-किसी तरीके से ये कम्युनिकेशन (संचार) करूँगा, वो अलग चीज़ है, वो कर लो। खुद लेकिन ऐसे मत हो जाओ न कि जिसको कुछ पता ही नहीं है करना क्या है, जानना क्या है। तो फिर इसके लिए वो बार-बार हल्का पड़ जाता है, ढीला पड़ जाता है, लुंज-पुंज पड़ जाता है और फिर कहीं जाता है तो उसको बोलना पड़ता है, “ बक अप ! उठो! हिलो! बढ़ो!" वो सब बेकार है।

प्र५: यहाँ मैं दो तरह के मन देख रहा हूँ; एक मन जिसको ऊँचाई की चाहत है कि, "मुझे कुछ बढ़िया करना है, मुझे कुछ ऊँचा उठना है" और एक और मन है जो डरा हुआ है जो कह रहा है कि “ठीक है, कुछ हो ना जाए, कुछ खराब ना हो जाए।" अब दुनिया में जैसा आपने कहा कि बड़ी तादाद में औसत दर्जे वाले लोग ही हैं तो फिर समाज की चेतना कैसे बढ़ेगी अगर ऊपर उठने की चाहत रखने वाले ही नहीं हैं?

आचार्य: पूरे समाज का मतलब होता है एक-एक आदमी। तो तुम्हारा उठेगा, फिर उसका उठेगा, फिर उसका उठेगा, उसका उठेगा, सबका उठ जाएगा।

प्र५: नहीं, यदि इनमें से एक भी आदमी है जो चाहता ही नहीं?

आचार्य: हर आदमी को सिर्फ अपनी बात करनी है। उठता इसलिए ही नहीं है क्योंकि हर आदमी दूसरों की बात कर रहा है। तुम्हारा उठेगा, इनका उठेगा, इनका उठेगा, सब अपनी-अपनी बात करेंगे सबका उठेगा।

प्र५: पर कोई है जो बेईमान है वो कह रहा है, “मैं नहीं उठाना चाहता"।

आचार्य: आम तौर पर जो अपनी बात छोड़ करके उस दूसरे की बात कर रहा है जो बेईमान है, वो आदमी खुद बेईमानी कर रहा है। उसकी बात करनी क्यों है? और तुम्हें वही आदमी क्यों याद आ रहा है? ऐसा तो नहीं कि उसको याद करके अपने-आपको अनुमति दे रहे हो बेईमान बने रहने का?

प्र६: आचार्य जी आपने इस द्वैत की बात करी मोटिवेशन और डी-मोटिवेशन वाली, तो सीधा प्रश्न है कि ये इतना प्रसिद्ध क्यों है? क्या मज़ा आता है लोगों को मोटिवेट होने में और फिर डी-मोटिवेट होने में? ये इतना ज़्यादा पॉपुलर (प्रचलित) क्यों है?

आचार्य: क्योंकि हमारी जो याददाश्त है वो क्षणिक और स्थानीय है। ये कोई बड़ी बात नहीं है। कोई घबरा न जाए। समझा देते हैं। बहुत सीधी बात है; आप जब किसी हालत में होते तो आपको बस ये पता होता है आपकी हालत क्या है। आपकी मेमोरी (याददाश्त) आपका इतना साथ नहीं देती है कि आपको ये भी याद हो कि वो हालत आपकी किन-किन वजहों से हुई है।

हम जो कहते हैं न कि आदमी की चेतना छोटी है। वो वास्तव में यही बात है कि हमारी जो मेमोरी है वो छोटी है। तो वो उदाहरण याद करो कि पड़ोस की गुप्ता आंटी ने आपको क्या करा था? डी-मोटिवेट करा था। अब आपके सामने कोई मोटिवेटर खड़ा है और उसकी बातें आपको अच्छी लग रही है। उस वक्त आपको बस ये याद है कि आपको उसकी बातें अच्छी लग रही है, आपको द्वैत का दूसरा सिरा उस वक्त बिलकुल भी याद नहीं है कि उसकी बात आपको क्यों अच्छी लग रही है।

आपको ये याद नहीं है कि आपको उसकी बात अच्छी लग रही है क्योंकि दो दिन पहले पड़ोस की आंटी ने जो चीज़ बोल दिया था वो चीज़ आपको अभी तक चुभी हुई थी। अगर आप इन दोनों बातों को एक साथ देख पाते, द्वैत के दोनों सिरों को एकसाथ, तो फिर राज़ खुल जाते। लेकिन हमारी जो मेमोरी है, जो चेतना है वो सीमित होती है। हमें पूरी बात कभी याद नहीं रहती। सबसे ज़्यादा धोखा हमें हमारी ये चेतना और स्मृति ही देते हैं। एक समय पर एक बात याद है और वही उस वक्त हमारी पूरी चेतना, हमारा जहान, हमारा पूरा संसार बन जाती है।

आप किसी से लड़ रहे हो, जिससे आप लड़ रहे हो उससे आप कल तो नहीं लड़ रहे थे। कल नहीं लड़ रहे थे मतलब कल तक वो आपके लिए बहुत बुरा आदमी नहीं था। आज जब आप उससे लड़ रहे हो तो क्या आपको ये बात याद है कि कल तक आप उससे नहीं लड़ रहे थे? ऐसा तो नहीं है कि कल तक आप बिलकुल ही बेवकूफ थे और ना लड़ कर आप ग़लत काम कर रहे थे? कल भी ना लड़ने में कुछ तो समझदारी रही होगी? और आज आप लड़ रहे हो और आज सौ प्रतिशत आपको यही बात सही लगी रही है कि लड़ना ठीक है, ज़रूरी है क्योंकि आपकी मेमोरी में, आपकी स्मृति में इस समय पूरानी बातें बहुत पीछे छूट गई हैं। आप बस वो याद रख रहे हो जो बात इस वक्त सामने है, जो बातें आपकी इन्द्रियाँ इस वक्त पर आपको अनुभव करा रही है। उसके अलावा आपको कुछ याद ही नहीं है।

तो जब सुकून मिल रही है तो उस वक्त सुकुन इतनी प्यारी लगती है, इतनी प्यारी लगती है कि हम भूल ही जाते हैं कि हमें इस सुकून की ज़रूरत ही क्यों पड़ी, इस सुकून की नौबत ही क्यों आई? ये बात हमें बिलकुल भी नहीं याद रहती।

किसी को अगर अपने सुख के, अपने प्लेज़र के क्षण में ये याद आ जाए कि सुख अच्छा लग ही क्यों रहा है, तो फिर उसको दोबारा सुख चाहिए नहीं होगा। हमें सुख या ख़ुशी इसलिए ही चाहिए होते हैं क्योंकि हम खुशी तक आ रहे होते हैं दुखी हो करके। जो खुद ही सुखी है उसे तुम सुख क्या दोगे? जो दुखी है उसी को तो सुख अच्छा लगता है न? लेकिन जब आपको सुख मिल रहा है तो उस सुख का मिलना इतना तीव्र हो जाता है, इतनी बड़ी बात हो जाती है कि आपके दिमाग को याद ही नहीं रहता कि ये सुख सिर्फ इसलिए अच्छा लग रहा है क्योंकि थोड़ी देर पहले दुखी थे।

चूँकि ये याद नहीं रहता कि थोड़ी देर पहले दुखी थे इसलिए दुख का जो मूल कारण है उसका आप कोई इलाज, कोई प्रबंध करते ही नहीं। आपकी ऊर्जा इस तरफ जाती ही नहीं कि दुःख के मूल कारण को हटाओ, आपकी ऊर्जा इस तरफ जाती है कि सुख प्यारी चीज़ है सुख खोज लो।

अगर सुख के क्षण में ये याद आ जाए कि सुख की नौबत दुःख के कारण ही आई तो फिर आप सुख के पीछे भागोगे या दुःख के कारण को हटाओगे? फिर दुःख के कारण को हटाओगे लेकिन ये हमें याद रहता नहीं है। तो डी-मोटिवेशन दुःख है, मोटिवेशन सुख है।

प्र७: आचार्य जी, जैसे हर आदमी ऊपर उठना चाहता है और बदलना चाहता है तो किसी के लिए कोई अंग्रेज़ी बोलने वाला मोटिवेशन हो सकता है तो किसी के लिए कोई ऊँचा वैज्ञानिक। तो हम यह निर्णय कैसे करें कि कोई मोटिवेशन अच्छा है कि बुरा?

आचार्य: देखिए जो चीज़ जितनी अच्छी होती है उसके दाम उतने ही ऊँचे होते हैं।

कोई बहुत अच्छा वैज्ञानिक है और वो आकर के आपको बता रहा है कि कैसे बीस साल तक अपने प्रयोगशाला में साधना करनी है तो उसने आपको बहुत ऊँची बात बता दी लेकिन साथ-ही-साथ उस ऊँची चीज़ के दाम भी बता दिए। दाम क्या है? कि, "बीस साल तक चुपचाप लग करके साधना करो और सोचो नहीं कि क्या मिल रहा है, क्या नहीं मिल रहा है और इस बीच में तुमको तमाम तरह की असफलताएँ मिलेंगी, रोना नहीं, झुकना नहीं, भागना नहीं।"

अब सुनना कौन चाहता है? दुर्भाग्य की बात है कि ज़्यादातर लोग छोटे ही खेल के खिलाड़ी होते हैं।

सब्जी मंडी में ज़्यादा भीड़ होती है या सराफा बाज़ार में? सराफा बाज़ार समझते हो? क्या? जहाँ सोने-चाँदी की दुकानें होती है। तो किसी बड़ी गहने की दुकान में तुमको ज़्यादा बड़ी भीड़ दिखती है या सब्जी मंडी में?

तो ज़्यादातर लोग क्योंकि छोटी ही चीज़ के ग्राहक होते हैं इसलिए जो कोई भी छोटी चीज़ बेच रहा होगा, वो बहुत भारी भीड़ आकर्षित कर लेगा।

आप हीरा ले करके बाज़ार में खड़े हो जाओ और उस हीरे का दाम आप बता दो एक करोड़, आपको क्या लगता है आपके चारों ओर ग्राहकों की भीड़ इकट्ठी हो जाएगी?

एक करोड़ देने वाले हैं कितने? कितने हैं एक करोड़ देने वाले?

और आप कोई घटिया चीज़ बाज़ार में लेकर के खड़े हो जाओ, दस-बीस-पचास रुपए की वो गरमा-गरम बिकेगी, चना जोर गरम! तो दिक्कत यही है कि हीरा चाहिए सबको, हर कोई कहता है, “वो ऊँचा वैज्ञानिक, वाह क्या बात है!" वो ऊँचा खिलाड़ी या कि कोई उद्योगपति हो गया या कोई भी और जिसने ज़िंदगी में कोई बड़ी कामयाबी अर्जित करी है। उनका नाम सब लेना चाहते हैं पर हीरे की एक करोड़ की कीमत चुकाने को कौन तैयार है? कीमत हम देना नहीं चाहते।

ये मोटिवेशन वगैरह ये चना जोर गरम हैं। सस्ती चीज़ें हैं तो हर कोई इनके पास पहुँच जाता है कि, "हमें भी दे दो, हमें भी दें दो!" पर उनसे लाभ भी उतना होता है जितना चना जोर गरम से होता है, उससे ज़्यादा नहीं।

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