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लेख
महर्षि वाल्मीकि

आज महर्षि वाल्मीकि जयंती का सुअवसर है। इससे बेहतर शायद ही कोई मौका मिले भारत के आदिकवि को जानने के लिए। इसलिए आज हम उनके विषय में कुछ महत्वपूर्ण बातें आपके साथ साझा करना चाहते हैं:

महर्षि वाल्मीकि का योगदान

~ भारत व सनातन धर्म में महर्षि वाल्मीकि का योगदान अतुलनीय है। उनकी दो मुख्य रचनाएँ ‘रामायण’ व ‘योगवासिष्ठ’ ने दोनों अलग-अलग मार्गों से आमजनमानस तक वेदांत की गहरी सीख को सरलता से पहुँचाया। ये दोनों ही ग्रंथ काव्य के रूप में रचित हैं, जिससे सदियों से अध्ययन करने वालों के मन पर अपनी सुमधुरता के कारण अंकित हैं और आज भी हम सभी के बीच मौजूद हैं।

~ जहाँ रामायण श्रीराम की जीवन गाथा से हमें सनातनी सूत्रों से अवगत करवाती है। दूसरी और योगवासिष्ठ हमें श्रीराम और उनके गुरु वसिष्ठ के बीच हुई वेदांत-चर्चा को प्रस्तुत करके वेदांत के रस को कहानियों के माध्यम से हमारे लिए सुलभ बनाती है।

लोहजंघ बने वाल्मीकि या रत्नाकर बने वाल्मीकि?

महर्षि वाल्मीकि के जन्म को लेकर दो मान्यतायें प्रचलित हैं:

~ पहली, स्कन्द पुराण की मानें तो: महर्षि कश्यप और अदिति के नवम पुत्र वरुण (आदित्य) से इनका जन्म हुआ। इनकी माता चर्षणी और भाई भृगु थे। वरुण का एक नाम प्रचेत भी है, इसलिये इन्हें प्राचेतस् नाम से उल्लेखित किया जाता है। उपनिषद के विवरण के अनुसार ये भी अपने भाई भृगु की भांति परम ज्ञानी थे। एक बार ध्यान में बैठे हुए इनके शरीर को दीमकों ने अपना ढूह (बाँबी) बनाकर ढक लिया था। साधना पूरी करके जब ये दीमक-ढूह से, जिसे वाल्मीकि कहते हैं, बाहर निकले तो लोग इन्हें वाल्मीकि कहने लगे।

~ दूसरी, पुराणों में पाया जाने वाला दूसरा विवरण: इस विवरण के अनुसार उनका नाम रत्नाकर था, जो कि एक डाकू था। यात्रियों को मारकर उनके धन से अपना परिवार पालते थे। एक दिन नारदजी भी इनके चक्कर में पड़ गए।

जब रत्नाकर ने उन्हें भी मारना चाहा तो नारदजी ने पूछा, “जिस परिवार के लिए तुम इतने अपराध करते हो, क्या वह तुम्हारे पापों का भागीदार बनने को तैयार है?”

रत्नाकर नारदजी को पेड़ से बांधकर इस प्रश्न का उत्तर जानने के लिए घर गए। वे यह जानकर स्तब्ध रह गए कि परिवार का कोई भी व्यक्ति उनके पाप का भागीदार बनने को तैयार नहीं है। लौटकर उन्होंने नारदजी के चरण पकड़ लिए और डाकू का जीवन छोड़कर तपस्या करने लगे। इसी में उनके शरीर को दीमकों ने अपना घर बनाकर ढक लिया, जिसके कारण वे वाल्मीकि के नाम से प्रसिद्ध हुए।

कुछ लोगों का अनुमान है कि हो सकता है, महाभारत की भांति रामायण भी समय-समय पर कई व्यक्तियों ने लिखी हो और अंतिम रूप किसी एक ने दिया हो और वह वाल्मीकि की शिष्यपरंपरा का ही हो।

शोक से उठा था पहला श्लोक!

~ अपने शिष्य भारद्वाज के साथ वाल्मीकि तमसा नदी के तट पर नहा रहे थे। तभी उन्होंने व्याध द्वारा नदी में तैरते क्रौंच पक्षी के जोड़े में से एक को मारते हुए देखा। इस दृश्य से वे बहुत आहात हुए और शोकाकुल होकर उन्होंने व्याध को जो बोला उसे ही संस्कृत में बोला गया पहला श्लोक माना जाता है। ये उद्गार लौकिक छंद में एक श्लोक के रूप में थे।

“मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः। यत्क्रौञ्चमिथुनादेकमवधीः काममोहितम्॥”

~ ये पूरी घटना उनके मन में उस श्लोक के माध्यम से बहुत समय तक बसी हुई थी, अपनी पीड़ा के विषय में जब उन्होंने नारदजी को बताया तो उन्होंने उन्हें श्रीराम की कथा सुनाई और उसे काव्य के रूप में प्रस्तुत करने की प्रेरणा दी। अपने पहले श्लोक को आधार बनाते हुए उन्होंने पूरे महाकाव्य की रचना की।

रामायण: श्रीराम का जीवन

~ रामायण संस्कृत के सबसे बड़े महाकाव्यों में से एक है, इसमें 24,000 श्लोक हैं, जिन्हें 7 काण्ड और 500 सर्ग में विभाजित किया गया है। तुलनात्मक दृष्टि से देखें तो यह महाभारत के एक-चौथाई भाग के बराबर है व होमर के इल्लिआड के चार गुने के बराबर है।

~ शोधकर्ताओं की माने तो इसकी रचना 700 बी.सी. से लेकर 300 ए.डी. तक हुई। परंतु क्योंकि ये महाकाव्य एक स्मृति ग्रंथ है इसलिए कहा जा सकता है कि रामायण ग्रंथ की रचना से भी पहले से श्रीराम की ये कथा आमजनमानस में प्रचलित रही होगी, जिसे महर्षि ने एक सुमधुर व सुव्यवस्थित प्रारूप दिया।

~ आज के समय में रामायण के 300 से अधिक संस्करण व 2000 से अधिक हस्तलिखित प्रतियाँ उपलब्ध हैं। जो पिछले हज़ारों सालों में समय-समय पर रचे गए। बरोदा स्थित, एक संस्थान द्वारा 24 साल तक ऐसे सभी संस्करणों की समीक्षा के बाद इस ग्रंथ का वो रूप संकलित किया गया जो आज के समय में प्रकाशन में है।

~ पश्चिमी भाषाविदों की मानें तो रामायण काल में ऐसे शैली व ऐसा काव्य दुनिया के किसी भी कोने में आज तक नहीं रचा गया है।

~ यह ग्रंथ अपनी हज़ारों वर्षों की यात्रा के बाद आज भी हमारे जीवन में प्रकाश का एक स्रोत है।

योगवासिष्ठ: श्रीराम का दर्शन

~ महाभारत के बाद यह संस्कृत का सबसे बड़ा ग्रंथ है, इसमें 29,000 से अधिक श्लोक हैं, जिन्हें 6 प्रकरणों व 458 सर्गों में विभाजित किया गया है। योगवासिष्ठ के 6 प्रकरण कुछ इस प्रकार हैं:

  1. वैराग्य प्रकरण (33 सर्ग)
  2. मुमुक्षु व्यवहार प्रकरण (20 सर्ग)
  3. उत्पत्ति प्रकरण (122 सर्ग)
  4. स्थिति प्रकरण (62 सर्ग)
  5. उपशम प्रकरण (93 सर्ग)
  6. निर्वाण प्रकरण (पूर्वार्ध 128 सर्ग और उत्तरार्ध 216 सर्ग)

~ योगवासिष्ठ संस्कृत साहित्य में वेदान्त का अतिमहत्वपूर्ण ग्रन्थ है। इसमें महर्षि वसिष्ठ ने भगवान राम को निर्गुण ब्रह्म का ज्ञान दिया था जिससे वो संसार में रहकर भी जीवन-मुक्त होकर रह पाए। इसी वसिष्ठ-राम संवाद को महर्षि वाल्मीकि ने जनकल्याण के लिए संकलित किया। जिसे आज हम योगवासिष्ठ के नाम से जानते हैं।

~ महर्षि वसिष्ठ वैदिक काल के विख्यात ऋषि हैं, साथ ही वे ‘सप्तर्षि’ में से एक हैं। वह योगवसिष्ठ में राम के गुरु और राजा दशरथ के राजकुल गुरु भी थे। ग्रंथ के वैराग्य प्रकरण में उपनयन संस्कार के बाद प्रभु रामचन्द्र अपने भाइयों के साथ गुरुकुल में अध्ययनार्थ गए। अध्ययन समाप्ति के बाद तीर्थयात्रा से वापस लौटने पर रामचन्द्रजी विरक्त हुए। महाराज दशरथ की सभा में वे कहते हैं, “वैभव, राज्य, देह और आकांक्षा का क्या उपयोग है। कुछ ही दिनों में काल इन सब का नाश करने वाला है”। अपनी मनोव्यथा का निवारण करने की प्रार्थना उन्होंने अपने गुरु वसिष्ठ और विश्वामित्र से की।

~ दूसरे मुमुक्षुव्यवहार प्रकरण में विश्वामित्र की सूचना के अनुसार वसिष्ठ ऋषि ने उपदेश दिया है। ३-४ और ५वें प्रकरणों में संसार की उत्पत्ति, स्थिति और लय की उत्पत्ति वार्णित है। इन प्रकारणों में अनेक कहानियों के माध्यम से वेदांत-चर्चा की गई है। छठे प्रकरण का पूर्वार्ध और उत्तरार्ध में विभाजन किया गया है। इसमें संसारचक्र में फँसे हुए जीवात्मा को निर्वाण अर्थात असीमित आनन्द की प्राप्ति का उपाय दिया गया है।

~ यह ग्रंथ अपनी हज़ारों वर्षों की यात्रा के बाद आज भी हमारे लिए वेदांत को सुलभ बनाता है।

महर्षि वाल्मीकि को नमन!

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