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कितना कमाएँ, किसलिए कमाएँ?
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
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प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, जो आप कमाई की बात कर रहे हैं कि "जो समय बीत रहा है उसमें कमाई क्या करी?" तो, क्या इसका मतलब सिर्फ जो ये षडरिपु हैं, इनसे छुटकारा है?

आचार्य प्रशांत: बस यही, और कुछ भी नहीं, कुछ भी नहीं। असल में, कमाई का और कोई अर्थ होता भी नहीं है।

कबीरा सो धन संचिए, जो आगे को होय।

जो तुम्हें आगे ले जा सके, किससे आगे ले जा सके? शरीर से, प्रकृति से जो आगे को ले जा सके, उसी का नाम धन है। धन और कुछ नहीं होता। रुपये, पैसे, करेंसी (मुद्रा) को धन नहीं कहते, भाई। धन की जो व्युत्पत्ति भी है, वो क्या है?

जो तुम्हें धन्यता देदे, सो धन।

इसीलिए परमात्मा को संतजन क्या बोलते हैं? धनी साहब। क्या नाम बोलते हैं उनका? धनी।

कबीर साँचा सूरमा, लड़े धनी के हेत। पुरजा-पुरजा कट मरे, तबहुँ ना छाड़े खेत।।

ये "लड़े धनी के हेत" माने क्या? पैसा लेकर लड़ता है? मर्सनरि (भाड़े का सैनिक) है? ये कैसी बात हो गई?

कबीर साँचा सूरमा, लड़े धनी के हेत।

कबीर साहब, सच्चा सूरमा वो है जो धनी के लिए लड़ रहा है। "धनी के लिए लड़ रहा है" माने क्या? सुपारी लेता है? ये क्या मतलब है? धनी माने कौन?

प्र: परमात्मा।

आचार्य: और जब तुम उसके लिए लड़ते हो तो शरीर की परवाह नहीं करते क्योंकि शरीर था ही इसीलिए कि उसके लिए लड़ो। तो फिर पुर्ज़ा-पुर्ज़ा कट मरे, शरीर के टुकड़े-टुकड़े भी हो जाएँ, तो भी खेत—खेत माने क्षेत्र, रणक्षेत्र—को नहीं छोड़ता।

पुर्ज़ा-पुर्ज़ा कट मरे, तबहुँ ना छाड़े खेत।।

क्योंकि शरीर बचाने के लिए शरीर थोड़े ही मिला था। तुम्हारी टंकी में पेट्रोल क्यों डलवाया है? ताकि पेट्रोल फिर एक दिन अपनी चिता पर डालो? तुम्हारी टंकी में पेट्रोल डलवाया इसलिए कि उससे तुम्हारी चिता की लपट उठे? काहे को डलवाया था? खर्च करने को, भाई।

इससे पहले कि तुम्हारी लाश जले, तुम वो पेट्रोल जला दो। यही उसकी सार्थकता है, यही औचित्य है। तो इस शरीर को भी पेट्रोल की तरह जानो। चेतना गड्डी है, शरीर पेट्रोल है। पीना नहीं है पेट्रोल, जलाना है। धन का मतलब समझ गए? हर वो चीज़ जो तुम्हें तुम्हारी मंज़िल की तरफ ले जा सके, उसका नाम है धन। जेब गरम करने का नाम धन नहीं होता। बैंक अकाउंट खुलाने का नाम धन नहीं होता।

जो कुछ भी तुम्हें मुक्ति की ओर ले जाए, उसका नाम धन है।

ज्ञान धन है, बल धन है। जिसको हम रुपया-पैसा कहते हैं वो भी धन हो सकता है अगर उसका इस्तेमाल मुक्ति के लिए किया जा रहा हो। जिस भी चीज़ का तुम सही इस्तेमाल सही उद्देश्य के लिए कर सको, वो धन है।

तो निर्धन कौन है?

जो अपने संसाधनों का उपयोग मुक्ति के लिए नहीं कर रहा, वो निर्धन है।

अन्तर समझना। मैंने नहीं कहा कि "जिसके पास संसाधन नहीं है, वो निर्धन है।" मैं कह रहा हूँ, "जो अपने संसाधनों का उपयोग मुक्ति के लिए नहीं कर रहा, वो निर्धन है।"

साहित्य में एक मुहावरा चलता है, "गिलहरी योगदान।" जब आपके पास बहुत संसाधन नहीं होते, लेकिन अपने संसाधनों का सही इस्तेमाल कर रहे होते हैं, तो उसको मालूम है क्या बोलते हैं? "गिलहरी योगदान।" जैसे गिलहरी के पास इतना ही संसाधन था कि वो दो-चार कण रेत के ले जा पाती थी सागर पर पुल बनाने के लिए राम का, पर वो जितना कर सकती थी उतना उसने शत-प्रतिशत किया। तो जब किसी के पास बहुत नहीं होता, पर जितना भी होता है वो उसका सार्थक इस्तेमाल कर रहा होता है, तो उसको कहते हैं गिलहरी योगदान। ये हुई धन्यता।

फर्क इससे नहीं पड़ता तुम्हारे पास कितना है; फर्क इससे पड़ता है कि तुम्हारे पास जो कुछ है, उसका तुमने इस्तेमाल क्या किया।

जो अपने संसाधनों का सही इस्तेमाल कर रहा है वो धनी है, उसी के पास धन है। और जिसके पास कम हो चाहे ज़्यादा हो, पर वो अपने संसाधनों का गलत इस्तेमाल कर रहा है, वो महानिर्धन है।

धनवान उनको मत बोल देना जो तोंद में पैसा छिपाए घूमते हैं। धनवान वो हैं जिनके पास जितना भी है उसका सही इस्तेमाल करना जानते हैं; वो धनवान हैं।

धन तुम्हारा संसाधन तभी है जब वो धनी के लिए इस्तेमाल हो, नहीं तो तुम्हारा संसाधन धन नहीं है; संसाधन तो है, पर धन नहीं है।

मिलें अमीर लोग उनसे कहना "आप संसाधनयुक्त हैं पर आप धनी नहीं हैं, धनी तो हम हैं"।

प्र: छोटा सा प्रश्न है आचार्य जी। कि, प्रकृति के तीन गुणों का इस्तेमाल कैसे करना है ऊपर जाने के लिए? कोई व्यवहारिक उदाहरण हो, कोई जो आप बता सकें।

आचार्य: नीचे क्या पकड़े हैं इसकी बात करनी होती है। उसकी बात करे बिना ऊपर की बात करना बहुत बचकाना है। वास्तव में ऊपर कुछ नहीं है, जो तुम्हें नीचे जाने से रोके वही सबकुछ है। उसी पर ध्यान लगाना है, उसी पर अपनी चेतना की लपट लगा देनी है बिलकुल। ऊपर क्या है—कुछ नहीं।

हम ऐसे हैं जैसे गैस का गुब्बारा। ऊपर क्या है? ऊपर क्या है बताओ न? ऊपर तो कुछ भी नहीं है, खाली आकाश है, ऊपर की क्या बात करें? पर उस गुब्बारे को नीचे पाँच-छह जगह से बाँध दिया गया है, उसे बात किसकी करनी चाहिए?

प्र: नीचे की।

आचार्य: या ऊपर की बात करें? ऊपर तो कुछ भी नहीं है। तो हम तुम्हें क्या बताएँ कि "ऊपर जाने का मतलब क्या है, मुक्ति का अर्थ क्या है?" ऊपर जाने का कोई मतलब नहीं, मुक्ति का कोई अर्थ नहीं। पर नीचे पीड़ा है, कष्ट है, बंधन है; उनकी बात करो। उन्हीं से जो मुक्त हो गया, वो ऊपर पहुँच जाता है।

प्र: आचार्य जी प्रश्न है। आत्मा तो प्रकृति के पार है, उसी का एक रूप हमें पूर्ण चेतनारूप में मिला। लेकिन त्रिगुणी प्रकृति से संबंध जोड़ स्वयं को अहम् मान लिया। शरीर मिला है चेतना को अपनी वास्तविक पहचान तक ले जाने के लिए। तो, आत्मा तो मुक्त है ही, हमारी मुक्ति का अर्थ क्या यही है कि जीवन जिया स्वयं को, क्या मानकर? मुक्ति ना आत्मा की है, ना शरीर की; सिर्फ जीवन की मुक्ति, या और कुछ भी है?

आचार्य: जिसको 'मैं' बोलते हो उसकी मुक्ति। इसमें इतना मुश्किल क्या है? 'मैं' ही तो बंधन में है न? क्या बोलते हो "मेरा शरीर फँसा हुआ है"? जब भी तुमने कभी अपने कष्ट की बात करी है, क्या बोलकर करी है? तुम तकलीफ में हो या कोई और झंझट है, तो क्या बोलते हो ज़रा बोलो?

क्या बोलते हो?

बोलो, हाँ, क्या बोलोगे? "मैं तकलीफ में हूँ।"

और कैसे बोलोगे? "मैं झंझट में हूँ।"

और कैसे बोलोगे? "मुझे सरदर्द है।"

और क्या बोलोगे?

या, ये बोलोगे कि "सरदर्द को 'मैं' हूँ" या ये बोलोगे "सर को दर्द है"? तुम ये क्यों नहीं बोलते हो, "सर को दर्द है"? तुम बोलते हो, "मुझे सरदर्द है।" इन दोनों बातों का अंतर समझो न, इसी से समझ जाओगे कि फँसा हुआ कौन है।

कौन फँसा हुआ है?

'मैं' फँसा हुआ है—'मैं', 'मैं'।

वो जो हमारी चेतना के केंद्र पर बैठा हुआ है, वो फँसा हुआ है।

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