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कभी कुछ समझ से चाहो तो! || श्वेताश्वतर उपनिषद् पर (2021)
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
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वेदाहमेतं पुरुषं महान्तमादित्यवर्णं तमसः परस्तात्। तमेव विदित्वाति मृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय॥

मैं इस अविद्यारूप तमस से दूर उस प्रकाशमय आदित्य स्वरुप परमात्मा को जानता हूँ, उसे जानकर ही विद्वान मृत्यु के चक्र को पार कर सकता है, अमरत्व प्राप्ति के लिए इसके अतिरिक्त कोई अन्य मार्ग नहीं।

~ श्वेताश्वतर उपनिषद् (अध्याय ३, श्लोक ८)

आचार्य प्रशांत: पिछले श्लोक का ही भाव इस श्लोक में भी परिलक्षित होता है। "मैं इस अविद्यारूप तमस से दूर उस प्रकाशमय आदित्य स्वरुप परमात्मा को जानता हूँ।" अब जैसा कि हमने पहले भी कहा कि ये बात तो उपनिषदों की मूल शिक्षा, वेदांत के मूल सिद्धांत के ही विरुद्ध जाती है कि परमात्मा को जाना जा सकता है। परमात्मा क्या है? अज्ञेय। उसको जाना नहीं जा सकता।

तो फिर क्या कहा गया है? सूत्र बिलकुल आरम्भ में ही छुपा हुआ है – "मैं इस अविद्यारूप तमस से दूर" बस, बात इतनी। 'इससे दूर हो गया मैं, इससे दूर हो गया मैं, इतना काफ़ी है।' तो फिर आप पूछिए कि ये फिर जो आगे की बात है, वो जोड़ी क्यों गई है? जोड़ी इसलिए गई है क्योंकि मन मानता नहीं है जब तक हाथ में कुछ आ ना जाए। शुरू में इतना ही कह दिया, "इस अविद्यारूप तमस से दूर होना है।" अविद्या का अहंकार है ये संसार, इससे दूर होना है, इतना ही भर बोलोगे अहंकार को तो वो बिलकुल तड़प जाता है। वो बोलता है 'अरे! संसार ही तो है मेरे पास, ये भी छीने ले रहे हो, तो मिलेगा क्या?'

अब जो कुछ मिलेगा, वो अभी जो है उसको छोड़कर के मिलेगा, पहले से कैसे बता दें? और जहाँ तुमने अभी जो है उसको छोड़ा, तहाँ तुम वो रह नहीं जाओगे जिसे कुछ पाने की आकांक्षा हो। मामला समझो। अभी तुम्हारे पास बहुत कुछ है, और जो कुछ तुम्हारे पास है वो तुम्हारे पास नहीं है, उसी से तुम्हारा निर्माण हुआ है। तुम पूछ रहे हो कि 'मैं ये सब छोड़ दूँगा, चलिए साहब, आप बता रहे हैं कि ये संसार यूँ ही है, अविद्यारूप तमस है; मैं इसको छोड़ दूँगा। लेकिन ये तो बता दीजिए, लाभ क्या होगा?'

अब ये जो तुम सवाल पूछ रहे हो, जानते हो इसमें तुम्हारी मान्यता क्या है? तुम्हारी मान्यता ये है कि तुम ये सब छोड़ दोगे, इसके बाद भी तुम वैसे ही बचे रहोगे जैसे तुम हो। जबकि तथ्य ये है कि तुम कुछ हो नहीं। ये सब जो तुमने इधर-उधर से पकड़ रखा है, इसी से तुम्हारा निर्माण हुआ है, और तुमने ये सब छोड़ा नहीं कि तुम बदल जाओगे। अभी तुम वो हो जिसको ये सब छूटने का डर लग रहा है। और ये सब छूटने का डर तुम्हें क्यों लग रहा है? क्योंकि तुमने ये सब पकड़ रखा है।

एक बार तुमने ये सब छोड़ा, तो तुम वो रह ही नहीं जाओगे जिसने ये सब पकड़ रखा है और जिसे डर लगता है। फिर तुम्हें ये ख़्याल ही नहीं आएगा कि 'ये छूट गया तो मेरा क्या होगा?' ये ख़्याल भी तुम्हें सिर्फ़ तब तक है जब तक तुमने छोड़ा नहीं है। लेकिन ये बात तुम्हें समझाए कौन? तो फिर ऋषि तरीके निकलकर के किसी युक्ति से कहते हैं 'चलो, किसी तरीके से इससे छुड़वाओ। इससे कुछ भी बोलकर अभी छुड़वा दो। एक बार छूट गया तो उसके बाद ये ख़ुद ही ये पूछना बंद कर देगा कि 'मुझे मिला क्या?' क्योंकि अब ये वो व्यक्ति रह ही नहीं गया जो ये था।'

पहले तुम 'अ' थे और 'अ' ने बहुत कुछ पकड़ रखा था और 'अ' का विचार ये है कि 'मैं जो पकड़े हुए हूँ, मैं छोड़ भी दूँगा, तो 'अ' रह जाऊँगा, और अगर मैं 'अ' हूँ, अभी भी और आगे भी, तो मैं तो लगातार अपनी सुरक्षा का ख़्याल करूँगा न। जैसे मैं अभी पूछ रहा हूँ कि मेरी सुरक्षा बनी रहेगी कि नहीं, मेरी दुनिया बनी रहेगी कि नहीं, वैसे ही जो आगे वाला 'अ' होगा, दो दिन बाद वाला, वो भी ये सब बातें पूछेगा।'

बाबा, एक बार तुम ये सब छोड़ दोगे, तुम 'अ' नहीं रह जाओगे, तुम 'ब' हो जाओगे और 'ब' को ये सब ख़्याल आते नहीं। लेकिन जब तक तुम 'अ' हो, तुम 'ब' होने की कल्पना भी नहीं कर पाओगे, तो तुम तो बार-बार यहीं अड़े रहोगे, 'नहीं, कुछ और दो, तभी छोड़ूँगा, कुछ और दो, तभी छोड़ूँगा।'

तो ऋषियों ने कहा "तुम ब्रह्म लो। तुम दुनिया छोड़ो, तुम्हें ब्रह्म दे रहा हूँ न।"

तुम खुश हो गए, बोले, "ब्रह्म मिलेगा?"

बोले, "बिलकुल मिलेगा, मस्त, ताज़ा।"

तुम बोले, "बढ़िया चीज़ है?"

बोले, "बढ़िया कैसे नहीं! देखो, सब ग्रंथों में ब्रह्म-ही-ब्रह्म की वंदना है, ब्रह्म-ही-ब्रह्म की स्तुति है, श्लाघा है। तुम छोड़ो तो दुनिया, तुमको स्वयं प्रकाशित ब्रह्म मिलेगा, अनंत, असीम।"

तो तुमने कहा, "ये बात कुछ ठीक लग रही है और ये ऋषि भी आदमी बुरा नहीं है। मुझे लगता है इस पर यकीन किया जा सकता है।" तो इस चक्कर में आकर तुम दुनिया छोड़ देते हो। ब्रह्म तो मिलता नहीं, लेकिन इससे पहले कि तुम शिकायत करो, तुम्हें पता चलता है कि तुम 'अ' नहीं रहे, तुम 'ब' हो गए हो। 'ब' माने ब्रह्म, अब शिकायत कैसे करोगे?

नहीं समझे? सच पूछो तो ब्रह्म एक प्रकार का धोखा ही है। बात असली ये है कि तुम दुनिया से तो बाज आओ। समझ में आयी बात? तुमने इस हाथ से दुनिया पकड़ रखी है। ऋषि सामने खड़े हैं। ऋषि कह रहे हैं, "पागल! ये तूने अपने हाथ में जलता लोहा ले रखा है, तू तड़प रहा है, ये तूने क्या पकड़ रखा है!"

तुम बोल रहे हो, "जो भी पकड़ रखा है, वो पकड़ तो रखा है, कुछ तो मिला हुआ है। तुम तो बर्बाद करके मानोगे, बोल रहे हो छोड़ दो, छोड़ दो। अरे, हमारे पास यही चीज़ है, कैसे छोड़ दें? जैसी भी है, हमारी है। अरे, लोहा होगा, कुछ होगा, है तो सही हमारे पास। कुछ तो है जिसे हम कह सकते हैं दिल के क़रीब है, अपना है। देखो, क्या बढ़िया लाल-लाल गर्मा-गर्म लोहा है! कितना प्यारा है! चुम्मी!"

और ऋषि कह रहे हैं, "बड़ा पगला आदमी है ये, अपनी आफ़त को चूम रहा है।"

तुम छोड़ने को राज़ी नहीं, तुम कह रहे हो, "इसी से ज़िंदगी है हमारी, इसी से पहचान, इसी से नाम है। इसी केंद्र से जीते हैं हम, यही परिवार है हमारा, यही कुटुंब, यही समाज, यही संसार है।"

अब वो ऋषि बड़े ताज्जुब में, कह रहे हैं, "इससे छुड़वाएँ कैसे?" बोले, "ऐसा करते हैं, तुमने ब्रह्म का नाम सुना है?"

तुम बोले, "ब्रह्म क्या है?"

वो बोले, "वही ब्रह्म जिनकी बात सब उपनिषदों में करी गई है, तमाम ग्रंथों में करी गई है, सब ऋषियों ने उन्हीं के गुण गाएँ हैं।"

"ऋषियों ने गुण गाएँ हैं?"

बोले, "हाँ, बड़े-बड़े राजा ब्रह्म के सामने झुकते थे। जनक का पता है तुमको?"

तुम बोले "राजा भी झुकते थे? राजा तो बड़ा आदमी होता है! पैसा कितना था राजा के पास?"

"बहुत सारा।"

"बहुत सारे पैसों वाला आदमी ब्रह्म के सामने झुका?"

ऋषि बोले, "हाँ, बिलकुल।"

"तो ब्रह्म माने बढ़िया एकदम ऊपर, हाईक्लास चीज़?"

बोले, "हाँ, बिलकुल।"

"अरे! तो फिर बताइए अच्छा, ये ब्रह्म कैसे मिलेगा?"

ऋषि बोले, "ब्रह्म पाने का तरीका बड़ा सीधा है; ब्रह्म दोनों हाथों से मिलता है, ऐसे नमन करके।"

"तो नमन करना पड़ेगा ऐसे करके तो माने ये छोड़ना पड़ेगा?"

"छोड़ो न, बहुत बढ़िया चीज़ मिलेगी। तुम बस छोड़ो तो सही, ब्रह्म मिलेगा।"

तुमने कहा, "ठीक है, छोड़ ही देते हैं।" यहाँ तुमने छोड़ा नहीं, तुमने नमन करा नहीं कि तुम वो रहे ही नहीं जिसको कुछ भी चाहिए था, तुम वो रहे ही नहीं जिसको ब्रह्म भी चाहिए था। तुम ब्रह्म हो गए, अब तुम ब्रह्म की माँग क्या करोगे? जो हो गया वो माँगेगा क्या?

बिलकुल जब छोड़ रहे थे तब तुम्हारी उम्मीद ये थी 'छूटा, छूटा, छूटा', इधर देख रहे थे 'ब्रह्म आया, आया क्या?' वो छोड़ने का आखिरी क्षण था जब तुमको पता चल ही गया था कि छोड़ तो सभी दिया है, मिला कुछ नहीं। उस आखिरी क्षण में बड़ी भावना उठी कि शिकायत कर दें। पर वो इतना छोटा था क्षण कि तुम शिकायत कर पाओ, उससे पहले तुम ब्रह्म हो गए। अब शिकायत करने की कोई संभावना बची नहीं; ब्रह्म को शिकायत से कोई लेना-देना नहीं। कुछ देना ज़रूरी होता है।

पहले विज्ञापन आता था, वहाँ पर एक शादी का माहौल होता था, वहाँ सब लोगों को कुछ-न-कुछ बँट रहा होता था। वास्तव में पान-मसाले का विज्ञापन था। तो जितने भी सब सामान्य कद-काठी के लोग थे, उनको छोटे-छोटे सैशे (छोटी थैली) दिए जा रहे हैं पान-मसाले के। और फिर एक आता था इधर ताड़ जैसा लम्बा, दस फुट का, बोलता था, "और मेरे लिए?" तो उसके लिए पूरा एक लम्बा सा पैकेट निकाला जाता था और उसको बोला जाता था, "आप ये लीजिए।" आपकी माँग इतनी बड़ी है कि छोटी चीज़ से आप मानेंगे नहीं, तो आप ये लीजिए। तो वैसे ही हमारी महत्वाकांक्षा इतनी बड़ी है कि मानती नहीं है छोटी चीज़ से, तो ऋषियों ने हमें क्या दिया? ब्रह्म; आप ये लीजिए।

अब फिर मुझे ये सब क्यों बताना पड़ रहा है? मुझे ये इसलिए बताना पड़ रहा है क्योंकि हम ऋषियों पर भारी पड़े हैं। ऋषियों ने तो ये सोचा था कि हम इस हाथ में दुनिया पकड़े बैठे हैं, और हमसे कहा जाएगा कि ब्रह्म तभी मिलता है जब दोनों हाथ जोड़कर प्रणाम करें, तो हम दुनिया को छोड़ देंगे।

ऋषियों को ये पता ही नहीं था कि ज़माना बदलेगा और लोग शर्ट-पैंट पहनने लगेंगे जिसमें जेब होती है। तो अब हम क्या करते हैं? दुनिया रखते हैं जेब में और हाथ जोड़कर खड़े हो जाते हैं, कहते हैं 'ब्रह्म भी मिलना चाहिए। इस जेब में दुनिया, इस जेब में ब्रह्म।' और आजकल यही कारोबार चल रहा है।

गुरु लोग आ गए हैं, तुमसे कहते ही 'नहीं दुनिया छोड़ो'। वो कहते हैं, "दुनिया इस जेब में रखो, ब्रह्म इस जेब में रखो, तुम्हें दोनों जहान मिलेंगे, *यू विल हेव बेस्ट ऑफ़ बोथ वर्ल्डस*।" और खूब चल रहा है ये धंधा। चूँकि ये धंधा खूब चल रहा है इसीलिए मेरे जैसो को बताना पड़ता है कि भाई, उपनिषदों की ऋचाएँ इसलिए नहीं हैं कि इस प्रकार का धंधा चले कि तुम दोनों ही पकड़ लो।

ब्रह्म इसलिए नहीं है कि तुम भीतर-ही-भीतर वही बने बैठे रहो जो तुम हमेशा से थे और साथ में एक अतिरिक्त चीज़ के तौर पर तुमने ब्रह्म को भी हासिल कर लिया कि, "दुनिया में मैंने बहुत चीज़ें पायी हैं, देखिए। और आप ये मत सोचिएगा कि अध्यात्म में हम कुछ नहीं हैं। बताइए, आप अध्यात्म पर चर्चा करना चाहते हैं? मैं उसमें भी आपसे बात कर सकता हूँ, मैं 'ब्रह्मविद' हूँ। बताइए, आप राजनीती पर बात करेंगे? मैं बताता हूँ न, वो फ़लाने नेता का मुझसे पूछिए। हाँ, हाँ, परसो ही मैं आधे घण्टे बैठकर आया हूँ उसके साथ, हाथ-पाँव जोड़ रहा था, कह रहा था, 'इस बार यार वो फ़लानी कम्युनिटी (समुदाय) के वोट दिला देना'।"

"खिलाड़ी, अरे! वो तो जब मैं कॉलेज में था तब आजकल जो क्रिकेट टीम का कैप्टन है, पाँच बार बोल्ड कर चुका हूँ उसको। आप क्षेत्र बताइए, मैं हर क्षेत्र में पारंगत हूँ। बताइए, पैसा? पैसा तो साहब छोड़िए, क्या बात करें आपसे! बाहर मेरी गाड़ी खड़ी है, उस गाड़ी का इस्तेमाल सिर्फ़ मैं अपनी बाकी पचास अन्य गाड़ियों का सर्वेक्षण करने के लिए करता हूँ। आध्यात्मिकता? हाँ, ब्रह्म, ब्रह्म, वो भी है, इस जेब में है।"

"फ़लाने गुरु हैं, मैं उनके पास गया, उन्होंने कहा, 'तुम ब्रह्म पाकर क्या करोगे, तुम तो ऑलरेडी (पहले से) ब्रह्म हो - दाउ आर्ट दैट (तत् त्वम् असि)।' वो हर साल आते हैं हिंदुस्तान, वो बस एक चीज़ बताते हैं – तुम तो हो ही वही। तो मैं उनके पास गया, उन्होंने कहा, 'तुम वही हो, बिलकुल वही हो! और अगर अगले साल और बड़ी गाड़ी से आओगे तो मैं कहूँगा और बड़े वाले वही हो तुम। डोनेशन (दान) का बक्सा उधर है'।"

तो ये हमने कर डाला है ऋषियों के साथ। तो आज के समय में इसीलिए बहुत ज़रूरी है कि उपनिषदों को एक नई प्रासंगिक, समसामयिक दृष्टि से पढ़ा जाए ताकि वो आज भी हमारे लिए उपयोगी रह सकें। नहीं तो आदमी की धूर्तता ने तो इन आर्ष ग्रन्थों के साथ भी बड़ा दुर्व्यवहार कर डाला। जिनको रचा ही इसलिए गया था कि हम ईमानदारी से अपने जीवन को देख सकें, उनका दुरुपयोग करके हम अपने जीवन से नज़रें चुराते रहते हैं।

फिर आगे यही बात कही है कि, "उसे जानकर ही विद्वान मृत्यु के चक्र को पार कर सकता है, अमरत्व प्राप्ति के लिए इसके अतिरिक्त कोई मार्ग नहीं।" विद्वान मृत्यु को कैसे प्राप्त करता है? अमरत्व क्या है? इसकी विस्तारपूर्वक चर्चा हम पिछले मंत्र में कर ही चुके हैं।

प्रश्नकर्ता: ग्रेस (अनुकम्पा) हमें क्यों नहीं मिलती?

आचार्य: और ग्रेस के बारे में ये भी कहा गया है न कि ग्रेस सदा उपलब्ध होती है। साथ-साथ चलो, क्या ग्रेस को ये कहा गया है कि ग्रेस कुछ ही लोगों को मिलती है और कभी-कभार ही मिलती है? ईश्वरीय कृपा या अनुकम्पा क्या ऐसी चीज़ है जो उसकी ओर से भेदभावपूर्ण तरीके से कभी किसी को मिलती हो, कभी किसी को मिलती हो? ऐसा होता है क्या?

तो ग्रेस के बारे में ये जानी हुई बात है कि वो उसकी ओर से तो सबको उपलब्ध रहती है, हम चुनाव करते हैं कि हमें चाहिए या नहीं चाहिए। तो माने उसने कुछ किया क्या? तुम्हें मिली या नहीं मिली, इसकी ज़िम्मेदारी उसकी है या तुम्हारी है? उसकी ओर से तो सबको है, पर मिलती किसी-किसी को है, क्यों? उसने तो दी है, तुम्हें चाहिए क्या? कोई चीज़ मिल जाए इसके लिए एक नहीं दो शर्तें होती हैं - उसने दी हो और साथ-ही-साथ तुम्हें चाहिए हो। उसने तो दी, तुम्हें चाहिए क्या?

तो यहाँ पर भी वो अकर्ता है। उसे कोई लेना-देना नहीं, उसने तो चीज़ दे दी। उसने अभी नहीं दी है, उसने तुम्हारे प्रथम क्षण से तुम्हें ग्रेस दे रखी है। तुम लेते हो या नहीं लेते हो, ये तुम्हारा निर्णय है।

क्या है ग्रेस ?

तुम्हारी सामर्थ्य कि तुम अपनी उच्चतम संभावना को पा सको, ये ग्रेस है। और ये सामर्थ्य तुम्हें पहले से मिली हुई है कि नहीं मिली हुई है? पोटेंशियल (क्षमता)। तुम उसका इस्तेमाल करते हो या नहीं करते हो, ये तुम जानो। उसने अपनी ओर से दे रखा है। तुम्हारे माँगने की कोई ज़रूरत नहीं कि तुम कहो कि 'कृपा करना, तुम्हारी अनुकम्पा से ही आगे बढूँगा।' ना, उसने तो दे ही रखा है, उससे क्या माँग रहे हो!

अपनी बात करो कि उसकी दी हुई चीज़ को भी तुम ग्रहण करके सम्मानपूर्वक प्रयुक्त क्यों नहीं कर रहे, ये पूछो। ये ना कहो कि 'अरे! ग्रेस नहीं मिली।' ऐसा नहीं है। ग्रेस सदा है, अनंत है, बेशर्त है। बाधा और शर्त तुम्हारी ओर से है।

प्र२: सही प्रेम क्या है फिर?

आचार्य: जो एक अतृप्ति की हालत में हो, उसके लिए सही प्रेम उसी से है जो उसे तृप्ति दे सकता हो। यही व्याख्या है, यही परिभाषा है उचित प्रेम की; जिसकी ओर जा रहे हो वो भूसा है या कस्तूरी? प्रेम और क्या होगा?

देखो, संत का या मुक्तपुरुष का प्रेम इसलिए नहीं होता कि उसे मुक्ति चाहिए, अंतर समझना, उसका प्रेम इसलिए है क्योंकि उसको कुछ ऐसा प्राप्त हो गया है भीतर-ही-भीतर, जिसका स्वभाव है विस्तीर्ण होना, बँटना। तो उनकी बात अलग है।

हमारे तल पर हमारा प्रेम कैसा होगा? हम बाँटने के तो क़ाबिल ही नहीं हैं, हमें तो पाना है। सवाल ये है कि हम पाने की उम्मीद किससे रख रहे हैं, भूसे से या कस्तूरी से?

तो जब मैं कह रहा हूँ कि उपनिषदों के पास प्रेमपूर्वक जाओ तो उससे मेरा आशय है कि ये याद रखकर जाओ कि तुम्हें जिस चीज़ की कामना है वास्तव में, वो तुम्हें उपनिषद् से ही मिलेगी। जिस कस्तूरी की तुम तलाश में हो वो उपनिषदों में ही है।

प्र३: कौनसी उपलब्धि ऊँची मानी जाएगी?

आचार्य: नहीं, इसमें कोई ऐसा नियम नहीं है कि फ़लानी उपलब्धि ही ऊँची-से-ऊँची कही जाएगी। उपलब्धि से ज़्यादा अच्छा शब्द इस संदर्भ में है 'उत्कृष्टता'। कुछ तो ऐसा करो जो तुमने जान लगाकर करा हो। किसी चीज़ को तो जी-तोड़ तरीके से करो न। कोई उपलब्धि तो ऐसी हो जो तुमने दिल से चाही थी, पा भी ली और फिर जो अनुभव हुआ वो बहुत बातें बता गया।

कुछ ऐसा नहीं है कि ऊँची-से-ऊँची उपलब्धि का मतलब है कि कम-से-कम इतने रुपए तो कमाओ ही, या दुनिया की राजनीति में कम-से-कम इतना स्थान तो तुम पाओ ही; वो नहीं है। उसका अर्थ सब्जेक्टिव (व्यक्तिनिष्ठ) है, तुमसे संबंधित है। तुम्हें कोई ऐसा अनुभव होना चाहिए, जिसमें तुमने कुछ अर्जित करना चाहा, जिस वस्तु को तुम अर्जित करना चाह रहे हो उससे तुमने बहुत आशा रखी, जो जीतना था उसको जीता भी, एक नहीं, दो बार, चार बार जीता और उस अनुभव ने ही तुम्हें सिखाया कि इस तरह की जीतें न अभी दे पाईं कुछ, न आगे दे पाएँगी कुछ।

निश्चितरूप से हम ये नहीं कह रहे हैं कि तुम सारा जीवन उपलब्धियाँ ही पाने में लगा दो कि 'जब तक मैं इतनी उपलब्धियाँ नहीं पाऊँगा तब तक मैं पार कैसे जाऊँगा?' बिलकुल सही सवाल है कि अगर उपलब्धियों की ही कतार लगाकर के ही कोई पार जाता है, तो ज़िंदगी के सत्तर-अस्सी बरस तो बहुत कम पड़ जाएँगे।

उपलब्धियों के पार लगाने की बात नहीं हो रही है। एक ऐसी ज़िंदगी जीने की बात हो रही है जिसमें जज़्बा हो। टूटकर कुछ चाहने की बात हो रही है, चाहे वो यही हो कि आप एक मैच खेल रहे हो और आपका शरीर नहीं साथ दे रहा है और आप पीछे भी चल रहे हो, लेकिन आपने अपने-आपसे बोल दिया है कि 'ये तो मैं ही जीतूँगा।' और आप जीत भी लिए। और उस जीत के बाद का जो सूनापन है, उसका अनुभव आपको कुछ सिखा जाएगा। इतनी सी उपलब्धि भी काफ़ी होगी। पर कुछ तो ऐसा हो न आपकी ज़िंदगी में जिसको आपने टूटकर चाहा हो और टूटकर चाहने की कीमत आपने अदा करी हो।

अधिकांश लोग कुछ भी नहीं चाहते दिल-ओ-जान से, जिसे कहते हैं न प्राण-प्रण से चाहना। उनके लिए सबकुछ ऐसे ही होता है, गुनगुना सा; मिल गया तो ठीक, नहीं मिला तो भी उन्हें बुरा नहीं लगता। इसीलिए मुझे बड़ा भीतर से क्लेश उठता है, बड़ी निराशा उठती है जब मैं किसी जवान आदमी को पाता हूँ कि उसे हार से कुछ बुरा ही नहीं लग रहा, कोई चोट ही नहीं लग रही। ये वो आदमी है जिसकी ज़िंदगी में प्रेम नहीं है, जिसने प्राणों से कभी कुछ भी चाहा ही नहीं है।

क्योंकि भीतर चोट भी तब लगती है न जब पहले तुमने कुछ माँगा हो, ख़्वाहिश की हो, जान लगाई हो और पाया ना हो। अब कोई आपके सामने है जिसको हार मिल गई तो भी वो ठीक है, "हे-हे-हे!" जीत मिल गई तो भी वो ठीक है, "हे-हे-हे!" ऐसा आदमी कुछ नहीं पाएगा; ना संसार में कुछ पाएगा, ना सत्य पाएगा।

और ये कोई संतत्व नहीं है कि 'साहब! हम तो हार-जीत में समभाव से रहते हैं।' वो संतत्व बहुत आगे की बात है, उसका नाम लेना ऐसे लोगों को शोभा भी नहीं देता। ये वो लोग हैं जो गई-गुज़री हालत में हैं पर जिनको सुधरने की कोई आकांक्षा भी नहीं। ये पूर्णता पर नहीं पहुँच गए हैं, ये अपूर्णता में धँसे हुए हैं और उस अपूर्णता से इनको कोई आपत्ति भी नहीं। वो आपत्ति होनी बहुत ज़रूरी है, भीतर से रोष उठना, आक्रोश उठना बहुत ज़रूरी है। बहुत बुरा लगना चाहिए।

हार हो तो वो दिल को छलनी कर जाए, कचोटती रहे बहुत दिनों तक। बार-बार पूछो अपने-आपसे, "क्या किया मैंने जो हार मिली?" और उसके बाद अपना सर्वस्व लगा दो जीत के लिए। उसके बाद जो जीत मिलती है, वो जीत तुम्हें बताती है कि इस जीत से काम चलेगा नहीं; आगे जाना पड़ेगा। जो ज़िंदगी में जीतने के लिए ही कुछ दाँव पर लगाने को तैयार नहीं है, ऐसे ही है बस अपना लुचुर-पुचुर, उसको कुछ नहीं मिलता।

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